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विनोद तिवारी (हरदोई)की रचनाएँ

प्रवासी गीत

चलो, घर चलें,
लौट चलें अब उस धरती पर;
जहाँ अभी तक बाट तक रही
ज्योतिहीन गीले नयनों से
(जिनमें हैं भविष्य के सपने
कल के ही बीते सपनों से),
आँचल में मातृत्व समेटे,
माँ की क्षीण, टूटती काया।
वृद्ध पिता भी थका पराजित
किन्तु प्रवासी पुत्र न आया।
साँसें भी बोझिल लगती हैं
उस बूढ़ी दुर्बल छाती पर।
चलो, घर चलें,
लौट चलें अब उस धरती पर।

चलो, घर चलें,
लौट चलें अब उस धरती पर;
जहाँ बहन की कातर आँखें
ताक रही हैं नीला अम्बर।
आँसू से मिट गई उसी की
सजी हुई अल्पना द्वार पर।
सूना रहा दूज का आसन,
चाँद सरीखा भाई न आया।
अपनी सीमाओं में बंदी,
एक प्रवासी लौट न पाया।
सूख गया रोचना हाँथ में,
बिखर गये चावल के दाने।
छोटी बहन उदास, रुवासी,
भैया आये नहीं मनाने।
अब तो कितनी धूल जम गई
राखी की रेशम डोरी पर।
चलो, घर चलें,
लौट चलें अब उस धरती पर।

चलो, घर चलें,
लौट चलें अब उस धरती पर।
कितना विषम, विवश है जीवन!
रोज़गार के कितने बन्धन!
केवल एक पत्र आया है,
छोटा सा संदेश आया है,
बहुत व्यस्त हैं, आ न सकेंगे।
शायद अगले साल मिलेंगे।
एक वर्ष की और प्रतीक्षा,
ममता की यह विकट परीक्षा।
धीरे धीरे दिये बुझ रहे
हैं आशाओं की देहरी पर।
चलो, घर चलें,
लौट चलें अब उस धरती पर।

चलो, घर चलें,
लौट चलें अब उस धरती पर।
अगला साल कहाँ आता है
आखिर सब कुछ खो जाता है
अन्तराल की गहराई में।
जीवन तो चलता रहता है
भीड़ भाड़ की तनहाई में।
नई नई महिफ़िलें लगेंगी,
नये दोस्त अहबाब मिलेंगे।
इस मिथ्या माया नगरी में
नये साज़ो-सामान सजेंगे।
लेकिन फिर वह बात न होगी,
जो अपने हैं, वह न रहेंगे।
घर का वह माहौल न होगा,
ये बीते क्षण मिल न सकेंगे।
वर्तमान तो जल जाता है
काल देवता की काठी पर।
चलो, घर चलें,
लौट चलें अब उस धरती पर।

चलो, घर चलें,
लौट चलें अब उस धरती पर।
जहाँ अभी भी प्यार मिलेगा,
रूठे तो मनुहार मिलेगा,
अपने सर की कसम मिलेगी,
नाज़ुक सा इसरार मिलेगा।
होली और दिवाली होगी,
राखी का त्योहार मिलेगा।
सावन की बौछार मिलेगी,
मधुरिम मेघ-मल्हार मिलेगा।
धुनक धुनक ढोलक की धुन पर
कजरी का उपहार मिलेगा।
एक सरल संसार मिलेगा,
एक ठोस आधार मिलेगा
एक अटल विश्वास जगेगा,
अपनी प्रामाणिक हस्ती पर।
चलो, घर चलें,
लौट चलें अब उस धरती पर।

चलो, घर चलें,
लौट चलें अब उस धरती पर।
पूरी होती नहीं प्रतीक्षा,
कभी प्रवासी लौट न पाये।
कितना रोती रही यशोदा,
गये द्वारका श्याम न आये।
द्शरथ गए सिधार चिता, पर
राम गए वनवास, न आये।
कितने रक्षाबन्धन बीते,
भैया गये विदेश, न आये।
अम्बर एक, एक है पृथ्वी,
फिर भी देश-देश दूरी पर।
चलो, घर चलें,
लौट चलें अब उस धरती पर।

चलो, घर चलें,
लौट चलें अब उस धरती पर।
जहाँ प्रतीक्षा करते करते
सूख गई आँसू की सरिता।
उद्वेलित, उत्पीड़ित मन के
आहत सपनों की आकुलता।
तकते तकते बाट, चिता पर।
राख हो गई माँ की ममता।
दूर गगन के पार गई वह
आँखों में ले सिर्फ विवशता।
एक फूल ही अर्पित कर दें
उस सूखी, जर्जर अस्थी पर।
चलो, घर चलें,
लौट चलें अब उस धरती पर।

