फौजी पिता
अख़बारों में मिले
हमने सीने फुलाए
दिखती थी छब्बीस जनवरी को
उनकी टुकड़ी
दूरदर्शन पर
राजपथ की धुन्ध में क़दमताल करती
हमने सीने फुलाए
कभी न हारने वाले
जाबाँज सैनिक की तरह
वे कई बार
देशभक्ति की फ़िल्मों में थे
हमने सीने फुलाए
पिता
मेरे लिए
बी०एड० की प्रवेश-परीक्षा में
दस नम्बर का अतिरिक्तांक थे
देश के लिए
एक सैनिक थे वे
मरने के दिन वह
एक दिन के लिए बने पिता
जिन्हें छूते हुए मैं
देर तक ताकता रहा उनका चेहरा
वो वैसे थे ही नहीं
जैसा पढ़ाया और दिखाया गया था
सैनिकों के बारे में
एक जर्जर शरीर था उनका
ऐसा कि जैसे लगाम बँधा थका घोड़ा
जिसके खुर नाल ठोकते ठोकते
घिस चुके थे
उनके मुँह से बहता हुआ झाग
मृत्यु के वक्त भी
देश की बात करता था
वही देश जिसके पास
पिता छोड़ आये थे
जवानी के सबसे ख़ूबसूरत दिन
नसों में बहता गर्म ख़ून
जिस देश को मैंने
समाचार-चैनलों व अख़बारों में पढ़ा था
उसी देश को सुना था पिता ने
अपने अधिकारियों के मुँह से
मैं पिता को देखते हुए
इतना ही समझ पाया
देश के बारे में
कि पिता ने अपने अधिकारियों को देखकर
फुलाया था सीना
मैंने उन्हें देखकर
काले रंग का तमलेट
सिलवर का टिप्पन
‘चहा’ पीने वाला सफ़ेद कप्फू
एक हरिए रंग की डांगरी
बगस के किनारे
सफ़ेद अक्षर में लिखे
नाम थे
पलटनिया पिता
बगस के भीतर रखे उस्तरे
ब्लेड, फिटकरी का गोला
सुई, सलाई,
राईफ़ल को साफ़ करने वाला
फुलतरा और तेल
कालाजादू बिखेरते फौजी कम्मबल
हुस्की, ब्राण्डी, और रम की
करामाती बोतल थे
पलटनिया पिता
धार पर से ढलकती साँझ
पानी के नौलों (चश्मों) में चलकते सूरज
चितकबरे खोल में लिपटे
ट्राँजिस्टर पर बजते
नजीबाबाद आकाशवाणी थे
पलटनिया पिता
पलटनिया पिता के
खाने के दाँत और थे
और दिखाने के दाँत और
देशभक्ति उनके लिए
कभी महीने भर की पगार
कभी देश का नमक
कभी गीता पे हाथ रख के खाई क़सम परेट थी
कभी दूर जगंलों में राह तकती
घास काटती ईजा (माँ)
कभी बच्चों के कपड़े लत्ते जैसी थी
आयुर्वेदिक थी देश भक्ति
च्यवनप्रास के डब्बे-सी
आधुनिक थी देशभक्ति
मैगी के मसाले-सी
लाईबाय साबुन की तरह
जहाँ भी हो
तन्दुरुस्ती का दावा करती-सी
इसके अलावा वो हमें मिले थे
कई बार
कई-कई बार
मसलन
फ़िल्मों में
और तारीख़ों में
पन्द्रह अगस्त की तरह
छब्बीस जनवरी की तरह
कुहरीले राजपथों में
जोशीले युद्धों में
पंक्तियों में
कतारबद्ध चलते हुए
हाँके जाते हुए।
पलटनिया पिता
तुम जब लौटोगे
भूगोल और देश की सीमाओं से
कभी मनुष्यता की सीमा के भीतर
जेब से बटुआ निकाल लोगे
निहार लोगे
ईजा (माँ) की फोटुक
बच्चों की दन्तुरित मुस्कान
जाँच लोगे मेहनत की कमाई
एक दिहाड़ी मजदूर की तरह
कहीं किसी पहाड़ी स्टेशन में
(जो अल्मोड़ा भी हो सकता है)
उतरोगे बस से
बालमिठाई के डब्बों के साथ
पहुँचोगे झुकमुक अंधेरे में
अपने आँगन
मिठाई के डब्बे से
निकाल लोगे एक टुकड़ा मिठाई
मुलुक मीठी मिठाई-सा
घुल आयेगा बच्चों की
जीभ पर
जबकि देश पड़ा रहेगा
लौट जाने तक
रेलवे टिकट के भीतर
या संसद में होती रहेगी
उसके संकटग्रस्त होने की चर्चा
फिर एक बार
क्योराल[1] खिल उठा है
जबकि अब भी बह रहा है
ह्यूँ-गल[2]
राम नदी के जल में
रेवाड़ी हवाओं से उड़ रही है रेत
भूखे पेट-सी
मरोड़ वाला भँवर बनाते हुए
सरसों के विरुद्ध
खड़ा है चीड़ का पीला क्यूर[3]
मछुवारे निकल पड़े हैं
हाथों में डोरी लिए
बल्सी के मुँह पर
चारा लगाते हुए
सबकुछ जानते, समझते हुए
पीली गदराई चखट्टे वाली महासीर[4]
चलने लगी है उकाल[5] की तरफ़
राम नदी के बहाव की
विपरीत दिशा में!
