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स्पार्टाकस

मैं अगर तुम्हें कहूँ
कि ब्राह्मणत्व और मनुवाद का
चक्रव्यूह तोड़ने के लिए
तुम बनो अभिमन्यु—
तो ग़लत होगा
वह तो दो अभिजातों की लड़ाई थी
जिसमें तुम नहीं थे कहीं
तुम एकलव्य के पीछे खड़े कहीं
केवल द्रष्टा थे उस विध्वंस के
तुम्हारी भागीदारी नहीं थी—
न विजय में— न पराजय में
सृजन की तो कोई बात ही नहीं थी वहाँ
हाँ, मोक्ष की बात भले थी
जो तुम्हारे लिए वर्जित था
इसलिए बेमानी था
तुम्हारे जन्म या मरण के कोई मायने नहीं थे कभी
तुम निष्काम सेवा करने के
दायीदार रहे
फल और स्वर्ग की कामना
तुम्हारे हक़ के दायरे से बाहर रही
इसलिए हक़ का अर्थ भी नहीं जाना था तुमने
नहीं कहूँगी कि तुम बनो अभिमन्यु
अभिजातों की जमात में होड़ लगाओ
या एकलव्य की तरह
गुरु से धोखा खा जाओ
न ही नाम दूँगी इस ब्राह्मणत्व को—
चक्रव्यूह का
चूँकि इसे युद्ध से ख़त्म नहीं किया जा सकता
इसे ख़त्म करने के लिए ज़रूरी है
इंक़लाब, क्रान्ति-विद्रोह
सोच का विकास और सतत संघर्ष
इसलिए
क्या तुम स्पार्टाकस बनोगे?
स्पार्टाकस एक ग्लैडिएटर!

ग्लैडिएटर
एक ग़ुलाम
ख़ून देखकर उत्तेजित, उद्विग्न
रोमांचित और एक्साइट होनेवालों की
ख़ुशी के लिए—
बाँहों में, हाथों में, जाँघों में
छुरियाँ बाँधकर
आपस में अपने साथियों से लड़कर
ख़ूनों-ख़ून हो
मरने के लिए मजबूर
नवाबों के अखाड़े के
प्रशिक्षित मुर्ग़े-सा
दो टाँग वाला आदमी

तालियों की गड़गड़ाहट में
बियर की चुस्कियों-तले
रूमानी मुस्कानों के बीच
अपनी निश्चित मौत के नज़दीक पहुँचता
लेकिन जो समझ गया था
जाने का महत्त्व—
समझ गया था आज़ादी का अर्थ
मुक्ति का मूल्य
एक ऐसे समाज के सपने को
जहाँ न दास होंगें न ग़ुलाम
सब होंगें समान
साधारण ज़रूरतों वाले
जहाँ न होगा कुछ विशेष न अभिजन न ख़ास
न कोई नस्ल
न कोई जाति न रंग
छोई-छोटी ज़रूरतों वाला
बड़ा-बड़ा… बहुत बड़ा समाज—
ज़मीन पर उतारने के लिए
उसने रोम से टकराने की—
की थी जुर्रत!

रोम जहाँ दास
आदमी नहीं था— इनसान नहीं था
जानवर थे उस से बेहतर
दास रखना
जन्मसिद्ध अधिकार था उसका
अभिजात का दम्भ पालता
रोम के सीमा विस्तार को
अधिकार मानता
आज़ादी की रक्षा का अर्थ
उसके लिए था—
दूसरों को अपने अधीन लाने के अधिकार
की रक्षा
स्पार्टाकस
टकराया— उसी रोम से!

