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सात भाइयों के बीच चम्पा

सात भाइयों के बीच
चम्पा सयानी हुई।

बाँस की टहनी-सी लचक वाली
बाप की छाती पर साँप-सी लोटती
सपनों में काली छाया-सी डोलती
सात भाइयों के बीच
चम्पा सयानी हुई।

ओखल में धान के साथ
कूट दी गई
भूसी के साथ कूड़े पर
फेंक दी गई
वहाँ अमरबेल बन कर उगी।

झरबेरी के साथ कँटीली झाड़ों के बीच
चम्पा अमरबेल बन सयानी हुई
फिर से घर में आ धमकी।

सात भाइयों के बीच सयानी चम्पा
एक दिन घर की छत से
लटकती पाई गई
तालाब में जलकुम्भी के जालों के बीच
दबा दी गई
वहाँ एक नीलकमल उग आया।

जलकुम्भी के जालों से ऊपर उठकर
चम्पा फिर घर आ गई
देवता पर चढ़ाई गई
मुरझाने पर मसल कर फेंक दी गई,
जलायी गई
उसकी राख बिखेर दी गई
पूरे गाँव में।

रात को बारिश हुई झमड़कर।

अगले ही दिन
हर दरवाज़े के बाहर
नागफनी के बीहड़ घेरों के बीच
निर्भय-निस्संग चम्पा
मुस्कुराती पाई गई।

जज की कविता

वहॉं एकदम घुप्‍प अन्धेरा है
जहॉं से छन-छनकर आ रहे हैं
न्‍याय के विधान ।

मैं धाराओं-अनुच्‍छेदों से
ज़िन्‍दगी तोलता हूँ।
मेरी कुर्सी के पाये
धँस रहे हैं गीली धरती में।
यह धरती गीली क्‍यों है?

रोज़ सड़कों पर देखता हूँ
सिर पर रक्‍त-सनी पटि्टयॉं
बॉंधे लोग ।
कहॉं दुर्घटनाग्रस्‍त हुए वे ?

हथौड़ा तो मैं पटकता हूँ
लकड़ी की मेज़ पर ।
हाथ धोता हूँ
तो पानी ख़ून-ख़ून हो जाता है।

जजी में क्‍या रखा है।
सोचता हूँ होटलों में
मुर्गे़ सप्‍लाई करूँ
या चमड़े के कारख़ाने में सुपरवाइज़र हो जाऊँ ।

फरवरी , 1996

कूपमण्डूक की कविता

क्यों कोसते हो इतना ?
हम तो किसी का
कुछ नहीं बिगाड़ते ।

न ऊधो का लेते हैं
न माधो को देते हैं ।
संतोष को मानते हैं परम सुख ।
रहते हैं वैसे ही
जाहि बिधि रखता है राम ।

बिधना के विधान में
नहीं अड़ाते टाँग ।
जगत-गति हमें नहीं व्यापती
तो तुमको क्या ?

तुमको क्यों तकलीफ कि
हमारा आसमान छोटा- सा है
कुएँ के मुँह के बराबर ?

हमने क्या बिगाड़ा है
जो कोसते हो इतना
पानी पी-पीकर ?

सहना

रोज़ कहते हैं —
‘अब और नहीं सहा जाता ‘
और सहते हैं।

जब सबकुछ
नहीं सहा जाएगा
तो कुछ नहीं कहेंगे।
जो ज़रूरी होगा , करेंगे।

सहने को तो
बहुत कुछ सहा जा सकता है।

ज़रूरत है कि
यह बताया जाए कि
मनुष्‍यता की रक्षा के‍ लिए
कहना नहीं सहना तुरन्‍त बन्‍द कर देना होगा।

मार्च , 1986

कहना

शान्ति से दिन बिताओ !
शान्ति से सो जाओ!
शान्ति से बात करो!
शान्ति से पढ़ो-लिखो !
कुछ बनने की कोशिश करो !

शान्ति से लड़ो !
शान्ति से भागो चुपचाप !
शान्ति से जीओ !
शान्ति से मरो !
बाबा रे बाबा !
एक अशान्‍त दुनिया में
एक अशान्‍त आत्‍मा से
शान्ति की इतनी उम्‍मीदें ?

शान्‍तम् पापम् ! शान्‍तम् पापम् !