बाँज[6] के पेड़ों पर
सुनहरा पलाँ[7] फूट रहा है
इस वक्त,
गेहूँ की नन्हीं बालें
ओलों से लड़ रही हैं खुले आम
आसमान बने दरिन्दे समय के विरुद्ध!
धार[1] पर सूरज चढ़ने से पहले
बकरियों के खुर के निशानों में
खिलेगा ओस का फूल
पीतलिए खाँकर[2] की धुन में
नाचेगी गौरैया,
आहा!
कैसा समय है यह
उदासियों के कोख में जो बच्चे पल रहे हैं
वे बड़े होंगे एक दिन
अपनी कंचों भरी जेबों में समय को ठूँसते हुए
पार करेंगे उम्र
बनेंगे प्रेमी / प्रेमिकाएँ
दिलाएँगे उम्र भर साथ निभाने का विश्वास
एक दूसरे को
पहचानेंगे ख़ामोशी की जुबाँ
उदासियों का मतलब
जेबों से निकालेंगे समय
और कंचों की तरह बिखेर देंगे
इतिहास के पृष्ठों पर
प्योली[1] व चिड़िया
वह खिली
बसन्त के पहले दिन
किसी पथरीली ज़मीन पर
इसी तरह होता है पुनर्जन्म
स्त्री का।
मेरी इजा[2] का तो यहाँ तक
विश्वास है कि
स्त्री मरने के बाद चिड़िया बनती है
या फिर बनती है फूल।
वह बदला नहीं लेती
फूल बनना ही होता है एक दिन
उठी बन्दूक का मकसद भी
या कि घर की चौहद्दियों से पार जाते क़दमों का मकसद
चिड़िया बनना ही होता है
जब निपट लाल रंग हरियाता है
तो पीले रंग में बदल जाता है
तब पथरीली ज़मीनों पर प्रेमिका बनी स्त्री
सबसे पहले बसंत का परचम लहराती है
गाती है कहीं किसी डाने[3] में
साल[4]के पेड़ पर बैठकर चिड़िया
तोड़ देंगे जंगलों का मौन
वे नहीं करेंगे इन्तज़ार सूरज आने का
बल्कि अल-सुबह ही
वे कुहरे की चादर चीरकर
भेड़ों के डोरे[1] खोल देंगे
और चल देंगे जंगल की तरफ
तब भेड़ों के खाँकर[2] बजेंगे जंगलों के बीच
खनन-मनन वाली धुनों में
दूर किसी पहाड़ पर
कुहरे के भीतर गूँजेंगी
शाश्वत खिलखिलाहटें
बजेंगी
घस्यारिनों[3] की दरातियाँ
धीरे-धीरे ही छटकेगा
कुहरा
आवाजें और साफ
और हमारे करीब होती जाएँगी
एक दिन
ठीक उसी वक़्त धार[4] पर चढ़ेगा सूरज
और बिखेर देगा
ढलानों पर
रोशनी का घड़ा
मोतियों की तरह !
हिन्दी के प्रमुख कवि आलोक धन्वा की कविता ‘ब्रूनो की बेटियाँ’ को पढ़ते हुए
वो तुम नहीं थी
जिसकी याद जंग लगे टिन जितनी भी नहीं रही
न ही तुम क्षितिज पर फ़सल काट रही औरतों में हो।
तुम कौन हो?
प्रश्नवाचक चिह्न की तरह
जिसका उत्तर
पूर्ण विराम के साथ नहीं दिया जा सकता।
एक पुरानी किताब
या एक लम्बी कविता
जिसका रचना-विधान जानने की कोशिश कर रहा हूँ
इन दिनों
जिसकी लय
जिसका अर्थ
जिसमें बुनी गयी हो फैंटेसी
प्रतीक-बिम्ब
अनुभूत यथार्थ, अजनबियत, मिथक, नाटकीयता
और एक विचार विसंगतियों के बीच
जिससे पनपता है
कविता जैसी किसी चीज़ का अस्तित्व
फिर भी कहीं किसी कोने में
केवल एक प्रश्न
सदैव के लिए
युगों से
युगों के बाद भी
जिसका एकान्त होने न होने के बीच सुलगता है
सदियों के भीतर
पुआल और डनलप के गद्दों के बीच की स्थिति-सा
माणा[1] या गुंजी[2] की अन्तिम सीमा पर
देश की सीमा के साथ बाँधा गया भूभाग हो तुम
या फिर समझौते की कोई एक्सप्रेस
जिन्हें तय करते हैं देश के सत्ताधारी लोग
फिर भी इस आधी रात को
जब हीटर के तार सुलग रहे हैं
तब कैसे सुलगती है कविता
सेंचुरी के पन्नों के भीतर
रेनोल्ड्स की इस क़लम से
बेहतर शब्द निकाल लेने की ज़िद कहाँ तक जायज़ है
जब तुम सुलग रही हो
मध्य हिमालय की बर्फ ढँकी पहाड़ियों में कहीं
तब नदियाँ कैसे दे सकती हैं
शीतल पानी
फिर भी तुम्हारे अपने किले हैं
तुम्हारे अपने झण्डे हैं
तुम्हारे अपने गीत हैं
वही गीत जो तुम्हारा ख़सम गाता था
गुसाईयों[3] के दरबार में
और तुम नाचती थी फटी धोती में
ओ!