चलो, घर चलें,
लौट चलें अब उस धरती पर।
जहाँ अभी वह राख मिलेगी,
जिसमें निहित एक स्नेहिल छवि,
स्मृतियों के कोमल स्वर में
मधुर मधुर लोरी गायेगी।
और उसी आँचल में छिप कर,
किसी प्रवासी मन की पीड़ा,
युगों युगों की यह व्याकुलता,
पिघल पिघल कर बह जायेगी।
एक अलौकिक शान्ति मिलेगी।
आँख मूँद कर सो जायेंगे,
सर रख कर माँ की मिट्टी पर।
चलो, घर चलें,
लौट चलें अब उस धरती पर।

मेरी कविता 

मेरी कविता अगर कभी साकार हुई तो
मधुर मोहिनी मधुऋतु बन कर
सुरभित, सुमनित, सुस्मित बन कर
मेरे मन की मरुस्थली पर
श्यामल बदली सी बरसेगी।
मेरी कविता अगर कभी साकार हुई तो
किसी फूल की पंखुरियों पर
ओस बिन्दु बन कर छलकेगी।

मूक हृदय के स्पन्दन में कितने कोमल भाव प्रतिध्वनित।
युगों युगों की सुप्त वेदना मेरे गीतों में प्रतिबिम्बित।
मेरी पीड़ा अगर कभी मुस्कान हुई तो
सागरिका की लहर लहर पर
शुभ्र ज्योत्सना सी थिरकेगी।
मेरी कविता अगर कभी साकार हुई तो…

इन्द्र धनुष के रंग सजाये एक मनोरम प्रतिछवि उज्जवल।
एक प्रेरणा, एक चेतना, संग संग चलती जो प्रतिपल।
मेरी यह अनुभुति कभी अभिव्यक्ति हुई तो
स्नेहसिक्त, गीली आँखों से
आँसू बन कर के ढलकेगी।
मेरी कविता अगर कभी साकार हुई तो…

कुछ करने की आकाँक्षा है, कुछ पाने की अभिलाषा है।
सारे स्वप्न सत्य होते हैं, जीवन की यह परिभाषा है।
मेरी आशा अगर कभी विश्वास हुई तो
हिमगिरि की पाषाणी छाती
से गंगा बन कर निकलेगी।
मेरी कविता अगर कभी साकार हुई तो…

कितना है विस्तार सृष्टि में, फिर भी कितनी सीमायें हैं।
सब कुछ है उपलब्ध जगत में, फिर भी कितनी कुंठायें हैं।
मेरी धरती अगर कभी आकाश हुई तो
अन्तरिक्ष में उल्का बन कर
टूट टूट कर भी चमकेगी।
मेरी कविता अगर कभी साकार हुई तो…

ऐसी लगती हो

अगर कहो तो आज बता दूँ
मुझको तुम कैसी लगती हो।
मेरी नहीं मगर जाने क्यों,
कुछ कुछ अपनी सी लगती हो।

नील गगन की नील कमलिनी,
नील नयनिनी, नील पंखिनी।
शांत, सौम्य, साकार नीलिमा
नील परी सी सुमुखि, मोहिनी।
एक भावना, एक कामना,
एक कल्पना सी लगती हो।
मुझको तुम ऐसी लगती हो।

तुम हिमगिरि के मानसरोवर
सी, रहस्यमय गहन अपरिमित।
व्यापक विस्तृत वृहत मगर तुम
अपनी सीमाओं में सीमित।
पूर्ण प्रकृति, में पूर्णत्व की
तुम प्रतीक नारी लगती हो।
मुझको तुम ऐसी लगती हो।

तुम नारी हो, परम सुन्दरी
ललित कलाओं की उद्गम हो।
तुम विशेष हो, स्वयं सरीखी
और नहीं, तुम केवल तुम हो।
क्षिति जल पावक गगन समीरा
रचित रागिनी सी लगती हो।
मुझको तुम ऐसी लगती हो।

कभी कभी चंचल तरंगिनी
सी, सागर पर थिरक थिरक कर
कौतुक से तट को निहारती
इठलाती मुहँ उठा उठा कर।
बूँद बूँद, तट की बाहों में
होकर शिथिल, पिघल पड़ती हो।
मुझको तुम ऐसी लगती हो।

सत्यम शिवम् सुन्दरम शाश्वत
का समूर्त भौतिक चित्रण हो।
सर्व व्याप्त हो, परम सूक्ष्म हो,
स्वयं सृजक हो, स्वतः सृजन हो।
परिभाषा से परे, स्वयं तुम
अपनी परिभाषा लगती हो।
मुझको तुम ऐसी लगती हो।

अगर कहो तो आज बता दूँ
मुझको तुम कैसी लगती हो।
सत्य कहूं, संक्षिप्त कहूं तो,
मुझको तुम अच्छी लगती हो।

प्यार का नाता 

ज़िन्दगी के मोड़ पर यह प्यार का नाता हमारा।
राह की वीरानियों को मिल गया आखिर सहारा।

ज्योत्सना सी स्निग्ध सुन्दर, तुम गगन की तारिका सी।
पुष्पिकाओं से सजी, मधुमास की अभिसारिका सी।