स्पार्टाकस
रोमनों की स्त्रियों के सपने में छाया
स्पार्टाकस रोमनों की बहसों का विषय
उनकी नीँद ले भागा
उनके माथे में खिंची
घनी चिन्ता-रेखाओं में उग आया
उनकी भृकुटियों में तन गया
और मुस्कराता रहा अन्त तक
बिन बोले
मुस्कान और चुप्पी के आदेश देता रहा
बोटी-बोटी कट गया
पर पकड़ा न जा सका
स्पार्टाकस… स्पार्टाकस… स्पार्टाकस…
रोम का ज़र्रा-ज़र्रा थर्रा गया

रोम थर्रा गया
स्पार्टाकस के उन सपनों से
जिसने हज़ारों ग़ुलामों के सीने में
भर दिये थे आज़ादी के सपने
जिसने जगा दी भूख
कि जिसे पेट में पाले
सीने में भरे
लटक गये हज़ारों ग़ुलाम
टिकठी पर—
कीलों से ठुके-ठुके
तीन-तीन दिनों तक
बिना आह भरे— करते रहे
तिल-तिल कर आती मौत का इन्तज़ार
सूली से डरकर
आज़ादी की राह को
मुक्ति के सपने को
अपने निर्णय को
न बदला न धिक्कारा न दुत्कारा
न ही दिया उलाहना
संघर्ष की राह को
जिसका निश्चित अन्त था
टिकठी

संघर्ष
जिसने शोषण से मुक्ति पाने
नस्ल के जाति के रंग के विभेद
और देश की हदें तोड़कर
इक भीड़ को एक बड़ी जमात में दिया बदल
भीड़
जो भेड़ों की तरह हाँकी जाती
रेवड़ की तरह पाली जाती
बाड़ों में रहती बाड़ों में पलती
बाड़ों में मारी जाती— मूक
बिना बोले

भीड़ कई नस्लों वाली
भीड़ कई रंगों वाली
कई देशों वाली—
कई देशों की भीड़
भेड़-सी
स्पार्टाकस ने बनाया
इस भीड़ का मन
जो मन से अपने को
मुक्त मान— जमात बन गयी
अपने पुश्तैनी हथियार ले
चल पड़ी—
ग़ुलामी का जुआ काटने
मुक्त-मौन-इशारों से संचालित
आँखों-आँखों में पढ़ती अगला आदेश

भाषा के भेद मिट गये
भाषा के ऊपर—
मन की बोली के तार एक साथ टनके
दुश्मन के ख़िलाफ़ व्यूह रचती
आगे बढ़ती विभिन्न-भाषी
पर एक मन वाली जमात!
रोम जीतकर भी
हारा था, डरा था
टूट-टूट गया था
स्पार्टाकस मर कर भी जीत गया था

क्या तुम बनोगे स्पार्टाकस?
मनु के मिथक को मिटाने के लिए—
ख़ुद रचोगे चक्रव्यूह?

प्रतिरोध 

हमने तो कलियाँ माँगी ही नहीं
काँटे ही माँगे
पर वो भी नहीं मिले
यह न मिलने का एहसास
जब सालता है
तो काँटों से भी अधिक गहरा चुभ जाता है
तब
प्रतिरोध में उठ जाता है मन—
भाले की नोकों से अधिक मारक बनकर

हमने कभी वट-वृक्ष की फुनगी पर बैठकर
इतराने की कोशिश नहीं की

हमने तो उसके जड़ों के गिर्द जमे रहकर
शान्ति से
समय की शताब्दी काट लेने की चाह
पाली थी सदा
पर
निरन्तर बौछारों ने यह भी न माना
बार-बार हमारे जमे रहने की चाह को
ठुकराती रहीं
धकेल-धकेल कर—
बहाती रहीं धार में / साल-दर-साल
ठोकरें खाने के लिए
टिकने नहीं दिया हमें
किसी भी पेड़ की जड़ के पास

यह न टिक पाने का एहसास
जब सालता है तो
बौछार से अधिक ज़ोरदार
धक्का मारता है
तब
प्रतिरोध में उठ जाते
सब मिट्टी के कण
जड़ों को उखाड़ देते हैं हम—
नंगे हो जाते हैं वन
और
चल देते हैं नये ठौर खोजने— हम
गिर जाते हैं
तब
बड़े-बड़े वट-वृक्ष भी
क्या बिगाड़ लेंगी बौछारें हमारा?
हम ठेंगा दिखाते चले जाते हैं—
हम तो आदी हैं न
बहने के
हर रोज़ ठौर बदलने के!
हमने तो नहीं कहा कभी
कि तर्क-हीन बात मान लो हमारी
जब तुम तर्क-संगत बात सुनने को भी
तैयार नहीं होते तो
यह न सुने जाने का—न पहचाने जाने का—एहसास
हमें मनुष्य माने जाने से भी इनकार—
जब सालता है— तो तर्क से अधिक धारदार बनकर
काटता है
तब—
प्रतिरोध में उठ जाता है
समूह बनकर जन