मार्च, 1986

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है

हम पढ़ते हैं
अपने सामाजिक प्राणी होने के बारे में।
हम होते हैं
एक सामाजिक प्राणी।

बचा रह जाता है
बस जानना
एक सामाजिक प्राणी होने के बारे में।

जैसे ही हम जान जाते हैं
एक सामाजिक प्राणी की ज़रूरतों,
कर्तव्यों और अधिकारों को
कि
असामाजिक घोषित कर दिए जाते हैं।

यह जो थरथराहट-सी है

यह जो थरथराहट-सी है
आकाश में
दिल पर असर कुछ ऎसा है
ज्यों
परात के हिलते पानी में
चांद का प्रतिबिम्ब

रचनाकाल : सितम्बर 1997

एक अंधेरे समय में ही 

एक अंधेरे समय में ही
हम सयाने हुए,
प्यार किया,
लड़ते रहे ताउम्र ।
हालाँकि अंधेरा फिर भी था
मगर हमारे जीने का
यही एक अन्दाज़ हो सकता था
फ़िक्र जब सिर्फ़ एक हो
कि दिल रोशन रहे

रचनाकाल : सितम्बर 1997

हमने इश्क़ किया 

हमने इश्क़ किया
और काम के आदमी बन गए
दुनिया के लिए
वर्ना…

(चचा ग़ालिब से मुआफ़ी चाहते हुए}

रचनाकाल : सितम्बर 1997

इश्क़ में कभी

इश्क़ में कभी
भुलाई नहीं दुनिया
और न दुनिया ने
भुलाया मुझे

रचनाकाल : सितम्बर 1997

इश्क़ में हुआ हो भले धोखा 

इश्क़ में हुआ हो भले धोखा
हुस्नो-इश्क़ को
समझा नहीं कभी धोखा।
यूँ ही भरम कई हुए
ज़िन्दगी में,
पर ज़िन्दगी को कभी
भरम नहीं समझा।
जितना हारे
हार न मानने की ज़िद बढ़ती गई ।

रचनाकाल : सितम्बर 1997

कल एक ऊँची कुर्सी ने

कल एक ऊँची कुर्सी ने
पूछा हाल तबियत का ।
क्या हम कहीं से
कमज़ोर पड़ रहे हैं?

रचनाकाल : सितम्बर 1997

हैरान हैं कि 

हैरान हैं कि
लोगों ने दुश्मनियाँ भुला दीं ।
देखना होगा
हमीं से कहीं कोई
ग़लती हुई होगी।

रचनाकाल : सितम्बर 1997

एक मामूली ज़िन्दगी में भी रहीं 

एक मामूली ज़िन्दगी में भी रहीं
दिल को डुबाती-डुबाती सी
कुछ यादगार उदासियाँ
और कुछ यादगार बेवफ़ाइयाँ
दिल को चीर-चीर जाती हुईं।
नाउम्मीदियाँ भी आईं
कभी हमलावर बनकर
कभी घुसपैठियों की तरह।
वो तो हम जीते रहे यूँ
कि हमारे पास फ़ुर्सत नहीं रही कभी
और यह भी कि और भी ग़म रहे बहुत सारे
और खुशियाँ भी कम न रहीं।
एक ग़ैरमामूली कारवाँ में शामिल रहे हम
हर शाम घायल, लस्त-पस्त
कहीं डालते थे पड़ाव
और हर सुबह ताज़ादम
आगे बढ़ जाते थे ।
ज़माने के लिए
कुछ और काले कोस काट जाते थे।

रचनाकाल : सितम्बर 1997

विगत और आगत प्रदेशों के

विगत और आगत प्रदेशों के
सीमान्त पर
‘नो मैन्स लैंड’ में
उत्तर-आधुनिक चिन्तक ने बाए
शीतयुद्धोत्तरकालीन सपने
मुंगेरीलाल के
जो हसीन न थे ।

रचनाकाल : जून 1994

‘इतिहास का अन्त’

‘इतिहास का अंत’– जब वे कहते हैं
उनका मतलब
हमारे सपनों की मृत्यु से होता है।
हमारे सपनॊं की
मृत्यु ही हो सकती है
उनके बीमार वर्तमान की अमरता।
भले ही हो यह
एक असम्भव कल्पना।
इतिहास में दफ़्न हो रहा है
‘इतिहास के अंत’ का नारा।
हमारे सपने फ़िनिक्स पक्षी हैं-
यह उतना ही बड़ा सच है
जितना यह कि
विचार का अंत स्वयं एक विचार है
और शब्दों के अंत की घोषणा के लिए
ज़रूरत होती है शब्दों की।
सपनों की मृत्यु है
एक मृत्युभयग्रस्त रोगी का
सपना ।