हुड़किया[4] की हुड़क्याणी[5]
तुम भुंटी थी
और तुम्हारा ख़सम सुन्दरिया
जिसने आजीवन दरवाज़े पर बैठकर
गुसाईयों के घर में चाय पी —
गिलास धोकर उल्टा कर दिया
ताकि सूख सके
ज़िल्लत भरी ज़िन्दगी
तुम्हारे लिए कौन था?
तुम्हारे लिए कौन है?
काने धान की पोटली भर सम्वेदना थी तुम
या ठाकुरों के कुल देवता के मन्दिर से बचा हुआ
गड्ड-मड्ड शिकार-भात
और कुछ नहीं
फिर भी कौन थी तुम
जिसके होने में महकता रहा
मध्य हिमालय का लोकजीवन!
अनमने मन से एक कविता पंजाबी कवि ‘पाश’ को याद करते हुए
1.
वे इसी तरह बहते हैं
रेत होने को नहीं
बल्कि मिट्टी होने को
हर चौमास[1] में
इसी तरह गलते हैं जेठ में
उनकी लाशें मीलों लम्बा सफ़र तय करते हुए
साथ ढो लाती हैं
चिकनी, दोमट और काली मिट्टियों के अकूत भण्डार
मैदानों की तरफ़
2.
उनकी मृत्यु जीवन की शुरुआत है
वे जीवन की निशानदेही पर
बसा लेते हैं फिर से कोई गाँव उत्तरपूर्व की तरफ़
और एक दिन
वक़्त की नदी बदल देती है अपनी धार
तब उनकी बकरियाँ बह जाती हैं
जिनका नाम आदमियों-सा होता है
उनका घर धरधरा कर गिर पड़ता है
बिखर जाते हैं पाथर[2]
उनकी लाशों पर
उनकी आँखों पर उग आती है बिच्छूघास
लेकिन वो उठ खड़े होते हैं बार-बार
पहाड़ की बराबरी को
और तान लेते हैं अपना तम्बू
सबसे बड़े पहाड़ की चोटी पर!
बना लेते हैं नए खेत
पुराने खेतों के नाम वाले
3.
उनकी जवान बेटियाँ बह जाती हैं
कण्ट्रोल[3] की दूकान से
आपदा का राशन लाते हुए
उनका भगवान उखड़ जाता है
धरती में रोपे गये बिजाड़[4]-सा
वे अपने भगवान को
बच्चे की तरह दुधमुँहा समझते हुए
पाले जाते हैं
यह जानते हुए की धार की चढ़ाई
खुद ही करनी होती है पार
फिर भी किसी छायादार वृक्ष के नीचे
वे रोप देते हैं निशान
और उगा देते हैं चोटी में देवदार के साथ एक गूँगा भगवान
4.
उन्होंने मामूली चीज़ों की तरह
एक भगवान भी उगाया
जैसे कभी-कभी वे उगा देते हैं
रिंगाल की डलिया में हरेला[5]
या फिर धार[6] पर पीपल
वे अजीब होते हैं
कच्चे आम की गन्ध में गन्धाते उनके शरीर
नमक की महक लिए होते हैं
वे झगड़ते हैं देवताओं से
चीरते हैं नदियों के सीने
भिड़ते हैं पहाड़ों से
कहते हैं शेर को बणबिल्ली
आश्चर्य!
फिर भी वे दुष्यन्त के पुत्र भरत नहीं होते
जिसके नाम पर रखा जा सके किसी देश का नाम
5.
जब घिरता है चैमास
छीज जाता है मण्डुवा[7] का आटा
मसाले बिसोटे[8] पे पनियाने लगते हैं
सिलाप से भर जाता है
गेहूँ का भकार[9]
इसी तरह पसरता है झड़[10]
चूने[11] लगती है पाख[12]
सड़ने लगती है मोल[13] की लकड़ी
धीरे-धीरे टपकता रहता है आसमान
पाख के सूराख़ से
पीतल की परात[14] पर
बजता रहता है पानी
आँखों का कानों पर
निकलता रहता है धुआँ
अलौटे[15] लकड़ी से आसमान की तरफ
धरती वालों के प्यार की तरह
6.
इस तरह
बना लेते हैं
वे पहाड़ पर पगडण्डी
और चढ़ जाते हैं
दरकते पहाड़ों के सीने में
अपनी बकरियों और देवताओं समेत
नयी फ़सलें बोने !