तब तुम—
तर्क-हीन शर्त मानने पर भी
तैयार हो जाते हो
हमें क्या?
हम तो—
जीवन-भर तर्क-इतर जीने के आदी हैं
तर्क-तर जीने की बात कब की थी कभी हमने?
अब तो तुम अपनी सोचो— अपनी?

गधे का सर 

हाथों का हाथी हूँ
पाँव का घोड़ा
सर पर धर दिया है तुमने
घोड़े जैसा
सब्र के गधे का सर
कोल्हू के बैल की तरह
आँखों पर बाँध दिया तूने चमड़े का चमौटा
ठोक दी है सोच पे सहनशील नाल

इसीलिए
तुम सबके यहाँ गदहे-सा खटता हूँ
बैल-सा जुतता हूँ

तुमने बताया था
मैं भी हूँ भगवान की औलाद
जो है तुम्हारा भी बाप
पर भाग्य का फल भोगता हूँ मैं
जन्म-जन्मान्तर से
इसीलिए
बेगारी में जुतता हूँ मैं
और जुतना पड़ेगा भी
चौरासी करोड़ योनियों के ख़त्म होने तक

पर अब जान लिया है मैंने
भगवान नहीं
मैं बन्दर की औलाद हूँ
जो मेरा ही नहीं तुम्हारा भी बाप है
मैंने भाग्य का फल नहीं
तुम्हारी साज़िश का फल / भोगा है
तुम्हारी व्यवस्था का जुआ पहन— जोता है हल
जिसे मेरे हाथों के हाथी ने ही— दिया है बल
मेरे पाँव के घोड़े ने
दी रफ़्तार और गति
गधे के सिर ने
मेहनत
बिना सोचे बिना समझे
लादा तुम्हारा बोझ अपने काँधे
अपनी ही ग़ुलामी को माना
अपना भाग्य

तुम चढ़ बैठे बैताल-से
मेरे कन्धों पर
सवाल का जवाब देने पर
लटका देते हो उल्टा— मेरी अक़्ल को
मैं फिर अपने कन्धे पर—
तुम्हें बैठाने के लिए
लौट-लौट आता

पर
अब नहीं लौटकर जाऊँगा मैं / तुम्हें कन्धे पर
बैठाने के लिए वापस
नहीं ठोकने दूँगा
सहनशील नाल
अपनी सोच पर!

दिलावन दिलावन

‘दिलावन दिलावन’ आयु-बाबा होड़
समय बढ़ गया
‘खड़ा नये मोड़’
‘दिलावन दिलावन’ आयु-बाबा होड़
गुफ़ाओं से निकले तब से वहीँ हो
जंगल में ज़िन्दा
रहते अभी हो
तुम्हारी नुमाइश ‘उत्सव’ लगाते
पिछड़ी लकीरों का गौरव बताते
न भाषा सिखाते
न लिपियाँ बनाते
पीछे समय से तुम्हें ले ले जाते
‘जंगल का मानुष’ बताते बेजोड़
‘दिलावन दिलावन’ आयु-बाबा होड़
तीरों से तरकस तेरी सजाते
नाचों से महफ़िल अपनी रचाते
गीतों के मुखड़े तेरे चुराकर
तेरी धुनों पे ‘मुद्रा कमाते’
तुझे न सिखाते घटाव-व-जोड़
‘दिलावन दिलावन’ आयु-बाबा होड़
तेरी ज़मीं को भी अपना बताते
तेरी ज़मीं को ही क़ब्ज़े में लाते
पहचान तेरी दिनों-दिन मिटाते
तुझे बस बताते लगो कैसे गोड़
‘दिलावन दिलावन’ आयु-बाबा होड़!

