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रामइकबाल सिंह ‘राकेश’की रचनाएँ

वीरबहूटी

प्रणय-दर्शन

नयन सावन हो रहे हैं।
रिमिक-झिमझिम झिमिक-रिमझिम भार हिय का खो रहे हैं;
नयन सावन हो रहे हैं।

वेदना की रश्मि से यह हृदय-पारावार तपकर,
प्रणय-निर्मित पवन-रथ पर गगन-ऊपर जलद बनकर,
अश्रु धाराएँ विरह की छोड़ते ढर्-ढर् निरन्तर,
उमड़ घिर-घिर घुमड़ प्रियतम-चरण-रजकण धो रहे हैं;
नयन सावन हो रहे हैं।

रसोत्प्लवित ‘ऋतम्भरा’ प्रज्ञा विकम्पित हो गई है,
चिर प्रदीपित वर्त्तिका, वह वात-सम्पित हो गई है,
हृदय-सर की प्रणय-हंसिनि धूल-शायित हो गई है,
मरण-जीवन निशि-दिवा में प्राण बेसुध सो रहे हैं;
नयन सावन हो रहे हैं।

रस-प्रफुल्ल वसन्त को क्यों दे करील मृषा विदूषण?
वेणु क्यों दे दोष? अकलुष-गन्ध-चर्चित मलय-चन्दन,
तुम नहीं प्रिय निन्द्य; मैं ही मलिन, कलुषित, अन्ध-लोचन,
पंख-भंग विहंग-से यह हंस सिर धुन रो रहे हैं;
नयन सावन हो रहे हैं।

फेन की अट्टालिका जग में कहो, किसने उठाई?
गगन से ले सुमन किसने गूँथ कर माला बनाई?
बिन चढ़े शूली, कहो, किसने ललन से की मिताई?
काकगोलक न्याय यह, मन मौन शंकित हो रहे हैं;
नयन सावन हो रहे हैं।

(रचना-काल: जनवरी, 1940। ‘साधना’, मार्च, 1940 में प्रकाशित।)

प्रणय-दर्शन

नयन सावन हो रहे हैं।
रिमिक-झिमझिम झिमिक-रिमझिम भार हिय का खो रहे हैं;
नयन सावन हो रहे हैं।

वेदना की रश्मि से यह हृदय-पारावार तपकर,
प्रणय-निर्मित पवन-रथ पर गगन-ऊपर जलद बनकर,
अश्रु धाराएँ विरह की छोड़ते ढर्-ढर् निरन्तर,
उमड़ घिर-घिर घुमड़ प्रियतम-चरण-रजकण धो रहे हैं;
नयन सावन हो रहे हैं।

रसोत्प्लवित ‘ऋतम्भरा’ प्रज्ञा विकम्पित हो गई है,
चिर प्रदीपित वर्त्तिका, वह वात-सम्पित हो गई है,
हृदय-सर की प्रणय-हंसिनि धूल-शायित हो गई है,
मरण-जीवन निशि-दिवा में प्राण बेसुध सो रहे हैं;
नयन सावन हो रहे हैं।

रस-प्रफुल्ल वसन्त को क्यों दे करील मृषा विदूषण?
वेणु क्यों दे दोष? अकलुष-गन्ध-चर्चित मलय-चन्दन,
तुम नहीं प्रिय निन्द्य; मैं ही मलिन, कलुषित, अन्ध-लोचन,
पंख-भंग विहंग-से यह हंस सिर धुन रो रहे हैं;
नयन सावन हो रहे हैं।

फेन की अट्टालिका जग में कहो, किसने उठाई?
गगन से ले सुमन किसने गूँथ कर माला बनाई?
बिन चढ़े शूली, कहो, किसने ललन से की मिताई?
काकगोलक न्याय यह, मन मौन शंकित हो रहे हैं;
नयन सावन हो रहे हैं।

(रचना-काल: जनवरी, 1940। ‘साधना’, मार्च, 1940 में प्रकाशित।)

तुम टिमटिम दीपक के उदोत-सी दीपित;
तुम तड़ित पुष्प जो मेघ-विपिन में विम्बित।
पर्वत के कण्ठे में मँूगे-सी निखरी;
शोणित की बूँदों-सी भूतल पर बिखरी।

यौवन पलाश की अरुणाई-सी लहकी;
रक्तिम अंगारे की चिनगी-सी डहकी।
रूपसी धरा के हरित फिरन में फबती;
ज्यों रागारुण सलमे की बूटी लगती।

अथवा वनदेवी के उरोज पर मंडित;
ज्यों हर्म्य तारक प्रसून का गुम्फित।
कंटक-संकुल जीवन-घाटी में पलती;
दरकी छाती के दाह-सदृश तुम जलती।

(रचना-काल: नवम्बर, 1941। ‘विशाल भारत’, अगस्त, 1943 में प्रकाशित।)

शून्य घट

गड़े शून्य घट में कैसे संशय के तिरछे शूल?

