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विद्या विन्दु सिंह की रचनाएँ

दर्द पलता रहा 

दर्द पलता रहा चोट खाते रहे,
पर अधर ये मेरे मुस्कराते रहे।

मेरी कोशिश अंधेरों से लड़ने की थी,
स्नेह भरकर दिये में जलाते रहे।

पाँव घायल हमारे हुए भी तो क्या,
सारा जीवन उन्हें हम छिपाते रहे।

दर्द की हिमशिलाएँ पिघलती नहीं,
हम स्वयं को शिला सी बनाते रहे।

माँगते ही रहे खैर रिश्तों की हम,
सारे रिश्ते तो नजरें चुराते रहे।

अपने साये के पीछे नहीं हम चले,
धूप की ओर राहें बढ़ाते रहे।

वक्त हमको हमेशा ही छलता रहा,
पर उसे आइना हम दिखाते रहे।

वो जो पत्थर हमारे बदन पर लगे,
वार सहकर उन्हें हम हराते रहे।

माँ का मन हम न समझे

माँ का मन हम न समझे
हर छुट्टियों में माँ
गोबर की गौर बनाकर
ऊपर दूब का मुकुट खोंस कर
मा गौरी से सगुन उठाती हैं
गौर डलिया में रखकर
चारों ओर घुमाती हैं
लिपे पुते चौक पर
डलिया (कुठई) औंधा करती है-
आँख मूद कर मेरे बच्चे आ रहे हैं,
नहीं आ रहे हैं कहकर प्रश्न उठाती है।
आ रहे हों तो उठकर बैठ जाना कहती हैं।
गौरी के गिरने का अर्थ है- नहीं
गौरी बैठी रह जायें सिर पर मुकुट दूब पहने
तो अर्थ है ‘हाँ’
बार-बार गौरी गिरती हैं
माँ बार-बार सगुन उठाती है,
शायद गौरी से भूल हो गयी
गोबर गीला है पसर गयीं,
ऊपर दूब का मुकुट है
भार से लुढ़क गयी
वह दुहराती है
अच्छा अबकी बार
उठकर बैठ जाना मा।
बच्चे जरूर आ रहे हैं
सगुन तो बता दो।
गौर का मन पसीज जाता है
वह भी मा है-
मा की आकांक्षा और दर्द भी जानती है
वह उठकर बैठ जाती है
झूठा सगुन दे देती है
मा निहाल हो उठती है
पर त्योहार बीत जाते हैं
बच्चे नहीं आते
मा कैसे सेरवाये गौर को
सगुन पूरा होने पर ही तो
गौर को जल में
विसर्जित किया जाता है
दूध से नहलाकर
हल्दी अक्षत से टीक कर।
पर मा क्या करे
कब तक गौर को रखे
बिना सेरवाये।
गौर का क्या दोष ?
मैने ही तो बार-बार
उसके सत्य को किया था अस्वीकार
उसने तो कुछ समय के लिए ही
झूठी ही सही
तसल्ली तो दी थी
जिसके सहारे कट गयीं
प्रतीक्षा की घड़ियाँ।
माँ गौरी को विसर्जित कर देती है
जाइये शीतल रहो माँ
मेरे ताप से तुम्हें भी हो रहा है कष्ट
फिर-फिर बुलाऊँगी तुम्हें
तुम्हारा आना तो मेरे हाथ में है
जब चाहूँ बुला लूँगी।

वृद्धों को भूख लगती है

वृद्धों को भूख लगती है
वे माँगते हैं खाना
उन्हें मिलता है ताना
इस उमर में भी इतनी भूख ?
उनकी आँते चिकोटी काटती हैं
वे पानी पी पी कर
उन्हें सहलाते हैं
कुछ किसी से कह नहीं पाते हैं
उसे व्रत उपवास का नाम देकर
स्वयं को बहलाते हैं।
वे बड़े सम्पन्न घरों के हैं
अपना हाथ खाली कर चुके हैं।
दूसरों के आगे
हाथ पसार नहीं सकते,
अपने हाथ बटोर चुके हैं।
वे गम खाते हैं, कम खाते हैं
और खोखले होते जा रहे तन में
शक्ति की कल्पना करते
काम में जुट जाते हैं।