रात एक युकलिप्ट्स

आदमी और पशु से पहले
पेड़ होते थे
शायद उसी युग का पेड़
एक युकलिप्ट्स
रात मुझसे मिलने आया
अपनी बांहों की टहनियों से
अपनी उंगलियों के पत्तों से
वह
रात भर मुझे सहलाता रहा
उसकी
सफेदी ने मुझे चूमा
और उसकी जड़ें
मेरी कोख में उग आईं
और मैं भी एक पेड़ बन गई

धरती के नीचे नीचे
अपने ही अंदर-अंदर

रात मैं एक घाटी बन गयी
जिसमें युकलिप्ट्स की सफेदी
कतार-बद्ध खड़ी थी
अपनी हरियाली से ढंके
अपनी जड़ों से मुझे थामे
झूम रही थी
और पृथ्वी और पेड़ों के
संभोग की कहानी सुना कर
मुझे सृष्टि के रहस्य
बता रही थी

बता रही थी
पृथ्वी ने आकाश को नकार कर
पेड़ों को कैसे और क्यों वरा
बता रही थी
गगन-बिहारी और पृथ्वी-चारी का भेद

क्यों पृथ्वी ने कोख़ का सारा खजाना
लुटा दिया पेड़ों को?
बनस्पतियों को क्यों दिया
सारा सान्निध्य और
कोमलता
रंग
ठण्डक
हरियाली…?
आकाश को दी केवल दूरिां
मृगतृष्णा
चमक?
चहक लेकिन पेड़ों को ही दी…?

बता दी उसने पेड़ के समर्पण की गाथा
जो टूट गया
सूख गया
जल गया
पृथ्वी की धूल में मिल गया
पत्थर-कोयला-हीरा
बन गया
पर उसकी कोख़ से हटा नहीं
उसी में रहा
हवा में उड़ा नहीं

पृथ्वी का पुत्र और पति
दोनों रहा
पृथ्वी-जाया और पृथ्वी जयी
दोनों बना!

मैं आजाद हुई हूं

खिड़कियां खोल दो
शीशे के रंग भी मिटा दो
परदे हटा दो
हवा आने दो
धूप भर जाने दो
दरवाजा खुल जाने दो

मैं आजाद हुई हूं

सूरज का गया है मेरे कमरे में
अंधेरा मेरे पलंग के नीचे छिपते-छिपते
पकड़ा गया है
धक्के लगाकर बाहर कर दिा गया है उसे
धूप से तार-तार हो गया है वह
मेरे बिस्तर की चादर बहुत मुचक गई है
बदल दो इसे
मेरी मुक्ति के स्वागत में
अकेलेपन के अभिनन्दन में

मैं आजाद हुई हूं

गुलाब की लताएं
जो डर से बाहर-बाहर लटकी थीं
खिड़की के छज्जे के ऊपर
उचक-उचक कर खिड़की के भीतर
देखने की कोशिश में हैं
कुछ बदल-सा गया है

सहमे-सहमे हवा के झोंके
बन्द खिड़कियों से टकरा कर लौट जाते थे
अब दबे पांव
कमरे के अन्दर ताक-झांक कर रहे हैं

हां! डरो मत! आओ न!

तुमने अपनी ईज़ल समेट ली

तुमने एक सपना रचाया था
सजाया था उसके गिर्द
तुमने कल्पनाएं रचीं थीं
प्यारी-प्यारी बातें गढ़ीं थीं
पौराणिक कथाओं से बिम्ब
परियों से शब्द
पंखों से रंग
पत्थरों से आकार लेकर
तुमने एक चित्र रचा था
बुत गढ़ा था
तुम्हीं चितेरे तुम्ही छेनी
और उस पर तुम अपने ही सपनों का अपना ही
चित्र आंक रहे थे
अपनी ही मूर्ति गढ़ रहे थे
‘उसका’ नाम धर कर…
चित्र पूरा हुआ
मूर्ति खड़ी हो गई
तुम्हारी उम्मीद के विरुद्ध
वह उस पर उकिर आई
तुम्हारी समझ और सहन दोनों के बाहर

