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अभी मिटे भी नहीं, पीठ पर से निशान कल के

अभी मिटे भी नहीं,
पीठ पर से निशान कल के
और पाँव आने वाले भी
लगते हैं छल के।

माथे मिले
लकीरों वाले
हाथ चोट खाए
क्या तक़दीर
लिखी है मालिक
हम तो भर पाए;
खुली हवा में उड़ें
कहाँ ऐसे नसीब अपने
गुम चाभी के ताले हैं
बाहर की सांकल के।
अभी मिटे भी नहीं,
पीठ पर से निशान कल के
और पाँव आने वाले भी
लगते हैं छल के।

ढोते पेट
छिल गए कन्धे
भूख कि दूब हरी,
भीड़ों में
लगती है अपनी
देह पाल भरी;
सूरज रहे किसी का
हमको क्या लेना-देना
आँख खुली जब से
हम हैं दड़बे में काजल के।
अभी मिटे भी नहीं,
पीठ पर से निशान कल के
और पाँव आने वाले भी
लगते हैं छल के।

ख़र्च बड़े, छोटी तनख़्वाहें

ख़र्च बड़े, छोटी तनख़्वाहें,
दौरों पर हैं लगी निगाहें
जैसे सूखी नदी रेत से
मिलती है फैलाए बाहें
कैसे निभती है यह तो, बस,
हम जानें या जाने राम।

उलटे हुए फटे कॉलर से
ढकी सफ़ेदी को भी ख़तरा
थके गाँव की नीन्द उड़ाते
सूखा-बाढ़, खतौनी-खसरा
कैसे निभती है यह तो, बस,
हम जानें या जाने राम।

हर सपना पूरा होने में
थोड़ी कसर बनी रहती है
सुख की बहुत विरल छाया पर
दुख की धूप घनी रहती है
कैसे निभती है यह तो, बस,
हम जानें या जाने राम।

पाकर जल उधार का, सारा गाँव डुबो दे 

पाकर जल उधार का,
सारा गाँव डुबो दे
मुझको ऐसी नदी नहीं बनना।

पीठों पर हों घाव
आदमी इक्के के
मरियल घोड़े हों,
न्याय माँगते बटमारों से
हंसों के कातर जोड़े हों;
जिसका हंसना फिर-फिर
सूखी आँख भिगो दे
मुझको ऐसी सदी नहीं बनना।

गुलदस्ते हैं चमन यहाँ के
सहमी ख़ुशबू डरे बिखरते,
नागफनी की पौ-बारह है
भरे पड़े हैं गमले घर-घर के;
जिसका खिलना
काँटों का संसार संजो दे
हमको ऐसी कली नहीं बनना।

घर पड़ोसी का जला, हम चुप रहे 

घर पड़ोसी का जला
हम चुप रहे
गांव पूरा चुप रहा कोई नहीं बोला।

दस्‍तकें देता रहा
पहरों खड़ा कोई
चीख़-चुप्‍पी से लिपट कर
रातभर रोई
खिलखिलाया खूब
ज्‍वालामुखी रह-रह कर
एक पिंजरे ने
अकेले यातना ढोई

धुएँ में घुट-घुट मरी मैना मगर
सभ्‍य पालनहार ने पिंजरा नही खोला।

राजा को सब क्षमा है 

राजा को सब क्षमा है
क्षमा है
मृगया में निर्दोष हिरणों का वध
इस पर खुश होना
हमेशा के लिए बंद होती
कातर आंखों से भी आहत न होना,
क्षमा है द्यूत-क्रीड़ा
भाई और पत्नी दांव पर लगाना
हारना उन्हें और राजपाट को
एक नहीं कई-कई बार।

क्षमाहै
स्वच्छंद भोग-विलास
हरमों में बंदी बनाना सौंदर्य को/यौवन को
चुन-चुनकर
रजस्वला ही जीती रहें निवासों में
अनेकानेक अतृप्त-काम रानियां,
हरमों में बंधक बांदियां
तरसती रहें मृत्यु तक
राजा की एक झलक तक को,
सब क्षमा है राजा को।

राजनैतिक प्रतिद्वन्द्वियों को
लांछन, कारागार, फांसी
हुमककर चढ़ बैठना ब्वाय की कुर्सी पर
परोसना-सनकें/फरमान तुगलकी
गूंगी-भूखी निरीह भीड़ों के लिए
आतताई मुद्राओं के साथ
हमेशा था और अब भी क्षमा है राजा को।

लेकिन सिंकदर
अब नहीं होता निरुत्तर साधु से संवाद कर
और न करता पोरस के साथ
व्यवहार एक राजा जैसा
नहीं करता क्षमा।

सर कलम करता है
साधु और पोरस के,
राजा को क्षमा नहीं करता
अपने दौर का कोई भी सिंकदर
सिंकदर ही क्यों
कोई सगा से सगा उत्तराधिकारी भी
नहीं करता है क्षमा।