हिन्दी वह शंख जो गुँजा रही दिशाएँ 

सुलगती धूप सी महका रही हवाएँ।
हिन्दी वह शंख जो गुँजा रही दिशाएँ॥

हिन्दी का पानी बहुत पानीदार है,
रखें किसी पात्र में लेती आकार है।
अमर बेल सी पसर फैलाती लताएँ॥
हिन्दी वह शंख जो गुँजा रही दिशाएँ॥

सरल मना हिन्दी बाँचती, फिरती पीर,
अँगुल भर आस को बना द्रौपदी चीर।
हिन्दी के हाथ ही दुःशासन थकायें॥
हिन्दी वह शंख जो गुँजा रही दिशाएँ॥

सच की बानी है, स्वप्न की कहानी है,
सुनती सबकी, अपने मन की रानी है।
कहे राधा रागबोध, कृष्ण की कलाएँ॥
हिन्दी वह शंख जो गुँजा रही दिशाएँ॥

भीष्म की प्रतिज्ञा है, सत्य धर्मराज का,
दायित्व राष्ट्र का, धर्मबोध आज का।
हिन्दी है सुविधा, हम कहीं भी जाएँ॥
हिन्दी वह शंख जो गुँजा रही दिशाएँ॥

भू से पाताल तक, हिन्दी का मूल है,
भारत का बीजमन्त्र, सुरसरि-कूल है।
यही सिंधु, जहाँ भाषा नदियाँ समायें॥
हिन्दी वह शंख जो गुँजा रही दिशाएँ॥

हिन्दी अनुराग है, भाव रंग-राग है,
सावनी फुहार है, कान्हा का फाग है।
भाषा, धर्म, जाति की तोड़े सीमाएँ॥
हिन्दी वह शंख जो गुँजा रही दिशाएँ॥

आसेत हिमालय से कन्याकुमारी तक,
अण्डमान निकोबार कालापानी तक।
हिन्दी का ‘नव परिमल’ सुगन्ध बिखराएँ॥
हिन्दी वह शंख जो गुँजा रही दिशाएँ॥

गउवाँ गेरउवाँ सहर भये बाबा

गउवाँ गेरउवाँ सहर भये बाबा
सहर भये बाबा, जहर भये बाबा।

नाहीं आये हरदी नेवत लिहे बभना।
खुलि गयीं निंदिया, टूटि गये सपना।
सब सुख यहर वहर भये बाबा।
गउवाँ गेरउवाँ सहर भये बाबा

देवरा क चुटकी, भउजी ठिठोलिया
ननदी क ठुनकी, वसरवा क बतिया
गितिया, कहनिया नोहर भये बाबा।
गउवाँ गेरउवाँ सहर भये बाबा

ठनकति हँसी न गंध सोंधी गुजरिया
हरहा न गोरू सब सूनि भईं सरिया
मन जैसे खुँटिया क हर भये बाबा।
गउवाँ गेरउवाँ सहर भये बाबा

कैसे केहू रहिया बचाय चले बाबा
नेहिया क दियना लेसाय चलै बाबा
नये-नये चोरवा जबर भये बाबा।
गउवाँ गेरउवाँ सहर भये बाबा।

मनवा म बाँधि कै विपति गठरिया
केहू न बतावै आपन जियरा हवलिया
नोहर हँसी कै पहर भये बाबा।
गउवाँ गेरउवाँ सहर भये बाबा।

बाबा अकेले बइठे तपता बारे,
पैरा के चारिउ ओर बिड़वा सँवारे
घर घर सनीमा के घर भये बाबा
गउवाँ गेरउवाँ सहर भये बाबा।

हरदी औ सरसों के बुकवा हेराने
टेसू के फूल नाहीं उझिला देखाने
गाँव गाँव बिउटी पारलर भये बाबा।
गउवाँ गेरउवाँ सहर भये बाबा।

गोरस गाँव से उड़ि कै सहर गये
बोतल जहर घर-बाहर पसरि गये।
खोय बंसी बिरहा कै स्वर गये बाबा।
गउवाँ गेरउवाँ सहर भये बाबा।

काली क चौरा न लपसी सोहारी
नाहीं पूजै पुरखिन अब डिउहारी
नये-नये देउता उपर भये बाबा।
गउवाँ गेरउवाँ सहर भये बाबा।

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