Skip to content

DSC01336.JPG

अब सामने लाएँ आईना क्या 

अब सामने लाएँ आईना क्या
हम ख़ुद को दिखाएँ आईना क्या

ये दिल है इसे तो टूटना था
दुनिया से बचाएँ आईना क्या

हम अपने आप पर फ़िदा हैं
आँखों से हटाएँ आईना क्या

इस में जो अक्स है ख़बर है
अब देखें दिखाएँ आईना क्या

क्या दहर को इज़ने-आगही दें
पत्थर को दिखाएँ आईना क्या

उस रश्क़े-क़मर से वस्ल रखें
पहलू में सुलाएँ आईना क्या

हम भी तो मिसाले-आईना हैं
अब ‘तूर’ हटाएँ आईना क्या

तेरे फ़िराक़ में जितनी भी अश्कबारी की 

तेरे फ़िराक़ में जितनी भी अश्कबारी की
मिसाले-ताज़ा रही वो दिले-हज़ारी की

था कुछ ज़मने का बर्ताव भी सितम आमेज़
थी लौ भी तेज़ कुछ अपनी अना-ख़ुमारी की

ये किसके नाम का अब गूँजता है अनहदनाद
ये कौन जिसने मेरे दिल पे मीनाकारी की

कभी-कभी ही हुई मेरी फ़स्ले-जाँ सर सब्ज़
कभी कभी ही मेरे इश्क़ ने पुकारी की

अगर वो सामने आए तो उससे पूछूँ मैं
ये किस की फ़र्दे-अमल मेरे नाम जारी की

सदा-ए-दर्द पड़ी भी तो बहरे कानों में
हमारे दिल ने अगर्चे बहुत पुकारी की

जो हम ज़माने में बरबाद हो गए हैं तो क्या
सज़ा तो मिलनी थी आख़िर ख़ुद अख़्तियारी की

जिसे न पासे महब्बत न दोस्ती का लिहाज़
ये ‘तूर’ तुमने भी किस बेवफ़ा से यारी की

तेरे ही क़दमों में मरना भी अपना जीना भी 

तेरे ही क़दमों में मरना भी अपना जीना भी
कि तेरा प्यार है दरिया भी और सफ़ीना भी

मेरी नज़र में सभी आदमी बराबर हैं
मेरे लिए जो है काशी वही मदीना भी

तेरी निगाह को इसकी ख़बर नहीं शायद
कि टूट जाता है दिल-सा कोई नगीना भी

बस एक दर्द की मंज़िल है और एक मैं हूँ
कहूँ कि ‘तूर’! भला क्या है मेरा जीना भी.

राह-ए-सफ़र से जैसे कोई हमसफ़र गया 

राह-ए-सफ़र से जैसे कोई हमसफ़र गया
साया बदन की क़ैद से निकला तो मर गया

ताबीर जाने कौन से सपने की सच हुई
इक चाँद आज शाम ढले मेरे घर गया

थी गर्मी—ए—लहू की उम्मीद ऐसे शख़्स से
इक बर्फ़ की जो सिल मेरे पहलू में धर गया

है छाप उसके रब्त की हर एक शे`र पर
वो तो मेरे ख़याल की तह में उतर गया

इन्सान बस ये कहिए कि इक ज़िन्दा लाश है
हर चीज़ मर गई अगर एहसास मर गया

इस ख़्वाहिश-ए-बदन ने न रक्खा कहीं का `तूर’ !
इक साया मेरे साथ चला मैं जिधर गया.