यह दौर क्षमाहीन शासकों का
देख रहा हूं
अमरबेल क्षमाहीनता की
फैलकर जड़ों तक जाती,
पीले-पीले डोरों के जाल के बीच
वटवृक्ष प्रजातंत्र का।
कोई क्षमा नहीं करता अब
राजा को, भाई को, पिता को
एक जाति, दूसरी जाति को
वर्ग, दूसरे वर्ग को
धर्म, दूसरे धर्म को
स्त्री, पुरुष को/नई पीढ़ी, पुरानी को
और आज का दौर, इतिहास को।
सदियों क्षमा किए गये राजा से
हिसाब मांगना एक बात है
लेकिन कांप गया हूं मैं
देखकर फैलता साम्राज्य
प्रतिशोध का, दंड का, प्रतिघात का
क्षमा की जगह!
मत करिये यकीन मेरे कहे पर
उठाइए ताजा अखबार और
आंखे टिकाने के लिए चुन लीजिए
कोई भी पृष्ठ अपनी मर्जी का।

तुम्हारी शव-यात्रा से लौटकर

तुम्हारी शव-यात्रा से लौटा मैं
बहुत उदास हूं
श्मशान वैराग्य से तो पहले भी
कई बार उदास हुआ हूं मैं
और फिर जीवन के माया-मोह में
रच-बस गया हूं जल्दी ही,
लेकिन खासी गहरी है
उदासी इस बार
लगता है देर, बहुत देर तक रहेगी।

तुम अपनी इस पूरी मौत से पहले भी
मरे हो कई-कई बार
चरित्र से, ईमान से, इंसानियत से
और तब मुझे उदासी ने नहीं
छकाया है क्रोध ने
मुट्ठियां तन गई हैं/खून हो गईं आंखें और
फट पड़ी हैं मुंह से हजार-हजार गालियां
लेकिन इस बार मरना तुम्हारा
डुबो गया है उदासी के समुद्र में छटपटाता।

बेवजह नहीं है यह उदासी
वह हौसला नहीं है चलने में अब
जो तब था
दौड़ में भागते हुए तुम्हारे गिराने के बाद
उठकर भाग पड़ने में,
नहीं है वह रौनक चेहरे पर
जो कौंधी थी
तुम्हारे प्रशासनिक नाखूनों की खरोंचों के बाद।

छलक आए खून को पोंछते हुए
जाने क्या हो गया था चेहरा कि
तुम देर तक नहीं मिला पाए थे आंखें।

संज्ञाहीन लग रहे हैं आज मेरे हाथ
जिन्हें मुद्दतों बर्फ में रखा तुमने
फिर भी इनकी गिरफ्त से
डरती थी तुम्हारी गरदन,
मैं मोमबत्ती की तरह
देने लगा था रोशनी
जब तमने लगा दी थी आग मेरे सिर में
तुम्हारे खड़े किये/अड़चनों के पहाड़ कदम-कदम पर
बन गए थे-
मेरा हौसला, मेरे रास्ते, मेरा लक्ष्य।

कृतज्ञता से झुक जाता है मेरा सिर आज
तुम्हारी ली अग्नि-परीक्षाओं के बाद
और पैदा करने के लिए
उनसे उबारने वाली जिदें/बेशुमार ताकत जूझने की…
लेकिन अब जब तुम नहीं हो
मेरे पैरों में बंध गया है मनों बोझ
फड़क नहीं उठते हैं हाथ
खड़ा हूं निरुद्देश्य अंधेरे चौराहों पर
सामने नहीं है कोई रास्ता, कोई मंजिल
तुम्हारी अंत्येष्टि के बाद

अब तुम नहीं हो
नहीं है खूंखार धमकियां/कुटिल चक्रव्यूह/
डरावनी आशंकाएं/घाते-प्रतिघाते
जिन्हें परास्त करते हुए जीना
बन गया था मेरा स्वभाव
मैं भूल गया हूं सहज होकर जीना
इसी भूले हुए रास्ते पर वापस जाते थक रहा हूं
इसीलिए बहुत उदास हूं
तुम्हारी अंत्येष्टि से लौटकर।

सम्बंध

दूर शहर में
बेटे जाते हैं कमाने
जब कभी-कभी आते हैं बेटे
जलसा होता है घर में
और चर्चा पूरे गांव में
जरज जाते हैं-मां-बाप, भाई-बहिन
पुलक भर देता है पूरे घर में
सबके लिए आया सामान।

बेटे वापस जाते हैं
भर जाती हैं सबकी आंखें
जरूर जाता है स्टेशन कोई न कोई
मां का बांधा सामान लेकर
विदा करते हाथ नहीं हिलते
डबडबाती हैं आंखें।