अगर-मगर की बदाबदी से
ऊँचे जाकर सर टकराया;
सत्य-झूठ के मर्म-भेद का
रंग-ढंग पर समझ न पाया!
पाण्डु वर्ण हो गए गुलाबी अरमानों के फूल!
गड़े शून्य घट में कैसे संशय के तिरछे शूल?

हाड़-चाम पर चोंच चलाकर
मूढ़ मन्द-मति वायस आया;
मानसरोवर जाकर उसने
राजहंस का गुण दिखलाया!
अन्तर का यह छन्द-भंग है किस पिंगल का मूल?
गड़े शून्य घट में कैसे संशय के तिरछे शूल?

पत्थर में पारस मर्मीले
सीपी में मोती चमकीले
किस छूमन्तर से कीचड़ में
लहराए पंकज रंगीले।
भेद सके तो भेदे कोई भेद-व्यूह यह स्थूल!
गड़े शून्य घट में कैसे संशय के तिरछे शूल?

वन का तोता, घर में खांेता
कठघेरे में सिर धुन रोता;
दुपहरिया के सूरज का
जग में क्या कोई साथी होता?
खौला कर खारे जल दिल का सींचा टेढ़ बबूल!
गड़े शून्य घट में कैसे संशय के तिरछे शूल?

हवा पाल में लगी न, नौका
बही धार में उल्टी, चौंका;
भँवर-जाल में फँस जाने की
चिन्ता की भाथी ने धौंका।
डर के मारे काँपे उठा रे निश्चय का मस्तूल!
गड़े शून्य घट में कैसे संशय के तिरछे शूल?

ऊँची कथनी, छूँछी करनी
गहरी बाधा की वैतरनी;
जीवन की झीनी चाद की
टेढ़ी तानी, सीधी भरनी।
मन की बहती गंगा उल्टी गई दिशा को भूल!
गड़े शून्य घट में कैसे संशय के तिरछे शूल?

सूजी कह लो, जो छोर सूझ का
रख अपने में छोड़ न दे;
वह बखिया क्या, टाँका कह लो
जो चिथड़े का मुँह जोड़ न दे?
टुकड़े होकर टस से टूटे ऐसी सिलन फिजूल।
गड़े शून्य घट में कैसे संशय के तिरछे शूल?

(रचना-काल: दिसम्बर, 1943। ‘विशाल भारत’, फरवरी, 1944 में प्रकाशित)

विश्व-मानव गाँधी

यह एक वर्ष भी तो पूरा होगा न अभी,
पर, भ्ुाला दिया हमने तेरी वाणी को भी!
यह कैसी सोने की कुर्सी, शाही गद्दी?
हम भूल गए कैसे तुमको इतनी जलदी!

आज़ाद हो गए हम, पर ढाँचा अभी वही!
नकली नक़्शे, खतियान और जालिया बही!
मिट्टी, गारा, दीवार वही, दालान वही!
डाकू, गँठकतरे, चोर और शैतान वही!

रह नहीं गया आलोक: दिवा का शुक्लभाव,
घन में छाया अवसाद: रात्रि का कृष्णभाव।
करता विष-वर्षण शासन का मणिधर भुजंग,
सन्तप्त भंग मानवता का है अंग-अंग।

फंुकार रही दानवत की ज्वाला प्रचंड,
करने जीवन को दण्ड-दण्ड में खण्ड-खण्ड।
बज रहा मौत का ढोल गगन के गुम्बद पर,
है डोल-डोल उठता, भूधर दुख से दब कर!

