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बेटे की विदाई

अम्मा ने आटे के नौ-दस, लड्डू बाँध दिये;
बोलीं- ‘रस्ते में खा लेना, लम्बी दूरी है।’

ठोस प्रेम का तरल रूप, आँखों से छलकाया।
माँ की ममता देख कलेजा, हाथों में आया।
‘दही-मछरिया’ कहकर मेरे, गाल-हाथ चूमे।
समझाया कि सिर पे गमछा, बाँध लियो लू में।

बार-बार पल्लू से भीगी, पलकें पोंछ रहीं;
दबे होंठ से टपक रही, बेबस मंजूरी है।
बोलीं, ‘रस्ते में खा लेना, लम्बी दूरी है।’

पिता मुझे बस में बैठाने, अड्डेम तक आये।
गाड़ी में थी देर जलेबी, गरम-गरम लाये।
छोटू जाकर हैंण्डपम्प से, पानी भर लाया।
मुझे पिलाकर पाँव छुये, कह ‘चलता हूँ…भाया!’

तन की तन्दूरी ज्वाला, दर-दर भटकाती है;
गाँव छोड़के शहर जा रहा हूँ, मजबूरी है।
बोलीं, ‘रस्ते में खा लेना, लम्बी दूरी है।’

ज्यों ही गाड़ी छूटी, हाय! पिता बहुत रोये।
झुर्री वाले गाल, आँख के पानी से धोये।
रुँधे गले से बोले, ‘लल्ला! चिट्ठीत लिख देना…
रस्ते में कोई कुछ खाने को दे, मत लेना।

ज़हरख़ुरानी का धंधा, चलता है शहरों में;
सोच-समझकर चलना, बेटा! बहुत ज़रूरी है।’
बोलीं, ‘रस्ते में खा लेना, लम्बी दूरी है।’

शहर पहुँचकर मैंने दर-दर, की ठोकर खायी।
नदी किनारे बसे गाँव की, याद बहुत आयी।
दरवाज़े का नीम, सामने, शंकर की मठिया।
पीपल वाला पेड़ और वह, कल्लू की बगिया।

मुखिया की बातें कानों में, रह-रहकर गूँजीं;
घर का चना-चबेना…बेटा, हलवा-पूरी है!
बोलीं, ‘रस्ते में खा लेना, लम्बी दूरी है।’

(शब्दार्थ : दही मछरिया = शुभ-यात्रा, हैपी जर्नी, फलप्रद यात्रा की मंगलकामना के अर्थ में ग्रामीण अंचल में प्रचलित)

अम्मा: दुर्दशा के दृश्य

रोज़ी-रोटी मिली शहर में, कुनवा ले आया।
बड़ी बहू को रास न आया, अम्मा का साया।

ये कह-कहकर अम्मा पे, गुर्राय घड़ी-घड़ी।
‘कौन बनाके दे बुढ़िया को, चाय घड़ी-घड़ी?’

बेटे के घर बोझ बनी, माँ की बूढ़ी काया।
बड़ी बहू को रास न आया, अम्मा का साया।

पत्नी की जंघा सहलाने, वाले हाथों ने।
अम्मा के पग नहीं दबाये, दुखती रातों में।

रूप-जाल में कामुकता ने, इतना उलझाया।
बड़ी बहू को रास न आया, अम्मा का साया।

माँसहीन हाड़ों पर सर्दी, ने मारे चाँटे।
अगहन-पूस-माघ अम्मा ने, कथरी में काटे।

बहू, बहू है, बेटे को भी, तरस नहीं आया।
बड़ी बहू को रास न आया, अम्मा का साया।

रात-रातभर ख़ाँस-ख़ाँसकर, साँस उखड़ जाती।
नींद न आती करवट बदलें, पकड़-पकड़ छाती।

जीवन पर मँडराती, पतझर की काली छाया।
बड़ी बहू को रास न आया, अम्मा का साया।

खटिया पर लेटीं अम्मा, सिरहाने पीर खड़ी।
बहू मज़े से डबल बेड पर, सोये पड़ी-पड़ी।

क्या मतलब, अम्मा ने खाना, खाया, न खाया।
बड़ी बहू को रास न आया, अम्मा का साया।

बँटवारा : कुछ दृश्य

बेटों ने आँगन में इक, दीवार खड़ी कर दी;
पिता बहुत हैरान, उधर महतारी सिसक रही!

बड़कू बोला- ‘अम्मा के, सारेऽऽऽ गहने लेंगे!’
मझला पूछे- ‘बगिया वाला, खेत किसे देंगे?’

