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शमशेर बहादुर सिंह की रचनाएँ

निराला के प्रति

भूलकर जब राह- जब-जब राह…भटका मैं
तुम्हीं झलके, हे महाकवि,
सघन तम की आंख बन मेरे लिए,
अकल क्रोधित प्रकृति का विश्वास बन मेरे लिये-
जगत के उन्माद का
परिचय लिए,-
और आगत-प्राण का संचय लिए, झलके प्रमन तुम,
हे महाकवि! सहजतम लघु एक जीवन में
अखिल का परिणय लिए-
प्राणमय संचार करते शक्ति औ’ छवि के मिलन का हास मंगलमय;
मधुर आठों याम
विसुध खुलते
कंठस्वर में तुम्हारे, कवि,
एक ऋतुओं के विहंसते सूर्य!
काल में (तम घोर)-
बरसाते प्रवाहित रस अथोर अथाह!
छू, किया करते
आधुनिकतम दाह मानव का
साधना स्वर से
शांत-शीतलतम ।

हाँ, तुम्हीं हो, एक मेरे कवि :
जानता क्या मैं-
हृदय में भरकर तुम्हारी साँस-
किस तरह गाता,
(ओ विभूति परंपरा की!)
समझ भी पाता तुम्हें यदि मैं कि जितना चाहता हूँ,
महाकवि मेरे !


(1939 में विरचित,’कुछ कविताएँ’ नामक कविता-संग्रह से)

राग

1
मैंने शाम से पूछा –
             या शाम ने मुझसे पूछा :
                  इन बातों का मतलब?
मैंने कहा –
शाम ने मुझसे कहा :
              राग अपना है।
 

2
आँखें मुँद गयीं।
सरलता का आकाश था
जैसे त्रिलोचन की रचनाएँ।
नींद ही इच्‍छाएँ।
 

3
मैने उससे पूछा –
उसने मुझसे :
            कब?
मैंने कहा –
उसने मुझसे कहा :
            समय अपना राग है।

4
तुमने ‘धरती’ का पद्य पढ़ा है?
उसकी सहजता प्राण है।
तुमने अपनी यादों की पुस्‍तक खोली है?
जब यादें मिटती हुई एकाएक स्‍पष्‍ट हो गयी हों?
जब आँसू छलक न जाकर
आकाश का फूल बन गया हो?
– वह मेरी कविताओं-सा मुझे लगेगा :
तब तुम मुझे क्‍या कहोगे?
 

5
उसने मुझसे पूछा, तुम्‍हारी कविताओं का क्‍या मतलब है?
मैंने कहा – कुछ नहीं।
उसने पूछा – फिर तुम इन्‍हें क्‍यों लिखते हो?
मैंने कहा – ये लिख जाती हैं। तब
इनकी रक्षा कैसे हो जाती है?
                    उसने क्‍यों यह प्रश्‍न किया?
 

मैंने पूछा :
मेरी रक्षा कहाँ होती है? मेरी साँस तो –
तुम्‍हारी कविताएँ हैं : उसने कहा। पर –
 

इन साँसों की रक्षा कैसे होती आई?
वे साँसों में बँध गये; शायद ऐसी ही रक्षा
          होती आई। फिर बहुत-से गीत
          खो गये।
 

6
वह अनायास मेरा पद गुनगुनाता हुआ बैठा
         रहा, और मैंने उसकी ओर
         देखा, और मैं समझ गया।
और यह संग्रह उसी के हाथों में खो गया।
 

7
उसने मुझसे पूछा, इन शब्‍दों का क्‍या
     मतलब है? मैंने कहा : शब्‍द
     कहाँ है? वह मौन मेरी ओर
     देखता चुप रहा। फिर मैंने
     श्रम-पूर्वक बोलते हुए कहा – कि :
     शाम हो गयी है। उसने मेरी
     आँखों में देखा, और फिर – एकटक देखता
     ही रहा। क्‍यों फिर उसने मेरा संग्रह
     अपनी धुँधली गोद में खोला और
     मुझसे कुछ भी पूछना भूल गया।
     मुझको भी नहीं मालूम, कौन था
     वह। केवल वह मुझे याद है।
 

8
तब छंदों के तार खिंचे-खिंचे थे,
राग बँधा-बँधा था,
प्‍यास उँगलियों में विकल थी –
कि मेघ गरजे;
और मोर दूर और कई दिशाओं से
बोलने लगे – पीयूअ! पीयूअ! उनकी
हीरे-नीलम की गर्दनें बिजलियों की तरह
हरियाली के आगे चमक रही थीं।
कहीं छिपा हुआ बहता पानी
बोल रहा था : अपने स्‍पष्‍टमधुर
प्रवाहित बोल।
[1945

एक नीला आईना बेठोस / 

एक नीला आईना
बेठोस-सी यह चाँदनी
और अंदर चल रहा हूँ मैं
उसी के महातल के मौन में ।
मौन में इतिहास का
कन किरन जीवित, एक, बस ।
एक पल की ओट में है कुल जहान ।
आत्मा है
अखिल की हठ-सी ।
चाँदनी में घुल गए हैं
बहुत-से तारे, बहुत कुछ
घुल गया हूँ मैं
बहुत कुछ अब ।
रह गया-सा एक सीधा बिंब
चल रहा है जो
शांत इंगित-सा
न जाने किधर ।

एक नीला आईना बेठोस

एक नीला आईना
बेठोस-सी यह चाँदनी
और अंदर चल रहा हूँ मैं
उसी के महातल के मौन में ।
मौन में इतिहास का
कन किरन जीवित, एक, बस ।
एक पल की ओट में है कुल जहान ।
आत्मा है
अखिल की हठ-सी ।
चाँदनी में घुल गए हैं
बहुत-से तारे, बहुत कुछ
घुल गया हूँ मैं
बहुत कुछ अब ।
रह गया-सा एक सीधा बिंब
चल रहा है जो
शांत इंगित-सा
न जाने किधर ।

पूर्णिमा का चाँद

चाँद निकला बादलों से पूर्णिमा का।
        गल रहा है आसमान।
एक दरिया उबलकर पीले गुलाबों का
        चूमता है बादलों के झिलमिलाते
        स्वप्न जैसे पाँव।

उषा

प्रात नभ था बहुत नीला शंख जैसे

भोर का नभ

राख से लीपा हुआ चौका
(अभी गीला पड़ा है)

बहुत काली सिल जरा-से लाल केशर से
कि धुल गयी हो

स्लेट पर या लाल खड़िया चाक
        मल दी हो किसी ने

नील जल में या किसी की
        गौर झिलमिल देह
जैसे हिल रही हो ।

और…
        जादू टूटता है इस उषा का अब
सूर्योदय हो रहा है।


(कविता-संग्रह, “टूटी हुई बिखरी हुई” से)

लेकर सीधा नारा

लेकर सीधा नारा

कौन पुकारा

अंतिम आशाओं की संध्याओं से ?