थम नहीं रहा है रुदन धरा की छाती में,
औंधी लेटी दुख की असूझ अधराती में।
इस अनल-दहन में शीतल हरिचन्दन जैसे,
जलती धरती में सजल-नयन सावन जैसे।

तुम चले, धर्म के सपने को तब ठेस लगी!
तुम चले, धर्म की रंगभूमि में भीति जगी!
आर्यत्व राष्ट्र की रीढ़ तोड़ने को दौड़ा,
आया फैलाए फ़ौलादी पंजा चौड़ा।

तुम नीलकंठ, पी गए गरल के कुम्भ भरे!
पर, पाशवता की ललकारों से नहीं डरे!
हो प्राप्त स्वर्ग, सम्पदा, रही तेरी न टेक,
तेरी तो एक कामना थी, भावना एक।

उनके सब दुख हों दूर कि जो हैं दीन दलित,
उनकी पीड़ाएँ टलें कि जो हैं हीन गलित।
हे संजीवन, धन्वन्तरि कायाकल्करण!
तुम चले गए हे शरणङक्र, हे क्षमा-श्रवण!

अब कहो कौन तुम-सा जो दुख की दवा करे?
जो जले घाव पर पंखा होकर हवा करे?
इस दुखियारे भारत की पीड़ा कौन हरे?
अपनी चिन्ता तज जग की चिन्ता कौन करे?

अब कहो दैन्य, दारिद्रî, द्वेष से कौन लड़े?
जो बने वज्र पशुता के गढ़ पर टूट पड़े?
हे मृत्यु´्जय बापू, बलिपथ के अनुगामी!
हे दिव्यभावधर, बुद्व-किरण, हे निष्कामी!

इस तिमिर-दुर्ग में जागे तेरे ही समान,
जागे फिर कोई जगमोहन तापस महानं
हाँ, जागे कोई, नई ज्योति गुरु बलिदानी,
जग-विप्लावक, करुणा की वाणी कल्याणी।

तो जागे काल कराल दमन सिंहासन पर!
तो जागे नर-कंकाल सृजन-वाहन बन कर!
ललकार उठे वाणी-वाणी में सत्य-कथन,
ज्यों रंण-प्रांगण में खंग-धार अंगार-वरण!

तो जागे जन-मन में नवयुग की अरुण किरण,
हांे शान्त द्वेष, उत्पीड़न और स्वार्थ, शोषण।
बापू, तेरी बलिदान-शिला पर आलोकित,
गढ़ मानवता का उठे अतुल महिमामंडित!

(रचना-काल: अगस्त, 1948। ‘सैनिक’, दीपावली विशेपोछ, 1948 में प्रकाशित।)

ओरछा के जंगल में

छाया सावन, उड़ते मतवाले कज्जल घन!
ऊपर, ऊपर ऊपर!
जैसे पंखोंवाले भूधर।

दूर-दूर तक चली गई हैं,
लता-झाड़ियाँ उलझी-छितरी।
मेघों के शुंडों से लीपी,
धरती की छाती पर उभरी।

नीचे, नीचे नीचे
छाया सावन!
नदी-किनारे, मोर झँकारे
बादर कारे!
थमती और बरसने लगतीं
बुँदियाँ फुइयाँ-फुइयाँ!
तन-मन को छू-छू लहराती
हवा सावनी गुंगलाती है;
लम्बे-लम्बे झांेके भरती पूर्वी के सुर में
जो लगती बर्छी-सी उर में।

नयन-मनहरण सदा रहें वन
गहन सघन विर्स्तीण!
रंग-बिरंगे वृक्ष विभिन्न,
धामन, सेजा, तिन्स, हल्दिया
नीम, पलाश, अशोक;
और करधई: जंगल की रानी
लहराती नीलम-श्री!

एक पुराना बरगद का वह पेड़ सामने
भीमकाय झंझाड़!
जिनमें दोफंकी शाखों के ऊपर
घास-फूस रेशों को लेकर;
कनकब्बे, पड़कुलियों ने हैं
लटका दिए घोंसले सुन्दर!
फूटीं जिनसे बरोहियाँ छतनार,
सहसभुजाएँ लम्बी पिच्छाकार पसार;
जंजीरों में जिनकी जकड़े-उलझे
शोषण के पंजे में सँकरे;
छोटे-छोटे बिरवे!
ज़ोर मार कर, इन्हें तोड़ कर
चाह रहे वे खुली हवा में जाना;
चाह रहे वे हो जाना आज़ाद!
आखि़र तो वे पूर्णकाम होंगे ही!
तोड़ रहे दम भीतर-भीतर,
मुरझाती शाखाएँ जातीं उनकी।

