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आँधी चली थी शम्आ बुझाने तमाम रात

आँधी चली थी शम्आ बुझाने तमाम रात
जलते रहे थे ख़्वाब सुहाने तमाम रात

यूँ मेरे दर्दे दिल की दवा बन सके न तुम
रिसते रहे वो ज़ख्म पुराने तमाम रात

तोड़ा था जिसके दिल को सितारों ने बेसबब
आये थे जुगनू उसको मनाने तमाम रात

जिनके लिए थी दिल की वो महफ़िल सजी हुई
आए नहीं वो रस्म निभाने तमाम रात

आई नहीं न आँख लगी सुब्ह हो गई
करती रही ये नींद बहाने तमाम रात

तुम आये याद हमेशा ही रौशनी की तरह

तुम आये याद हमेशा ही रौशनी की तरह
ये और बात कि मिलते हो अजनबी की तरह

न कोई फूल न तितली न कोई रंगे हयात
है आज ज़ीस्त भी तस्वीरे बेकसी की तरह

तुम्हारी याद में सावन की तरह रोती हूँ
न सूख जाएं ये आँखें किसी नदी की तरह

मैं घर को लौट रही हूँ कि शाम ढलने लगी
वो कल का दिन भी गुज़ारा था आज ही की तरह

कब आओगे कि उतारूँ तुम्हारा सदक़ा मैं
कि जल रही हूँ शबो रोज़ आरती की तरह

तेरे हमराह यूं चलना नहीं आता मुझको

तेरे हमराह यूं चलना नहीं आता मुझको
वक्त के साथ बदलना नहीं आता मुझको

मैं वह पत्थर भी नहीं हूँ कि पिघल भी न सकूं
मोम बनकर भी पिघलना नहीं आता मुझको

कीमती शै भी किसी राह में खो जाये अगर
हाथ अफ़सोस में मलना नहीं आता मुझको ।।

तुम मुझे झील सी आँखों से अभी मत देखो
डूब जाऊँ तो निकलना नहीं आता मुझको

आग का मुझ पे असर कुछ नहीं होने वाला
तुम जलाओ भी तो जलना नहीं आता मुझको

खूबसूरत वादियों का जब नज़ारा हो गया

खूबसूरत वादियों का जब नज़ारा हो गया
फिर तुम्हारी याद का रौशन सितारा हो गया ।।

कर दिया था मौज ने कश्ती को तूफां की नज़र
आप माझी बनके आये तो किनारा हो गया ।।

पहले तो कहता रहा सच कहना जो भी कहना तुम
सच कहा तो ये जहां दुश्मन हमारा हो गया ।।

बंद हमने कर लिया आंखों में गुलमंज़र तमाम
रात उसकी हो गई और दिन हमारा हो गया ।।

एक ऐसा मोड़ आया ज़िंदगी में ‘आरती’
हम किसी के हो गये कोई हमारा हो गया

मैं तेरा कर्ज़े मोहब्बत हूँ चुका ले मुझको 

मैं तेरा कर्ज़े मोहब्बत हूँ चुका ले मुझको
ज़िंदगी भर के लिए अपना बना ले मुझको

चांदनी रात, ये सावन का सुहाना मौसम
ऐसे में आके सनम मुझसे चुरा ले मुझको

मुझसे नाराज़ न होना की मैं मर जाऊंगी
रूठ जाऊं तो सनम आके मना ले मुझको

मेरी दुनिया मेरा मसकन मेरी जन्नत तू है
मुझको सीने से लगा पास बुला ले मुझको

तुझ को महफूज़ बलाओं से रखूँ गी हर दम
अपना तावीज़ बना दिल से लगा ले मुझको

तू मेरा जाने जिगर तू मेरी अंतिम चाहत
रब से मांगा है तुझे तू भी मना ले मुझको

तुझ को चाहा, तुझे पूजा, किये सजदे मैने
‘आरती ‘ हूँ मैं इबादत में जला ले मुझको

बताओ तुम कब आयेगा हमारे साथ का मौसम

बताओ तुम कब आयेगा हमारे साथ का मौसम,
हमारे प्यार का मौसम भरे जज़्बात का मौसम,

सुनो मजबूरियों से कह दो हमको यूँ न तरसायें
चला जाये न हमसे रूठकर बरसात का मौसम

ज़रा सी बात पे हमदम ख़फ़ा क्यूंकर तू होता है
न दे ऐसे मेरे दिल को नए सदमात का मौसम