फिर आने लगती हैं चिट्ठियां
स्नेह की, आशीष की, जरूरतों की
कम आते हैं जवाब
बेटों की तरह।

अजनबी बड़े शहर में
खोने लगती हैं चिट्ठियां
तब कोई खास जरूरत
ले जाती है शहर बूढे़ पिता को
देखकर उन्हें
बेटों की आंखों में होता है विस्मय।

पूछा जाता है आने का प्रयोजन
लाचारी बेटों की
छोड़ जाती है उन्हें वापस स्टेशन
राहत की सांस लेता है
शहर का छोटा-सा घर।

खोती रहती है चिट्ठियां
और लिखते रहते हैं पिता
एक के बाद दूसरी
हाल-चाल लिखने की याचना के साथ,
फिर नहीं आती चिट्ठियां
आते हैं बीमार पिता
किसी पड़ोसी बच्चे और मां के साथ।
मां अपनी भरपूर सेवा से सहेजती हैं उन्हें
लेकिन सरक जाते हैं रेत की तरह
उनकी मुट्ठी से
कुछ बच नहीं बचता
बिक जाते हैं खेत
बन जाती है शहर के मकान की ऊपरी मंजिल
प्लास्टर के लिए/झाड़फनूस के लिए
बिकने लगते हैं गहने मां के
और घर गांव का।

घर बिकता है पूरा का पूरा
कोठरी जिसमें मां ने जने थे सातों बच्चे
आंगन किलकारियों सीझा
मनौतियों वाला पूजा का आला
तुलसी चौरा और
द्वार जिस पर परत-दर-परत लगी है
अनगिनत थापें मां के हाथों की।

एक हादसे की तरह
उजड़ जता है नीड़
और कोई चीखता तक नहीं
मां चुप रहती है
चिट्ठियां नहीं आतीं।

यज्ञ की राख

बूढ़ी मां की/हर वक्त की हरारत
के पीछे से/झांकती है साफ
उसके जिस्म को ठंडा करती बर्फ-
बर्फ जो पिघल रही है
उसके जाए अग्निबीजों की नसों में,
थकती जा रही है
मां के भीतर की आग
चौतरफा राख लपेटती
बीतते-एक-एक दिन के साथ।

किलकारियां सेता हुआ
मां का जिस्म
था सबसे गर्म
ठिठुरती रातों में तपता
गीले पर सोता पूरी-पूरी रात,
हुलसकर उठाती मां
कलेजे का टुकड़ा अपने ही,
सोख लेता कंपकंपी
उम्र का एक हिस्सा झोंककर
जलता अलाव होता जिस्म मां का।

भोरहरे से पकड़े चक्की की मूंठ
घरर…घरर दिन चढ़े तक
कूटता धान,
माघ पूस की सर्दी से रिसती नाक
और उसके मुकाबले
भीतर से निकलती भाप का लावा,
रात भर के पड़े बर्फ चूल्हे में
तोप देती फूस
धुएं में आंखें खोलकर
पूरी ताकत से और बार-बार फूंकते जाना,
लौ उठने तक
निरन्तर जीता है
लुहार की धौंकनी-सा चलता मां का जिस्म।

बीमार मां
ठंडे पानी से नहाया जिस्म
खांसी से दुहरी होती
गठरी बन-बन जाती,
पुआल की ढाल लिए/समूची सर्दी से लड़ती
और लगातार जीतती मां का जिस्म
चीथड़ों से छनकर छेदती
ठिठुरन पचाता और
गिरने से बच गए तीन दांत बजाता,
जीत का जश्न मनाता मां का जिस्म।
आधे सफेद बालों वाले बेटे की
पसलियों पर फैला देता है आंचल
अपने को उघारकर
वात से कराहता
फूस की राख सिरहाने रखकर
सेंक महसूस करता मां का जिस्म
झुर्रियों से पटा पूरा जिस्म मां का
बंद किये आंखें
सोने का एहसास कराता सबको
महसूस करता है बंधन
चांदी की चूड़ियों का।

आधे पेट सुबह का इंतजार करती
नींद से लड़ती,
कभी नहीं देखती आईना
नहीं देखपाती
फूल से ईंधन हुआ अपना जिस्म।
सिर्फ समय देखता है-
कभी नहीं मरता मां का जिस्म।
सिर्फ समय देखता है-
कभी नहीं मरता मां का जिस्म
आग पैदा करता प्यार की
एक पूरी उम्र की सर्दी से
लड़ता है। सेंक देता है
निरंतर खौलता ज्वालामुखी बनकर
रीत जाता है/बच जाता है
एक यज्ञ की राख का ढेर दिखता
मां का जिस्म।

सच्चाइयाँ

मेरी अपनी अलमारी में
ऊपर के खाने में
पीछे कोने में रखा-
कागज का एक पुराना अधफटा टुकड़ा
किसी और की लिखावट का,
किताबों के बीच
न दिखे, इस जतन से रखी डायरी
और उसमें
पंखुरी-पंखुरी हो गया फूल,
पोटली में
पिता का लिया
कर्ज चुकाने के बाद
हासिल हुए-इंदुलतलब रुक्के
क्यों डराते हैं मुझे?
पत्नी और बच्चों के
अलमारी छूने पर
क्यों खीजने लगता हूं मैं?