पलकें डूबी ही-सी थीं —

पर अभी नहीं;

कोई सुनता-सा था मुझे

कहीं;

फिर किसने यह, सातों सागर के पार

एकाकीपन से ही, मानो-हार,

एकाकी उठ मुझे पुकारा

कई बार ?

मैं समाज तो नहीं; न मैं कुल

जीवन;

कण-समूह में हूँ मैं केवल

एक कण ।

–कौन सहारा !

मेरा कौन सहारा !

रेडियो पर एक योरपीय संगीत सुनकर /

मैं
सुनूँगा तेरी आवाज
पैरती बर्फ की सतह में तीर-सी
            शबनम की रातों में
                  तारों की टूटती
                         गर्म
                         गर्म
                              शमशीर-सी –
            तेरी आवाज
                   खाबों में घूमती-झूमती
                          आहों की एक तसवीर सी
                   सुनूँगा : मेरी-तेरी है वह
                          खोई हुई
                          रोई हुई
                               एक तकदीर-सी
परदों में – जल के – शान्त
      झिलमिल
      झिलमिल
             कमलदल।
 
रात की हँसी है तेरे गले में,
                  सीने में,
            बहुत काली सुर्मयी पलकों में,
            साँसों में, लहरीली अलकों में :
                        आयी तू, ओ किसकी!
                        फिर मुसकरायी तू
            नींद में – खामोश… वस्‍ल।
 
शुरू है आखिरी पीर।
 
सलाम!…
मेरे दर्द से हमकलाम
            न हो!
       जा, अब सो,
            न रो।
तू मेरी बेबस बाँहों पर, सर रख कर, ओह,
           न रो !

     जो कुछ है
     जो कुछ है
          खो!
          खो!
          खो!
ओ शीरीं! ओ लैला! ओ हीर!
          – जा!
          – जा!
          – जा! – सो!…

× ×

बेखबर मैं,
बाखबर आधी-सी रात।
बेखबर सपने हैं।
बाखबर है एक, बस, उसकी जात!
       तू मेरी!…
       आमीन!
       आमीन!
       आमीन!

एक पीली शाम

एक पीली शाम
      पतझर का जरा अटका हुआ पत्ता
शान्त
मेरी भावनाओं में तुम्‍हारा मुखकमल
कृश म्‍लान हारा-सा
     (कि मैं हूँ वह
मौन दर्पण में तुम्‍हारे कहीं?)

     वासना डूबी
     शिथिल पल में
     स्‍नेह काजल में
     लिये अद्भुत रूप-कोमलता

अब गिरा अब गिरा वह अटका हुआ आँसू
सान्‍ध्‍य तारक-सा
      अतल में।

[1953]

अंतिम विनिमय

हृदय का परिवार काँपा अकस्मात ।

भावनाओं में हुआ भूडोल-सा ।

पूछता है मौन का एकांत हाथ

वक्ष छू, यह प्रश्न कैसा गोल-सा:

प्रात-रव है दूर जो “हरि बोल!”-सा,

पार, सपना है–कि धारा है–कि रात ?

कुहा में कुछ सर झुकाए, साथ-साथ,

जा रहा परछाइयों का गोल-सा ।

प्राण का है मृत्यु से कुछ मोल-सा;

सत्य की है एक बोली, एक बात ।

( १९४५ में लिखित )

शाम होने को हुई

शाम होने को हुई, लौटे किसान
दूर पेड़ों में बढ़ा खग-रव।
धूल में लिपटा हुआ है आसमान :
शाम होने को हुई, नीरव।
 
तू न चेता। काम से थक कर
फटे-मैले वस्‍त्र में कमकर
लौट आये खोलियों में मौन।
चेतने वाला न तू – है कौन?
 
शाम; हम-तुम, और बाबू लोग,
लड़कियाँ चंचल, निठल्‍ले युवक,
स्‍फूर्त-मन सब सिनेमा की ओर
चले : जाने कौन-सी है ललक।
 
घुमड़ते-घुटते हृदय के भाव
चित्रपट पर नग्‍न आते बिखर :
आर्थिक वास्‍तविकता का दाँव
भूल, हम छूते अपार्थिव शिखर।
 
हाय कर उठते हमारे नयन;
होंट सी लेते दबा अफसोस :
माँगता उर-भार अन्तिम शयन …
चाँदनी सित वक्ष कोमल ओस।
 
दूर की मर्मर-मिली नीहार,
दूर की नीहार मालाएँ;
निकट, तम-विक्षिप्‍त सागर-फेन।
एक ही आह्वान : आ जाएँ!
आज आ जाएँ हमारे ऐन!
 
भूल के मंदिर सुघर बहुमूल्‍य
हृदय को विश्‍वास देते दान :
प्राप्‍य श्‍लाघा से अयाचित मान;
स्‍वप्‍न भावी, द्रव्‍य से अनुकूल।
 
दीन का व्‍यापार श्‍लाघामय!
… …
छिन्‍न-दल कर कागजी विस्‍मय
सत्‍य के बल शूल हूलूँ मैं!
– शाम निर्धन की न भूलूँ मैं!

रात हो आयी; चमक उट्ठे कई
बल्ब; ऊपर अग्रहायण, दूर –
नभ में। दूर तक उट्ठे अधीर
भाव …कैसे सहज, कैसे क्रूर!
[1945]

कठिन प्रस्तर में 

कठिन प्रस्‍तर में अगिन सूराख।
मौन पर्तों में हिला मैं कीट।
(ढीठ कितनी रीढ़ है तन की –
                  तनी है!)
 