मुझे मालूम है तुम रोओगे मुझको भूला करके
तुम्हारे लब पे होगा दर्द के नग़मात का मौसम

तुम्हे तो हक़ दिए सारे मोहब्बत में मेरे हमदम
कभी तुम दरम्यां लाना नहीं आफ़ात का मौसम

शाम ढले फिर चौबारे पर मुझसे मिलने आये ग़म

शाम ढले फिर चौबारे पर मुझसे मिलने आये ग़म,
उसकी यादों की गठरी में थे खट्टे कुछ मीठे ग़म,

सारी दुनिया चाहे खुशियां इनका मोल नहीं जाने
जीने का अंदाज़ सिखाते जितने गहरे होते ग़म,

एक चुभन सी दिल मे लेकर चलते हैं वो शाम सहर,
कुछ तो जलते रहते दिल में कुछ ठंडे से रहते ग़म,

चाहे लब ख़ामोश रहे जान ही लेते हैं वो सब
झांक के आंखों में पढ़ लेते हैं जाने क्या क्या ये ग़म

किससे अपना हाल कहें ये सोच के चुप रह जाते हैं
दर दर मारे फिरते रहते बदकिस्मत बंजारे ग़म

होंठों पे मेरे आपकी आई कभी ग़ज़ल

होंठों पे मेरे आपकी आई कभी ग़ज़ल
शरमा गई हूँ मैं तो लजाई कभी ग़ज़ल

एहसास तेरे होने का रहता है हर जगह
यादों में मेरे छुप के समाई कभी ग़ज़ल

तेरी खुशी के वास्ते जो दर्द सह लिए
आँखों ने आँसुओं में बहाई कभी ग़ज़ल

तुम रूठ भी गए तो मनाने के वास्ते
रोने लगी कभी तो सुनाई कभी ग़ज़ल

होंठों की तश्नगी को बुझाने के वास्ते
आँखों के मयकदे से पिलाई कभी ग़ज़ल

दास्तां इश्क मोहब्बत की सुनाने वाले 

दास्तां इश्क मोहब्बत की सुनाने वाले
जाने किस देश गए पिछले ज़माने वाले

कस्मों वादों की रेवायत तो अभी है लेकिन
अब कहां लोग हैं वो वादे निभाने वाले

ज़िंदगी क्या है किसी ने नहीं समझा लेकिन
मौत आती है तो रोते हैं ज़माने वाले

मेरी ग़ज़लों की तरह मुझको भी गाओ तो कभी
ऐसे मौसम भी कहां लौट के आने वाले

‘आरती’ जिस्म की दहलीज पे आंखों के चिराग़
आंधियों में भी जलाते हैं जलाने वाले

पलकों पे फिर चराग़ जलाने लगे हैं आप 

पलकों पे फिर चराग़ जलाने लगे हैं आप
ये दास्ताने ग़म जो सुनाने लगे हैं आप

ख़्वाबों में आके मुझको सताने लगे हैं आप
हैरान हूँ कि वादा निभाने लगे हैं आप

क्या बात हो गयी कि मेरा दिल तड़प गया
क्या दर्द है कि अश्क़ बहाने लगे हैं आप

आहट सी क्या हुई कि मेरा दिल सहम गया
अब दिल की धड़कनों को जगाने लगे हैं आप

अब तक तो इस जमीन पे चलना न आ सका
क्यूँ सर पे आसमान उठाने लगे हैं आप

आप तो रिश्तों में भी चालाकियाँ करते रहे

आप तो रिश्तों में भी चालाकियाँ करते रहे ।
हम ज़माने के लिए नादानियाँ करते रहे ।।

हम बदल जाते बदल जाती फिज़ा इस दौर की
सब बदल जाए यही गुस्ताखियाँ करते रहे

जिन जवानों के भरोसे देश की तक़दीर है
