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कविता – 1 

जिन घरों की दीवारों पर रंग नही होते
वहाँ दो चार मुरझाए हुए से
फूलों में कैद रंग
हर नए दिन इत्मीनान की एक पुरानी परिभाषा की,
आत्मीयता से रक्षा करते हैं।
जिन घरों में हकीकत बहुत कड़वी होती है
वहीं विकसित होती है कल्पनाएं
अधिक।
उन घरों के आंगनों में,
पनपकर सूख जाते हैं भाषाओं के सब सिद्धान्त।

उन घरों की खूँटियों पर टँगा मिलेगा
पुराने लिफाफे, खेत का सामान, आदि आदि…
लेकिन नही मिलेगी ऐसी खूँटी कोई
जिस पर टँग सकें गहरे सन्ताप, फैली पीड़ाएँ
और अहरह के दुख।

एक दिशा है जिसमें एक अमीर तारा
कभी नही डूबता,
उस दिशा में कभी नही जाता सूरज
उस दिशा में कभी गरीबी अस्त नही होती,
दुनिया में जितने बेरंग घर हैं
सब उसी दिशा में हैं।

मैं जिंदगी में जितने इंद्रधनुष देखूँगा,
अपनी कविताओं के बदले
सबसे रंग माँगूँगा,
उन घरों के लिए….
जिनकी दीवारें बेरंग होती हैं।

कविता – 2 

मैंने देखा है
पौष की भयावह ठंडी रात में,
एक बीड़ी को;
जूतों का काम करते हुए,
और एक सन्तरी पऊए को
बिस्तर का।

मैंने तापा है सड़क किनारे
जलती बुझती आग को
जो जलाई गयी थी
आस पास का कूड़ा और
रात कटने की उम्मीद इकट्ठा करके।

वक़्त आदमी को किस तरह बरतता है?
सब सभ्यताएँ,
टकराती हैं एक ही सवाल से…
उस सवाल की गूँज को
महसूस करती है आत्मा
किन्तु,
परहेज करता है आदमी।

हजारों लाखों का ज्ञान…
बिकता है केवल बीस रुपये में,
सांझ की रोटी के शगल में।

जो भी हो,
गरीबी की आग में
अधिक गर्मी होती है।

कविता – 3

क्या कभी महसूसा है किसी ने
तथाकथित आलोचकों के भीतर
बहुत गहरे में…
एक बेहतरीन कविता लिखने की
तड़पती हुई इच्छा को?
जो सदा सदा तड़पती रही है भीतर उनके।

इस इच्छा को वरदान है,
अश्वथामा जैसा।

कविता – 4

अनगिनत अर्थों को
शब्दों के आगे गिड़गिड़ाते देखकर
अर्थों से भाषा होने का हुनर सीखना स्वाभाविक है
शब्द कई बार सिर्फ आडम्बर रचते हैं,

कितनी बातें हैं
जो संवाद समाप्ति के घेरे में हैं
यह संवाद कोई अलौकिक वस्तु नही है
यह तो हमारी कविताओं में उपजे
एकालाप का ठीक विपरीत है।

ना जाने कितने विशेषण ऐसे पनप रहे हैं
जो संज्ञाओं के आस्तित्व पर घात लगाए बैठे हैं।

अपनी अनुभूतियों को खूंटे से खोलना होगा,
शेष अर्थांश की लाठी लेकर
शाब्दिक आडम्बर से भिड़ जाना होगा,
यह उचित समय है।

मैं कहूँगा,
विचलित होना अत्यंत महत्वपूर्ण है।
इन परिस्थितियों में,
जब तमाम असवेंदनशील शब्द…
भावतरंगों का ढोंग रचते,
अभुभवों के पर्याय होने का नाटक करते..
एक स्पंदनहीन कविता का उधड़ा हुआ जामा पहने हुए,
मरणोन्मुख एक कतार में हैं,
तो क्या यह जरूरी नही,
कि विचलित होने का दायरा
और व्यापक हो?

कविता – 5

मेरे कवि होने के ताने मिले हैं मुझे…
इस तरह
इन हालात में
प्रायः कविता लिखी नही जाती
बल्कि वह तो
आत्मा के प्रकाश पुंज से उतपन्न होकर
मेरी देह की परतों को फोड़ती हुई
चुपके से मेरे सभ्य समाज के
मरुस्थल में बहकर कहीं गुम हो जाती है।

कविता – 6

जब पीला पड़ जाएगा सब कुछ,
यथार्थ जब बंजर जमीन सा होगा,
तब भी हरी रहेंगी कविताएँ।
तुम्हारे हृदय के सबसे गहरे तल पर फैले घने अंधरे में
प्रकाश पुंज की तरह उभरेंगी
तुम्हारे मष्तिष्क की सबसे शुष्क जगह को
सिंचित करेंगी।

