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पानी बरसा

खोल दिया मेढक टोली ने
हर गड्ढे में एक मदरसा,
ढिंग्चक ढिंग्चक पानी बरसा।

तरह-तरह के बादल नभ में
धमा-चौकड़ी लगे मचाने,
खो-खो और कबड्डी जैसे
खेलों के खुल गए खज़ाने
लगता हर बिजली का रेला
अट्टहास उनका निर्झर-सा!

मिट्टी में नव अंकुर फूटे
दौड़ लगाते नदिया-नाले,
तालाबों के छक्के छूटे
बरसे बादल काले-काले।
देख धरा पर हरियाली को,
फिर कोई भी मोर न तरसा!

दिशा-दिशा में हलचल उभरी,
पंछी उड़े पतंगों-जैसे,
पुरवाई के हँसमुख झोंके
लगते नई उमंगों जैसे।
इंद्रधनुष के तन जाते ही
छवियों का अभिवादन सरसा!

मक्की और चक्की

हिरन कहीं से लेकर आया
बोरे में भर मक्की,
उसकी घरवाली जंगल में
लगी पीसने चक्की।
निकला कोई शेर उधर से
करने सैर-सपाटा,
प्राण बचाकर हिरनी भागी
धरा रह गया आटा।

कबाड़ी की गाड़ी

पीपल के नीचे रहता था
चूहा एक कबाड़ी,
दो-दो मेढक जोत-जोतकर
खूब चलाता गाड़ी।
सीधा-सादा पथ हो चाहे
उबड़-खाबड़ झाड़ी,
बड़े मजे से उचक-उचककर
चलती उसकी गाड़ी।

हाथी दादा

हाथी दादा चले घूमने होकर जब तैयार,
बाहर उनके लिए जीप सी खड़ी हुई थी कार।
उसके भीतर ज्यों ही दादा होने लगे सवार,
टायर फटा बोझ से भाई कार हुई बेकार।

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