आत्‍मा है भाव :
भाव-दीठ
      झुक रही है
अगम अंतर में
      अनगिनत सूराख-सी करती।

अम्न का राग / भाग 1 

सच्चाइयाँ
जो गंगा के गोमुख से मोती की तरह बिखरती रहती हैं
हिमालय की बर्फ़ीली चोटी पर चाँदी के उन्मुक्त नाचते
परों में झिलमिलाती रहती हैं
जो एक हज़ार रंगों के मोतियों का खिलखिलाता समन्दर है
उमंगों से भरी फूलों की जवान कश्तियाँ
कि बसंत के नए प्रभात सागर में छोड़ दी गई हैं।

ये पूरब-पश्चिम मेरी आत्मा के ताने-बाने हैं
मैंने एशिया की सतरंगी किरनों को अपनी दिशाओं के गिर्द

लपेट लिया
और मैं यूरोप और अमरीका की नर्म आँच की धूप-छाँव पर

बहुत हौले-हौले से नाच रहा हूँ
सब संस्कृतियाँ मेरे संगम में विभोर हैं
क्योंकि मैं हृदय की सच्ची सुख-शांति का राग हूँ
बहुत आदिम, बहुत अभिनव।

हम एक साथ उषा के मधुर अधर बन उठे
सुलग उठे हैं
सब एक साथ ढाई अरब धड़कनों में बज उठे हैं
सिम्फोनिक आनंद की तरह
यह हमारी गाती हुई एकता
संसार के पंच परमेश्वर का मुकुट पहन
अमरता के सिंहासन पर आज हमारा अखिल लोकप्रेसिडेंट

बन उठी है

अम्न का राग / भाग 2 

देखो न हक़ीक़त हमारे समय की जिसमें
होमर एक हिन्दी कवि सरदार जाफ़री को
इशारे से अपने क़रीब बुला रहा है
कि जिसमें
फ़ैयाज़ खाँ बिटाफ़ेन के कान में कुछ कह रहा है
मैंने समझा कि संगीत की कोई अमर लता हिल उठी
मैं शेक्सपियर का ऊँचा माथा उज्जैन की घाटियों में
झलकता हुआ देख रहा हूँ
और कालिदास को वैमर कुंजों में विहार करते
और आज तो मेरा टैगोर मेरा हाफ़िज़ मेरा तुलसी मेरा
ग़ालिब
एक-एक मेरे दिल के जगमग पावर हाउस का
कुशल आपरेटर है।

आज सब तुम्हारे ही लिए शांति का युग चाहते हैं
मेरी कुटुबुटु
तुम्हारे ही लिए मेरे प्रतिभाशाली भाई तेजबहादुर
मेरे गुलाब की कलियों से हँसते-खेलते बच्चों
तुम्हारे ही लिए, तुम्हारे ही लिए
मेरे दोस्तों, जिनमें ज़िन्दगी में मानी पैदा होते हैं
और उस निश्छल प्रेम के लिए
जो माँ की मूर्ति है
और उस अमर परमशक्ति के लिए जो पिता का रूप है।

अम्न का राग / भाग 3

हर घर में सुख
शांति का युग
हर छोटा-बड़ा हर नया पुराना आज-कल-परसों के
आगे और पीछे का युग
शांति की स्निग्ध कला में डूबा हुआ
क्योंकि इसी कला का नाम भरी-पूरी गति है।

मुझे अमरीका का लिबर्टी स्टैचू उतना ही प्यारा है
जितना मास्को का लाल तारा
और मेरे दिल में पीकिंग का स्वर्गीय महल
मक्का-मदीना से कम पवित्र नहीं
मैं काशी में उन आर्यों का शंख-नाद सुनता हूँ
जो वोल्गा से आए
मेरी देहली में प्रह्लाद की तपस्याएँ दोनों दुनियाओं की
चौखट पर
युद्ध के हिरण्यकश्य को चीर रही हैं।

यह कौन मेरी धरती की शांति की आत्मा पर कुरबान हो
गया है
अभी सत्य की खोज तो बाकी ही थी
यह एक विशाल अनुभव की चीनी दीवार
उठती ही बढ़ती आ रही है
उसकी ईंटें धड़कते हुए सुर्ख दिल हैं
यह सच्चाइयाँ बहुत गहरी नींवों में जाग रही हैं
वह इतिहास की अनुभूतियाँ हैं
मैंने सोवियत यूसुफ़ के सीने पर कान रखकर सुना है।

अम्न का राग / भाग 4

आज मैंने गोर्की को होरी के आँगन में देखा
और ताज के साए में राजर्षि कुंग को पाया
लिंकन के हाथ में हाथ दिए हुए
और ताल्स्ताय मेरे देहाती यूपियन होंठों से बोल उठा
और अरागों की आँखों में नया इतिहास
मेरे दिल की कहानी की सुर्खी बन गया
मैं जोश की वह मस्ती हूँ जो नेरूदा की भवों से
जाम की तरह टकराती है
वह मेरा नेरुदा जो दुनिया के शांति पोस्ट आफ़िस का
प्यारा और सच्चा क़ासिद
वह मेरा जोश कि दुनिया का मस्त आशिक़
मैं पंत के कुमार छायावादी सावन-भादों की चोट हूँ
हिलोर लेते वर्ष पर
मैं निराला के राम का एक आँसू
जो तीसरे महायुद्ध के कठिन लौह पर्दों को
एटमी सुई-सा पार कर गया पाताल तक
और वहीं उसको रोक दिया
मैं सिर्फ एक महान विजय का इंदीवर जनता की आँख में
जो शांति की पवित्रतम आत्मा है।

पश्चिम मे काले और सफ़ेद फूल हैं और पूरब में पीले और लाल
उत्तर में नीले कई रंग के और हमारे यहाँ चम्पई-साँवले
औऱ दुनिया में हरियाली कहाँ नहीं
जहाँ भी आसमान बादलों से ज़रा भी पोंछे जाते हों
और आज गुलदस्तों मे रंग-रंग के फूल सजे हुए हैं
और आसमान इन खुशियों का आईना है।

अम्न का राग / भाग 5 

आज न्यूयार्क के स्काईस्क्रेपरों पर
शांति से ‘डवों’ और उसके राजहंसों ने
एक मीठे उजले सुख का हल्का-सा अंधेरा
और शोर पैदा कर दिया है।
और अब वो अर्जेन्टीना की सिम्त अतलांतिक को पार कर
रहे हैं
पाल राब्सन ने नई दिल्ली से नए अमरीका की
एक विशाल सिम्फ़नी ब्राडकास्ट की है
औऱ उदयशंकर ने दक्षिणी अफ़्रीका में नई अजंता को
स्टेज पर उतारा है
यह महान नृत्य वह महान स्वर कला और संगीत
मेरा है यानी हर अदना से अदना इंसान का
बिल्कुल अपना निजी।
युद्ध के नक़्शों की कैंची से काटकर कोरियाई बच्चों ने
झिलमिली फूलपत्तों की रौशन फ़ानूसें बना ली हैं
और हथियारों का स्टील और लोहा हज़ारों
देशों को एक-दूसरे से मिलानेवाली रेलों के जाल में बिछ
गया है
और ये बच्चे उन पर दौड़ती हुई रेलों के डिब्बों की
खिड़कियों से
हमारी ओर झाँक रहे हैं
यह फ़ौलाद और लोहा खिलौनों मिठाइयों और किताबों
से लदे स्टीमरों के रूप में
नदियों की सार्थक सजावट बन गया है
या विशाल ट्रैक्टर-कंबाइन और फ़ैक्टरी-मशीनों के
हृदय में
नवीन छंद और लय का प्रयोग कह रहा है।