मन होता है कि
कह दूँ पहाड़ स्त्री का है
दुःख का पहाड़
बोझ का पहाड़
पहचान का पहाड़
लेकिन नहीं
इसे इस तरह कहना
उन पहाड़ी स्त्रियों को चुभेगा
जिनमें मेरी इजा[1] भी शामिल है
जो हर रात रोती है
और पहाड़ों की छाया उस पर किसी भयानक
आदमी की तरह पड़ती है
हालाँकि भ्यासपन[2] में ही छिपा है उसका सौन्दर्य
जो बोलता नहीं
दिखता है
भरता नहीं
रिसता है
टपकता है
अपने एकान्त में
किसी जंगली शहद-सा
जबकि उसका चीख़ना भी
एक गीत की तरह बसा रहता है
रकत बनकर हृदय की गहनता के भीतर
वह गहन से गहनतम होती जाती है
एक दिन एक बूढ़ी स्त्री
वैद्य बन जाती है
एक दिन वह स्त्री जान जाती है
आखिर फूल-पत्ती और घास-फूस
का मरहम लगाया जाता है किस तरह से
दुखती पीठ, चड़कती नसों पर
एक दिन उम्र के किसी उलार उतरते
वह थक जाती है
जीवन की अनगिन ऊँचाइयों से
एक दिन वह
सुनसान किसी जगह पर
टेक देती है अपनी पीठ
एक टक हिमालय पर पड़ती
सूरज की किरणों को देखती हुई
उसी समय
कहीं दूर से
प्रवासी पक्षियों के झुण्ड
मीलों लम्बी यात्रा पार करते हुए
कतारों में उड़ते हुए
पहुँच चुके होते हैं
पहाड़ी के ठीक ऊपर
भूगोल जिसे गीत की तरह गाया है
चरवाहों ने
उनसे ही सुना मैंने
कि चोटी का होना अलग बात ठैरी
चोटी में रहना अलग बात!
जबकि चोटी से गिरना एक घटना है
ठीक चोटी में चढ़ने की तरह
भूगोल जिसे गीतों की तरह गाया गया कभी
आज उसे ही राजनीति शास्त्र में
पाठ की तरह पढ़ाया जा रहा है
समाजशास्त्र में अस्मिताओं के लिए
भूगोल की खींचतान हो रही है
दुनिया का गोल होना अलग बात है
धरती का थोड़ा-सा विनम्र होकर
झुक जाना एक बात है
जबकि धरती का चपटा होना एक घटना है
भूगोल जिसे
गाया गया
वह अब कितना अलग हो गया है
जबकि गाँव आज भी दाखिल हैं दुनिया के नक़्शे में
और शहर आज भी दौड़ रहे हैं
दुनिया के भीतर
मैं कहीं किसी जगह
टाफ़ियों के रैपर देखता हूँ
चमकीले और आकर्षक
तो आज भी समझ जाता हूँ
बात बहुत अलग है
जैसे कि इजा का यह वचन
किस हड़बड़ी में हो
रुको, बैठो, पानी पी लो
दुनिया कहीं नहीं भागती
बिन इंसान के
भूगोल जिसे गाया जाएगा भविष्य में
ज़मीनों के नाम पर, भाषा के नाम पर
सीमाओं के नाम पर
और कविता के नाम पर भी
उनमें निःसन्देह होंगे
उल्लू, सियार, भेड़िये, और तेन्दुए भी
रात को सुबह कहने वाले
हर सुबह हूँकने वाले
झुण्डों में शिकार करने वाले
और पीठ पीछे से झपटने वाले
ऐसे जानवर
जंगलों में न जाने कब से बसते हैं
गहन काली रोशनी वाले दिनों में
बल्कि अब तो बाज़ार से नए दाँत
डलवा लिए हैं उन बूढ़े भेड़ियों ने
और शहर
उन्हें बहुत
सहिष्णु
बताता आया है
जबकि हासिल लगा आदमी एक दहाई में बढ़ता नहीं
बेचारा घट जाता है
जिसे मैं भ्यास[1] कहता हूँ
आप बिजूका कह सकते हैं
दिक्कत भाषा की कतई नहीं है
दिक्कत भ्यास की है
जैसे कि
हुक्के में आग पानी और साँस है, धुआँ है
जैसे कि बहुत दुनिया है
दुनिया के बाहर भी, अन्दर भी
पलायन की सम्भावनाएँ घटी नहीं हैं
बल्कि विकास के साथ बढ़ गई हैं
सस्ती नागरिकताओं के साथ
आप दाखिल हो सकते हैं ऐसी जगहों पर
जहाँ कवि कविताएँ लिखते हैं
जबकि दूसरे उन्हें लाइक करते हैं!
कहोगे तुम लगा रहता है दुःख
आता है कभी-कभी सुख भी
वज्रयान भी हो सकती है तुम्हारी शाखा
या कि विकट तन्त्री भी
शिनाख़्त की जाए अगर सच की
सच किस बात का!
एक पूज्य शेर का?
खैर!