दो कहानियों को जोड़ती हैं कविताएँ
“पुल की तरह भी और खाई की तरह भी”
(उपरोक्त पंक्ति गीत चतुर्वेदी की कविता की पंक्तियों से प्रेरित)
देहान्त में देह का अंत होता है
कविताओं की देह नही होती,
कविताओं के अंत के लिए कोई शब्द नही।

कितने पाठक हैं जो तकलीफ चाहते हैं
कविता के सृजन का आधार ‘तकलीफ’ मानकर।
अब कितने पाठक होंगे
जो तकलीफ नही किताबें चाहेंगे।

कितने शब्द हैं
जो कहानियाँ बनते बनते
कविता बन गए अनायास ही।
एक विडम्बना है
कि सब कुछ देखने वाली आँखें
अपने ठीक सामने पलकों को नही देख सकती।

कविताएँ कहानियों में से उग आती हैं
और कहानियाँ कविताओं के आँचल में पलती हैं
आखिर,
हर कवि एक कहानी ही तो होता है।

कल्पनाएँ कितनी अच्छी और मौन होती हैं।
इतनी अच्छी की तुम्हारे होने की कल्पना
तुम्हारे होने से अधिक सुंदर लगती है।
और इतनी मौन की कभी किसी ने
महसूसा ही नही उसे।

मौन होना दरअसल समय के साथ संवाद है।

कविता – 7

 तुम्हारा मुझसे अलग होना
ऐसा है मानो
किसी दीवार से बेतरतीब रंग उतर गये हों,
और एक बच्चे ने उसमें
कोई पेंटिग खोज ली हो।

मैं तुम्हारे जाने के बाद एक दीवार बन गया,
जिस पर बेतरतीब स्मृतियाँ बंधी हुई थी,
अब वहाँ कोई स्मृति शेष नही
सिर्फ अवशेष हैं।

तमाम सभ्यताओं ने कुछ न कुछ खोजा है…
मेरी सभ्यता ने
तर्क को जरूरत के हिसाब से
मोड़ने की तरकीबें ईजाद की हैं।

मैं अपने हिसाब से विकसित हुआ
मैंने सब काम किए
लेकिन कभी उस हद तक कुछ नही किया,
कि या तो बर्बाद हो जाऊँ
या संवर जाँऊ।

कविता – 8 

जिन घरों में रंग नही होते
वहाँ फबते हैं फूलों के रंग
अधिक,
जिन घरों में हकीकत बहुत कड़वी होती है
वहाँ विकसित होती है कल्पनाएं
अधिक,
उन घरों के आंगनों में,
पनपकर सूख जाते हैं भाषों के सब सिद्धान्त।

उन घरों की खूँटियों पर टँगा मिलेगा
खेत का सामान, पुराने लिफाफे आदि आदि…
लेकिन नही मिलेगी ऐसी खूँटी कोई
जिस पर टँग सकें गहरे सन्ताप, फैली पीड़ाएँ
और अहरह के दुख।

एक दिशा है जिसमें एक अमीर तारा
कभी नही डूबता,
उस दिशा में कभी नही जाता सूरज
उस दिशा में;
जिसमें कभी गरीबी अस्त नही होती,
दुनिया में जितने बेरंग घर हैं
सब उसी दिशा में हैं।

मैं जिंदगी में जितने इंद्रधनुष देखूँगा,
सबसे रंग माँगूँगा,
उन घरों के लिए
जिनकी दीवारें बेरंग होती हैं।

कविता – 8

जिन घरों में रंग नही होते
वहाँ फबते हैं फूलों के रंग
अधिक,
जिन घरों में हकीकत बहुत कड़वी होती है
वहाँ विकसित होती है कल्पनाएं
अधिक,
उन घरों के आंगनों में,
पनपकर सूख जाते हैं भाषों के सब सिद्धान्त।

उन घरों की खूँटियों पर टँगा मिलेगा
खेत का सामान, पुराने लिफाफे आदि आदि…
लेकिन नही मिलेगी ऐसी खूँटी कोई
जिस पर टँग सकें गहरे सन्ताप, फैली पीड़ाएँ
और अहरह के दुख।

एक दिशा है जिसमें एक अमीर तारा
कभी नही डूबता,
उस दिशा में कभी नही जाता सूरज
उस दिशा में;
जिसमें कभी गरीबी अस्त नही होती,
दुनिया में जितने बेरंग घर हैं
सब उसी दिशा में हैं।

मैं जिंदगी में जितने इंद्रधनुष देखूँगा,
सबसे रंग माँगूँगा,
उन घरों के लिए
जिनकी दीवारें बेरंग होती हैं।

