वह बासन माँजती है
जैसे स्मृतियों का धुँधलका साफ़ करती
खंगालती है अतीत
जैसे चीकट साफ़ करती दुनिया भर के कपड़ों के
चलती कि हवा चलती हो
जलती कि चूल्हे में लावन जलता हो
करती इंतजार अपने हिस्से के आकाश पर टकटकी लगाए
कि खेत मानसून की पहली बूँद की राह तकते हों
हँसती कभी कि कोई मार खाई हँसती हो
रोती वह कि भादो में आकाश बिसुरता हो
याद करती कि बचपन की एक तस्वीर की
अनवरत स्थिर रह गई हँसी याद करती हो
उसके सपने नादान मंसूबे गुमराह भविष्य के
मायके से मिले टिनहे संदूक में बंद
नित सुबह शाम थकी दोपहर
उजाड़ रातों के सन्नाटे में
छूट गए अपने चेहरों की आवाजाही
छूट गए दृश्यों पर एकाकी समय के पर्दे
पहले प्रेम-पत्र के निर्दोष कुँआरे शब्दों पर
गिरती लगातार धूल गर्द
रातें लंबी दिन पहाड़
सब चेहरे अँधेरी गुफ़ा की तरह
अजनबी – भयानक
सहती वह
कि अनंत समय से पृथ्वी सहती हो
रहती वह
सदी और समय और शब्दों के बाहर
सिर्फ अपने निजी और एकांत समय में
सदियों मनुष्य से अलग
जैसे एक भिन्न प्रजाति रहती हो..
तुम्हारे मनुष्य बनने तक
तुमने कभी सोचा नहीं था पार्टनर
कि एक दिन पृथ्वी तुम्हारे मेज पर
ठहर जाएगी चलते-चलते
और तुम जब चाहे घुमा दोगे उसे इशारे से
नाचेगी ऊँगलियों पर वह
थम जाएगी तुम्हारे सोच लेने मात्र से
तुम्हारे सोचने का एक सिवान था
कि रुक जाता था माँ के अलताए पैरों
पिता की बुढ़ाई गहरी आँखों
और एक कजरारी लड़की की
मासूम खिलखिलाहट तक आकर
तब थक जाते थे तुम्हारे नन्हें-नन्हें पाँव
हरियर पगडंडियों से परियों के देश तक की यात्रा में
तुम्हारी अपेक्षा में खड़ी रहती थीं श्वेत परियाँ
बाँटने को वरदान तुम्हारे सूखते खेतों के लिए
और तब कितने मजे के दिन
और कितनी-कितनी खुशियों के दिन
सुबह कानों में फुसफसाती थी
बुतरू अमरूद का हाल
बाग में तुम और सपने में पौधे होते जवान
फलते थे ढेर के ढेर
और थक जाते तुम फल तोड़ते-खाते
अपने खिलन्दड़ दोस्तों के साथ
शामिल थे तुम लयबद्ध लहरों की उपासना में
तुम्हारे बस्ते में गढ़े गए मन्त्र
नदियों और पेड़ों की स्तुति के
दुहराते तुम डेढ़ा सवैया पौना की तरह
तब वह पृथ्वी माँ के आँचल में खेलती थी
बैठती थी किसान पिता के कान्धे पर
हरियाली पहनती थी लहरों पर तैरती थी
एक दुल्हन थी सोच में वह तुम्हारे
लाना था जिसे अपने आँगन पालकी में बैठाकर
पूरे दल-बल के साथ
एक दिन अपनी ही दुनिया में
तब नहीं सोचा था तुमने
कि समय लायेगा एक बवंडर
सूचना के राक्षस पहरेदार कई
चारों और मुस्तैद हो जायेंगे
और विशाल गाँव में
लहूलुहान निर्दोष पृथ्वी तुम्हारी
पड़ी होगी एक मेज पर अपराधी की तरह
परियाँ अन्धी और पौधों की शाखें कतर दी जायेंगी
असाध्य शून्य थरथराता ऊँगलियों के इशारे पर
और सपने कैद तुम्हारे
किसी तानाशाह के तिलस्मी महल में
तब सोचा नहीं था तुमने
कि तुम्हारे मनुष्य बनने तक यह दुनिया
मनुष्यता से खाली हो जाएगी
दौड़ेंगे लोहे के मनुष्य सड़क गली नुक्कड़ों पर
बरसायेंगे गोले
मासूम खिलौनों की शक्ल में
और विवश छटपटाते
अजीब सी बना दी गयी दुनिया में