मुझे पता ही नहीं लगा
कब डर बन, गईं
मेरी निजी सच्चाइयां

यात्रा

तुम व्यस्त रही
अपने घर के काम-काज में
बच्चों में
नींद न पूरी होने की यातना में,
मैं बिलकुल खाली रहा
घर चलाने के लिए
कमाते हुए
रहते हुए
घर में
तुम्हारे बच्चों के साथ,
सोते हुए घर में
जागता रहा,
जाता रहा बार-बार
वर्षों को चीरता
तुमसे हुई पहली मुलाकात तक,
मैं दौड़ते-दौड़ते थक गया
और तुम व्यस्त रहते-रहते
एक ही यात्रा में।

इतिहास 

दसवें दर्जे की मेरी
इतिहास की कापी,
आखिरी पन्ने का
नीचे का कोना
आज पचास की उम्र
छूते हुए भी
सुरक्षित है मेरे पास।
अब भी खोजता हूं
भीड़ों के चेहरों में कभी-कभी
सोचता हूं कौन थीं तुम
अब भी लिखा है साफ-

‘मैं सिर्फ तुम्हारी हूं’
आज भीन पढ़ने की हद तक
नीचे लिखा तुम्हारा नाम।
तुम जो भी थी
मैं नहीं समझ पाया
तुम जुड़ना जानती थीं या घटना…?

भाषा 

खांसी आती है
पिता को, मां को भी
गांव के घर में,
अकेली बची दो चारपाइयां
करवट के बहाने बोलती हैं।
थके शरीर/लापता नींद और सपने
चुक गईं बार-बार दुहराई बातें,
कभी-कभी लगता है
खांसी उनका रोग नहीं
भाषा है।

घर

मुस्कराते हुए जगमगाता है
सुबह एक चेहरा
और
दर्द करते माथे पर
रेंगता है एक हाथ,
सोते वक्त,
मुझे लगता है
मैं घर में हूँ।

साझे की नींद

एक छत की नींद
बंद कमरे में साथ रहते चुपचाप
गुजर जाए उम्र
शीतयुद्ध लड़ते एक जोड़े की तरह,
या आसमान तले
हजारों मील का सफर
तय कर लें साथ-साथ
रेल की पटरियों की तरह,
मंजिलें एक होते हुए भी
कभी नहीं मिल पाते दोनों।

अभिशप्त गंधर्व की या
यक्ष की कथा से भी त्रासद
कथा का साक्षी मैं
मुग्ध हूं
चिड़ियों के जोड़े की प्रेमकथा पर,
निरापद नहीं है घोंसला,
कभी भी आंधी-पानी का आ धमकना
और बिल्ली की तेज आंखों का डर
बहुत करीब होता है घोंसले के,
लेकिन बसेरा लेता है जोड़ा
निश्चिंत
एक-दूसरे की गरमी महसूस करता।

आंख खुलते ही साफ करते हैं चोंचे
दोनों आपस में,
निकल पड़ता है जोड़ा चिड़िया का
भूख से लड़ता-हांफता
लेकिन हारता नहीं,
बीच-बीच में हौसला देता एक-दूसरे को
लौटता है दिन ढले थका हुआ
लेकिन संतुष्ट,
साझे की नींद सो जाता है
बिना शिकायत के।

शोक 

तुम्हें कुछ महसूस नहीं होता
बड़े-बड़े पंख
ऊंची परवाज वाले
कटते देखते
कमरे के घोंसले में,
बच्चों को दाना चुगाकर जाती गौरैया का
पंखे से टकराकर
लहूलुहान होना
नहीं आता तुम्हारे शोक की श्रेणी में।

फटा नहीं होता है
इज्जत लुटने की खबर लेकर आते
अखबार का कोना,
कुछ नहीं होता भीतर तुम्हारे
कुचले जाने पर पैरों तले
गुलाब का छतनार फूल।

फिर क्यों आना चाहिए
एक बड़े शोक की श्रेणी में
कुछ भी न देख पाने वाली
तुम्हारे आंखों की रोशनी का जाना,
डूब जाना संवेदनहीन दिल की
धड़कनों का अचानक।

राष्ट्रीय शोक की श्रेणी में
आनी चाहिए क्यों
किसी एक की अकेली मौत
जो सचिवालय की ऊपरी मंजिल से
देख पाता था
सिर्फ हरियाली राजधानी की।