अम्न का राग / भाग 6

यह सुख का भविष्य शांति की आँखों में ही वर्तमान है
इन आँखों से हम सब अपनी उम्मीदों की आँखें सेंक
रहे हैं
ये आँखें हमारे दिल में रौशन और हमारी पूजा का
फूल हैं
ये आँखें हमारे कानून का सही चमकता हुआ मतलब
और हमारे अधिकारों की ज्योति से भरी शक्ति हैं
ये आँखें हमारे माता-पिता की आत्मा और हमारे बच्चों
का दिल है
ये आँखें हमारे इतिहास की वाणी
और हमारी कला का सच्चा सपना हैं
ये आँखें हमारा अपना नूर और पवित्रता हैं
ये आँखें ही अमर सपनों की हक़ीक़त और
हक़ीक़त का अमर सपना हैं
इनको देख पाना ही अपने आपको देख पाना है, समझ
पाना है।
हम मनाते हैं कि हमारे नेता इनको देख रहे हों।

बात बोलेगी

बात बोलेगी,
हम नहीं।
भेद खोलेगी
बात ही।

सत्य का मुख
झूठ की आँखें
क्या-देखें!

सत्य का रूख़
समय का रूख़ हैः
अभय जनता को
सत्य ही सुख है
सत्य ही सुख।

दैन्य दानव; काल
भीषण; क्रूर
स्थिति; कंगाल
बुद्धि; घर मजूर।

सत्य का
क्या रंग है?-
पूछो
एक संग।
एक-जनता का
दुःख : एक।
हवा में उड़ती पताकाएँ
अनेक।

दैन्य दानव। क्रूर स्थिति।
कंगाल बुद्धि : मजूर घर भर।
एक जनता का – अमर वर :
एकता का स्वर।

निराला के प्रति

भूलकर जब राह- जब-जब राह…भटका मैं
तुम्हीं झलके, हे महाकवि,
सघन तम की आंख बन मेरे लिए,
अकल क्रोधित प्रकृति का विश्वास बन मेरे लिये-
जगत के उन्माद का
परिचय लिए,-
और आगत-प्राण का संचय लिए, झलके प्रमन तुम,
हे महाकवि! सहजतम लघु एक जीवन में
अखिल का परिणय लिए-
प्राणमय संचार करते शक्ति औ’ छवि के मिलन का हास मंगलमय;
मधुर आठों याम
विसुध खुलते
कंठस्वर में तुम्हारे, कवि,
एक ऋतुओं के विहंसते सूर्य!
काल में (तम घोर)-
बरसाते प्रवाहित रस अथोर अथाह!
छू, किया करते
आधुनिकतम दाह मानव का
साधना स्वर से
शांत-शीतलतम ।

हाँ, तुम्हीं हो, एक मेरे कवि :
जानता क्या मैं-
हृदय में भरकर तुम्हारी साँस-
किस तरह गाता,
(ओ विभूति परंपरा की!)
समझ भी पाता तुम्हें यदि मैं कि जितना चाहता हूँ,
महाकवि मेरे !


(1939 में विरचित,’कुछ कविताएँ’ नामक कविता-संग्रह से)

राग

1
मैंने शाम से पूछा –
             या शाम ने मुझसे पूछा :
                  इन बातों का मतलब?
मैंने कहा –
शाम ने मुझसे कहा :
              राग अपना है।
 

2
आँखें मुँद गयीं।
सरलता का आकाश था
जैसे त्रिलोचन की रचनाएँ।
नींद ही इच्‍छाएँ।
 

3
मैने उससे पूछा –
उसने मुझसे :
            कब?
मैंने कहा –
उसने मुझसे कहा :
            समय अपना राग है।

4
तुमने ‘धरती’ का पद्य पढ़ा है?
उसकी सहजता प्राण है।
तुमने अपनी यादों की पुस्‍तक खोली है?
जब यादें मिटती हुई एकाएक स्‍पष्‍ट हो गयी हों?
जब आँसू छलक न जाकर
आकाश का फूल बन गया हो?
– वह मेरी कविताओं-सा मुझे लगेगा :
तब तुम मुझे क्‍या कहोगे?
 

5
उसने मुझसे पूछा, तुम्‍हारी कविताओं का क्‍या मतलब है?
मैंने कहा – कुछ नहीं।
उसने पूछा – फिर तुम इन्‍हें क्‍यों लिखते हो?
मैंने कहा – ये लिख जाती हैं। तब
इनकी रक्षा कैसे हो जाती है?
                    उसने क्‍यों यह प्रश्‍न किया?
 

मैंने पूछा :
मेरी रक्षा कहाँ होती है? मेरी साँस तो –
तुम्‍हारी कविताएँ हैं : उसने कहा। पर –
 

इन साँसों की रक्षा कैसे होती आई?
वे साँसों में बँध गये; शायद ऐसी ही रक्षा
          होती आई। फिर बहुत-से गीत
          खो गये।
 

6
वह अनायास मेरा पद गुनगुनाता हुआ बैठा
         रहा, और मैंने उसकी ओर
         देखा, और मैं समझ गया।
और यह संग्रह उसी के हाथों में खो गया।
 

7
उसने मुझसे पूछा, इन शब्‍दों का क्‍या
     मतलब है? मैंने कहा : शब्‍द
     कहाँ है? वह मौन मेरी ओर
     देखता चुप रहा। फिर मैंने
     श्रम-पूर्वक बोलते हुए कहा – कि :
     शाम हो गयी है। उसने मेरी
     आँखों में देखा, और फिर – एकटक देखता
     ही रहा। क्‍यों फिर उसने मेरा संग्रह
     अपनी धुँधली गोद में खोला और
     मुझसे कुछ भी पूछना भूल गया।
     मुझको भी नहीं मालूम, कौन था
     वह। केवल वह मुझे याद है।
 

8
तब छंदों के तार खिंचे-खिंचे थे,
राग बँधा-बँधा था,
प्‍यास उँगलियों में विकल थी –
कि मेघ गरजे;
और मोर दूर और कई दिशाओं से
बोलने लगे – पीयूअ! पीयूअ! उनकी
हीरे-नीलम की गर्दनें बिजलियों की तरह
हरियाली के आगे चमक रही थीं।
कहीं छिपा हुआ बहता पानी
बोल रहा था : अपने स्‍पष्‍टमधुर
प्रवाहित बोल।
[1945