तुम रह जाओगे अपनी स्मृतियों के साथ एकदम अकेले
तुम्हारे सोचने की सीमा यही थी पाटनर
कि नहीं सोचा था तुमने
किस क्षण तुम बन जाओगे
किसी खतरनाक मशीन का एक अदना सा पुर्जा
कि मनुष्य अकेले इस दुनिया में
किस क्षण तुम मनुष्य नहीं रह जाओगे…
कवि हूँ
एक ऐसे समय में
जब शब्दों ने भी पहनने शुरू कर दिये हैं
तरह तरह के मुखौटे
शब्दों की बाजीगरी से
पहुँच रहे हैं लोग सड़क से संसद तक
एक ऐसे समय में
जब शब्द कर रहे हैं
नायकत्व के सम्मोहक अभिनय
हो रही है उनकी ताजपोशी
शीत ताप नियंत्रित कक्षों में
एक ऐसे समय में
जब शब्दों को सजाकर
नीलाम किया जा रहा है रंगीन गलियों में
और कि नंगे हो रहे हैं शब्द
कि हाँफ रहे हैं शब्द
एक ऐसे समय में
शब्दों को बचाने की लड़ रहा हूँ लड़ाई
यह शर्म की बात है
कि मैं लिखता हूँ कविताएँ
यह गर्व की बात है
कि ऐसे खतरनाक समय में
कवि हूँ… कवि हूँ…
दुःख एक नहीं
दुख एक नहीं यह कि सड़क पर किसी मनचले की तरह
इन्तजार नहीं किया अपनी तीसरी
या चौथी
याकि पाँचवीं प्रेयसी का
दुःख दो नहीं यह
कि क्यों शहर के खुले मिजाज की तरह खुली
लड़कियों को
मेरे पिचके गालों की घाटी
और दाढ़ियों के बीहड़ में गुम हो जाने का डर लगता है
दुःख तीन नहीं यह
कि बस का बदबूदार कंडक्टर
हर बार हमसे ही ताव दिखाता है
जबकि बिना टिकट मैं कभी यात्रा नहीं करता
दुःख चार नहीं यह
कि फूल कर कछुआ हो गया सेठ
अपनी रखनी का गुस्सा हर सुबह
मेरे ही मुँह पर पीचता है
जबकि याद नहीं किस वक्त मैंने कौन कसूर किया था
दुःख पाँच नहीं यह
कि पत्नी के लाख कहने पर भी
खइनी नहीं छोड़ पाया
स्कॉच के साथ क्लासिक के कश नहीं लिये
महानगरी हवाओं से नहीं की दोस्ती
और भुच्चड़ का भुच्चड़ ही बना रहा
दुःख छह नहीं यह
कि खूब गुस्से में भी दोस्तों को गालियाँ नहीं दीं
आजतक सम्बन्धों की एक भारी गठरी पीठ पर लादे
बेतहासा भागता रहा चुपचाप अकेले
दुःख सात दस हजार या लाख नहीं
दुःख यह मेरे बन्धु
कि सदियों हुए माँ की हड्डियाँ हँसीं नहीं
पिता के माथे का झाखा हटा नहीं
और बहन दुबारा ससुराल गयी नहीं
दुःख यह मेरे बन्धु
कि बचपन का रोपा आम मँजराया नहीं
कोयल कोई गीत गायी नहीं
धरती कभी सपने में भी मुस्करायी नहीं
और दुःख यही मेरे साथी
कि लाख कोशिश के बावजूद इस कठिन समय में
कोई भी कविता पूरी हुई नहीं…
यह दुःख
यह दुःख ही ले जायेगा
खुशियों के मुहाने तक
वही बचायेगा हर फरेब से
होठों पे हँसी आने तक
कविता के बाहर
समय की तरह खाली हो गये दिमाग में
या दिमाग की तरह खाली हो गये समय में
कई मसखरे हैं
अपनी आवाजों के जादू से लुभाते
शब्दों की बाजीगरी है
कविता से बाजार तक तमाशे के डमरू की तरह
डम-डम डमडमाती
एक अन्धी भीड़ है
बेतहाशा भागती मायावी अँजोर के पीछे
मन रह-रह कर हो जाता है उदास और भारी
ऐसे में बेहद याद आती हैं वो कहानियाँ
जिसे मेरे शिशु मानस ने सुना था
समय की सबसे बूढ़ी औरत के मुँह से
जिसमें सच और झूठ के दो पक्ष होते थे
और तमाम जटिलताओं के बावजूद भी
सच की ही जीत होती थी लगातार
उदास और भारी मन
कुछ और होता है उदास और भारी