नुमाइश 

चेहरों की विशाल नुमाइश में
मुझे जगह मिली है
खड़े होने की
एक अंधेरे, संकरे कोने में।
उधर बीचों-बीच सजे हैं चेहरे
सिंहासनों पर,
उनके पैताने बड़े-बड़े धन्ना सेठ
सीखें निपोरते और
बाजू चेहरे
अफसरों के/दलालों के-

खुशामदी काइयां
और पीछे हैं चेहरे
सजे कतारों में
व्यापारियों और खास-खास लोगों के
रंगे-पुते गजब की फिनिश वाले।

सिर्फ प्रतिनिधि चेहरे हैं
बड़े हाल में,
उधर बाहर खुले में
निचाट धूप में
एक बड़ा हुजूम चेहरों का
पोंछ रहा है पसीना
‘हाउसफुल’ की तख्ती ताकता,
सख्त मनाही है भीतर आने की।
कोई दाखिल होता है भीतर
आंख बचाकर,
टूट पड़ते हैं चाक चौबन्द वर्दी वाले
ले जाते हैं एक मरियल ढांचा
घसीटते हुए बाहर।

चेहरों पर चस्पां
गहरे शानदार मेकअप को नकारते
बोल पड़ते हैं निशान कई,
बिदक जाता है खरीदार
पूछ लेता है-
कैसे हैं ये निशान?
फुसफुसाता है नेपथ्य से कोई-
‘राहजनी के-
रात के अंधेरे/नि के उजाले/कहीं भी
किसी से भी लूटपाट के,
जाहिर है
लूटने वाले के भी
नाखून तो होते ही हैं!’

देर नहीं करता
तेज समवेतस्वर
रौंदता नेपथ्य के स्वर को,
गूंज उठता है पूरे हाल में
खास चेहरों का साझा बयान बनकर-
जिये हैं हम पूरी उम्र
भरत की परंपरा
शेर के दांत गिनने की
और शेर के दांत गिनने में
इतनी खरोंचें तो आती ही हैं,
राष्ट्रीयता के मेडल जैसी
हमारी पूंजी हैं ये खरोंचें।

मैं अपनी अंगुलियों से
टटोलता हूं अपना चेहरा
न मेकअप की परतें, न निशान,
देखता हूं गौर से
अपने बहुत करीब के चेहरे
उन पर भी कुछ नहीं
यहां कोई नहीं समझा
इधर क्यों नहीं आए खरीदार!

स्मारक

एक सड़क है उसके नाम की
और बहुत महंगी जमीन पर
एक बड़ी सी समाधि भी,
जरूर किया होगा
कोई बड़ा काम
ठीक-ठीक याद नहीं
किसी नायक की कथा
दर्ज है इस सड़क और
समाधि की शक्ल में,
सिरे पर सड़क के एक पत्थर
खड़ा है माथे पर गुदवाए
उसका नाम बड़ा-बड़ा
अंग्रेजी और हिन्दी में भी,
लेकिन गूंगी हो गई हैं भाषाएं-
कुछ नहीं कहतीं
बहरे हो गए हैं लोग-
कुछ नहीं सुनते।

सुबह से शाम तक की
एक ठसाठस भीड़
रौंद रही है यह सड़क
किसी को कुछ याद नहीं-
कौन था वह…? क्या किया उसने?

समाधि के आसपास
दूर तक फैला एकांत
काम की चीज है बड़े शहर में
मुलाकातों के लिए,
पिकनिक या फिर अपराधों के लिए
सैलाब आते हैं चेहरों की शक्ल में
आंखें टिकाए अपने-अपने लक्ष्य पर
महाभारत के अर्जुन की मुद्रा में
एक…दो…तीन नहीं
अनगिनत अर्जुनों की कतार है यहां
नई उमर की-
मौजमस्ती, लूटखसोट
चिकने, वजनी शरीरों की वर्जिश।
दुनियादार राजपुरुषों की दुकानदारी
लिख गई है मैदान के चप्पे-चप्पे पर
मोटे काले अक्षरों में
करीब-करीब मिट चुकी
पहले से लिखी महापुरुष की जीवनी पर।

पास के कब्रिस्तान की जीवनी पर।
खड़ी बहुमंजिला इमारत,
अगल-बगल और बहुत सारी
हमशक्ल इमारतें
शहर की बेतहाशा बढ़ती जरूरतें
और आसमान छूती कीमतें जमीन की
मैंने आंख भर देखा
समाधि के आसपास दूर तक
खाली पड़ा जमीन का
बड़ा और बेशकीमती टुकड़ा-
महापुरुष के नाम का,
पता नहीं क्यों आज
वहां से लौटते हुए
मुझे बहुत डर लगा।