इस इतिहास और मिथक का क्या
विकृत कर दिया है जिसे
तुम्हारे और मेरे सच की तरह
टिक ही कहाँ पाया यह सच
इस एक झूठ के आगे
उन्होंने हिमालय पर लहराए बारी-बारी
झण्डे अपने देशों के !
ओ! तेंजींग नारगे[1] !
मेरे पुरखे
मेरे भाई!
मैं नहीं जनता लेकिन मेरे चेहरे का कुछ मोहरा
मिलता ही है शेरपाओं से
अगर वह नहीं भी मिलता
तब भी मैं तुम्हारा ही था
किसी भी जगह क्यों न हो तुम
उत्तरी नेपाल
या कि उत्तरपूर्व
एवरेस्ट के दक्षिण में हों चाहे तुम्हारी बस्तियाँ
या कैलाश मानसरोवर यात्रा में
बोझा उठाते हुए
तुम्हारे छिले हुए कंधे
मेरे ही क्यों न हों
पाकिस्तान की सबसे ऊँची पहाड़ी
के-टू की बर्फ पर
गले हुए हुंजा भाईयों के पैर
क्यों न हों मेरे ही
बाक्साइट के खिलाफ लड़ रहे उड़ीसा के
नियामगिर वाले डोंगरिया
इजा-माटी के लिए लड़ रहे जो
दुनिया में कहीं भी इसी तरह
सबसे ऊँचे पहाड़ों पर
सबसे बड़े आसमान पर
सबसे बड़े देश में
सबसे बड़े लोकतन्त्र पर भी
हमारे कन्धे चढ़ कर ही
कब्ज़ा करते हैं कुछ लोग
मेरे भाई!
वो हमारे ही दिखाए गए रास्तों से आकर
लूट रहे हैं हमें
जीत रहे हैं
दुनिया के सबसे ऊँचे पहाड़ों को
जबकि आज भी हम
ढो रहे हैं उनके औज़ार
व झण्डे अपनी पीठ पर।
अपनी इजा, जेड़ज्या, काखीयों, भौजीयों को जो ज़िन्दा हैं, उन आमाओं को जो पहाड़ जीते हुए शहीद हो गईं, उनको जिन्होंने पहले-पहल मुझे हिमालय दिखाया
1.
पहाड़ों पर नमक बोती औरतें
बहुत सुबह ही निकल जाती हैं
अपने घरों से
होती हैं तब उनके हाथों में
दराती और रस्सी
चूख[1] के बड़े-बड़े दाने
सिलबट्टे में पिसा गया
महकदार नमक,
छोड़ आती हैं वे
बच्चों की आँखों के भीतर
सबसे मीठी कोई चीज़
लेकिन नहीं होती वे पर्वतारोही
दाखिल होते हैं पहाड़ अनिवार्यताओं के साथ
उनके जीवन में,
हर दिन पहाड़ों को पाना होता है
उनसे पार,
उनके पास होता है तेज़ चटपटा नमक व गुड़ भी
जिसे खर्चती हैं वे मोतियों की तरह
किसी धार[2] पर
ढलान में उतरते हुए या फिर चढ़ते हुए
इस तरह होती हैं उनकी अपनी जगहें
जंगलों के बीच भी
जहाँ वे ज़ोर से हँसती हैं
दरातियों के
नोक से ज़मीन को कुरेदते हुए
बहुत सारा नमक बो आती हैं
वे पहाड़ों पर
2.
उगता है उनका नमक
अपनी ही बरसातों में
अपने ही एकान्त में
अपनी ही काया में
अपनी ही ठसक में
वे बैठ जाती हैं तब
किसी धार की नोक में
टिके पत्थर पर
छमछट दिखता है
जहाँ से नदी का किनारा
दूर घाटी में पसरती नदी
की तरह महसूस करती हैं
तब वे ख़ुद को
उनके गादे[3] से झाँकती हैं
हरी पत्तियाँ बाँज की
एकटक
अपने तनों से मुक्त
न्योली[4] गाते हुए
करती हैं वे सम्बोधित
अपनी ही भाषा में
अपने ही अनघड़ शब्दों में पहाड़ को
वे गढ़ती हैं छीड़[5]
फिर गिरती हैं
और बुग्यालों में पसर जाती हैं
उनकी दराती तब
घास बनकर उगती है
चारों ओर हरी
उनका यह महकदार नमक सीझता नहीं
बल्कि बिखर जाता है
वे फिर से काट लाती हैं
हरापन अपने घरों के भीतर
और बो आती हैं नमक फिर से पहाड़ों पर
3.
नमक बोती हुई औरतें
थकती नहीं
या कि उन्हें थकना बताया ही नहीं गया है
वे होती हैं
एक शिकारी चिड़िया की तरह
जो खदेड़ देती हैं
बहुत दूर
अंगुली वाले चीलों को
अपने घोंसले से
4.