एक नीला आईना बेठोस / 

एक नीला आईना
बेठोस-सी यह चाँदनी
और अंदर चल रहा हूँ मैं
उसी के महातल के मौन में ।
मौन में इतिहास का
कन किरन जीवित, एक, बस ।
एक पल की ओट में है कुल जहान ।
आत्मा है
अखिल की हठ-सी ।
चाँदनी में घुल गए हैं
बहुत-से तारे, बहुत कुछ
घुल गया हूँ मैं
बहुत कुछ अब ।
रह गया-सा एक सीधा बिंब
चल रहा है जो
शांत इंगित-सा
न जाने किधर ।

एक नीला आईना बेठोस

एक नीला आईना
बेठोस-सी यह चाँदनी
और अंदर चल रहा हूँ मैं
उसी के महातल के मौन में ।
मौन में इतिहास का
कन किरन जीवित, एक, बस ।
एक पल की ओट में है कुल जहान ।
आत्मा है
अखिल की हठ-सी ।
चाँदनी में घुल गए हैं
बहुत-से तारे, बहुत कुछ
घुल गया हूँ मैं
बहुत कुछ अब ।
रह गया-सा एक सीधा बिंब
चल रहा है जो
शांत इंगित-सा
न जाने किधर ।

पूर्णिमा का चाँद

चाँद निकला बादलों से पूर्णिमा का।
        गल रहा है आसमान।
एक दरिया उबलकर पीले गुलाबों का
        चूमता है बादलों के झिलमिलाते
        स्वप्न जैसे पाँव।

उषा

प्रात नभ था बहुत नीला शंख जैसे

भोर का नभ

राख से लीपा हुआ चौका
(अभी गीला पड़ा है)

बहुत काली सिल जरा-से लाल केशर से
कि धुल गयी हो

स्लेट पर या लाल खड़िया चाक
        मल दी हो किसी ने

नील जल में या किसी की
        गौर झिलमिल देह
जैसे हिल रही हो ।

और…
        जादू टूटता है इस उषा का अब
सूर्योदय हो रहा है।


(कविता-संग्रह, “टूटी हुई बिखरी हुई” से)

लेकर सीधा नारा

लेकर सीधा नारा

कौन पुकारा

अंतिम आशाओं की संध्याओं से ?

पलकें डूबी ही-सी थीं —

पर अभी नहीं;

कोई सुनता-सा था मुझे

कहीं;

फिर किसने यह, सातों सागर के पार

एकाकीपन से ही, मानो-हार,

एकाकी उठ मुझे पुकारा

कई बार ?

मैं समाज तो नहीं; न मैं कुल

जीवन;

कण-समूह में हूँ मैं केवल

एक कण ।

–कौन सहारा !

मेरा कौन सहारा !

रेडियो पर एक योरपीय संगीत सुनकर /

मैं
सुनूँगा तेरी आवाज
पैरती बर्फ की सतह में तीर-सी
            शबनम की रातों में
                  तारों की टूटती
                         गर्म
                         गर्म
                              शमशीर-सी –
            तेरी आवाज
                   खाबों में घूमती-झूमती
                          आहों की एक तसवीर सी
                   सुनूँगा : मेरी-तेरी है वह
                          खोई हुई
                          रोई हुई
                               एक तकदीर-सी
परदों में – जल के – शान्त
      झिलमिल
      झिलमिल
             कमलदल।
 
रात की हँसी है तेरे गले में,
                  सीने में,
            बहुत काली सुर्मयी पलकों में,
            साँसों में, लहरीली अलकों में :
                        आयी तू, ओ किसकी!
                        फिर मुसकरायी तू
            नींद में – खामोश… वस्‍ल।
 
शुरू है आखिरी पीर।
 
सलाम!…
मेरे दर्द से हमकलाम
            न हो!
       जा, अब सो,
            न रो।
तू मेरी बेबस बाँहों पर, सर रख कर, ओह,
           न रो !

     जो कुछ है
     जो कुछ है
          खो!
          खो!
          खो!
ओ शीरीं! ओ लैला! ओ हीर!
          – जा!
          – जा!
          – जा! – सो!…

× ×

बेखबर मैं,
बाखबर आधी-सी रात।
बेखबर सपने हैं।
बाखबर है एक, बस, उसकी जात!
       तू मेरी!…
       आमीन!
       आमीन!
       आमीन!

एक पीली शाम

एक पीली शाम
      पतझर का जरा अटका हुआ पत्ता
शान्त
मेरी भावनाओं में तुम्‍हारा मुखकमल
कृश म्‍लान हारा-सा
     (कि मैं हूँ वह
मौन दर्पण में तुम्‍हारे कहीं?)

     वासना डूबी
     शिथिल पल में
     स्‍नेह काजल में
     लिये अद्भुत रूप-कोमलता

अब गिरा अब गिरा वह अटका हुआ आँसू
सान्‍ध्‍य तारक-सा
      अतल में।

[1953]

अंतिम विनिमय

हृदय का परिवार काँपा अकस्मात ।

भावनाओं में हुआ भूडोल-सा ।

पूछता है मौन का एकांत हाथ

वक्ष छू, यह प्रश्न कैसा गोल-सा:

प्रात-रव है दूर जो “हरि बोल!”-सा,

पार, सपना है–कि धारा है–कि रात ?

कुहा में कुछ सर झुकाए, साथ-साथ,

जा रहा परछाइयों का गोल-सा ।

प्राण का है मृत्यु से कुछ मोल-सा;

सत्य की है एक बोली, एक बात ।

( १९४५ में लिखित )

शाम होने को हुई

शाम होने को हुई, लौटे किसान
दूर पेड़ों में बढ़ा खग-रव।
धूल में लिपटा हुआ है आसमान :
शाम होने को हुई, नीरव।
 
तू न चेता। काम से थक कर
फटे-मैले वस्‍त्र में कमकर
लौट आये खोलियों में मौन।
चेतने वाला न तू – है कौन?
 
शाम; हम-तुम, और बाबू लोग,
लड़कियाँ चंचल, निठल्‍ले युवक,
स्‍फूर्त-मन सब सिनेमा की ओर
चले : जाने कौन-सी है ललक।
 
घुमड़ते-घुटते हृदय के भाव
चित्रपट पर नग्‍न आते बिखर :
आर्थिक वास्‍तविकता का दाँव
भूल, हम छूते अपार्थिव शिखर।
 
हाय कर उठते हमारे नयन;
होंट सी लेते दबा अफसोस :
माँगता उर-भार अन्तिम शयन …
चाँदनी सित वक्ष कोमल ओस।
 
दूर की मर्मर-मिली नीहार,
दूर की नीहार मालाएँ;
निकट, तम-विक्षिप्‍त सागर-फेन।
एक ही आह्वान : आ जाएँ!
आज आ जाएँ हमारे ऐन!
 