जलती आँखें कसी मुट्ठियाँ

जलती आँखें,
कसी मुट्ठियाँ
भटक गई या हुई पालतू
इस इमारतों के
जंगल में

ऐसी दौड़
कि सर ही सर हैं
पाँवों के नीचे कंधे हैं
या तो आदमखोर नजर है
या फिर लोग निपट अंधे हैं
कौम कि
जैसे भेड़ बकरियाँ
पैदा होते हुई फ़ालतू
होने चली जिबह मकतल में

जिसे पा गए
उस पर छाए
सब में गुण हैं अमरबेल के
सीढ़ी अपनी, साँप और के
ऐसे हैं कायदे
खेल के
मिली जुली
हो रहीं कुश्तियाँ
ऊपर वाले, देख हाल तू
कोई नियम नहीं दंगल में

घुटन से भरी-भरी

घुटन से भरी-भरी
ये सारी संज्ञाएँ
मेज पर पड़ी पिन तक
करती हैं शंकाएँ

फाइल के गत्ते पर
अवर्तन मन का
फाड़ रहा अखबारी कागज जीवन का
उलझन के रेतीले पानी पर
तैर रही साधन की
बोझ लदी नौकाएँ

फर्श पर पड़े हुए
रद्दी से हम
धूल भरे वातायन से लेते दम
नत्थी-सा हो गया अहम अपना
मिलती हैं चुंबन से
कराहती शिराएँ

हवा-हवा हो जाता
आँखों का गीलापन
जीने में कुछ ऐसे शामिल है विज्ञापन
दलदल में फँसे हुए पाँव हैं
मुँह चिढा-चिढा जाती
सिरफिरी हवाएँ

पाला मारे खेत 

पाला मारे खेत सुने थे
शोर अकालों के
लेकिन यहाँ काठ मारे से
शहर हो गए हैं

भरे जेठ की दरकी धरती
जैसे हैं चेहरे
अंधी फरियादों के
सुनते हैं बैठे बहरे
चर्चे अबतक बहुत सुने थे
इन्हीं उजालों के
आग लगी जिनसे, सब घर
खंडहर हो गए है

दीवारों के घेरे जीते
बूढ़े शेर हुए
भीतर लोग दहकते
बाहर से पालतू सुए
शायद हमने ढोर चुने थे
भरे पुआलों से
तभी शहर के शहर यहाँ
लाशघर हो गए हैं।

गाँव छोड़ा शहर आए 

गाँव छोड़ा
शहर आए
उम्र काटी सर झुकाए
ढूँढ ली खुशियाँ इनामों में
जुड़ गए कुछ खास
नामों में

माँ नहीं सोई
भिगोकर आँख रातों रात रोई
और हर त्योहार बापू ने किसी की
बाट जोही
मीच आँखे सो नहीं पाए
बाँध कर उम्मीद
पछताए
हाँ हुजूरी में सलामों में
खो गए बेटे निजामों में
ढूँढ ली खुशियाँ इनामों में
जुड़ गए कुछ खास
नामों में

घर नहीं कोई
यहाँ दरबार हैं या हैं दुकानें
जो हँसी लेकर चले उस पर पुती हैं
सौ थकानें
कामयाबी के लिये सपने
बेच डाले रात दिन
अपने
सिर्फ कुछ छोटे छदामों में
खो गए रंगीन शामों में
ढूँढ ली खुशियाँ इनामों में
जुड़ गए कुछ खास
नामों में