रचनाकाल : जून 1994

कविता में कहने की आदत आई

कविता में कहने की आदत आई
जब सोचा कि
अब न हो सकेगा
कविताएँ लिख पाना।
जीने का फ़लसफ़ा
मौत के अहसास ने दिया।
सबसे विकट प्यार हुआ
उम्मीदें छोड़ देने के बाद।
निर्जन में आविष्कृत हुआ
घनघोर शोर
जीवन का
बर्फ़ीली वादियों में
आँच लोक-ताप की।

रचनाकाल : अप्रैल 1996

मौत से

मौत से
बहुत अच्छी तरह
वाक़िफ़ होना है
फ़ैसलाकुन ढंग से
ज़िन्दगी के पाले में
खड़ा होने के लिए

रचनाकाल : सितम्बर 1997

यात्रा

हाथों ने
गढ़ा
झेला
दर्द
जो उमड़ा
आँखों में।
यहाँ से
शुरू हो रही है
यात्रा
विचार तक की।
पानी से आग तक की।

रचनाकाल : सितम्बर, 1999

शिनाख़्त 

जहाँ
निशान थे
दीवारों पर गोलियों के,
जीवन था।
हत्या जहाँ हुई थी
वहाँ था
सिर्फ़ सन्नाटा।
काफ़ी कुछ
उपजा करता है
सन्नाटे से।

रचनाकाल : सितम्बर, 1999

भटकन

मैं साँसों से चोटिल
स्पर्शों से
लहूलुहान।
कविता से
पाती हुई
सिर्फ़ बेगानापन।
निर्मम आलोचनाओं के
सुखों की तलाश में
भटकती
अकेली नहीं शायद।

रचनाकाल : सितम्बर, 1999

कविता की जगह

एक झील है मेरे मन में
हिलते भूरे मटमैले पानी वाली ।
वहाँ कोने पर
कुछ घास और लताएँ हैं
तल के कीचड़ से उठकर
पानी की सतह पर पसरी हुईं ।
वहीं कुछ जल-भौरे
लगातार चक्कर काटते रहते हैं
उद्विग्न,
कहीं नहीं रुकते हैं ।
वहीं, बस थोड़ी-सी
जगह है कविताओं की ।
शेष विस्तार पर तो
बहुत कुछ सरगर्मियाँ हैं
बाहर की दुनिया की
दूसरी सरगर्मियों जैसी ।

अजनबियों के गीत 

अजनबी अक्सर गाते हैं
एक बार फिर से अजनबी बन जाने का
गीत
ख़ुद को
यह विश्वास दिलाने के लिए
कि वे अभी नहीं हुए हैं
अजनबी
एक-दूसरे के लिए।

रचनाकाल : जुलाई, 1999

परदुःखकातरता 

कभी कुछ भी तो नहीं किया
उनके लिए
जिनके लिए रोई बहुत।
रोई तो?
अब क्या उन्हें रोने के लिए
मेरी मृत्यु की प्रतीक्षा है?

रचनाकाल : जनवरी, 2000

आत्मकातरता 

एक कम्बल था मेरे पास
आत्मा को ठण्ड से बचाने के लिए
वह कवि दोस्त माँग ले गया।
निर्लज्ज को-
इतना प्यार था अपनी कविता से।
कबीर मगहर में चादर बुन रहे थे
और निर्गुन गा रहे थे।
पता चला कि कवि दोस्त से
किसी ने पूछ दिया उसकी कविता का अर्थ।
दुःख और ग्लानि उसे मृत्यु तक ले गई।
टाँग दिया ख़ुद को सूली पर
सरे-बाज़ार उसने नंगा।

रचनाकाल : जनवरी, 2000

वक़ील की कविता

कमीज़ें हमारी सफ़ेद हैं
कोट काले
जैसे मृत्‍यु की चादर काली होती है
लेकिन कफ़न सफ़ेद।

कहीं-कहीं हम मजबूर होते हैं
जैसे कि नदी में उतराती
तमाम लाशों को
हम न्‍याय नहीं दिला सकते।
अफ़सोस !
वे अक्‍सर लावारिस होती हैं।

