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अमोघ नारायण झा ‘अमोघ’ की रचनाएँ

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एक कली

थी खड़ी कली, अधखिली कली,
रसभरी कली ।
जब विहँस पड़ी, तब निखर उठी,
आया कोई मधु का लोभी ।
गुन-गुन करता
मधु पी-पीकर
पागल बनता ।
फिर भी प्यासा, फिर भी आशा,
वह हाथ बढ़ा, आगे उमड़ा ।
कुछ कह-सुनकर
फिर मिला ओठ
रस पी-पीकर
गुनगुना उठा वह पंख उठा ।
पंखों के हिलडुल जाने से
कुछ इधर झड़े
कुछ उधर पड़े
वे परिमल कण
या आभूषण !
हिल उठी कली, वह फिर सम्हली
वह अब भी कुछ-कुछ थहराती
उड़ गया मधुप अति दूर-दूर
पर मौन खड़ी वह रह जाती
कितना निष्ठुर,
कितना निर्मम !
कितनी मस्ती !!
कितनी जल्दी !!!

रचनाकाल : पहली प्रकाशित रचना, विश्वमित्र साप्ताहिक, फरवरी 1945

निर्माण-गीत 

बज रही बिगुल, जगा रहा नया बिहान !
क़दम-क़दम से ताल दे चला है नौजवान !!
हवा में हरहरा उठे हरे-हरे पटेड़,
श्रमिक-श्रमिक के मन में कुछ नवीन राग छेड़ ।

यहाँ विहंग का न प्रातःकाल गान है,
टोकरी, कुदाल, धुरमुसों की शान है ।
अरुण-वरण किरण से भर रहा है आसमान ।
क़दम-क़दम से ताल दे चला है नौजवान ।

काँध पर कुदाल, मुख में गीत, मन में प्यार,
नवीन बाँध बाँधने चले हैं ये कुमार ।
नवीन कल्पना, नवीन योजना हजार,
नई हवा की पीठ पर चढ़े हुए सवार ।
नए-नए करों में आज देश का निशान ।
क़दम-क़दम से ताल दे चला है नौजवान ।

ये समझ चुके हैं अपनी शक्ति का स्वरूप,
ये निकल चुके हैं अपना ले के सत्य रूप ।
ये करेंगे वह, जो कोई कर सका नहीं,
ये बनेंगे वह, जो कोई बन सका नहीं ।
गाड़ने चले हैं चंद्र-सूर्य पर निशान !
क़दम-क़दम से ताल दे चला है नौजवान !!

कविर्मनीषी

युग द्रष्टा हूँ,
युग स्रष्टा हूँ,
मुझे नहीं यह मान्य
कि रुक महफिल में गाऊँ,
याकि किसी भी बड़ी मौत
पर लिखूँ मर्सिया
विरुदावलि गानेवाला तो
कोई चारण होगा।

कवि हूँ, नहीं बहा करता हूँ कालानिल पर
मैं त्रिकाल को मुट्ठी में कर बंद
साँस में आँधी औ तूफान लिए चलता हूँ।
रचता हूँ दुनिया गुलाब की
काँटों को भी साथ लिए चलता हूँ।

प्रदूषणों की मारी
ओ बीमार मनुजता,
मलय पवन की मदिर गंध से
मैं तेरा उपचार किया करता हूँ।

आओ, भोगवाद की जड़ता से आगे
दिव्य चेतना के प्रकाश में तुझे ले चलूँ,
चिदानंद की तरल तरंगों के झूले पर तुझे झुला दूँ,
मधु-पराग से नहा
तुम्हारे सारे-कल्मष दूर भगाऊँ
कर दूँ स्वस्थ, सबल, स्फूर्तिमय।

मेघदूत की सजल कल्पना
के झूले पर तुझे झुलाऊँ।
सुषमा के हाथों आसव,
श्रद्धा के हाथों अमिय पिलाऊँ।

आज भले तुम मूल्य
आँक लो कवि से अधिक
कार-मैकेनिक का
क्योंकि तुम्हारे कवि तो हैं बेकार;
और सरकार तुम्हारी साथ कार के
पर दशाब्दियों या
शताब्दियों बाद कहोगे
ख़ूब कह गया,
रहा नहीं बेचारा!
खोजो डीह कहाँ है,
हाँ, हाँ खोजो डीह कहाँ है?