रूप की साकार छवि, माधुर्य्य की स्वच्छन्द धारा।
प्यार का नाता हमारा, प्यार का नाता हमारा।

मैं तुम्ही को खोजता हूँ, चाँद की परछाइयों में।
बाट तकता हूँ तुम्हारी, रात की तनहाइयों में।

आज मेरी कामनाओं ने तुम्हे कितना पुकारा।
प्यार का नाता हमारा, प्यार का नाता हमारा।

दूर हो तुम किन्तु फिर भी दीपिका हो ज्योति मेरी।
प्रेरणा हो शक्ति हो तुम, प्रीति की अनुभूति मेरी।

गुनगुना लो प्यार से, यह गीत मेरा है तुम्हारा।
प्यार का नाता हमारा, प्यार का नाता हमारा।

दुर्गा वन्दना

जय जय जय जननी। जय जय जय जननी।

जय जननी, जय जन्मदायिनी।
विश्व वन्दिनी लोक पालिनी।
देवि पार्वती, शक्ति शालिनी।
जय जय जय जननी। जय जय जय जननी।

परम पूजिता, महापुनीता।
जय दुर्गा, जगदम्बा माता।
जन्म मृत्यु भवसागर तरिणी।
जय जय जय जननी। जय जय जय जननी।

सर्वरक्षिका, अन्नपूर्णा।
महामानिनी, महामयी मां।
ज्योतिरूपिणी, पथप्रदर्शिनी।
जय जय जय जननी। जय जय जय जननी।

सिंहवाहिनी, शस्त्रधारिणी।
पापभंजिनी, मुक्तिकारिणी।
महिषासुरमर्दिनी, विजयिनी।
जय जय जय जननी। जय जय जय जननी।

यादगारों के साये 

याद आती है जब कभी तेरी
चाँदनी में नहा के आती है।
भीग जाते हैं आँख में सपने,
शब में शबनम बहा के आती है।

मेरी तनहाई के तसव्वुर में
तेरी तस्वीर उभर आती है।
तू नहीं है तो तेरी याद सही
ज़िन्दगी कुछ तो सँवर जाती है।

जब बहारों का ज़िक्र आता है
मेरे माज़ी की दास्तानों में
तब तेरे फूल से तबस्सुम का
रंग भरता है आसमानों में।

तू कहीं दूर उफ़क से चल कर
मेरे ख्यालों में उतर आती है।
मेरे वीरान बियाबानों में
प्यार बन कर के बिखर जाती है।

तू किसी पंखरी के दामन पर
ओस की तरह झिलमिलाती है।
मेरी रातों की हसरतें बन कर
तू सितारों में टिमटिमाती है।

वक्ते रुख़सत की बेबसी ऐसी
आँख से आरज़ू अयाँ न हुई।
दिल से आई थी बात होठों तक
बेज़ुबानी मगर ज़ुबाँ न हुई।

एक लमहे के दर्द को लेकर
कितनी सदियाँ उदास रहती हैं।
दूरियाँ जो कभी नहीं मिटतीं,
मेरी मंज़िल के पास रहती हैं।

रात आई तो बेकली लेकर
सहर आई तो बेक़रार आई।
चन्द उलझे हुये से अफ़साने
ज़िन्दगी और कुछ नहीं लाई।

चश्मे पुरनम बही, बही, न बही।
ज़िन्दगी है, रही, रही, न रही।
तुम तो कह दो जो तुमको कहना था
मेरा क्या है कही, कही, न कही।

जीवन दीप

मेरा एक दीप जलता है।
अंधियारों में प्रखर प्रज्ज्वलित,
तूफानों में अचल, अविचलित,
यह दीपक अविजित, अपराजित।
मेरे मन का ज्योतिपुंज
जो जग को ज्योतिर्मय करता है।
मेरा एक दीप जलता है।

सूर्य किरण जल की बून्दों से
छन कर इन्द्रधनुष बन जाती,
वही किरण धरती पर कितने
रंग बिरंगे फूल खिलाती।
ये कितनी विभिन्न घटनायें,
पर दोनों में निहित
प्रकृति का नियम एक है,
जो अटूट है।
इस पर अडिग आस्था मुझको
जो विज्ञान मुझे जीवन में
पग पग पर प्रेरित करता है।
मेरा एक दीप जलता है।

यह विशाल ब्रह्मांड
यहाँ मैं लघु हूँ
लेकिन हीन नहीं हूँ।
मैं पदार्थ हूँ
ऊर्जा का भौतिकीकरण हूँ।
नश्वर हूँ,
पर क्षीण नहीं हूँ।
मैं हूँ अपना अहम‌
शक्ति का अमिट स्रोत, जो
न्यूटन के सिद्धान्त सरीखा
परम सत्य है,
सुन्दर है, शिव है शाश्वत है।
मेरा यह विश्वास निरन्तर
मेरे मानस में पलता है।
मेरा एक दीप जलता है।

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