बौने हुए विराट हमारे गाँव में 

बौने हुए विराट हमारे गांव में।
बगुले हैं सम्राट हमारे गांव में॥

घर-घर लगे धर्मकांटे लेकिन,
नक़ली सारे बांट हमारे गांव में॥

हर मछली को सुख के आश्वासन
मछुआरे हैं घाट हमारे गांव में।

मुखिया का कुरता है रेशम का
भीड़ पहनती टाट हमारे गांव में।

सुबह पीठ मिलती है छिली हुई
चुभती है हर खाट हमारे गांव में।

रात शुरू होकर दिन-भर चलते
चक्की के दो पाट हमारे गांव में॥

दिन-भर खटकर सोना आधे पेट
ऐसा बंदरबांट हमारे गांव में॥

आना देखा, जाना देखा

आना देखा, जाना देखा।
एक मुसाफ़िरख़ाना देखा॥

दौरे पर आए बाज़ों का
चिड़िया के घर खाना देखा।

हर झुग्गी में मिले सिपाही
ड्यूटी करता थाना देखा।

संत बेचते भोग-कथाएं
मंदिर में मयख़ाना देखा।

पिंजरे में उड़ गया पखेरू
रक्खा आबोदाना देखा।

प्रजातंत्र के इस जंगल में
क़ाबिज़ एक घराना देखा।

पंख कटाने को पंछी का
पिंजरे-पिंजरे जाना देखा।

ठग मचान पर तनकर बैठे
ध्वज का शीश झुकाना देखा।

जब-जब मारे क्रौंच किसी ने
वाल्मीकि का गाना देखा।

इतने फंदों में झूलकर भी प्रान हैं बाक़ी

इतने फंदों में झूलकर भी प्रान हैं बाक़ी।
गोया हमारे कई इम्तहान हैं बाक़ी॥

आग तो दूर दिया भी नहीं जला घर में
अभी धुएं के कई आसमान हैं बाक़ी।

न गिरने दे न चलें, पांव लड़खड़ाते हैं
घर पहुंचने में चार-छः मकान हैं बा़की।

अभी तो देखा है अश्कों को खौलते तुमने
हमारे ख़ून के सारे उफ़ान हैं बाक़ी।

उठ गए सो के, फिर से चल भी पड़े,
किसे पता है कि कितनी थकान है बाक़ी।

अपनी पहचान हो वो शहर चाहिए

अपनी पहचान हो वो शहर चाहिए।
उसमें बस एक नन्हा-सा घर चाहिए॥

बंद पिंजरों में रटते रहे, जो कहा
अब उड़ेंगे, हमें अपने पर चाहिए।

पीछे-पीछे किसी के नहीं जाएंगे
रास्ते अपने, अपना सफ़र चाहिए।

झुक के उठता नहीं, कोई सीधा नहीं
जो तने रह सकें, ऐसे सर चाहिए।

रोशनी के अंधरों से तौबा किया
एक नन्हा दिया हमसफ़र चाहिए।

नींव के पत्थरों, आओ बाहर, कहो
अब बसेरा हमें बुर्ज पर चाहिए।

परनाले की ईंट लगी छत पर देखो

परनाले की ईंट लगी छत पर देखो।
नंगनाच होता है आठ पहर देखो॥

महल कांच के हैं जिनके ऊंचे-ऊंचे,
उनके हाथ बिक गए सब पत्थर देखो।

नमक-तेल-लकड़ी, ईमान-धरम क्या,
लगने लगी आग इनमें अक्सर देखो।

बाहर से सुलगते मुट्ठियां ताने हैं,
बर्फ़ जमी मिलती उनके भीतर देखो।

पांव तले का कांच झाड़कर ख़ुश क्यों हो
लटकी है तलवार अभी सर पर देखो।

पानी नहीं, बरसाते हैं ओले बादल
ज़ख़्म हो गए हैं, फूलों के सर देखो।

मेरी आँखों में झांककर देखें

मेरी आंखों में झांकर देखें।
जिसमें रहते हैं वो शहर देखें॥

पास से दूर, बहुत दूर तलक
बुतों के साथ खंडहर देखें।

दियों ने रात की स्याही पी थी
हैं उजालों में दर-ब-दर देखें।

डूबना है तो घाट क्या देखें
जो डुबोती है वो लहर देखें।

ले के ख़्वाहिश सड़क पे निकले हैं
हो तो कोई नया क़हर देखें।

आईनों पर उदासियां चस्पां
है कहां पर हंसी, किधर देखें।

हमको उड़ना नहीं कसम से मगर
मन बहुत है कि अपने पर देखें।

थोड़ा-सा पानी है वह भी सुर्ख़ लाल है

थोड़ा-सा पानी है वह भी सुर्ख़ लाल है।
गांव-किनारे की नदिया का यही हाल है॥

छोड़ा गांव, शहर जा पहुंचे, भीड़ हो गए
भूखे जाते जहां, वहीं पड़ता अकाल है।

कित्ता गहरा पानी, कोई किससे पूछे
मरी मछलियों की बदबू से भरा ताल है।

तोडे़ं कैसे पौधों के सपने यह कहकर,
आसमान में अमरबेल का घना जाल है।

नहीं पता है, कहां जा रहे, किसे रौंदते
कहां आ गए हम, ये कैसी भेड़चाल है।

बड़े-बड़े नीलाम हो गए नज़र बचाकर
क़ीमत पूरी नहीं लगी इसका मलाल है।

अश्क आँखों में रोककर मैंने

अश्क आंखों में रोककर मैंने
