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चोथतीँ चकोरैँ चँहु औरैँ जानि चँदमुखी

चोथतीँ चकोरैँ चँहु औरैँ जानि चँदमुखी ,
रही बचि डरन दसन दुति दँपा के ।
लीलि जाते बर ही बिलोकि बेनी वनिता की ,
गुही जो न होती ये कुसुम सर कँपा के ।
रामजी सुकवि ढिग भौँहैँ न कमान होतीँ ,
करि कैसे छाँड़ते अधर बिंब झँपा के ।
दाख कैसे झोर झलकत जोति जोबन के ,
भौँर चाहि जाते जो न होत रँग चँपा के ।

रामजी का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल मेहरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।

 

काँच की उतारै चुरी कंचन की धारै प्रेम

  

काँच की उतारै चुरी कंचन की धारै प्रेम ,
और सोँ पसारै दिया बारै चारि बाती को ।
अँजन लगावै उपपति को बुलावै सैन ,
रूप दरसावै जैसे महामदमाती को ।
रामकवि नारिन मे बैठि के किलोलैँ करै ,
सब ही सोँ बोलै लाज खोलै ठोँकि छाती को ।
खाय खोवा खाँड रहै सब ही सोँ चाँड़ ,
सदा कहिबे को राँड़ कान काटै अहिबाती को ।

सूम पतिनी सो कहै सुन सपने की बात

सूम पतिनी सो कहै सुन सपने की बात ,
अकथ कहानी रात बरसत हारो तो ।
चानी मे खरो तो जिमि गाढ़ि के धरो तो ,
ताहि मन मे बिचारि खोदि हाथ को निकारो तो ।
कहै कवि राम आयो कवि एक ताही समै ,
कवित्त पढ़ो तो हौँ तो दीबो अनुसारो तो ।
होतो कुलदाग बड़े जेठन के भाग अरे ,
जागि न परो तो मैं रुपैया दिये डारो तो ।

रामजी का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल मेहरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।

रामजी का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल मेहरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।

उमडि घुमडि घन छोरत अखंड धार

उमडि घुमडि घन छोरत अखंड धार
चंचला उठति तामें तरजि तरजि कै.
बरही पपीहा भेक पिक खम टेरत हैं,
धुनि सुनि प्रान उठे लरजि लरजि कै.
कहै कवि राम लखि चमक खदोतन की,
पीतम को रही मैं तो बरजि बरजि कै.
लागे तन तावन बिना री मनभावन के,
सावन दुवन आयो गरजि गरजि कै.

 

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