पर हम लोगों को
दिलाते रहेंगे न्‍याय
वाजि़ब
या उससे भी कम फ़ीस लेकर।
देश की तमाम नदियों में उतराती,
सड़कों के किनारे, खेतों बियाबानों में
या प्‍लेटफ़ार्मों और रेल-लाइनों पर पड़ी
लावारिस लाशों से
न्‍यायपालिका का क्‍या रिश्‍ता होता है

क्‍या रिश्‍ता होता है
बन्‍दूक की गोली से
और जि़न्‍दगी से न्‍याय का,
का़नून की किताबों में
इनका उल्‍लेख नहीं होता।

हम सोचने लगे यह सब
तो अनर्थ हो जायेगा।
लोग न्‍याय नहीं पा सकेंगे।
शपथ खा भी लें
सच कहने की
तो उनसे जिरह कौन करेगा?

हमें तो डर है
कहीं लोग हमारी मदद के बिना ही
न्‍याय पा लेने की
कोशिश न करने लगें।

फरवरी 1996

सामान्यता की शर्त

जिस गन्दे रास्ते से हम रोज़ गुज़रते हैं
वह फिर गन्दा‍ लगना बन्द हो जाता है ।

रोज़ाना हम कुछ अजी‍बो-ग़रीब चीज़ें देखते हैं
और फिर हमारी आँखों के लिए
वे अजीबो-ग़रीब नहीं रह जाती ।

हम इतने समझौते देखते हैं आसपास
कि समझौतों से हमारी नफ़रत ख़त्म हो जाती है ।

इसी तरह, ठीक इसी तरह हम मक्का़री, कायरता,
क्रूरता, बर्बरता, उन्माद
और फासिज़्म के भी आदी होते चले जाते हैं ।

सबसे कठिन है
एक सामान्य आदमी होना ।

सामान्यता के लिए ज़रूरी है कि
सारी असामान्य चीज़ें हमें असामान्य लगें
क्रूरता, बर्बरता, उन्माद और फासिज़्म हमें
हरदम क्रूरता, बर्बरता, उन्माद और फासिज़्म ही लगे

यह बहुत ज़रूरी है
और इसके लिए हमें लगातार
बहुत कुछ करना होता है

जो इन दिनों
ग़ैरज़रूरी मान लिया गया है ।

(05 सितम्बर 2019)

सफल नागरिक 

दुनिया में जब घटती होती हैं रोज़-रोज़
तमाम चीज़ें – मसलन मँहगाई, भूख,
भ्रष्टाचार, ग़रीबी, तरह-तरह के अन्या‍य
और अत्या‍चार और लूट और युद्ध और नरसंहार,
तो हम दोनों हाथ फैलाकर कहते हैं —

‘हम भला और क्या कर सकते हैं
कुछ सवाल उठाने और कुछ शिकायतें
दर्ज़ करते रहने के अलावा !’

इस तरह हम धीरे-धीरे चीज़ों के
बद से बदतर होते जाने को देखने
और इन्तज़ार करने के आदी हो जाते हैं ।

इस तरह क्रूरता हमारे भीतर
प्रवेश करती है और फिर
अपना एक मज़बूत घर बनाती है ।

इस तरह हम
सबसे अधिक क्रूर लोगों के शासन में
जीने लायक एक दुनिया बनाते हैं
और सफल और शान्तिप्रिय, नागरिक बन जाते हैं

और हममें से कुछ लोग
बड़े कवि बन जाते हैं ।

चाहत

ख़ामोश उदास घंटियों की
बज उठने की सहसा उपजी ललक,
घास की पत्तियों का
मद्धम संगीत
रेगिस्तान में गूँजती
हमें खोज लेने वाले की विस्मित पुकार,
दहकते जंगल में
सुरक्षित बच रहा
कोई नम हरापन ।
यूँ आगमन होता है
आकस्मिक
प्यार का
शुष्कता के किसी यातना शिविर में भी
और हम चौंकते नहीं
क्योंकि हमने उम्मीदें बचा रखी थीं
और अपने वक़्त की तमाम
सरगर्मियों और जोख़िम के
एकदम बीचोंबीच खड़े थे ।

कविता में दरवाज़ा

और फिर वह कठिन
अँधकारमय समय आ ही गया
कुछ लोगों को जिसकी आशंका थी
और कुछ को प्रतीक्षा ।