उनकी रातें भी होती हैं
अपने परदेस गए पतियों के लिए नहीं
बल्कि अपने दुःखों को साझा करने
वे रातों को चल पड़ती हैं
मीलों दूर
जत्थों में
चाँचरी[6] गाने
वे बहुत शातिर
छापामारों की तरह
कर देती हैं तब
रात को गोल घेरे में बन्द
वे हाथों में हाथ लेकर
बना लेती चक्रव्यूह
जहाँ नहीं घुस पाती
उदासी
तब फाटक पर टंगी
बोतल-बत्ती
धधकती है
बाँज के गिल्ठे
लाल हो रहे होते हैं कहीं किसी कोने में
उनके गीतों की हवा पाकर
तब धूल उठती है
ज़मीन निखर जाती है
वह अपने पतियों के बिना भी रहती हैं ख़ुश
पति उनके लिए केवल
होते हैं पति
या फिर फौजी कैन्टीन के सस्ते सामान की तरह
5.
पहाड़ पर नमक बोती औरतें
अपने परदेस जाते
पतियों को पहुँचाने
धार तक आती हैं हमेशा
फिर लौट जाती हैं धार के उस तरफ
घास से भरे डोके[7] लेकर
या पानी की गगरी काँख में दबाए
क्योंकि वे जानती हैं
लौट आते हैं परदेश गए लोग
अपनी ज़मीनों को एक दिन
इसलिए वे बसन्त का स्वागत करती हैं
दरवाज़ों पर फूल
रखती हैं
बसन्त पंचमी को
वे जाती हैं जंगल
दे देती हैं वह अपनी सारी टीस
हिलाँस[8] को
अपने विरह को भूल जाती हैं
घुघुती[9] की साँखी[10] से निकलती घूर-घूर की आवाज़ में
अपने रंग में रंग देती हैं जंगलों को
तब बुराँश[11] खिलता है लाल
काफल[12] में भर जाता है रस
पहाड़ पर नमक बोती औरतें
महकदार नमक लिए
चलती हैं हमेशा
6.
पहाड़ पर नमक बोती औरतों
के होते हैं प्रेमी
वे खुद होती हैं महान प्रेमिकाएँ
अपने देशाटन पर गए
पतियों से वे करती आई हैं
विद्रोह
और घुमक्कड़ों के साथ भागने के
उनके क़िस्से अब तक
ज़िन्दा हैं पहाड़ों पर[13]*
वे भेड़ों का
रेवड़ लेकर
चली आती हैं भोट से
कत्यूर राजाओं के दरबारों तक
अपने प्रेम को व्यक्त करने
राजाओं के दरबारों से सुरक्षित
निकल भी जाती हैं
अपने जंगलों को
उन्हें पाने के लिए
राजा खोते आए हैं
अपनी सेनाएँ
अपनी ओर उठती ज़मींदारों की आँखें फोड़ कर
भाग आती हैं वे अपने प्रेमियों के पास अक्सर
वे खोच देती हैं बागनाथ की मूर्ति की आँखें
भगवानों के घूरने की आदत से परेशान होकर[14]
वे नदियों को देती हैं सोने के सिक्के दान[15]
कहती हैं बहती रहना
पत्थरों को मिट्टी बनाते रहना घिस-पिस कर
तब जब वह बन जाएँगे
मिट्टी
हम बो देंगीं उन पर नमक
7.
पहाड़ पर नमक बोती औरतें
होती हैं इजाएँ
उनके बच्चे
खेलते हैं मिटटी में
और खा भी लेते हैं
वे मिट्टी का स्वाद जानते हैं
उनकी नाक बहती है
बहती हुई नाक
का नमकीनपन
उन्होंने चख़्ख़ा है
इजा के वक्ष से लगते हुए
यह प्रमाणित हो जाता है
ख़ुद-ब-ख़ुद
पसीने से कुछ अलग नहीं होता
इजा के वक्ष का स्वाद
जो होठों पर चिपका रहता है
उनके जवान हो जाने पर भी
जवान होने से पहले वह
पहाड़ों पर खेलते हैं
फिसलने वाला खेल
फिसलते हुए
फट जाती है
उनकी पैण्ट पिछवाड़े से
स्कूल की खाकी पैण्ट के पीछे हो जाते हैं छेद
जिसे वह आजीवन सीते रहते हैं फिर
इजाओं से अलग होकर
वे पहाड़ों पर
जाते हैं गाय चराने
तब रिभड़ाते हैं बैलों को
और जला देते हैं
सबसे ऊँचे पहाड़ पर खतडुवा[16]13
उनकी माएँ
तब उनके लिए पकाती हैं
रोटी
और पीसती हैं नमक
8.