रचनाकाल : जुलाई 1961

फूले वनांत के कांचनार

फूले वनांत के कांचनार !
खेतों के चंचल अंचल से आती रह-रह सुरभित बयार ।
फूले वनांत के कांचनार ।

मिट्टी की गोराई निखरी,
रग-रग में अरुणाई बिखरी,
कामना-कली सिहरी-सिहरी पाकर ओठों पर मधुर भार ।
फूले वनांत के कांचनार !

घासों पर अब छाई लाली,
चरवाहों के स्वर में गाली,
सकुची पगडंडी फैल चली लेकर अपना पूरा प्रसार ।
फूले वनांत के कांचनार !

शाखों से फूटे लाल-लाल,
सेमल के मन के मधु-ज्वाल,

उमड़े पलास के मुक्त हास, गुमसुम है उत्सुक कर्णिकार ।
फूले वनांत के कांचनार !

मंजरियों का मादक रस पी,
बागों में फिर कोयल कूकी,
उत्सव के गीतों से अहरह मुखरित ग्रामों के द्वार-द्वार ।
फूले वनांत के कांचनार !

रचनाकाल : मार्च 1962

नश्तर और नुस्ख़ा

निश्चय ही राष्ट्र की इमारत के वे ठेकेदार
वंचक हैं, राष्ट्रद्रोही हैं
खिलाया जिन्होंने हमें माँग-चाँग लाए
घुने गेहूँ का दलिया,
पिलाया निःसत्त्व विदेशी पाउडर का दूध,
रटाया अहिंसक नाम बुद्ध का
और आश्वस्त रहे
कि ख़ूब बुद्धू बना छोड़ा है ।
भुलाकर शक्ति-पूजा राम की
चलाया चक्र अशोक का ।
भुलाकर श्रम और स्वावलंबन का महत्त्व
आदत डलवाई
मुफ्तख़ोरी, कामचोरी, बेरोज“गारी-रिश्वतख़ोरी की,
सत्ता के लोभ में भूलकर स्वदेश-भक्ति
टुकड़े-टुकड़े तोड़ा सुसंगठित समाज को,
परोसा स्वराज्य का प्रसाद ।
जाति, धर्म, अगड़े-पिछड़े
भाषा और क्षेत्रा के अलग-अलग कटोरे में
कृषि-सभ्यता के मेरुदंड गो-वंश को भेजा कसाई-घर
विदेशी मुद्रा के लोभ में बेचारे

बनकर रह गए पूरे कसाई ।

आज जब घुस-पैठ
ख़ूँरेजी करने लगे हैं दस्यु,
तब तुम आतंकित हो माँगते हो हमसे
धन, बल और वीरता
शक्ति और शूरता !
हे अभागी जनता के भाग्यवान नेता,

क्या सचमुच चाहते हो कि
राष्ट्र शक्तिशाली हो?
तो, तोड़ो भ्रम-जाल, दूर फेंको सारे छद्म वेश,
एक प्रण, एक प्राण, एकनिष्ठ श्रद्धा से
निश्छल एकात्म भाव से
गूँथो एक सूत्र में बिखरे फूल-शक्ति के
अर्पित करो भारत माता को।
शक्ति और श्रद्धा का अर्ध्य
तुम नरसिंह हो, धधका दो फिर शक्ति-ज्वाला
वाहन हो शक्ति के, तुम सिंह-गर्जना करो !