वो नशे में चूर हों शैतानियाँ करते रहे

राहे उल्फत थी कठिन दुश्मन ज़माना था मगर
उम्र भर दिल की सुनी मनमानियाँ करते रहे

अब ये जाना झूठ का चेहरा चमकता है यहाँ
हम हैं कि सच कहने की गुस्ताखियाँ करते रहे

दस्तक 

मेरा घर
आज भी है इंतज़ार में तुम्हारे
आईना,
सोलह सिंगार किये
तलाश रहा है कब से
अपनी छवि को
चौखट, चौंक उठती है
हर आहट पर
दरवाज़ा, पीटता रहता है
खुद ही अपना सीना
खिड़की, पर्दे की झिलमिल ओट से
निहारती रहती है गली को प्रतिदिन
और दीवारों ने तो रो रो कर
उभार लिए हैं अपने चेहरों पे
दरारों के कई निशान
रौशनदान, सुबह की नर्म किरणों के साथ
ढूंढता है तुम्हारी खुशबू
छत , आसमान सी अपनी बांहें फैलाये
आतुर है भरने को तुम्हे
आ जाओ प्रिय!
यह घर भी उदास है तुम बिन
अब और कितना इंतज़ार
एक दस्तक दो न…

किताब 

खोलती हूँ रोज़
अपनी चाहत की किताब
और पढती हूँ
दिल के पन्नों पे धड़कते
तुम्हारे नाम को ।

उन पन्नों में
कर रखे हैं रेखांकित मैंने
एहसास के उन कोमल शब्दों को
जिनके भावार्थ बहुत गहरे हैं ।

चिन्हित कर रखे हैं
उन तारीखों को भी
जिनमें क़ैद हैं कुछ
मुस्कुराते लजाते हसीं पल

मोड़ रखे हैं
कुछ उदासियों के
आपसी मनमुटाव के
पन्नों को भी मैंने
जिन्हें नहीं खोलना चाहती मैं
दुबारा भी कभी।

और हाँ
कहीं कहीं लगा रखे हैं
तुम्हारी यादों के बुकमार्क भी मैंने
जिन तक जब चाहूँ
पहुँच जाती हूँ मैं
अपनी खामोश बेबस तन्हाईयों में
और पा जाती हूँ तुम्हारा साथ।

हर दिन किसी न किसी बहाने
कुछ न कुछ पढ ही डालती हूँ तुम्हे मैं
और समझ लेना चाहती हूँ
तुम्हारे किरदार को
तुम्हारे विचारों को
तुमसे जुड़ी परिस्थितियों को
मजबूरियों को
ताकि लग न जाए उनमें
अविश्वास के दीमक
और नासमझी की धूल ।

झरोखा 

कितनी आसानी से
कह देते हो न तुम
कि कोई जवाब नहीं
मेरे किसी भी सवाल का
तुम्हारे पास..
कि चाहे जो समझूं मैं
चाहे जो सजा दे दूँ तुम्हें…

यह जानते हुए भी
कि
तलाश लेती हूँ
अब भी मैं
तुम्हारी उदास आँखों में झांक
तुम्हारी मजबूरियों को..

सुन लेती हूँ
बंद सिले होंठों में दबी
तुम्हारी बेबसी को…

महसूस लेती हूँ
तुम्हारे बोझिल कंधों पर पड़ी
जिम्मेदारियों को…

और कभी तो
तुम्हारी झुंझलाहटें भी
कह जाती हैं मुझसे
कि
रह नहीं पाओगे तुम भी
दर्द में तड़पता यूँ छोड़कर मुझे …

प्रिय!
आखिर क्यों सताते हो खुद को..
क्या तुम्हें पता नहीं
कि तुम्हारी एक पुकार पर
पिघल सी जाती हूँ मैं
और
पलट सकती हूँ पूरी क़ायनात
अगर इरादा कर लूँ तो..

