Skip to content

यह नगरी महँ परिऊँ भुलाई

यह नगरी महँ परिऊँ भुलाई।
का तकसीर भई धौं मोहि तें, डारे मोर पिय सुधि बिसराई॥
अब तो चेत भयो मोहिं सजनी ढुँढत फिरहुँ मैं गइउँ हिराई।
भसम लाय मैं भइऊँ जोगिनियाँ, अब उन बिनु मोहि कछु न सुहाई॥
पाँच पचीस की कानि मोहि है, तातें रहौं मैं लाज लजाई।
सुरति सयानप अहै इहै मत, सब इक बसि करि मिलि रहु जाई॥
निरति रूप निरखि कै आवहु, हम तुम तहाँ रहहिं ठहराई।
‘जगजीवन’ सखि गगन मँदिर महँ, सत की सेज सूति सुख पाई॥

बहु पद जोरि-जोरि करि गावहिं

बहु पद जोरि-जोरि करि गावहिं।
साधन कहा सो काटि-कपटिकै, अपन कहा गोहरावहिं॥
निंदा करहिं विवाद जहाँ-तहँ, वक्ता बडे कहावहिं।
आपु अंध कछु चेतत नाहीं, औरन अर्थ बतावहिं॥
जो कोउ राम का भजन करत हैं, तेहिकाँ कहि भरमावहिं।
माला मुद्रा भेष किये बहु, जग परबोधि पुजावहिं॥
जहँते आये सो सुधि नाहीं, झगरे जन्म गँवावहिं।
‘जगजीवन’ ते निंदक वादी, वास नर्क महँ पावहिं॥

साधो रसनि रटनि मन सोई

साधो रसनि रटनि मन सोई।
लागत-लागत लागि गई जब, अंत न पावै कोई॥
कहत रकार मकारहिं माते, मिलि रहे ताहि समोई।
मधुर-मधुर ऊँचे को धायो, तहाँ अवर रस होई॥
दुइ कै एक रूप करि बैठे, जोति झलमती होई।
तेहि का नाम भयो सतगुरु का, लीह्यो नीर निकोई॥
पाइ मंत्र गुरु सुखी भये तब, अमर भये हहिं वोई।
‘जगजीवन’ दुइ करतें चरन गहि, सीस नाइ रहे सोई॥

पावक सर्व अंग काठहिं माँ

पावक सर्व अंग काठहिं माँ, मिलिकै करखि जगावा।
ह्वैगै खाक तेज ताही तैं, फिर धौं कहाँ समावा॥
भान समान कूप जब छाया, दृष्टि सबहि माँ लावा।
परि घन कर्म आनि अंतर महँ, जोति खैंचि ले आवा।
अस है भेद अपार अंत नहिं, सतगुरु आनि बतावा।
‘जगजीवन जस बूझि सूझि भै, तेहि तस भाखि जनावा॥

साधो को धौं कहँते आवा

साधो को धौं कहँते आवा।
खात पियत को डोलत बोलत, अंत न का पावा॥
पानी पवन संग इक मेला, नहिं विवेक कहँ पावा।
केहिके मन को कहाँ बसत है, केइ यहु नाच नचावा॥
पय महँ घृत घृत महँ ज्यों बासा, न्यारा एक मिलावा।
घृत मन वास पास मनि तेहिमाँ, करि सो जुक्ति बिलगावा॥

Leave a Reply

Your email address will not be published.