तुम अपने को देखने के अभ्यस्त
उसकी पुतलियों में अपनी नजरें खोज रहे थे
तुम अपनी मुस्कान पर मोहित
उसके होठों में खोज रहे थे अपनी हंसी
तुम अपना चेहरा देखने को बेकल
उसके मुंह पर टटोल रहे थे अपनी छवि
तुमने सपने गढ़े थे अपने
पर तुम्हारी कूचियों से वह उकिर आई
तुम्हारी कल्पना की उड़ान में
तुम्हारे पंखों पर वह कहीं लदक गई

तुम्हारी बातें तोता-मैना की कथा-सी
रोज एक ही इबारत दोहरातीं
जीवन की कथा के बाहर की चर्चा-सी
तुम्हारे शब्द परियों से पारदर्शी
पारे से तरल
ठोस मिट्टी के रंगों की पकड़ से बाहर
पहचान से दूर
पौराणिक कथाओं के बिम्ब से
महलों के खण्डहरों में भटकते समय के अभिलेख थे
जो वर्तमान को नहीं ढंक पा रहे थे
वर्तमान को ढंकने के लिए
चाहिए-ताजा रंग
जो खून से ही मिल सकता है
मुर्दा यादों पर ही-तस्वीरें रचने में पटु
मूर्ति गढ़ने में माहिर
यादों को ढोने के आदी
अपनी सूरत न देखकर घबरा उठे तुम…

तुमने भरा जो प्याला
उसके मुंह पर दे मारा था
रंगीला था कोमल था
तुमने जो छेनी फेंकी थी ना

तेज़ थी नुकीली थी छोटी थी नाजुक थी
पर चोट करने में घातक थी
तस्वीर हिल गई इस बार
रेखाएं हट गईं
घूम गईं
तुम जिधर कूची फेंकते रंग भरी लकीरें सरक जातीं
तुम रंग उड़ेलते खीझ कर
तो लकीरंे धब्बों के नीचे चू जातीं
देह का कोई ना कोई कोना उघरा ही रह जाता
मिट नहीं पाता
ऊब कर तुमने कैन्वस ही फाड़ डाली
यह कह कर कूची तोड़ डाली
”यह तस्वीर तो केवल अपने ही रूप से प्यार करती है
आप हुदरी कैन्वस पर मनमानी उभर आती है“
तोड़ डाली छेनी यह कह कर
”यह मूरत तो अपना ही रूप गढ़ती है
बोलती है डोलती है
और सपनों में सशरीर जागती है
चलती है जड़ नहीं
मिट्टी का लोंदा नहीं
कि जैसे चाहों ढाल लो!“ और
तुमने अपनी ईज़ल समेट ली

तुमने एक-एक कर चित्र के अंग-भंग करना शुरू किया
सबसे पहले तुमने उसके पांव मिटाए
उसकी गति जकड़ी
एक बड़ा धब्बा घृणा का उसकी जांघों पर पोत दिया
कूची से मथ दी उसकी कोख़
उसके दूध में घोल दी स्याही
फिर एक-एक कर
उसके होंठ आंखें पुतलियां पलकें

केश कान माथा भवें
गोया कि पूरे चेहरे पर
कूची फेर छेनी से गोदने लगे चेहरा
अपनी पुरानी आदत के अनुसार

गढ़ना-तोड़ना
खेलना-मिटाना तुम्हारी आदत है
वह ही पागल थी जो तस्वीर अंकवाने
मूरत गढ़वाने
बैठ गई तुम्हारे सामने नंगी होकर
अपना रूप

इस बार तस्वीर की रेखाएं
मूर्ति की भंगिमाएं जिंदा हो गईं
उनकी आत्मा डोल गई
फितरत कांप गई प्रतिकार में
और तुमने अपनी हथौड़ी-छेनी बांध ली

तुम उसे वह तुम्हें
अपने आप को प्यार करने का दोष मढ़ते रहे
तुम्हारे रंग चुक गए
उसकी लकीरें फीकी पड़ने लगीं
आकृतियां भड़कने लगीं
परिवेश बदल गए…!