रचनाकाल : चीनी और पाकिस्तानी आक्रमण के बाद, 1965

गीत, गंध और अंगारे

पचहत्तर का बूढ़ा हूँ,
बस्ती की सड़क-किनारे
ढेर बना कूड़ा हूँ ।

खट्टे-मीठे
तिक्त-कषाय
नमकीन अनुभवों की
सड़ती हुई कतरनों का
बड़ा-सा टीला हूँ,
ऊपर से रूखा-सूखा
भीतर से गीला हूँ।

रोज ही सुबह-शाम
वधुएँ-कुमारिकाएँ
सारे घर-आँगन का बुहारन
अँजुलि-अँजुलि डालकर
पोषित-वद्र्धित करती
जा रही हैं मेरी काया।

क्या-क्या नहीं है
इस उच्छिष्ट तन-मन में
धूल और राख
सब्जियों-फलों के
बीज और छिलके
अनाजों के दाने
पशुओं के अवशिष्ट चारे

और गोबर भी
बच्चों के मल-मूत्र के पोतड़े
गीता-रामायण और
बाल पोथियों के फटे पन्ने
दवा और प्रसाधन की
छोटी-बड़ी शीशियाँ
टूटे हारों के मोती और मूँगा ।

फाड़े गए असफल प्रेम-पत्रों की चिन्दियाँ ।
रति-पूजा-विसर्जन के बासी फूल-ये कंडोम
उग आए हैं कुकुरमुत्ते
लतर-चतर पसरे हैं
बीजांकुरों से नए लत्तर
फूलते और फलते ।
बेजान मत समझो,
बरखा और बहार में
मौज अभी ज़िन्दा है ।
अलबत्ता,
थूक-पीक छोड़ जाते हैं
मौज़-मस्तीवाले,
मैं तो मगन हूँ ।
कुत्तों की बात छोड़ो,
आदमी के पिल्ले भी
जब आ जाते हैं जवानी के सुरूर में
टाँग उठाकर तुर्री मार
छोड़ते हैं गर्म धार
मेरी थकी-हारी काया पर
और आजमाने अपने पंजों का जोर
नखों का पैनापन
भँमोड़ने लगते हैं
मेरे ढलते-गलते तन को,
फिर निकल जाते हैं अज्ञात दिशा में
किसी मादा की तलाश में ।
इस ढूह बनी काया के अंदर
बने हुए हैं बिल चूहों और छुछुंदरों के
ये ही हैं मेरे दिल के कोष्ठक
छिपे हैं इन्हीं में जीवन के रहस्य ।

लेकिन तुम कौन हो ?

कोई गँवई किसान नहीं,
पढ़े-लिखे शहरी भद्रलोक ।
फिर क्यों कोड़-कोड़
विखराने आए हो
मेरी इस चिरसंचित निधि को ?
क्या है मतलब?
ऐसा क्यों,
पागल भी तो नहीं हो,
ओ…, आ गई समझ में बात !
है ना यही बात?
निश्चय ही शहर से आए
कोई खोजी पत्रकार हो।
गंध लग गई है तुम्हें
मेरे दिल की इस परम गोपनीय चीज़ की,
नहीं दूँगा,
नहीं देता मैं,
आज तक देखने नहीं दिया किसी को
बाँस के चोंगे में बंद यह कागज का पुराना पुलिन्दा
सन् बयालीस की क्रांति के नारे
और गुप्त दस्तावेज-दहकते अंगारे
उसी अंगारे की ऊष्मा से अब भी गरम है मेरा दिल ।
एक नायाब चीज और
मेरी पहली प्रेमिका का
ख़ुशबू भरा पहला प्रेम-पत्र,
उसी सुगंध से मस्त
मैं आज भी
निशीथ के एकांत में
गा लेता-गुनगुना लेता हूँ
जिन्दा रहता हूँ।
मत छेड़ो मुझे यार!
ओ खोजी पत्रकार !!

रचनाकाल : 1999

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