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गोपिन के अँसुवान के नीर

गोपिन के अँसुवान के नीर पनारे बहे बहिकै भए नारे ।
नारे भए ते भई नदियाँ नदियाँ नद ह्वै गए काटि कगारे ।
बेगि चलौ तो चलो ब्रज को कवि तोष कहै ब्रजराज दुलारे ।
वे नद चाहत सिँधु भए अब सिँधु ते ह्वै हैँ जलाजल खारे ।

तोष का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल महरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।

बिछुरे मग जाती सँघाती

बिछुरे मग जाती सँघाती मिली चख चाति कै धार सवाती मिली ।

रसना जड़ की सरसाती मिली चित सूम को सोन की थाती मिली ।

जड़ बूड़ति नाव सोहाती मिली बिरहा कतलान की काती मिली ।

कहि तोष सबै सुख पाती मिली सजनी पियपानि की पाती मिली ।

तोष का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल महरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।

सरकै अँग अँग अबै गति सी

सरकै अँग अँग अबै गति सी मिसि की रिसकी सिसकी भरती ।

करि हूँ हूँ हहा हमसो हरिसो कै कका की सोँ मो करको धरती ।

मुख नाक सिकोरि सिकोरति भौँहनि तोष तबै चित को हरती ।

चुरिया पहिरावत पेखिये लाल तौ बाल निहाल हमै करती ।

तोष का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल महरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।

तेरियै चित्र के काज हमै करि

तेरियै चित्र के काज हमै करि तोष सबै ब्रजराज दये हैँ ।

पत्र बिचित्र बिचित्र बनाइ सिखाइ सबै बहु मोद मये हैँ ।

रँग बनावत अँग लगे सर ल्यावत लेखनी काज नये हैँ ।

एरी भटू ! बलि तेरे लिये हरि मेरे चितेरे के चेरे भये हैँ ।

तोष का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल महरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।

कैसे कहौँ कोक वे तो शोक ही मे रहेँ निशि

कैसे कहौँ कोक वे तो शोक ही मे रहेँ निशि ,
ये तो शशिमुखी सदा आनँद सोँ हेरे हैँ ।
कैसे कहौँ करि कुम्भ वे तो कारे करकस ,
ये तो चीकने हैँ चारु हार ही सोँ घेरे हैँ ।
कैसे कहौँ कौल वे तो पकरे बिथुरि जात ,
ये तो गोरे गाढ़े आछे ठाढ़े आपु नेरे हैँ ।
याही है प्रमान तोष उपमा न आन ,
प्यारी तरु तरुनाई ताके फल कुच तेरे हैँ ।

तोष का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल महरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।

लाज बिलोकन देत नहीँ रतिराज

लाज बिलोकन देत नहीँ रतिराज बिलोकन ही की दई मति ।

लाज कहै मिलिये न कहूँ रतिराज कहै हित सोँ मिलिये यति ।

लाजहु की रतिराजहु की कहै तोष कछू कहि जात नहीँ गति ।

लाल निहारिये सौँह कहौँ वह बाल भई है दुराज की रैयति ।

तोष का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल महरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।

आओ जिन आइबे को गहो जिन गहिबे को

आओ जिन आइबे को गहो जिन गहिबे को ,
गहे रहिबे को छोड़ि छोड़िकै सुनावती ।
खीझिहू को रीझि झिझिकारिबो मया है अरु ,
रोसै रस ज्योँ ज्योँ भृकुटीन को चढ़ावती ।
कहै कवि तोष हाँ को नाहिँये कहत नारि ,
रावरी सोँ तुमसो न भेद मैँ दुरावती ।
सुख जो चहौगे तो न भरम गहौगे लाल ,
निपट निबोढ़न की पारसी बतावती ।

तोष का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल महरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।

भूषन भूषित दूषन हीन प्रवीन

भूषन भूषित दूषन हीन प्रवीन महारस मैं छबि छाई.
पूरी अनेक पदारथ तें जेहि में परमार्थ स्वारथ पाई.
औ उकतें मुकतै उल्ही कवि तोष अनोषभरी चतुराई.
होत सबै सुख की जनिता बनि आवति जौं बनिता कविताई.

एक कहै हँसि उधवजू!

एक कहै हँसि उधवजू!ब्रज की जुवती तजि चंद्रप्रभा सी.
जाय कियो कहँ तोष प्रभू!इक प्रानपिया लहि कंस की दासी.
जो हुते कान्ह प्रवीन महा सो हहा!मथुरा में कहाँ मतिनासी.
जीव नहीं उबियात जबै ढिग पौढ़ति हैं कुबिजा कछुआ सी?

श्रीहरि की छबि देखिबे को

श्रीहरि की छबि देखिबे को अँखियाँ प्रति रोमहि में करि देतो.
बैनन को सुनिबे हित स्रौन जितै तित सो करती करि हेतो.
मो ढिग छाँड़ी न काम कहूँ रहै तोष कहै लिखितो बिधि एतो.
तौ करतार इति करनी करिकै कलि में कल कीरति लेतो.

तौ तन में रबि को प्रतिबिंब परे

तौ तन में रबि को प्रतिबिंब परे किरनै सो घनी सरसाती.
भीतर हु रहि जात नहीं,अँखियाँ चकचौंधि ह्वै जाति हैं राती.
बैठि रहौ,बलि,कोठरी में कह तोष करतु बिनती बहु भाँती.
सारसीनैनि लै आरसी सो अँग काम कहा कढि घाम में जाती.

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