Skip to content

मौन करुणा

मैं तुम्हारी मौन करुणा का सहारा चाहता हूँ,

जानता हूँ इस जगत में फूल की है आयु कितनी,
और यौवन की उभरती साँस में है वायु कितनी,
इसलिए आकाश का विस्तार सारा चाहता हूँ,
मैं तुम्हारी मौन करुणा का सहारा चाहता हूँ,

प्रश्न-चिह्नों में उठी हैं भाग्य सागर की हिलोरें,
आँसुओं से रहित होंगी क्या नयन की नामित कोरें,
जो तुम्हें कर दे द्रवित वह अश्रु धारा चाहता हूँ,
मैं तुम्हारी मौन करुणा का सहारा चाहता हूँ,

जोड़ कर कण-कण कृपण आकाश ने तारे सजाये,
जो कि उज्ज्वल हैं सही पर क्या किसी के काम आये?
प्राण! मैं तो मार्गदर्शक एक तारा चाहता हूँ,
मैं तुम्हारी मौन करुणा का सहारा चाहता हूँ,

यह उठा कैसा प्रभंजन जुड़ गयी जैसे दिशायें,
एक तरणी एक नाविक और कितनी आपदाएँ,
क्या कहूँ मँझधार में ही मैं किनारा चाहता हूँ,
मैं तुम्हारी मौन करुणा का सहारा चाहता हूँ

हे ग्राम देवता ! नमस्कार !

हे ग्राम देवता ! नमस्कार !

सोने-चाँदी से नहीं किंतु

तुमने मिट्टी से दिया प्यार ।

हे ग्राम देवता ! नमस्कार !

जन कोलाहल से दूर-

कहीं एकाकी सिमटा-सा निवास,

रवि-शशि का उतना नहीं

कि जितना प्राणों का होता प्रकाश

श्रम वैभव के बल पर करते हो

जड़ में चेतन का विकास

दानों-दानों में फूट रहे

सौ-सौ दानों के हरे हास,

यह है न पसीने की धारा,

यह गंगा की है धवल धार ।

हे ग्राम देवता ! नमस्कार !

अधखुले अंग जिनमें केवल

है कसे हुए कुछ अस्थि-खंड

जिनमें दधीचि की हड्डी है,

यह वज्र इंद्र का है प्रचंड !

जो है गतिशील सभी ऋतु में

गर्मी वर्षा हो या कि ठंड

जग को देते हो पुरस्कार

देकर अपने को कठिन दंड !

झोपड़ी झुकाकर तुम अपनी

ऊँचे करते हो राज-द्वार !

हे ग्राम देवता ! नमस्कार !

ये खेत तुम्हारी भरी-सृष्टि

तिल-तिल कर बोये प्राण-बीज

वर्षा के दिन तुम गिनते हो,

यह परिवा है, यह दूज, तीज

बादल वैसे ही चले गए,

प्यासी धरती पाई न भीज

तुम अश्रु कणों से रहे सींच

इन खेतों की दुःख भरी खीज

बस चार अन्न के दाने ही

नैवेद्य तुम्हारा है उदार

हे ग्राम देवता ! नमस्कार !

यह नारी-शक्ति देवता की

कीचड़ है जिसका अंग-राग

यह भीर हुई सी बदली है

जिसमें साहस की भरी आग,

कवियो ! भूलो उपमाएँ सब

मत कहो, कुसुम, केसर, पराग,

यह जननी है, जिसके गीतों से

मृत अंकर भी उठे जाग,

उसने जीवन भर सीखा है,

सुख से करना दुख का दुलार !

हे ग्राम देवता ! नमस्कार !

ये राम-श्याम के सरल रूप,

मटमैले शिशु हँस रहे खूब,

ये मुन्न, मोहन, हरे कृष्ण,

मंगल, मुरली, बच्चू, बिठूब,

इनको क्या चिंता व्याप सकी,

जैसे धरती की हरी दूब

थोड़े दिन में ही ठंड, झड़ी,

गर्मी सब इनमें गई डूब,

ये ढाल अभी से बने

छीन लेने को दुर्दिन के प्रहार !