पहाड़ पर नमक बोती औरतें
जब कभी
पहाड़ों से
घास के डोके के साथ
गिरती हैं
छमछट ढलान पर
लुढ़कते हुए
नदी के पास पहुँच जाती हैं
या एक नदी हो जाती हैं
तब बदल दिया जाता है उस धार का नाम
उनकी शहादत पर
पिताओं और पतियों के घर से
दूर इस जंगल में
वे याद की जाती हैं हमेशा
घसयारिनों द्वारा
तब शाम का पीला घाम केवल उनके लिए ही पसरता है पहाड़ों पर
ताकि सूख सके
मासिक-धर्म में पहनी गई उनकी धोती
इसी धूप में नहाती हैं वे गाड़-खोलों में
बैठ जाती हैं गाड़ के सबसे ऊँचे टीले में
यही धूप मिलती है छुतिया सैणी[17] को
सूर्ज की ओर से
पहाड़ लपक कर पकड़ लेता है इस धूप को
अपने सच्चे हकदारों के लिए
उस वक़्त घरों पर बैठी
पहाड़ पर नमक बोने वाली औरतें
पहाड़ों से गिरी हुई शहीद औरतों को
याद करती हुई
अपने बच्चों को बताती हैं
कि क्यों आता है पीला घाम पहाड़ों पर साँझ को ही
कैसे पड़ा होगा
नाम इस दुनिया में
जगहों का
पेड़ों का
चिड़ियों का
यहाँ तक की प्योली के फूल[18] का भी
और इस तरह बताती हैं
अपने इतिहास और अपनी लड़ाइयों में
वे राजधानी से दूर
किस तरह होती हैं शामिल
किस तरह होती हैं शहीद
किस तरह करती हैं गर्व
किस तरह उगती हैं ढलानों पर
किस तरह भींच लेती हैं ज़मीनों को अपनी जड़ों से
बच्चे सुनते हैं
और अधबीच में सुनते हुए सो जाते हैं
एक लम्बे अन्तराल के बाद
अभिमन्यु घिर जाता है
चक्रव्यूह में
ज्यों ही जवान एकलव्य निकलता है
अपने कबीले से बाहर काट दिया जाता है
उसका अँगूठा
तब इतिहास में अर्जुन लिखे जाते हैं
गाण्डीव धनुष के साथ
जबकि पहाड़ पर नमक बोती औरतें
मरकर भी नहीं छोड़ती अपनी ज़मीनें
वे घट्ट[19] वाली गाड़
जंगल वाली धार
और नौले[20] वाले खोले[21] में
रहती हैं मौजूद हमेशा
उनके हिस्से का नमक
उनके हिस्से का टीका
उनके हिस्से के कपड़े
उनके हिस्से की दरातियाँ
और उनके हिस्से का दर्पण आज भी
चढ़ाता है जगरिया[22]
कहीं किसी धार पर डर के मारे
मरकर भी नहीं छोड़ती वे
अपनी संगज्यों[23] को
हर दुःख में उन्हें देती हैं
लड़ने का हौंसला
पहाड़ पर नमक बोते रहने की ज़िम्मेदारी से
कराती रहती हैं अवगत
वे सपनों में फटी धोती पहन कर चली आती हैं
माँगती हैं चूख
माँगती हैं नमक
महकदार
बुलाती हैं जंगलों में
अपनी सहेलियों को
धार पर बैठ कर सुनाने को कहती हैं न्योली
औरतें जाती हैं जंगल
और फिर-फिर बो आती हैं
नमक पहाड़ों पर
ए हो
राजा नियम के
ए हो
राजा धरम के
तेरी गुद्दी[1] फोड़ गिद्द खाए
तेरे हाड़ सियार चूसे
चूहे के बिलों धंसे तेरे अपशकुनी पैर
लमपुछिया[2] कीड़े पड़े तेरी मीठी जुबान में
तेरी आँखों में मक्खियाँ भनके
आदमी का ख़ून लगी तेरी जुबान
रह जाए डुंग[3] में रे!
नाम लेवा न बचे कोई तेरा
अमूस[4] का कलिया
रोग का पीलिया
मार के निशान का नीला
ढीली हो जाय तेरी ठसक दुःख से
ए हो
मेरे पुरखो
खेत के हलिया[5]
आँगन के हुड़किया[6]
आँफर[7] के ल्वार[8]
गाड़[9] के मछलिया[10]
ढोल के ढोलियार[11]
होली के होल्यार[12]
रतेली[13] की भौजी
फतोई[14] के औजी
जाग जाग
मेरे भीतर जाग!
ए हो मेरे पुरखो
खेत के कामगारो
पहाड़ों के देवदारो
ज़मीन के दावेदारो
धिनाली[15] के दुधघरो[16]
देख लो रे
आज देख लो
अपने पनाती[17], झड़नाती[18], पड़नाती[19] की औलादों को
गाँव की सीवान से लेकर
शहर की चैबटिया[20] तक हर जगह लुट रहे हैं रे तेरे लाल
अघीयाने[21] बामुन की भैसियानी[22]खीर से सड़ रहे हैं
हिमाल सन्तानें
खसिया[23] खिसक गए हैं
हसिया[24] ख़त्म हो गए हैं
और हौसियाप्राण[25] तिलबिला रहा है
रजवाड़े अल्पसंख्यक होकर आरक्षण खा रहे हैं
हल बाने[26] वाले अब भी
हल बा[27] रहे रहे हैं
आहा हो ठाकुरो
कौन सुनाएगा रे देली में ऋतुरैन
कौन बीरों की कथा कहेगा ऐसे बखत में
जब बीर बचे ही नहीं
ए हो मेरे पुरखो
जागो जागो रे
मेरे भीतर जागो
इस बखत के बीच में
उदास बखत के
रमोलिया[1]
अभी उदासी का गीत गा
देखना रे खिलेगा एक दिन जंगलों में बुराँस
भरेगा एक दिन काफल में रस
भरेंगी नदियाँ
कूदेगी ताल की माछी
छीड़ का पानी फोड़ेगा
डाँसी पत्थर
जै हो!
