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अहसनुल्लाह ख़ान ‘बयाँ’ की रचनाएँ

इश्वा है नाज़ है ग़म्ज़ा है अदा है

इश्वा है नाज़ है ग़म्ज़ा है अदा है क्या है
क़हर है सेहर है जादू है बला है क्या है

यार से मेरी जो करते हैं सिफ़ारिश अग़्यार
मक्र है उज़्र है क़ाबू है दग़ा है क्या है

तुझ को किस नाम से ऐ फ़ख़्र मेरे याद करूँ
बाप है पीर है मुर्शिद है ख़ुदा है क्या है

तुम जो बे-वजह सुनाते हो मेरी जान मुझे
ख़ूब है नेक है बेहतर है भला है क्या है

रू-ब-रू उस के कभू बात न सुधरी हम से
हिल्म है चैन है दहशत है हया है क्या है

नज़्म को सुन के मेरी हँस के ये बोला वो शोख़
मद्ह है शुक्र है शिकवा है गिला है क्या है

ये जो उस शोख़ पे करता है ‘बयाँ’ जान निसार
ख़ब्त है इश्क़ है सौदा है वफ़ा है क्या है

जा कहे कू-ए-यार में कोई

जा कहे कू-ए-यार में कोई
मर गया इंतिज़ार में कोई

छोड़ सौ काम आ पहुँच साक़ी
जाँ-ब-लब है ख़ुमार में कोई

वो भी क्या रात थी कि सोता था
सर रखे उस किनार में कोई

मत गुज़र ख़ाक पर शहीदों की
चैन ले टुक मज़ार में कोई

क्यूँ ‘बयाँ’ सैर-ए-बाग़ की रुख़्सत
नहीं देता बहार में कोई

कहा अग़्यार का हक़ में मेरे 

कहा अग़्यार का हक़ में मेरे मंज़ूर मत कीजो
मुझे नज़दीक से अपने कभू तो दूर मत कीजो

हुए संग-ए-जफ़ा से शीशा-ए-दिल के कई टुकड़े
बस अब इस से ज़्यादा और चकनाचूर मत कीजो

मेरे मरहम-गुज़ार उस शोख़-ए-बे-परवा से ये कहियो
कि ज़ालिम ज़ख़्म ताज़ा है उसे नासूर मत कीजो

हिक़ारत अपने आशिक़ की नहीं माशूक़ को भाती
‘बयाँ’ सई अपनी रुसवाई में ता मक़दूर मत कीजो

कहा था सार-बाँ के कान में लैला ने आहिस्ता
कि मजनूँ की ख़राबी का कहीं मज़कूर मत कीजो

कहता है कौन हिज्र मुझे सुब्ह

कहता है कौन हिज्र मुझे सुब्ह ओ शाम हो
पर वस्ल में भी लुत्फ़ नहीं जो मुदाम हो

शिकवा किया हो मेरे लब-ए-ज़ख़्म ने कभू
तो मुझ पे आब-ए-तेग़ इलाही हराम हो

साहब तुम अपने मुँह को छुपाते हो मुझ से क्यों
है उस से क्या हिजाब जो अपना ग़ुलाम हो

मुँह लगने से रक़ीब के अब सर चढ़े हैं सब
कर डाले उस को ज़ब्ह अभी इंतिज़ाम हो

मत दर्द-ए-दिल को पूछ ब-क़ौल-ए-‘फ़ुग़ाँ’ ‘बयाँ’
इक उम्र चाहिए मेरा क़िस्सा तमाम हो

ले के दिल उस शोख़ ने इक दाग़

ले के दिल उस शोख़ ने इक दाग़ सीने पर दिया
जो लिया उस का इवज़ उस से मुझे बेहतर दिया

दूर तुझ से साग़र-ए-मय पर नज़र मैं ने जो की
कासा अपना चश्म ने ख़ूनाब-ए-दिल से भर दिया

जो सुलूक अब दिल में आवें कर मुझे तक़दीर ने
दस्त ओ बाज़ू बाँध कर तेरे हवाले कर दिया

दिल-बरों के शहर में बेगानगी अँधेर है
आशनाई ढूँढता फिरता हूँ मैं ले कर दिया

बाज़े ही औक़ात राहत हम को दी है चर्ख़ ने
रंज ओ ग़म ही उस सितम-गर ने ‘बयाँ’ अक्सर दिया

मैं तेरे डर से रो नहीं सकता 

मैं तेरे डर से रो नहीं सकता
गर्द-ए-ग़म दिल से धो नहीं सकता

अश्क यूँ थम रहे हैं मिज़गाँ पर
कोई मोती पिरो नहीं सकता

शब मेरा शोर-ए-गिर्या सुन के कहा
मैं तो इस ग़ुल में सो नहीं सकता

मसलहत तर्क-ए-इश्क़ है नासेह
लेक ये हम से हो नहीं सकता

कुछ ‘बयाँ’ तुख़्म-ए-दोस्ती के सिवा
मज़रा-ए-दिल में बो नहीं सकता

न फ़क़त यार बिन शराब है तल्ख़

न फ़क़त यार बिन शराब है तल्ख़
ऐश ओ आराम ओ ख़ुर्द ओ ख़्वाब है तल्ख़

मीठी बातें किधर गईं प्यारे
अब तो हर बात का जवाब है तल्ख़

साथ देना ये बोसा ओ दुश्नाम
क़ंद शीरीं है और गुलाब है तल्ख़

दिल ही समझे है इस हलावत को
गो ब-ज़ाहिर तेरा इताब है तल्ख़

दिल से मस्तों के कोई पूछे याँ
ज़ाहिदों को शराब-ए-नाब है तल्ख़

रात उस तुनक-मिज़ाज से कुछ

रात उस तुनक-मिज़ाज से कुछ बात बढ़ गई
वो रूठ कर गया तो ग़ज़ब रात बढ़ गई

ये कहियो हम-नशीं मुझे क्या क्या न कह गए
मैं घट गया न आप की कुछ ज़ात बढ़ गई

बोसे के नाम ही पे लगे काटने ज़बाँ
कितनी अमल से आगे मकाफ़ात बढ़ गई

चश्मों से मेरे शहर में तूफ़ान-ए-गिर्या है
नादान जानते हैं कि बरसात बढ़ गई

समझा था मैं कमर ही तलक ज़ुल्फ़ का कमाल
वो पाँव से भी आगे कई हात बढ़ गई

अग़्यार से नहीं है सरोकार यार को
मेरे ब-रग़्म उन पे इनायात बढ़ गई

बे-तौरियों से उस की ‘बयाँ’ मैं तो खिंच रहा
ग़ैरों की उस के साथ मुलाक़ात बढ़ गई

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