हे ग्राम देवता ! नमस्कार !

तुम जन मन के अधिनायक हो

तुम हँसो कि फूले-फले देश

आओ, सिंहासन पर बैठो

यह राज्य तुम्हारा है अशेष !

उर्वरा भूमि के नये खेत के

नये धान्य से सजे वेश,

तुम भू पर रहकर भूमि-भार

धारण करते हो मनुज-शेष

अपनी कविता से आज तुम्हारी

विमल आरती लूँ उतार !

हे ग्राम देवता ! नमस्कार !

(1948)

 

किरण–कण

एक दीपक किरण–कण हूँ।

धूम्र जिसके क्रोड़ में है¸ उस अनल का हाथ हूँ मैं

नव प्रभा लेकर चला हूँ¸ पर जलन के साथ हूँ मैं

सिद्धि पाकर भी¸ तुम्हारी साधना का —

ज्वलित क्षण हूँ।

एक दीपक किरण–कण हूँ।

व्योम के उर में¸ अपार भरा हुआ है जो अंधेरा

और जिसने विश्व को¸ दो बार क्या¸ सौ बार घेरा

उस तिमिर का नाश करने के लिए¸ —

मैं अटल प्रण हूँ।

एक दीपक किरण–कण हूँ।

शलभ को अमरत्व देकर¸ प्रेम पर मरना सिखाया

सूर्य का संदेश लेकर¸ रात्रि के उर में समाया

पर तुम्हारा स्नेह खोकर भी¸ —

तुम्हारी ही शरण हूँ।

एक दीपक किर

आत्म-समर्पण

सजल जीवन की सिहरती धार पर,
लहर बनकर यदि बहो, तो ले चलूँ

यह न मुझसे पूछना, मैं किस दिशा से आ रहा हूँ
है कहाँ वह चरणरेखा, जो कि धोने जा रहा हूँ
पत्थरों की चोट जब उर पर लगे,
एक ही “कलकल” कहो, तो ले चलूँ

सजल जीवन की सिहरती धार पर,
लहर बनकर यदि बहो, तो ले चलूँ

मार्ग में तुमको मिलेंगे वात के प्रतिकूल झोंके
दृढ़ शिला के खण्ड होंगे दानवों से राह रोके
यदि प्रपातों के भयानक तुमुल में,
भूल कर भी भय न हो, तो ले चलूँ

सजल जीवन की सिहरती धार पर,
लहर बनकर यदि बहो, तो ले चलूँ

हो रहीं धूमिल दिशाएँ, नींद जैसे जागती है
बादलों की राशि मानो मुँह बनाकर भागती है
इस बदलती प्रकृति के प्रतिबिम्ब को,
मुस्कुराकर यदि सहो, तो ले चलूँ

सजल जीवन की सिहरती धार पर,
लहर बनकर यदि बहो, तो ले चलूँ

मार्ग से परिचय नहीं है, किन्तु परिचित शक्ति तो है
दूर हो आराध्य चाहे, प्राण में अनुरक्ति तो है
इन सुनहली इंद्रियों को प्रेम की,
अग्नि से यदि तुम दहो, तो ले चलूँ

सजल जीवन की सिहरती धार पर,
लहर बनकर यदि बहो, तो ले चलूँ

वह तरलता है हृदय में, किरण को भी लौ बना दूँ
झाँक ले यदि एक तारा, तो उसे मैं सौ बना दूँ
इस तरलता के तरंगित प्राण में,
प्राण बनकर यदि रहो, तो ले चलूँ

सजल जीवन की सिहरती धार पर,
लहर बनकर यदि बहो, तो ले चलूँ

ण–कण हूँ।

 

Leave a Reply

Your email address will not be published.