भूल के मंदिर सुघर बहुमूल्‍य
हृदय को विश्‍वास देते दान :
प्राप्‍य श्‍लाघा से अयाचित मान;
स्‍वप्‍न भावी, द्रव्‍य से अनुकूल।
 
दीन का व्‍यापार श्‍लाघामय!
… …
छिन्‍न-दल कर कागजी विस्‍मय
सत्‍य के बल शूल हूलूँ मैं!
– शाम निर्धन की न भूलूँ मैं!

रात हो आयी; चमक उट्ठे कई
बल्ब; ऊपर अग्रहायण, दूर –
नभ में। दूर तक उट्ठे अधीर
भाव …कैसे सहज, कैसे क्रूर!
[1945]

कठिन प्रस्तर में 

कठिन प्रस्‍तर में अगिन सूराख।
मौन पर्तों में हिला मैं कीट।
(ढीठ कितनी रीढ़ है तन की –
                  तनी है!)
 

आत्‍मा है भाव :
भाव-दीठ
      झुक रही है
अगम अंतर में
      अनगिनत सूराख-सी करती।

अम्न का राग / भाग 1 

सच्चाइयाँ
जो गंगा के गोमुख से मोती की तरह बिखरती रहती हैं
हिमालय की बर्फ़ीली चोटी पर चाँदी के उन्मुक्त नाचते
परों में झिलमिलाती रहती हैं
जो एक हज़ार रंगों के मोतियों का खिलखिलाता समन्दर है
उमंगों से भरी फूलों की जवान कश्तियाँ
कि बसंत के नए प्रभात सागर में छोड़ दी गई हैं।

ये पूरब-पश्चिम मेरी आत्मा के ताने-बाने हैं
मैंने एशिया की सतरंगी किरनों को अपनी दिशाओं के गिर्द

लपेट लिया
और मैं यूरोप और अमरीका की नर्म आँच की धूप-छाँव पर

बहुत हौले-हौले से नाच रहा हूँ
सब संस्कृतियाँ मेरे संगम में विभोर हैं
क्योंकि मैं हृदय की सच्ची सुख-शांति का राग हूँ
बहुत आदिम, बहुत अभिनव।

हम एक साथ उषा के मधुर अधर बन उठे
सुलग उठे हैं
सब एक साथ ढाई अरब धड़कनों में बज उठे हैं
सिम्फोनिक आनंद की तरह
यह हमारी गाती हुई एकता
संसार के पंच परमेश्वर का मुकुट पहन
अमरता के सिंहासन पर आज हमारा अखिल लोकप्रेसिडेंट

बन उठी है

अम्न का राग / भाग 2 

देखो न हक़ीक़त हमारे समय की जिसमें
होमर एक हिन्दी कवि सरदार जाफ़री को
इशारे से अपने क़रीब बुला रहा है
कि जिसमें
फ़ैयाज़ खाँ बिटाफ़ेन के कान में कुछ कह रहा है
मैंने समझा कि संगीत की कोई अमर लता हिल उठी
मैं शेक्सपियर का ऊँचा माथा उज्जैन की घाटियों में
झलकता हुआ देख रहा हूँ
और कालिदास को वैमर कुंजों में विहार करते
और आज तो मेरा टैगोर मेरा हाफ़िज़ मेरा तुलसी मेरा
ग़ालिब
एक-एक मेरे दिल के जगमग पावर हाउस का
कुशल आपरेटर है।

आज सब तुम्हारे ही लिए शांति का युग चाहते हैं
मेरी कुटुबुटु
तुम्हारे ही लिए मेरे प्रतिभाशाली भाई तेजबहादुर
मेरे गुलाब की कलियों से हँसते-खेलते बच्चों
तुम्हारे ही लिए, तुम्हारे ही लिए
मेरे दोस्तों, जिनमें ज़िन्दगी में मानी पैदा होते हैं
और उस निश्छल प्रेम के लिए
जो माँ की मूर्ति है
और उस अमर परमशक्ति के लिए जो पिता का रूप है।

अम्न का राग / भाग 3

हर घर में सुख
शांति का युग
हर छोटा-बड़ा हर नया पुराना आज-कल-परसों के
आगे और पीछे का युग
शांति की स्निग्ध कला में डूबा हुआ
क्योंकि इसी कला का नाम भरी-पूरी गति है।

मुझे अमरीका का लिबर्टी स्टैचू उतना ही प्यारा है
जितना मास्को का लाल तारा
और मेरे दिल में पीकिंग का स्वर्गीय महल
मक्का-मदीना से कम पवित्र नहीं
मैं काशी में उन आर्यों का शंख-नाद सुनता हूँ
जो वोल्गा से आए
मेरी देहली में प्रह्लाद की तपस्याएँ दोनों दुनियाओं की
चौखट पर
युद्ध के हिरण्यकश्य को चीर रही हैं।

यह कौन मेरी धरती की शांति की आत्मा पर कुरबान हो
गया है
अभी सत्य की खोज तो बाकी ही थी
यह एक विशाल अनुभव की चीनी दीवार
उठती ही बढ़ती आ रही है
उसकी ईंटें धड़कते हुए सुर्ख दिल हैं
यह सच्चाइयाँ बहुत गहरी नींवों में जाग रही हैं
वह इतिहास की अनुभूतियाँ हैं
मैंने सोवियत यूसुफ़ के सीने पर कान रखकर सुना है।

अम्न का राग / भाग 4

आज मैंने गोर्की को होरी के आँगन में देखा
और ताज के साए में राजर्षि कुंग को पाया
लिंकन के हाथ में हाथ दिए हुए
और ताल्स्ताय मेरे देहाती यूपियन होंठों से बोल उठा
और अरागों की आँखों में नया इतिहास
मेरे दिल की कहानी की सुर्खी बन गया
मैं जोश की वह मस्ती हूँ जो नेरूदा की भवों से
जाम की तरह टकराती है
वह मेरा नेरुदा जो दुनिया के शांति पोस्ट आफ़िस का
प्यारा और सच्चा क़ासिद
वह मेरा जोश कि दुनिया का मस्त आशिक़
मैं पंत के कुमार छायावादी सावन-भादों की चोट हूँ
हिलोर लेते वर्ष पर
मैं निराला के राम का एक आँसू
जो तीसरे महायुद्ध के कठिन लौह पर्दों को
एटमी सुई-सा पार कर गया पाताल तक
और वहीं उसको रोक दिया
मैं सिर्फ एक महान विजय का इंदीवर जनता की आँख में
जो शांति की पवित्रतम आत्मा है।