तब बहुसंख्यक कविताएँ ऐसी थीं
जिनमें कोई दरवाज़ा नहीं था
या अगर था , तो बन्द था।

कुछ कविताएँ थीं
जिनमें दरवाज़ों की कामना थी
या स्मृतियाँ ।
कुछ कविताएँ ऐसी भी थीं जो
कहीं किसी दरवाज़े पर बैठकर
लिखी जा रही थीं।

खोजने पर यहाँ-वहाँ कुछ ऐसी
कविताएँ भी मिल जाती थीं
जो दरवाज़ों से बाहर थीं
सड़कों पर भटकती हुई
कुछ खोजती हुई
… शायद अपनी सार्थकता
या बनने की कोशिश करती हुई
एक विकल पुकार
जो बन्द दरवाज़ों को भेदकर
सोई हुई रूहों में
हरकत पैदा कर दे।

(26 जुलाई , 2017)

आखेट

अजब-ग़जब से शस्त्र संभाले
थाम कलम की बेंट
आलोचक जी करने निकले
कविता का आखेट ।
शब्दों का सागर मथ डाला
सब-कुछ डाला फेंट
भाँति-भाँति के अर्थों से
करवाई दुर्लभ भेंट ।
इष्ट साधकर महामहिम ने
बस्ता लिया समेट
जो कुछ कवि ने किया-धरा था
सब-कुछ मटियामेट ।

रचनाकाल : दिसम्बर, 2000

कुहरे की दीवार खड़ी है

कुहरे की दीवार खड़ी है!
इसके पीछे जीवन कुड़कुड़
किए जा रहा मुर्गी जैसा ।

तगड़ी-सी इक बांग लगाओ,
जाड़ा दूर भगाओ,
जगत जगाओ ।

साँसों से ही गर्मी फूँको,
किरणों को साहस दो थोड़ा
कुहरे की दीवार हटाओ ।

रचनाकाल : जनवरी-अप्रैल, 2003

भय, शंकाओं और आत्‍मालोचना भरी एक प्रतिकविता

एक बर्बर समय के विरुद्ध युद्ध का हमारा संकल्‍प
अभी भी बना हुआ है और हम सोचते रहते हैं कि
इस सदी को यूँ ही व्‍यर्थ नहीं जाने दिया जाना चाहिए
फिर भी यह शंका लगी ही रहती है कि
कहीं कोई दीमक हमारी आत्‍मा में भी तो
प्रवेश नहीं कर गया है ? कहीं हमारी रीढ़ की हड्डी भी
पिलपि‍ली तो नहीं होती जा रही है ?
कहीं उम्र के साथ हमारे दिमाग पर भी तो
चर्बी नहीं चढ़ती जा रही है ?

डोमा जी उस्‍ताद अब एक भद्र नागरिक हो गया है
कई अकादमियों और सामाजिक कल्‍याण संस्‍थाओं
और कला प्रतिष्‍ठानों का संरक्षक, व्‍यवसायी
राजनेता और प्राइवेट अस्‍पतालों-स्‍कूलों का मालिक।
मुक्तिबोध के काव्‍यनायक ने जिन साहित्यिक जनों और कलावन्तों को
रात के अन्धेरे में उसके साथ जुलूस में चलते देखा था,
वे दिन-दहाड़े उससे मेल-जोल रखते हैं
और इसे कला-साहित्‍य के व्‍यापक हित में बरती जाने वाली
व्‍यावहारिकता का नाम देते हैं।

वयोवृद्ध मार्क्‍सवादी आलोचक शिरोमणि आलोचना के सभी प्रतिमानों को
उलट-फेर रहे हैं ताश के पत्‍तों की तरह
और आर०एस०एस० के तरुण विचारक की पुस्‍तक का
विमोचन कर रहे हैं।
मार्क्‍सवादी विश्‍लेषण पद्धति के क ख ग से अपरिचित
युवा आलोचकों की पीठ थपकते-थपकते
दुखने लगती है।
कवि निर्विकार भाव से चमत्‍कार कर रहे हैं.
कहानियॉं सिर्फ़ कहानीकार पढ़ रहे हैं।
फिर भी सबकुछ सब कहीं ठीक-ठाक चल रहा है।
हर शाम रसरंजन हो रहा है,
बचत और सुविधाएँ लगातार बढ़ रही हैं ।
बीस रुपए रोज़ के नीचे जीने वाली 70 प्रतिशत आबादी
और लाखों किसानों की आत्‍महत्‍याओं और करोड़ों
कुपोषित बच्‍चों के बारे में सोचने-बोलने-लिखने वाले
अर्थशास्‍त्री-समाजशास्‍त्री ऊँचे संस्‍थानों और एन०जी०ओ०
में बिराजे हुए धनी मध्‍यवर्गीय अभिजन बन चुके हैं.
विद्वान मार्क्‍सवादी तान्त्रिक कूट भाषा में आज की दुनिया
की समस्‍याओं पर लिख-बोल रहे हैं।