इधर-उधर पत्थर के ढोके
सेंधें कटीं दरारें जिनमें;
खुरचे गए बसूले से बढ़ई के
लुढ़के हुए पड़े अजगर-से।
जेसे छितरा दिया काल ने इन्हें
हथौड़े की चोटों से खंड-खंड कर;
और बना डाला लोढ़े को भी शिवशंकर
चिकने और खुरदुरे, गोलमटोल।
निर्जन में एकान्त,
खड़े हुए वन-वृक्ष तुम्बुलाकार।

हरित वर्णधर कोई खड्गाकार,
पत्र-पृष्ठ मख़मली किसी के;
लोमश, काँटेदार।
किसी-किसी पौधे के पत्ते,
शिखर सदन्तुर तीक्ष्ण;
किसी के कुंठित
और किसी के अन्य क़िस्म के और

कहीं किनारे अर्नुन और चिरौल!
वर्षों के पृथिवी के आदिमपुत्र
आगम कूप से सिंचित;
पीपल, पाकर।
चन्दनवर्णी सारवान सागौन,
तुंग मण्डलाकार।
चले गए ऊपर ऊँचे मेघों तक,
किरणों का अंचल के भीतर;
जिनके नहीं प्रवेशं
संगरार्थ सन्नद्ध,
फैला कानन दुर्गम!
चीतल, साँवर, रीछ, तेंदुए,
और शोर के विकट दुर्ग-सा।
यहीं पास ही जाती बहती
वेवती की धार;
अति जबरजंग!
नौरत्नों के कंठे भू के,
जीवन के ये विटप अनोखे भव्य
महनीय और सुन्दर-हरितागं।
निःस्वार्थ दृष्टि से करते आत्मोत्सर्ग
अयाचित व्रत जीवन में आजीवन।

देश-देश युग-युग में फैलीं
शत-सहस्र इनकी शाखाएँ;
इनके ही जीवन से फूटीं
निर्मल जलवाही सरिताएँ।

इनमें, इनकी बेलि-लताओं में ही
संचित अन्नपूर्ण-भंडार।
शक्कर, मिश्री, कन्द,
गिरि-जल-वायु-प्रदत्त
मेवे औ’ मकरन्द।
इनकी दृष्टि-भंगिमा से ही
ऋतु-सम्राट वसंत;
आन्दोलित करता अशान्ति से जग हो।
सूखे पदुप, टहनियाँ इनके
पत्ते झड़ते, सड़ते-गलते;
करते जन-मन के मरुथल को ऊर्वर।
लगती सृष्टि खोखली नंगी
ऊसर औ’ बलुई;
रह जाती बस छाँछ रेत की
परतीली, ढीली।

जो न धरा पर होते पौधे,
पेड़-लता, पर्णांग, फूल-फल!
इनके ही जीवन से जीवन जीवन
मरु नन्दन-वन!
छाया सावन!
उड़ते पंखोंवाले भूधर
बादल!
ऊपर, ऊपर, ऊपर!

(रचना-काल: दिसम्बर, 1948 ‘नया समाज’, फरवरी, 1949 में प्रकाशित।)

चिर-नूतन

विस्तीर्ण करो ओ अग्निपूत, ओ आप्तकाम;
दर्शन की अन्तर्केन्द्रपरिधि का दर्पणतल।
स्वर ध्वनित करो दूरंगम अर्थ-सुपर्णों का-
अनिरुक्त पंख जिनके धुनते दिगन्तमण्डल।

यदि गुन सकते, तो गुनो गणित के अंकों से,
जीवन-मन्वन्तर को अनन्त परिमाण भरे?
आसमुद्रान्त पृथिवी की वेदी पर मन्द्रित,
चिन्मय ध्वनि-व्य´्जन को स्वाहा-सन्धान भरे!