ये सवाल सुन, मइया का दिल, चकनाचूर हुआ;
बूढ़े पाँवों के नीचे की, धरती खिसक रही!
पिता बहुत हैरान, उधर महतारी सिसक रही!

बँटवारे ने…देखो, कितनी, राह गही सँकरी!
बड़कू ने गइया खोली, तो मझले ने बकरी!

रस्सी थामे निकल पड़े, ले नये ठिकाने पर;
मुड़-मुड़ खूँटा ताके बेबस, बछिया बिदक रही!
पिता बहुत हैरान, उधर महतारी सिसक रही!

छोटू तो छोटा ठहरा, कुछ बोल नहीं पाया।
उसके हिस्से आया, अम्मा-दद्दा का साया।

‘गइया और मड़इया तो दे दो बड़के भइया!’
इतना भी कहने में उसको, लगती झिझक रही।
पिता बहुत हैरान, उधर महतारी सिसक रही!

हमारा दौर : कुछ चित्र

काल-वक्ष पर टाँक रहे हो, कायरता के मंज़र जैसे!
बाहर से हलचलविहीन पर, भीतर एक बवंडर जैसे!

क्रोध-ज्वार मुट्‌ठी में भींचे, साहस थर-थर काँप रहा है।
ध्वनिविहीन विप्लव का स्वर, अम्बर की दूरी नाप रहा है।
श्वेित-श्या‌ममय लाल कोष्ठकों, से विषाद-सा टपक रहा है।
भित्ति-वक्ष से सटा सिसकता, टँगा कील पर फड़क रहा है।

मरी हुई तारीख़ों वाला, जीवन एक कलंडर जैसे!
बाहर से हलचलविहीन पर, भीतर एक बवंडर जैसे!

चाटुकारिता के कौशल ने, नाप लिये हैं शिखर समूचे।
जीवनभर तुम रहे कर्मरत, एक इंच ऊपर न पहुँचे।
गतिमय स्थिरता के साधक, लहर-वलय में ख़ूब विचरते।
सीमाओं में बँधे निरंतर, पर असीम का अभिनय करते।

ठहरे हुए जलाशय-से हो, सपने किन्तु समुन्दर जैसे!
बाहर से हलचलविहीन पर, भीतर एक बवंडर जैसे!

धराधाम की प्यास विकल है, मेघ सिन्धु में बरस रहे हैं।
वृक्ष खड़े निर्पात, सरोवर, बूँद-बूँद को तरस रहे हैं।
सीख लिया है आँख मूँदना, कर्ण-कुहर अब नहीं खोलते।
कुछ भी होता रहे कहीं भी, अधर तुम्हारे नहीं डोलते।

विकृत अनुयायी-स्वरूप में, गाँधी जी के बन्दर जैसे!
बाहर से हलचलविहीन पर, भीतर एक बवंडर जैसे!

उलझा हुआ सवेरा है

आज निराशाओं ने डाला, द्वार-द्वार पर डेरा है।
देव! नवल आलोक जगा दो, छाया घोर अँधेरा है।

ख़ुद अपनी ही क़बर खोदता, खड़ा मनुज निज हाथों से।
फूलों का सीना ज़ख़्मी है, निज कुल के ही काँटों से।

राजनीति ने कैनवास पर, कैसा चित्र उकेरा है?
देव! नवल आलोक जगा दो, छाया घोर अँधेरा है।

दिशाहीन यूँ देश कि जैसे, तरणी तारणहार बिना।
चूल्हे मकड़ी के क्रीड़ांगन, प्रजा सु-पालनहार बिना।

सर्दी-गर्मी-वर्षाऋतु में, अम्बर तले बसेरा है।
देव! नवल आलोक जगा दो, छाया घोर अँधेरा है।

सच्चाई के पथ पर मानव, चलने में सकुचाता है।
अन्यायी के चंगुल में फँस, न्याय खड़ा अकुलाता है।

दुर्दिन की रजनी का चहुँदिश, दिखता प्रसृत घेरा है।
देव! नवल आलोक जगा दो, छाया घोर अँधेरा है।

हिंसा, भ्रष्टाचार, लूट, घोटालों के अंधे युग में।
हंस खड़े आँसू टपकाएँ, काग लगे मोती चुगने।

अंधकार के कुटिल जाल में, उलझा हुआ सवेरा है।
देव! नवल आलोक जगा दो, छाया घोर अँधेरा है।

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