पश्चिम मे काले और सफ़ेद फूल हैं और पूरब में पीले और लाल
उत्तर में नीले कई रंग के और हमारे यहाँ चम्पई-साँवले
औऱ दुनिया में हरियाली कहाँ नहीं
जहाँ भी आसमान बादलों से ज़रा भी पोंछे जाते हों
और आज गुलदस्तों मे रंग-रंग के फूल सजे हुए हैं
और आसमान इन खुशियों का आईना है।

अम्न का राग / भाग 5 

आज न्यूयार्क के स्काईस्क्रेपरों पर
शांति से ‘डवों’ और उसके राजहंसों ने
एक मीठे उजले सुख का हल्का-सा अंधेरा
और शोर पैदा कर दिया है।
और अब वो अर्जेन्टीना की सिम्त अतलांतिक को पार कर
रहे हैं
पाल राब्सन ने नई दिल्ली से नए अमरीका की
एक विशाल सिम्फ़नी ब्राडकास्ट की है
औऱ उदयशंकर ने दक्षिणी अफ़्रीका में नई अजंता को
स्टेज पर उतारा है
यह महान नृत्य वह महान स्वर कला और संगीत
मेरा है यानी हर अदना से अदना इंसान का
बिल्कुल अपना निजी।
युद्ध के नक़्शों की कैंची से काटकर कोरियाई बच्चों ने
झिलमिली फूलपत्तों की रौशन फ़ानूसें बना ली हैं
और हथियारों का स्टील और लोहा हज़ारों
देशों को एक-दूसरे से मिलानेवाली रेलों के जाल में बिछ
गया है
और ये बच्चे उन पर दौड़ती हुई रेलों के डिब्बों की
खिड़कियों से
हमारी ओर झाँक रहे हैं
यह फ़ौलाद और लोहा खिलौनों मिठाइयों और किताबों
से लदे स्टीमरों के रूप में
नदियों की सार्थक सजावट बन गया है
या विशाल ट्रैक्टर-कंबाइन और फ़ैक्टरी-मशीनों के
हृदय में
नवीन छंद और लय का प्रयोग कह रहा है।

अम्न का राग / भाग 6

यह सुख का भविष्य शांति की आँखों में ही वर्तमान है
इन आँखों से हम सब अपनी उम्मीदों की आँखें सेंक
रहे हैं
ये आँखें हमारे दिल में रौशन और हमारी पूजा का
फूल हैं
ये आँखें हमारे कानून का सही चमकता हुआ मतलब
और हमारे अधिकारों की ज्योति से भरी शक्ति हैं
ये आँखें हमारे माता-पिता की आत्मा और हमारे बच्चों
का दिल है
ये आँखें हमारे इतिहास की वाणी
और हमारी कला का सच्चा सपना हैं
ये आँखें हमारा अपना नूर और पवित्रता हैं
ये आँखें ही अमर सपनों की हक़ीक़त और
हक़ीक़त का अमर सपना हैं
इनको देख पाना ही अपने आपको देख पाना है, समझ
पाना है।
हम मनाते हैं कि हमारे नेता इनको देख रहे हों।

बात बोलेगी

बात बोलेगी,
हम नहीं।
भेद खोलेगी
बात ही।

सत्य का मुख
झूठ की आँखें
क्या-देखें!

सत्य का रूख़
समय का रूख़ हैः
अभय जनता को
सत्य ही सुख है
सत्य ही सुख।

दैन्य दानव; काल
भीषण; क्रूर
स्थिति; कंगाल
बुद्धि; घर मजूर।

सत्य का
क्या रंग है?-
पूछो
एक संग।
एक-जनता का
दुःख : एक।
हवा में उड़ती पताकाएँ
अनेक।

दैन्य दानव। क्रूर स्थिति।
कंगाल बुद्धि : मजूर घर भर।
एक जनता का – अमर वर :
एकता का स्वर।

निराला के प्रति

भूलकर जब राह- जब-जब राह…भटका मैं
तुम्हीं झलके, हे महाकवि,
सघन तम की आंख बन मेरे लिए,
अकल क्रोधित प्रकृति का विश्वास बन मेरे लिये-
जगत के उन्माद का
परिचय लिए,-
और आगत-प्राण का संचय लिए, झलके प्रमन तुम,
हे महाकवि! सहजतम लघु एक जीवन में
अखिल का परिणय लिए-
प्राणमय संचार करते शक्ति औ’ छवि के मिलन का हास मंगलमय;
मधुर आठों याम
विसुध खुलते
कंठस्वर में तुम्हारे, कवि,
एक ऋतुओं के विहंसते सूर्य!
काल में (तम घोर)-
बरसाते प्रवाहित रस अथोर अथाह!
छू, किया करते
आधुनिकतम दाह मानव का
साधना स्वर से
शांत-शीतलतम ।

हाँ, तुम्हीं हो, एक मेरे कवि :
जानता क्या मैं-
हृदय में भरकर तुम्हारी साँस-
किस तरह गाता,
(ओ विभूति परंपरा की!)
समझ भी पाता तुम्हें यदि मैं कि जितना चाहता हूँ,
महाकवि मेरे !


(1939 में विरचित,’कुछ कविताएँ’ नामक कविता-संग्रह से)

राग

1
मैंने शाम से पूछा –
             या शाम ने मुझसे पूछा :
                  इन बातों का मतलब?
मैंने कहा –
शाम ने मुझसे कहा :
              राग अपना है।
 

2
आँखें मुँद गयीं।
सरलता का आकाश था
जैसे त्रिलोचन की रचनाएँ।
नींद ही इच्‍छाएँ।
 

3
मैने उससे पूछा –
उसने मुझसे :
            कब?
मैंने कहा –
उसने मुझसे कहा :
            समय अपना राग है।

4
तुमने ‘धरती’ का पद्य पढ़ा है?
उसकी सहजता प्राण है।
तुमने अपनी यादों की पुस्‍तक खोली है?
जब यादें मिटती हुई एकाएक स्‍पष्‍ट हो गयी हों?
जब आँसू छलक न जाकर
आकाश का फूल बन गया हो?
– वह मेरी कविताओं-सा मुझे लगेगा :
तब तुम मुझे क्‍या कहोगे?
 

5
उसने मुझसे पूछा, तुम्‍हारी कविताओं का क्‍या मतलब है?
मैंने कहा – कुछ नहीं।
उसने पूछा – फिर तुम इन्‍हें क्‍यों लिखते हो?
मैंने कहा – ये लिख जाती हैं। तब
इनकी रक्षा कैसे हो जाती है?
                    उसने क्‍यों यह प्रश्‍न किया?
 