कविता – 9 

वह कविताएँ लिखती थी…
प्रेम से भरी हुई,
इतना प्रेम कि,
वह शब्दों से बाहर निकल कर नाचता था।
एक पूरी सभ्यता का
सदियों से एकत्रित किया हुआ प्रेम।

अब शादी के बाद
जब वह कस्सी चलाती है,
तो प्रेम की कविताएँ लिखते समय
टूट जाती है चटाक से उसकी पैंसिल की नोक।

अल्हड़पन के चलते;
किवदन्तियों के अनुसार
उसने भी गढ़े सुहागरात के सपने।

आठ बटा आठ के इस बेरंग कमरे में
सोकर उसने जाना कि
इन हालात में
सुहागरात का अर्थ
एक अनजान आदमी के सामने
नँगा होने से ज्यादा
कुछ नही।

कविता – 10 

कवि को ऐसा प्रेमी होना चाहिए
जो प्रेम के सब प्रश्नों को निरुत्तर छोड़ दे,
और कविता को
प्रेम में किए गए प्रश्नों जैसा।

कविता के लिए आखिर जरूरी क्या है?
न तो जबरदस्ती लिखा जाना
और न जबरदस्ती पढा जाना।

कविता – 11

शहर की ऊँची ईमारतें
गाँव के छोटे घरों पर जंगल जंगल
चिल्लाती हैं,
और बड़े घरों को विस्थापन मार्ग पर लगा
इंडिकेटर समझती हैं।
ये वही इमारतें हैं,
जिनकी घटती बढ़ती छांव तले
फूल, फूल बेचते हैं।

उनके पास तर्क हैं
गाँव को जंगल कहने के,
इसके लिए उन्होंने दिल्ली में बैठक की है,
वे कहते हैं,
यहाँ सुविधाएँ नही हैं,
बीमारी में शहर की तरफ दौड़ो
महामारी में शहर की तरफ दौड़ो
शादी ब्याह में,
तीज त्यौहारों,
मरण गलन आदि आदि सब में,
और यह तय हुआ है कि इन तर्कों की प्रमाणिकता
दिल्ली तय करेगी।

शहरों में कुत्ते, दया हेतु
सीख गए हैं ढोंग करना।
बिल्लियाँ कुत्तों के साथ रहती हैं,
चूहे विशालकाय होते जा रहे हैं।

चैत की बारिश में उन्मादित हुए शहरी कवि
भाषा के हर सम्भव शिल्प को तलाशकर
प्रेम प्रेम चिल्लाते हैं…

संस्कृति कहती थी,
आग सबसे शुद्ध होती है
फिर ऐसा हुआ,
किसी ने उस संस्कृति में ही आग लगा दी।

आजकल ‘जंगलों’ में कुछ ही लोग बचें हैं
कुछ की
केवल मानसिकता विस्थापित हो पायी है
और कुछ सशरीर विस्थापित हो गये।

कविता – 12

मैंने जब प्यार किया,
तो पठारों पर नीले रंग के फूल खिले,
गुलाबी पंखुड़ियों से झर झर करके रस बहा,
झील के किनारे की जमीन गीली हो गयी।

आखिर तुम कौन हो?
कोई कालजयी चरित्र हो
किसी बेहद चर्चित उपन्यास का?
या कोई महाकव्य हो?
परन्तु,
मेरे लिए तुम,
एक कविता हो…
दस बीस पंक्तियों में सार्थक सिमटी हुई।

मैंने जब प्यार किया
तुझे अपनी कविता समझकर किया,
उस कविता की तरह जिसे कवि कभी बांटता नही
जो लिखी जाती है, निज हिताय निज सुखाय।

यह कविता मैं पढूँगा सारी उम्र…
सब स्वप्नों पर सर्वाधिकार सुरक्षित रखकर
सब अक्षरों के धुंधले होने तक।
मेरी बेबसी, हाय!
मैं इसे कहीं प्रकाशित नही करवा सकता।

कविता – 13

एक दुकान ऐसी है जिसमें शहर बिकतें हैं
मैं एक ऐसी दुकान से गुजरा हूँ
मैंने कई शहर खरीदे हैं।

एक शहर से गुजरते हुए मैंने जाना
तंग गलियों और
ऊंचे घरों की कमजोर नींवों के नीचे,
बसता है एक शहर, चलायमान।

मैं हमेशा एक शहर में रहा,
मैंने कभी रेगिस्तान नही देखा था,
मैंने कभी समुद्र नही देखा था,
मैंने न कभी कोई पठार देखा था
न गहरी भूमि…
बस समतल पठार देखा था
तुझसे मिलने के बाद इनसे परिचित हुआ।