निश्‍चय ही बदलाव के लिए सक्रिय लोगों की दुनिया भी है,
पर वहॉं विचारहीनता और विभ्रम हावी है,
मुक्‍त चिन्‍तन का प्रभाव है या लकीर की फकीरी है.
गतिरोध वहॉं भी विघटन को गति दे रहा है ।
इस ठण्‍डे समय में हमें भी भय तो रहता ही है
कि हमारी आत्‍माओं में कहीं से निश्चिन्‍तता या
ठण्‍डापन घुसपैठ न कर लें.
ठीक-ठाक खाते-पहनते-ओढ़ते-बिछाते हुए
कहीं हमारे भीतर भी और बेहतर जीवन जीने का
जुगाड़ बैठाने की चालाकी न घर कर ले।
कहीं ऐसा न हो कि हम अनुभव और उम्र की दुहाई देते-देते
एक निरंकुश अड़ि‍यल नौकरशाह बन जाएँ
और कुर्सियों में चर्बीली देह धॅंसाए हुए
युवा साथियों को गुजरे दिनों के संस्‍मरण सुनाने
और निर्देश जारी करने में अपने जीवन की
सार्थकता समझने लगें।
कहीं ऐसा न हो कि हम मूर्ख निरंकुश बन जाएँ
और मूर्ख निरंकुशता की प्रतिक्रिया अक्‍सर
प्रबुद्ध निरंकुशता के रूप में भी विकसित होती है.
एक ठण्‍डे समय में, आने वाले युद्ध की
ज़रूरी तैयारी करते-करते भी
कब कमज़ोर पड़ जाती है सादा जीवन और कठोर परिश्रम की आदत
और ढीली हो जाती है जनता में अविचल आस्‍था,
और हमें पता भी नहीं चलता
और जब हम बदल चु‍के होते हैं
तो अपने बदलाव के बारे में सोचने लायक भी नहीं रह जाते.
निश्‍चय ही यह मनुष्‍यता का अन्त नहीं है,
लेकिन राजनीतिक शीतयुद्ध अभी लम्‍बा होगा।
कठिन होगा इस दौरान आत्‍मा में और कविता में
ईमानदारी, न्‍यायबोध और साहस की गरमाहट
को बचाए रखना.
ज़रूरी है विचारों और आम लोगों के जीवन के बीच
लगातार होना और कठिन भी।

अपनी शंकाओं, आशंकाओं, भय और आत्‍मालाचना को
अगर बेहद सादगी और साहस के साथ
बयान कर दिया जाए
और कला और शिल्‍प की कमज़ोरियों के बावजूद
एक आत्‍मीय और चिन्तित करने वाली
कामचलाऊ, पठनीय कविता लिखी जा सकती है
भले ही वह महान कविता न हो।

कुण्डलाकार विचार

पृथ्वी कितना सूक्ष्म भाग है
और मनुष्य
कितना सूक्ष्मातिसूक्ष्म कणांश है
इस ब्रह्माण्ड का।

मिटना है एक दिन पृथ्वी को,
पृथ्वी पर जीवन को।

फिर क्यों कुछ करें?
क्यों लिखें कविता?
क्यों समय व्यर्थ करें
नया समाज बनाने की चिन्ता-तैयारी में?
क्यों करें नये-नये आविष्कार?

क्यों न जिएँ जीवन
जो मिला मात्र एक है, सीमित है।

सोचते रहें इन प्रश्नों पर भले ही,
पर चलो थोड़ा जी लें।

शुरू कहाँ से करें जीना,
सुखपूर्वक
आज़ादी से।

चलों, लिखें एक कविता।
अपने लोगों के पास चलें
सोचें नया समाज रचने की
तैयारी करें।

किसी नए आविष्कार की उत्तेजना,
किसी दार्शनिक चिन्ता या उलझन में
जिएँ
जीना फिर यहाँ से शुरू करें !

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