उसे रोने की मनाही

अभिजन जमात् में कवि चितेरे शिल्पी
कलाकार-साहित्यकार
सबने
औरत को खूब निखारा
सजोया-संवारा

उसकी गुलामी को कहा
मर्यादा
हत्या को कुर्बानी
मौत को मुक्ति
जल जाने को सती
सौन्दर्य को ‘माया’ ठगनी
खुद्दारी को
कुल्टा नटनी कुटनी
और न जाने क्या-क्या
कहा

सम्पदा के बटखरों से
हीनता के तराजू पर
मर्यादा की डण्डी मार
औरत को तोला
सतीत्व की कसौटी पर परखा
उसे रोने की मनाही
हंसना वर्जित
वह ‘आदमी’ के दर्जे से वंचित
बोली तो कौमे लग गये
पूछी तो
प्रश्नवाचक तन गये
महसूसी तो
विस्मयबोधक डट गए
उसने तर्क दिया
तो पूर्ण विराम के दण्ड अड़ गये

ज्ञान उसके लिए वर्जित
किताबें बन्द
उसकी पहुंच के बाहर
केवल शृंगार की पात्रा
भोग्या
देवी-रूपा दासी
न बोलने वाली गुड़िया
सिर हिलाती कठपुतली
किसी अदृश्य डोर से बंधी
पिता पति भाई पुत्र में बंटी
किसी भी एक के
खूंटे से बंधी

थिरकती सीमा के भीतर
ठुमकती घर के अन्दर
सोती उठती बैठती
कभी न लांघती परिधि
खुद ही अपने गले में
हाथ और पांव में
डाले बंधन
दासता का उत्सव मनाती
उसे ही शृंगार
सुहाग-भाग मानती
बंधे पांव चलती
लड़खड़ाती-लड़खड़ाती
सदियां कर गई पार

किमोनों से घिरी
गाउन में व्यस्त
जकड़ी अकड़ी औरत
कमर को करधनी से कसे
चारदीवारी में कैद
मीनारों से ताकती
झरोखों से झांकती
जोहती घूंघट से बाट
बंधी पति के
अदृश्य खूंटे के साथ

चुप्पी साधे
तन्वंगी कोमल मूर्ति
पल-पल में कुम्हलाती
बात-बात में लजाती
शर्मा कर भागती औरत
मूल्यों की प्रतिमूर्ति
मर्यादा का रूपक

तर्क करती उन्मुक्त भागती
हंसती गाती
ज़ोर-ज़ोर से हकांती
चिल्लाती
जी-भर रोती हंसती गाती
बतियाती वाचाल औरत
मेहनतकश
मशकत के पसीने से लथ-पथ
आज़ाद औरत
सभ्य औरत के दायरे से
बाहर कर दी गयी
सावित्री और सीता के
मानदंड पर
छोटी
मर्यादा के पलड़े पर
हल्की हौली
संस्कारों की कसौटी पर पीतल
ठहरा दी गई!

वरमाला रौंद दूंगी

एक
बड़ी बारादरी में
सिंहासनों पर सजे तुम
बैठे हो-
कई चेहरों में
वरमाला के इंतजार में
बारादरी के हर द्वार पर
तुमने
बोर्ड लगा रखे हैं
‘बिना इजाजत महिलाओं को बाहर जाना मना है
परंपराओं की तलवार लिए
संस्कार पहरे पर खड़े हैं
संस्कृति की
वर्दियां पहने

मैं
वरमाला लिए
उस द्वार-हीन बंद बारादरी में
लायी गयी हूं
सजाकर वरमाला पहनाने के लिए
किसी भी एक पुरुष को
मुझे
बिना वरमाला पहनाए
लौटने की इजाजत नहीं
मेरा ‘इनकार’
तुम्हें सह्य नहीं
मेरा ‘चयन’
तुम्हारे बनाए कानूनों में कैद है