इम्काने-असर दुआ फ़लक़ तक

इम्काने-असर दुआ फ़लक़ तक
है पर खोले हुमा[1]फ़लक़ तक

कब पैरवी-ए-ज़माना होती
वैसे तो हैं नक़्शे-पा फ़लक़ तक

कुछ कम असरे-जुनूँ न समझो
जाता है ये रास्ता फ़लक़ तक

फेरेगा रुख़ ये जाँ ही लेकर
है सैले-ग़मे फ़ना फ़लक़ तक

हर सम्त अना ज़हूर पर है
रौशनी है क़ुतुब नुमा फ़लक़ तक

बार-आवर हो न हो ज़मीं पर
जाती है मेरी दुआ फ़लक़ तक

इस उम्रे-रवाँ की बात क्या है
है ‘तूर’ गुरेज़-पा फ़लक़ तक

शब्दार्थ
  1. ऊपर जायें एक परिन्दा जिसका साया जिस पर पड़े वो बादशाह बन जाता

नज़र उठाई और अपना असीर कर डाला

नज़र उठाई और अपना असीर कर डाला
इस एक ज़र्रे को माहे-मुनीर कर डाला

तराश दी मेरे दिल पर किसी चराग़ की लौ
ये क्या किया मुझे अपनी नज़ीर कर डाला

ख़ज़ाना ग़म का सँभाले नहीं सँभलता अब
तुम्हारे इश्क़ ने कितना अमीर कर डाला

न जाने कौन-सा दम फूँका गुल-ज़मीनों ने
कि एक ख़ाक को ख़ुश्बू-सफ़ीर कर डाला

मेरी अना ने नमू याब मुझको रखना था
सो अर्ज़े आब को मिट्टी लकीर कर डाला

ये मेरी आहे रसा ने निकल के होंठों से
मुझे ख़ुद अपनी नज़र में हक़ीर कर डाला

मैं उसको ढूँढूँ कि ‘तूर’ अपना-आप पहचानूँ
उस एक वस्ल ने मुझको फ़क़ीर कर डाला

जहाँ पे गुम है मिलेगा वहीं सुराग़ उसका 

रहा सबाते-गुमाँ ला-यक़ीं सुराग़ उसका
जहाँ पे गुम है मिलेगा वहीं सुराग़ उसका

दिलों में झाँकना होगा जो उसको ढूँढना है
ये दैहर कहते हैं जिसको नहीं सुराग़ उसका

इस आस्ताने से हट कर नहीं जहाँ में कुछ
जो चाहते हो है मेरी जबीं सुराग़ उसका

सुराग उसका मिलेगा सुराग़ के अन्दर
नहीं है फिर तो कहीं भी नहीं सुराग़ उसका

ख़राबा मिट के भी देता है ख़ू-ए-बू-ए-मकाँ
कहीं नहीं है मगर है कहीं सुराग़ उसका

उसे तलाश न कर तू पुराने ज़ाविए से
सितारा नक़्श है ऐ हम नशीं सुराग़ उसका

मैं आसमान की ख़बरों पे ‘तूर’ क़ादिर हूँ
मैं क्या बताऊँ है ज़ेरे-ज़मीं सुराग़ उसका

दिल ज़ेरे गुमाँ रहे तो बेहतर

दिल ज़ेरे गुमाँ रहे तो बेहतर
यह ख़ून रवाँ रहे तो बेहतर

क्या फूल खिले हैं ख़्वाब रुत के
बरहम यह जहाँ रहे तो बेहतर

पहचान नहीं है दुश्मनों की
बे-क़ुफ़्ल मकाँ रहे तो बेहतर

अब हर्फ़े-जुनूँ न कह सकोगे
अब बन्द ज़बाँ रहे तो बेहतर

ख़ुद अपने ख़िलाफ़ बज़्म में ‘तूर’
इक ताज़ा बयाँ रहे तो बेहतर

मैं वहम हूँ या हक़ीक़त ये हाल देखने को 

मैं वहम हूँ या हक़ीक़त ये हाल देखने को
गिरफ़्त होता हूँ अपना विसाल देखने को

चराग़ करता हूँ अपना हर इक अज़ू-ए-बदन
त्तरस गया हूँ ग़मे-ला-ज़वाल देखने को

मैं आदमी हूँ कि पत्थर जवाब देते नहीं
चले हैं चले हैं कोहे-नदा से सवाल देखने को

न शऊर हैं न सताइश अजब ज़माना है
कहीं पे मिलता नहीं अब कमाल देखने को

मैं ‘तूर‘ आख़िरी साअत का एक मंज़र हूँ
वो आ रहा है मुझे बे मिसाल देखने को

ख़ुद से मिलने के ही कुछ असबाब न थे 

ख़ुद से मिलने के ही कुछ असबाब न थे
वरना यह ज़ाहिर है हम कमयाब न थे

उन आँखों को देखा तो हम पर ये खुला
बात और थी कुछ ये दरिया पायाब न थे

जाती रुत का उन पर क़हर पड़ा आख़िर
जो पत्ते उन शाख़ों पर शादाब न थे

मेरी आँखों के आँसू का मोल ही क्या
ये वो नगीने हैं जो कभी नायाब न थे

जितना लबे-लरज़िश से ज़ाहिर होता है
‘तूर’ हम उतना कहने को बेताब न थे

पानी मकाँ अगले क़दमों में 

पानी मकाँ अगले क़दमों में
इक इक जहाँ अगले क़दमों में

सूरत अगर है यही दिल की
इम्काने-जाँ अगले क़दमों में

है पिछले क़दमों में यह दुनिया
मेरा जहाँ अगले क़दमों में

लिख दें हवाओं के चेहरे पर
अगला निशान अगले क़दमों में

सूरत यही हो सफ़र की ‘तूर’
हर आसमाँ अगले क़दमों में

Leave a Reply

Your email address will not be published.