कि
तुम्हारी एक ‘आह’ पर
एक पूरी दुनिया छोड़
आ जाती हूँ.. तुम्हारे बिल्कुल करीब..

कि तुम्हारी एक नज़र
कर देती है मदहोश मुझे
और भीगने लगती हूँ
प्रीत की बारिश में तुम्हारे….

कि गुम हो जाते हैं मेरे सारे सवाल..
सारे जिरह..
तुम्हारी सच्चाई और खुद्दारी के आगे…

प्रिय!
आखिर क्यूँ विवश हो
रौंदना चाहते हो
उस आत्मिक अनुभूति को…
जिसके लिए सारी सृष्टि
एकाकार होना चाहती है?

क्या परिस्थितियों और समस्याओं ने
इस कदर जकड़ रखा है हमें
कि मिलजुल कर हम
बना नहीं सकते
प्रेम और विश्वास का एक झरोखा भी
जिसके आर पार
महसूस कर सके हम
अपने प्यार की उष्मा
और
सुन सके.. एक दूजे की
धड़कनों की आवाज़…!!

न भूल पायेंगे हम

नए साल की गर्माहट में
पुरानी सर्द यादों को
न भूल पाएंगे हम।

नए वसंत की खुशबू में
पुराने मसले फूलों को
न भूल पाएंगे हम।

नए बहार के राग में
पुरानी सिसकती आहों को
न भूल पाएंगे हम।

नई घटा की बारिश में
बेबस बरसते आंसू को
न भूल पाएंगे हम।

नई फसल की चाहत में
पुरानी कुचली बीजों को
न भूल पाएंगे हम।

नए जीवन की आस में
दम तोड़ती साँसों को
न भूल पाएंगे हम।

नए साल के शोर में
दफ़्न होती आवाज़ों को
न भूल पाएंगे हम।

तलाश

सब संसाधन होते हुए भी
रिक्तता है, अवसाद है, खालीपन है!
मन चाहता है अपनों का संसर्ग
जो हमारी संवेदना को
महसूस कर सके
और भर दे एहसास से
हमारे मन की गइराईयों में
दम तोड़ती आशा की झीलों को ।
जलाना चाहता है मन
अपनेपन का एक दीया
जो जले विश्वास की बाती से
और छँट जाए जिससे
संवादहीनता का अंधेरा।
बजाना चाहता है मन
शब्द, लय, भावों का संगीत
अभिव्यक्ति की निर्झरणी
जो प्रदान कर सके दिलों को जीवन्तता
और बनी रहे हमारे जीने की उम्मीद ।
छुड़ाना चाहता है मन
एकाकी होते, भावना शून्य होते
कर्तव्यों के तानें बानों से घिरे
अपने ही मकड़जाल में फँसे
प्रगति के साधको को ।
तलाश …जारी है ….!!

मेरा मन 

मेरा मन भी
ना जाने
बुनता है
कितने ही ख्वाब
तुम्हारे साथ…

कभी तुम्हारी ऊँगलियों को
स्पर्श करते
करता है चहलकदमी
ओस से भीगी नर्म घास पर..
तो कभी लाॅन में बैठ
करता है मीठी बातें
चाय की चुस्कियों के साथ..

कभी दूर पर्वत पे
चला जाता है
हाथों में हाथ डाले
और छू लेता है
प्यार का क्षितिज..

तो कभी
सिर पे पल्लू लिए
प्रेम विश्वास के
अटूट धागों को
मजबूत करने
चढ़ जाता है
श्रद्धा की कई सीढ़ियाँ..

कभी नदी किनारे
तुम्हारे काँधे पे
सिर रखकर
निहारता रहता है
किनारों में सिमटी
कलकल बहती नदी को…

और कभी,
रात की गहराईयों में
बिस्तर पर करवट लेते
समा जाता है एकदम से
तुम्हारी बाँहों में…
मेरा मन…!!

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