वरमाला पहनानी ही होगी
चूंकि बारादरी से निकलने के दरवाजे
मेरे लिए बंद हैं
और बाहर भी
पृथ्वीराज मुझे ले भागने को
कटिबद्ध है
मेरा
‘न’ कहने का अधिकार तो
रहने दो मुझे

मेरा
‘चयन’ का आधार तो
गढ़ने दो
बनाने दो मुझे

पर
तुम-जो बहुत-से चेहरे रखते हो
मुखौटे गढ़ते हो
स्वांग रचते हो
रिश्ते मढ़ते हो
संस्कृति की चित्रपटी पर
केवल
एक ही चित्र रचते हो
मेरे इनकार का नहीं
और
आज मैंने इनकार करने की हठ ठान ली है…
वरमाला लौटाने का प्रण ले लिया
‘न’ कहने का संकल्प कर लिया है

इसलिए
हटा लो
संस्कारों के पहरेदारों के
दरवाज़ों पर से
नहीं तो-
मैं
तुम्हारे मुखौटे नोच दूंगी
होठों से सिली मुसकानें उधेड़ दूंगी
ललाट पर सटा कथित भाग्य उखाड़ दूंगी
हाथों से दंभ के दंड छीन लूंगी
हावों से अधिकार की गंध खींच लूंगी
आंखों में चमकते आन के आईने फोड़ दूंगी
और तेरी आकांक्षाओं में छिपे
शान और मान के पैमाने तोड़ दूंगी
तेरी नजर के भेड़ियों को रगेदकर
दरवाजों पर खड़े पहरेदारों को खदेड़कर
वरमाला रौंद दूंगी
पर
नहीं पहनाऊंगी
तुम्हारी सजी हुई कतार में से किसी को
क्योंकि
इस व्यवस्था में
‘चयन’ का मेरा अधिकार नहीं है!

पैने चाकू

मैं
पंख फैलाए
बांधे पंखों में हवा
उन्मत्त मदमस्त उन्मुक्त
गगन में उड़ती थी…

रास नहीं आया उन्हें मेरा उड़ना

वे
पंजे पजा कर
चोंत तेज कर
धारदार पैनी नजरों से
मेरे
पंख काटने को उद्यत
बढ़े आ रहे मेरी ओर बाज-गति से
घेरते गगन
गिद्धों-से

वे मुझे डराना चाहते

मैं
तैर रही थी पंखों के सहारे
हवा में
उड़ रही थी क्षितिज-रेख पर
गगन के किनारे-किनारे
डरी-डरी सी उतरी
धरा पर
आश्रय खोजती
आ बैठी सूखे तरु पर
चुपचाप खोई-खोई दुबकी-सी
गुमसुम ताक रही आकाश…

जहां अब चाकू तैर रहे हैं

कैसे उडूं मैं
वहां बाज ताक रहे हैं?
कैसे चहकूं मैं
वहां गिद्ध तलाश रहे हैं?
क्या भूल जाऊं मैं उड़ना
चहकना चाहना फुदकना
उन्मुक्त मदमस्त हो गाना?

यही तो वे चाहते

वे उड़ें निर्बाध
मैं दुबकी रहूं कोटर में
वे घेर लें आकाश
मैं धरती से सटी-सटी पड़ी रहूं बेआस
वे मदमस्त हवा में तैरें-
उन्मुक्त
मैं पंख बचाने की फिक्र में
जीने की फिराक में
नजरों से बचती फिरूं
छिपती फिरूं
नहीं…होगा नहीं यह

नहीं होंगे कामयाब वे

तेज चोंचों के वार से
टुंग कर
नुकीले पंजों की पकड़ से
गुद कर
पैनी नजरों की धार से
कट कर
चिर कर
उन्हें भोथरा करने के लिए
जरूरी ही है खोलना पंख
तो खोलूंगी मैं

विकल्प उड़ना ही है तो उडूंगी मैं

मेरे होने के इजहार के लिए
विकल्प
वजूद का मिटना ही है
तो मिटूंगी मैं
पर चाकुओं को हवा में तैरने से
रोकूंगी मैं! रोकूंगी मैं! रोकूंगी मैं!

 

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