तुझे श्रृंगार पसन्द था
मुझे सादगी पसन्द है।
मेरे यहाँ गेंदे के फूल होते हैं
गेंदे के फूल बालों में नही लगते।

मैं एक ऐसा कवि हूँ जो छिपाकर कविताएँ लिखता है
मैं भला कहाँ तेरी आँखों में रह पाता।

कविता – 14

 यह गाँव है साहब।
यहाँ दोपहर छोटी
और साँझ लम्बी होती है।
यहाँ
कुत्ते भौंकते हैं तो
लोग घर से बाहर निकल आते हैं
यहाँ कुत्तों के भौकने से फर्क पड़ता है।

कविता – 15 

बारिश अजीब है,
पक्की छत वालों को
हमेशा कम लगती है
और कच्ची छत वालों को
हमेशा ज्यादा,
नही नही, बारिश नही
घरों की छत ही अजीब हैं।

कविता – 16

यह मेरा सहज समर्पण है
इस सहजता में एक प्रवाह है
जो चला आ रहा है
सदियों सदियों से।
न जाने कितनी घाटियों की सभ्यताएँ,
असंख्य संस्कृतियाँ,
अनगिनत रीति रिवाज और
अगणनीय परम्पराएँ,
घुली हुई हैं इस धारा प्रवाह में।
यह समर्पण कालजयी है,
इसे न जाने कितने ही सिद्धान्तों ने सींचा है,
बहुत से ग्रन्थों ने इनको
सहेजा है अनन्त काल से अब तक।
यही है जो मुझे तुमसे भिन्न बनाता है,
यह एक सामूहिक प्रयास रहा है,
हमेशा से…
इसका हिस्सा अब मैं भी हूँ।
आने वाली पीढ़ियों में से कोई न कोई
मेरे योगदान को आधार बनाकर
जरूर अपने समर्पण का जिक्र करेगा।

कविता – 17 

तुझमें दो किस्म की गहराई थी
एक तो थी तेरे शरीर की
और एक तेरी।
एक सीमित थी एक असीमित।
जो सीमित थी उसमें से मैं कुछ न पा सका।
जो असीमित थी,
उसमें से सीपियों में बंद कविताएँ निकली।
ये कविताएँ मेरे कमरे में
गुलदस्तों की जगह सजी हैं।

कविता – 18 

पत्थर पर लोहे की चोट…
आवाज का;
शांति भेदना,
मष्तिष्क में चोट करती चेतना,
अथक परिश्रम,
मात्र कर्म;
परम् धर्म।
विचार रहित,
किन्तु बल सहित,
दो बार की चाय,
जो भूख को आजमाये,
अन्य कुछ उद्यमियों का सहयोगी दल;
कार्य करे जैसे मानसिक बल।
सांझ की रोटी,
व किस्मत खोटी
घर की अनबन,
ये सब,
निर्धन का धन।

कविता – 19 

तुम्हारी ये कज्जलित आंखें,
प्राचीन हो चुकी
प्रज्ववलित आंखें,
कहीं ये काजल
उस आग की राख का
रूप तो नही,
कहीं ये श्रृंगार ये चूड़ियां,
बेड़ियाँ स्वरूप तो नही।
ये रंजन सब,
एक प्रकार की भ्रांति प्रतीत होती है,
इनके आवरण में मुझे
कोई क्रांति प्रतीत होती है।
ऐसे करुण स्वर न हों अब,
ना नारी रुदित हो,
नव प्रभात हो अब,
स्त्री शक्ति उदित हो,
अब आत्मसम्मान हर नारी का
परमार्थ हो,
भाव मेरे जन मन तक पहुंचे,
काव्य मेरा कृतार्थ हो।

कविता – 20

 कभी कभी
बाहर भीतर,
जब देखता हूँ
किसी को साइकिल पर जाते हुए
अपनी दिन की रोजी कमाने के लिए
तो ख्याल आता है
कि क्या, इनके लिए कुछ मायने होंगें?
आकर्षण के सिद्धांत के।
या उन मोटी मोटी किताबों के,
जिनमे जीने के सलीके लिखें हैं…
महान दार्शनिकों ने।
या फिर उन बड़ी बड़ी बैठकों के,
जो बड़े विकसित देशों में सामान्यतः होतीं हैं
आम आदमी के जीवन के स्तर को
बढ़ाने के लिए या ऊँचा करने के लिए।
अगर नही!
तो फिर इनके लिए
‘मायने’ क्या रखता है आखिर!
गुज़रा हुआ कल या आने वाला?
नही, शायद कुछ भी नही।
यदि, कुछ इनके लिए मायने रखता है तो,
सम्भवतः
रात को पेट भर के सोना।

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