नहीं अभी नहीं होगा
अवसान
अभी तो मुझे मांगना है आकाश से खुलापन
और
धरती से दृढ़ता
पानी से तरलता
और
पवन से श्वांस
फिर बनानी है
एक चिडिय़ा
जो नापेगी
सारा आकाश
भरी दोपहर में वह
बुन रही है ठंडक
खस के तिनकों को
बांधती आँखें
क्षण भर देखती हैं
तपते सूरज को
फिर सहेजने लगती हैं
खस के बिखरे तिनके
अपनी काया को तपाकर
वह सहेज रही है ठंडक
उनके लिए जो डरते हैं
सूरज की आँच से
कितना गहरा है यह अंधेरा
कि सूझता नहींहाथ को हाथ ।
आच्छादित है इसमें
धरती और आकाश।
कहां गया सूरज?
क्यों अंधेरे से उसने
मिला लिया हाथ?
फिर तो ढूढऩा ही होगा
कोई विकल्प
जलाना ही होगा चिराग।
जो अंधेरे को भेदकर
बिखेरेगा रोशनी।
दोस्तों चिराग सूरज नहीं
विकल्प है सूरज का।
श्रद्धा
प्राकृतिक है,
कृत्रिम नहीं,
पनपती है ज़मीन से
गमलें में नहीं,
फूटता है अंकुर उसका
हृदयतल से,
हलकी सी चोट से
टूटता है पल में,
बेशक,गमला कीमती होता है
बिकाऊ भी .
श्रद्धा अमूल्य है,
वह बिकती नही,
और इस्सी से वह
गमले में पनपती नहीं
बिटिया चाहती है
कि पोछ दे
पिता का पसीना।
और मां के दुखों को
देवे एक छप्पर।
जिसकी गुनगुनी धूप में
सूखती बडिय़ों से
सूख जाएं सारे दुख।
इसलिए सजती है
बार-बार।
और ड्राइंगरूम में
बैठे मुखौटे
परखते हैं उसे,
फिर बढ़ जाते हैं आगे
बेहतर वस्तु की
तलाश में।
मेरे दरवाजे पर
लगा है ताला
बहुत बड़ा और
बहुत पुराना
दरवाजे के बाहर
खड़े हैं चाँद,तारे और जुगनू
मैं देखना चाहती हूँ चाँद
तापना चाहती हूँ सूरज
और पकड़ना चाहती हूँ जुगनू
मगर बीच में है ताला
जिसकी चाबी छिपी है
किसी अंधी बावड़ी में
और ताला बनाने वाला
कर रहा है अट्टहास
सूप से अनाज पछोरती औरत
पछोर रही थी जीवन
फटकन के साथ
अलग रही थी अपने सुख और दुःख
पछोरते पछोरते
खाली हो गया था सूप
अनाज के चंद दाने ही बचे थे सूप में
वह बीन रहे थी उन्हें
कंकर पत्थर को
बिखेर बिखेर कर
ढूढ़ रहे थी दाने
फिर आँखों में छाती धुंध
में खो गया सब कुछ
सब कुछ हो गया गड्ड मड्ड
कनकर, पत्थर, दाने
और सूप भी
और वह जोर जोर से फाटक रही थी
खाली सूप
कंकर, पत्थर और दाने
कुछ भी नही है वहां
फिर भी पछोर रही है वह
खाली सूप
औरतें रखती हैं
करवा चौथ
पति के लिए |
बोती हैं भोजलियाँ
करती हैं उपवास
भाई के लिए |
बेटे के लिए भी
करती हैं न जाने
कितने -कितने व्रत |
मांगती हैं अनगिन दुआएं
सबके लिए |
औरतें कब करेंगी
कोई व्रत अपने लिए
माँगेंगी कोई दुआ
अपने लिए
अपनी नस्ल के लिए |
बुधिया ने शुरू किया था।
अपना सफर
बारात के साथ।
बारात के साथ
चलती रही वह।
मगर बारात कभी
रूकी नहीं उसके द्वार
उसके सिर पर है
रोशनी का ताज।
मगर रोशनी
कभी ठहरी नहीं
उसके द्वार।
चिराग तले अंधेरा
को करती सार्थक
बुधिया आज भी
चल रही है
बारात के साथ