युग के विराट दिक्स्वस्तिक पर कुण्ठा का तम,
बहिरन्तर द्वन्द्वभ्रान्तियों का कुहरा काला।
धधकाओ उसमें अन्तश्चेतन मानस की-
आज्याहुति से हेभाभरश्मियों की ज्वाला।

वाणी में अर्थकमलदल के ध्वनि-परिमल को-
सुर चिर-नूतन का भरने दो, ओ स्वरसाधक;
दो दूर हटा उन विधा-सरणियों को कुण्ठित-
जो ज्वराक्रान्त मतवादों से गतिपथमापक।

(30 अक्तूबर, 1973)

एक लगन बन

एक लगन बन, अमन-अमन बन,
अन्य-अन्य का मनन न कर मन।

नहीं केन्द्र में ऋतु के बन्धन,
कर्दममलिन तमस दुर्दर्शन,
आत्मक्रीड ऋतगामी बन मन,
स्वयं घटन-विघटन।

जिह्म अनृत का पथतमसावृत,
अमृत प्राण से ऋत-पथ छन्दित,
एक अखण्ड सूत्र से ग्रन्थित,
मरण और जीवन।

ऋत-प्रवीत क्षर, अक्षर चेतन,
रोचमान रवि-शशि, तारागण,
करते ऋत-पथ का न चिरन्तन,
देश-काल लंघन।

(10 दिसम्बर, 1973)

पंखदार शर अर्धचन्द्र से

पंखदार शर अर्ध चन्द्र-से,
भस्मरहित जेसे अंगारे!

सटे परस्पर पुच्छ भाग में
स्वर पर सधे अचूक निशाने;
गहराई तक मर्म चीर कर
लगे खून की नदी बहाने।
टूटे शरवर्षण से तेरे
नभ के तम्बूरे से तारे!
उस दिन, खुले बाल मेघों के
बहने लगी हवा चौबाई,
लिया जन्म मधुऋतु ने, सागर में
लहरों ने लौ अँगड़ाई।
जिस दिन, काल-भाल परर, तरेी
छवि के मैंने चित्र उतारे।
संकेतों में अनबोले-से
अर्थश्लेष की मीड़-मूर्च्छना,
करती जैसे स्वर्णदामिनी
घनमृदंग पर नाद-व्यंजना!
चित्र बनाते न्यारे-न्यारे
दोनों अँधियारे-उजियारे!

(11 दिसम्बर, 1973)

महाभिनिष्क्रमण

दहकते ब्रह्माण्ड को अंगार-कण से,
जा सके जो पार कर मर्दित चरण-से?
गड़गड़ाते सिन्धु को जो लाँघता है?
कड़कड़ाते मेघ को जो बाँधता है?
प्राप्त कर सकता वही है बु;-पद को!
ऋद्धि-बल से युक्त दुष्कर मुक्तपद को!

अवनि की अमरावती में ईतियाँ हैं,
मृत्यु की पगडं

प्रणय-दर्शन

नयन सावन हो रहे हैं।
रिमिक-झिमझिम झिमिक-रिमझिम भार हिय का खो रहे हैं;
नयन सावन हो रहे हैं।

वेदना की रश्मि से यह हृदय-पारावार तपकर,
प्रणय-निर्मित पवन-रथ पर गगन-ऊपर जलद बनकर,
अश्रु धाराएँ विरह की छोड़ते ढर्-ढर् निरन्तर,
उमड़ घिर-घिर घुमड़ प्रियतम-चरण-रजकण धो रहे हैं;
नयन सावन हो रहे हैं।

रसोत्प्लवित ‘ऋतम्भरा’ प्रज्ञा विकम्पित हो गई है,
चिर प्रदीपित वर्त्तिका, वह वात-सम्पित हो गई है,
हृदय-सर की प्रणय-हंसिनि धूल-शायित हो गई है,
मरण-जीवन निशि-दिवा में प्राण बेसुध सो रहे हैं;
नयन सावन हो रहे हैं।

रस-प्रफुल्ल वसन्त को क्यों दे करील मृषा विदूषण?
वेणु क्यों दे दोष? अकलुष-गन्ध-चर्चित मलय-चन्दन,
तुम नहीं प्रिय निन्द्य; मैं ही मलिन, कलुषित, अन्ध-लोचन,
पंख-भंग विहंग-से यह हंस सिर धुन रो रहे हैं;
नयन सावन हो रहे हैं।

फेन की अट्टालिका जग में कहो, किसने उठाई?
गगन से ले सुमन किसने गूँथ कर माला बनाई?
बिन चढ़े शूली, कहो, किसने ललन से की मिताई?
काकगोलक न्याय यह, मन मौन शंकित हो रहे हैं;
नयन सावन हो रहे हैं।

(रचना-काल: जनवरी, 1940। ‘साधना’, मार्च, 1940 में प्रकाशित।)

 

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