ख़ाक छानी है उम्र-भर मैंने

जब भी निकले हैं आईने बनकर
हर कहीं पाए हैं पत्थर मैंने

कौन पिंजरों में उम्र-भर रहता
नोच डाले हैं अपने पर मैंने

जलाया रोज़ अंधेरों के ख़िलाफ़
चराग़ बनके अपना सर मैंने

उम्र-भर बूंद-बूंद क्या पीता
पी लिया प्यास भर ज़हर मैंने

कहाँ हुए नहीं ग़दर किसी से पूछो तो

कहां हुए नहीं ग़दर किसी से पूछो तो
वहीं छिपाए जा के सर किसी से पूछो तो

हरेक शक्ल क़ीमतों की तख़्तियां टांगे
ये नुमाइश है या शहर किसी से पूछो तो

जिस्मोईमान बेचती हुई दुकानों में
कौन-सा है तुम्हारा घर किसी से पूछो तो

धूप गिरवीं है शहंशाह के तहख़ाने में
कैसे फैली है ये ख़बर किसी से पूछो तो

अब कहां बाक़ी है, भीतर किसी के, कोई नदी
फिर है हर आंख कैसे तर, किसी से पूछो तो

हां-हुज़ूरी अदब में है यहां ज़माने से
हो झुकाया जो मैंने सर किसी से पूछो तो

सारी उम्र नदी के कटते हुए किनारे देखे हैं

सारी उम्र नदी के कटते हुए किनारे देखे हैं
दिए तेज़ आंधी में जलते रामसहारे देखे हैं

मनचाही मुराद की ख़ातिर चाहे जिसकी बलि दे दें
रामनामियां ओढ़े बैठे पालनहारे देखे हैं

परछाईं का सच समझे हैं, धोखों को पहचाना है
चकाचौंध के जाल फेंकते चांद-सितारे देखे हैं

फ्रेमजड़े, बैठक में हंसते ख़ास-ख़ास चेहरे सारे
तहख़ानों में पड़े हुए दर्पण बेचारे देखे हैं

ध्वज पर ईश्वर, दीवारों पर संतों की वाणी लिखकर
भीतर ख़ूनसने मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे देखे हैं

ख़तरे के निशान से ऊपर बहती हैं गंगा-जमुना
इनके आंचल में मग पीते आंसू खारे देखे हैं

कौन बोलता? वाल्मीकि के बाद, चुप्पियां छाई हैं
हमने मरते क्रौंच चीख़ते चोंच पसार देखे हैं

चेहरे शाह शरीर ग़ुलामों के

चेहरे शाह शरीर ग़ुलामों के
टुकड़े पाते लोग सलामों के

आदी हुए आदमी झुकने के
ऊंचे क़द हैं खोटे दामों के

कोटेदार बर्फ़ के भड़भूजे
भाड़ लिख दिए नाम निज़ामों के

घर के शेर मोहते बस्ती को
गहने पहने हुए लगामों के

छत पर खड़े बड़ा कहते ख़ुद को
बिकते हैं तो सिर्फ़ छदामों के

कौन परे पथराव हवेली पर
सब हैं दावेदार इनामों के

बाग़ी सारे सवाल कैसे दिन हैं

बाग़ी सारे सवाल कैसे दिन हैं
हर चेहरा है दलाल कैसे दिन हैं

अपने मौक़ा पाकर चेहरों को छीलते
मलते-मलते गुलाल कैसे दिन हैं

हंस मानसर छोड़ बूंद-बूंद पानी को
भटक रहे ताल-ताल कैसे दिन हैं

हांड़ी में पानी रखे ठंडे चूल्हे पर
भूख रही है उबाल कैसे दिन हैं

हर किसान धोखों के पांवों पर सर रखे
ख़ुश है पाकर अकाल कैसे दिन हैं

हर विभूति कर रही नियम-संयम से
जनपथ पर क़दमताल कैसे दिन हैं

आँख खुली घेरती सलाखें हमको मिलीं

आंख खुली घेरती सलाखें हमको मिलीं
पिंजरे का गगन कटी पांखें हमको मिलीं

अनगिनत हिरन सोने के फिरते आसपास,
वनवासी सीता की आंखें हमको मिलीं

नंदनवन में जन्मे, गंध में नहाए पर
हम बबूल, रोज़ कटी शाखें़ हमको मिलीं

अदनों को ताज-तख़्त, राज-पाट क्या नहीं
और सर छुपाने को ताखें हमको मिलीं

उम्र कटी कंधों पर बुझी मशालें ढोते
आग कहां धुआं कभी, राखें हमको मिलीं

ग़ुम लिफ़ाफ़ों की तरह शहर-दर-शहर फिरना 

इस गांव में बाज़ों के घोंसले बने हैं क्यों
हर शाम कुछ ही लोगों के जलसे मने हैं क्यों

उफ़ कर तो सकते हैं ये जिबह होने से पहले
सर क़त्लगाह में झुकाए मेमने हैं क्यों

चेहरों पे इश्तहार लगे जिस्म पर भभूत,
हर आदमी के हाथ ख़ून से सने हैं क्यों

चेहरों से मुंह छिपाए फिर रहे हैं दुबकते,
ये ख़ौफ़ खाए से तमाम आईने हैं क्यों

ये आग का जलसा था यहां धूप के घर में
साज़िश नहीं है कोई तो बादल घने हैं क्यों

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