इस बखत की संध्या में
इस बखत की अमूसी रात की चाँख[2] लगी है
तेरह बरस का राज्य
तेरह बरस का बछड़ा
बिज्वार[3] नहीं बनेगा
कौन मलेगा रे उसकी उगती जुड़ी पर तिल का तेल
आहा
तेरह बरस का बछड़ा
गोठ का बछड़ा
दूध का बछड़ा
रमकनी धमकनी बिना गुरु की
बिना मन्त्र की
बिना तन्त्र की
कुर्सी की भेंट चढ़ गया रे
इस बखत के बीच में
तेरह बरस का गोठ का बछड़ा
क्रूर दैत्य की कैसी भेंट चढ़ा हाँ
गर्भ का अभिमन्यु
गर्भ का अजुवा बफौल[4]
गर्भ के गोरिल[5]
और गर्भ के गंगुवा के बाले[6]
सुनना रे सुनना
सुनना रे मेरी जात के रखवालो
सुनना रे मेरे पीठ के भाईयो
सुनना रे मेरी रकत की धार
सुनना रे मेरे भाई ग्वाले झकरुवा[7]
हाँ तेरह बरस का बछड़ा
गोठ का बछड़ा
गोठ ही मार दिया गया रे
हाय-हाय !
शिब-शिब !
उसकी खाल के पूड़े बने
आँत की डोरी बनी
राजनीति की बेतुकी ढोल मुड़ी
ढोल बजी, बेतुकी बजी
राजा का बाजा बेतुका ही होता है रे
आहा! पितरों की पूण्य भूमि में
कैसा नाच हुआ!
ताल से बेताल नाचे राजा
आण-बाण बयाल, आँचरी के बेताल रथ
हमारे घरों
हमारे ख़ामोश आँगनों से होकर गुज़रे
एहो शिब शिब हाय हाय
हमारी माएँ रोईं
हमारे भाई रोए
हम रो रहे हैं
अवतार को तरस रहे हैं
कहाँ जाएँगे रे हमारे आँसू
ए हो
मेरे धर्म्यादास[8]
मेरे रमोलिया
उदास बखत है ये
अगास देखना है इस बखत
किस तरह बाँट खाया होगा रे एक तिल का दाना सात बहनों ने[9]
कैसे काटा होगा विपदा का समय बता-बता
इस भारत में भारत[10] लगा रे
दे पमपुकिया थाप अपने हुडुक में!
पंचकोटि मेरे पुरखों का अगवानी है तू
ताल-बेताल नचाता है राजा-रजवाड़ों को
भूत-पिशाच को जलती धूनी में जलाने का हुनर दिखा रे
गाँव के गाँव नचा
नचा नया अपतार कर दे
घर के घर धिरका दे
गोठ की पाल से धूरी का भराना मिला दे
ए हो रमोलिया ऐसे बखत में
बजा रे अपना अर्जदासी ढोल
कि जिसके बजने से
गाड़ के मछेर अपनी लुवासुरी जाल निकाल लें
कि घसेर अपनी घुँघराली दराती पया के कमर खोस लें
लकड़िया अपनी कुल्हाड़ी
चिरानी अपनी लम्बे दाँतों वाली आरी
हलिया पहिन ले हाथों में ज्वारफार[11]
ल्वार उछल-उछल कर घन की चोट मारने लगे
बजे रणसिंगा, भौंकर बजे
पैपरबाजा[12] बजे
खानदानी खडग चमकने लगे रे
बड़ीयाठ की धार से रकत टपकने लगे रे
कि जिसके बजने से जगे अस्मिता मेरे मुलुक की
आहा रमोलिया
आज तुझे ब्रह्महत्या माफ
आज तुझे गुरुहत्या माफ
नौ नाथ, चौरासी सिद्दों का पाप नहीं
गौहत्या का पाप नहीं
रजस्वला स्त्री के ख़ून में डूब जा
विधवा स्त्री के आँसू साफ़ कर दे
जात का घोड़ा मार दे
नाल को माथे लगा दे
काली घोड़ी का सवार हो जा
आते बसन्त जाती पूस की बयार हो जा
घाट-घाट बाट-बाट में लुटते लौंड-लभारों का दगड़ीया बन जा रे
ऐसे उदास बखत में
उदासिया हूँ मैं भी
कहाँ जाऊँ किधर जाऊँ
हर रास्ता बन्द है
या कि हर रास्ता कर दिया गया है बन्द
काट रे जाल काट
पौ फाड़
पूरब की दिशा जगा
जगा रे सूरज के घोड़ियों को जगा
इस बखत के बीच !