सोचता हूँ कि कहानियों से निकल कर
सच किस जंगली गुफा में दुबक गया है
क्यों झूठ घूमता है सीना ताने
कि कई बार उसे देखकर सच का भ्रम होता है
आजकल जब कविता के बाहर
सच को ढूँढ़ने निकलता हूँ
मेरी आत्मा होती जाती है लहूलुहान
अब कैसे कहूँ
कि वक्त-बेवक्त समय की वह सबसे बूढ़ी औरत
मुझे किस शिद्दत से याद आती है
बारिश
कितनी बेसब्री थी हमारी आँखों में
तब की बात तो शब्दातीत
जब उत्तर से उठती थी काली घटाएँ
हम गाते रह जाते थे
आन्ही-बुनी आवेले-चिरैया ढोल बजावेले
और सिर्फ धूल उड़ती रह जाती हमारे सूखे खेतों में
बाबा के चेहरे पर जम जाती
उजली मटमैली धूल की एक परत
गीत हमारे गुम हो जाते श्वासनलियों में कहीं
उदास आँखों से हम ताकते रह जाते
आकाश की देह
शाम आती और रोज की तरह
पूरे गाँव को ढक लेते धुएँ के गुब्बारे
मंदिर में अष्टयाम करती टोलियों की आवाजें
धीमी हो जातीं कुछ देर
बाबा उस दिन एक रोटी कम खाते
रात के चौथे पहर अचानक खुल जाती बाबा की नींद
ढाबे के बाहर निकलते ही
चली जाती उनकी नजर आकाश की ओर
जब नहीं दिखता शुकवा तारा
तो जैसे उनके पैंरो में पंख लग जाते वे खाँसते जोर
कि पुकारते पड़ोस के रमई काका को
कहते – “सुन रहे हो रमई शुकवा नहीं दिख रहा
शायद सुबह तक होने वाली है बारिश।”
यह दुख
अँटी पड़ी है पृथ्वी की छाती
असंख्य दुःखों से
मेरे दुःख की जगह कितनी कम
जिए जा रहे हैं लोग उजले दिनों की आशा में
रोकर भी-सहकर भी
कि इस जन्म में न सही तो अगले जन्म में
सोचता हूँ इस धरती पर न होता
यदि ईश्वर का तिलिस्म
तो कैसे जीते लोग
किसके सहारे चल पाते
नहीं मिलती कोई जगह रो सकने की
जब नहीं दिखती कोई आँचल की ओट
रश्क होता है उन लोगों पर
जिनके जेहन में आज भी अवतार लेता है
कोई देवता
मन हहर कर रह जाता है
दुःख तब कितना पहाड़ लगता है।
महानगर, लोकतंत्र और मज़दूर
उनके हथौड़े की हर चोट के पहले की स्मृतियाँ
दफन हैं सुरक्षित इन दीवारों की हड्डियों में
एक औरत की देह, बच्चे के हिलते हाथ
हँसी ठिठोली बचपन के दोस्तों की
जिनके सहारे वे चलाते रहते हथौड़ा
उन्हें भूख और प्यास उतनी परेशान नहीं करती
वे भूख से नहीं डरते उतना
जितना कि शरीर में आखिरी खून के रहते बेकार हो जाने से
बेकारी में बैठे काम का इन्तजार करते
उन्हें याद आते पानी के बिना चरचरा गये खेत
कभी-कभी धू-धू कर जलते खलिहानों के बोझे
हर छोटी नींद में सरसराती हुई रेलगाड़ी की सीटी
मुजफ्फरपुर दरभंगा भोजपुर की ओर दौड़ती
वे चौंक-चौक उठते
और उनकी किंचड़ी आँखों में उस समय एक नदी उतर आती
वे कुछ देवताओं की शक्लों के आदेश पर
चलाते हथौड़े, बनती जाती बड़ी-बड़ी बिल्डिंगें फैक्टरियाँ
स्कूल की इमारतें शानदार
बढ़ता देश का व्यापार
बढ़ता जाता मन्दिरों का चढ़ावा
देश हो रहा शिक्षित
लोकतन्त्र की नींव हो रही मजबूत
कविता की भाषा में कहा जाय
तो फर्क यही कि
घट रहे उनकी नींद के सीमान्त
बढ़ता जा रहा रेलगाड़ी की सीटियों का शोर
और ईश्वरीय तिलिस्मों से दूर उनकी आँखों में
शामिल हो रही एक सूखती हुई नदी की चुप्पी
बेआवाज और लगातार…