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तारकेश्वरी तरु ‘सुधि’ की रचनाएँ

जब की मैने बात अमन की

जब की मैने बात अमन की
रख ली उसने लाज़़ वचन की

उथली-गहरी हर रंगों की
झील बनी है मानव मन की

बच्चे के नन्हें पंखों ने
देखी थी मुस्कान गगन की

पवन जिधर की आग उधर की
बात न पूछो आज वतन की

मानव दे मौसम-सा धोखा
समझ गया है फितरत मन की

झुकती फसलें छूने भर से
लगती गहरी प्रीत पवन की

साथ निभाता मिट जाने तक
सच्ची यारी दीन-वसन की

हँसती कलियाँ विद्यालय की
बात निराली उस उपवन की

सूखा -सूखा सावन सारा

सूखा-सूखा सावन सारा
गुज़रा ऐसे जीवन सारा

माली बन सींचा था उसने
उजड़ा क्षण में उपवन सारा

उनके कद़मों की आहट से
पावन हुआ तपोवन सारा

रात अँधेरी तो थी लेकिन
जगमग यादों से मन सारा

बाँध तिजोरी में रखती हूँ
तेरी यादों का धन सारा

रात अभी बाकी थी लेकिन
ख़्वाब अधूरा तुम बिन सारा

उनकी यादें दीपक बनकर
जीवन करती रौशन सारा

अपना सोचा होता कैसे

अपना सोचा होता कैसे?
करती मैं समझौता कैसे?

रक्त गिरा हो जिधर शज़र का
निकलेगा जल-सोता कैसे?

थकन नहीं होती गर तन में
बिन गद्दे श्रम सोता कैसे?

दुख में हाथ पकड़ लेता गर
तो अपनो को खोता कैसे?

दूरी हो दरिया से जिसकी
मारे जल में गोता कैसे?

ख़बर नहीं रखता बारिश की
बीज कृषक तब बोता कैसे?

भागीरथ तुम अगर न होते
मन पापों को धोता कैसे?

प्रीत तुझको भूलकर जीने लगी पल आज हर

प्रीत तुझको भूलकर जीने लगी पल आज हर-
नैन भी इसके नहीं अब जागते हैं रात भर।

खूब रोया आसमां तुमसे जुदा होते समय-
है धरा आँचल तुम्हारा आँसुओं से तर-ब-तर।

कौन-सा रिश्ता बचा है बोल अपने दरमियां-
जो कहूँ ये काश! तुमको देख मैं पाऊँ अगर।

थे किसी का ख़्वाब या तुम थे किसी की आरज़ू-
टूट जाने के निशान मौजूद अब भी आप पर।

एक दिन उसने कहा तुम छोड़ मत जाना मुझे-
हम तभी से बैठे उनकी बेवफाई थाम कर।

पेड़ की इक शाख़ से उसका रहा रिश्ता सदा-
सुन रही हूँ लौट आया एक पंछी आज घर।

हौसला आकाश छूने जो गया

हौसला आकाश छूने जो गया-
देख फिर डर आज छुपने को गया।

रात आई साथ लेकर चाँद को-
आज बच्चा मुस्कुराकर सो गया।

ओस की बूँदें गिरीं थी सीप में-
इश्क़ उनका एक मोती हो गया।

आज फिर से ख़्वाब में वह आ मिला-
एक पल फिर दिल लगाकर खो गया।

रात में दिन की थकन सोने लगी-
रूठ कर अब ख़्वाब भी समझो गया।

ऐ सुनो! क़दमों ज़रा धीमे चलो-
आस का इक बीज कोई बो गया।

सँग में लेकर शूल मिली

मेरी राहें हरदम मुझसे, सँग में लेकर शूल मिली
जब भी चाहा उड़कर देखूँ, हवा सदा प्रतिकूल मिली

सम्मुख़ था इक कोरा मुख़ड़ा, नयनों में आवाज़ नहीं
मैने सोचा पढकर देखूँ, पर मुखड़े पर धूल मिली

आखिर कब तक घुटकर जीएँ, दिल कहता है आज मुझे
लब ने जब कुछ कहना चाहा, बस बातों को तूल मिली

दिल में कुछ उम्मीदें रखकर, राही मीलों दूर चले
नज़र उठी, पाया वीराना, मंजिल गर्ते फूल मिली

बहकावे में आकर जिसने, सिर फोड़ा था अपनों का
तह तक जब पहुँचे थे सबकी, मामूली—सी भूल मिली

उड़ जायेगी दूर गगन में, भूल जगत को प्रियतम सँग
अंत समय में उसको आख़िर, ये इक दुआ कुबूल मिली

साँझ गये मैं बैठी छत पर, इक छोटी गठरी लेकर
खुशबू का दोशाला ओढ़े, सब यादें माकूल मिली

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