मैंने पूछा :
मेरी रक्षा कहाँ होती है? मेरी साँस तो –
तुम्‍हारी कविताएँ हैं : उसने कहा। पर –
 

इन साँसों की रक्षा कैसे होती आई?
वे साँसों में बँध गये; शायद ऐसी ही रक्षा
          होती आई। फिर बहुत-से गीत
          खो गये।
 

6
वह अनायास मेरा पद गुनगुनाता हुआ बैठा
         रहा, और मैंने उसकी ओर
         देखा, और मैं समझ गया।
और यह संग्रह उसी के हाथों में खो गया।
 

7
उसने मुझसे पूछा, इन शब्‍दों का क्‍या
     मतलब है? मैंने कहा : शब्‍द
     कहाँ है? वह मौन मेरी ओर
     देखता चुप रहा। फिर मैंने
     श्रम-पूर्वक बोलते हुए कहा – कि :
     शाम हो गयी है। उसने मेरी
     आँखों में देखा, और फिर – एकटक देखता
     ही रहा। क्‍यों फिर उसने मेरा संग्रह
     अपनी धुँधली गोद में खोला और
     मुझसे कुछ भी पूछना भूल गया।
     मुझको भी नहीं मालूम, कौन था
     वह। केवल वह मुझे याद है।
 

8
तब छंदों के तार खिंचे-खिंचे थे,
राग बँधा-बँधा था,
प्‍यास उँगलियों में विकल थी –
कि मेघ गरजे;
और मोर दूर और कई दिशाओं से
बोलने लगे – पीयूअ! पीयूअ! उनकी
हीरे-नीलम की गर्दनें बिजलियों की तरह
हरियाली के आगे चमक रही थीं।
कहीं छिपा हुआ बहता पानी
बोल रहा था : अपने स्‍पष्‍टमधुर
प्रवाहित बोल।
[1945

एक नीला आईना बेठोस / 

एक नीला आईना
बेठोस-सी यह चाँदनी
और अंदर चल रहा हूँ मैं
उसी के महातल के मौन में ।
मौन में इतिहास का
कन किरन जीवित, एक, बस ।
एक पल की ओट में है कुल जहान ।
आत्मा है
अखिल की हठ-सी ।
चाँदनी में घुल गए हैं
बहुत-से तारे, बहुत कुछ
घुल गया हूँ मैं
बहुत कुछ अब ।
रह गया-सा एक सीधा बिंब
चल रहा है जो
शांत इंगित-सा
न जाने किधर ।

एक नीला आईना बेठोस

एक नीला आईना
बेठोस-सी यह चाँदनी
और अंदर चल रहा हूँ मैं
उसी के महातल के मौन में ।
मौन में इतिहास का
कन किरन जीवित, एक, बस ।
एक पल की ओट में है कुल जहान ।
आत्मा है
अखिल की हठ-सी ।
चाँदनी में घुल गए हैं
बहुत-से तारे, बहुत कुछ
घुल गया हूँ मैं
बहुत कुछ अब ।
रह गया-सा एक सीधा बिंब
चल रहा है जो
शांत इंगित-सा
न जाने किधर ।

पूर्णिमा का चाँद

 

चाँद निकला बादलों से पूर्णिमा का।
        गल रहा है आसमान।
एक दरिया उबलकर पीले गुलाबों का
        चूमता है बादलों के झिलमिलाते
        स्वप्न जैसे पाँव।

उषा

प्रात नभ था बहुत नीला शंख जैसे

भोर का नभ

राख से लीपा हुआ चौका
(अभी गीला पड़ा है)

बहुत काली सिल जरा-से लाल केशर से
कि धुल गयी हो

स्लेट पर या लाल खड़िया चाक
        मल दी हो किसी ने

नील जल में या किसी की
        गौर झिलमिल देह
जैसे हिल रही हो ।

और…
        जादू टूटता है इस उषा का अब
सूर्योदय हो रहा है।


(कविता-संग्रह, “टूटी हुई बिखरी हुई” से)

लेकर सीधा नारा

लेकर सीधा नारा

कौन पुकारा

अंतिम आशाओं की संध्याओं से ?

पलकें डूबी ही-सी थीं —

पर अभी नहीं;

कोई सुनता-सा था मुझे

कहीं;

फिर किसने यह, सातों सागर के पार

एकाकीपन से ही, मानो-हार,

एकाकी उठ मुझे पुकारा

कई बार ?

मैं समाज तो नहीं; न मैं कुल

जीवन;

कण-समूह में हूँ मैं केवल

एक कण ।

–कौन सहारा !

मेरा कौन सहारा !

रेडियो पर एक योरपीय संगीत सुनकर /

मैं
सुनूँगा तेरी आवाज
पैरती बर्फ की सतह में तीर-सी
            शबनम की रातों में
                  तारों की टूटती
                         गर्म
                         गर्म
                              शमशीर-सी –
            तेरी आवाज
                   खाबों में घूमती-झूमती
                          आहों की एक तसवीर सी
                   सुनूँगा : मेरी-तेरी है वह
                          खोई हुई
                          रोई हुई
                               एक तकदीर-सी
परदों में – जल के – शान्त
      झिलमिल
      झिलमिल
             कमलदल।
 
रात की हँसी है तेरे गले में,
                  सीने में,
            बहुत काली सुर्मयी पलकों में,
            साँसों में, लहरीली अलकों में :
                        आयी तू, ओ किसकी!
                        फिर मुसकरायी तू
            नींद में – खामोश… वस्‍ल।
 
शुरू है आखिरी पीर।
 
सलाम!…
मेरे दर्द से हमकलाम
            न हो!
       जा, अब सो,
            न रो।
तू मेरी बेबस बाँहों पर, सर रख कर, ओह,
           न रो !

     जो कुछ है
     जो कुछ है
          खो!
          खो!
          खो!
ओ शीरीं! ओ लैला! ओ हीर!
          – जा!
          – जा!
          – जा! – सो!…

× ×

बेखबर मैं,
बाखबर आधी-सी रात।
बेखबर सपने हैं।
बाखबर है एक, बस, उसकी जात!
       तू मेरी!…
       आमीन!
       आमीन!
       आमीन!

एक पीली शाम

 

एक पीली शाम
      पतझर का जरा अटका हुआ पत्ता
शान्त
मेरी भावनाओं में तुम्‍हारा मुखकमल
कृश म्‍लान हारा-सा
     (कि मैं हूँ वह
मौन दर्पण में तुम्‍हारे कहीं?)

     वासना डूबी
     शिथिल पल में
     स्‍नेह काजल में
     लिये अद्भुत रूप-कोमलता

अब गिरा अब गिरा वह अटका हुआ आँसू
सान्‍ध्‍य तारक-सा
      अतल में।

[1953]

अंतिम विनिमय

हृदय का परिवार काँपा अकस्मात ।

भावनाओं में हुआ भूडोल-सा ।

पूछता है मौन का एकांत हाथ

वक्ष छू, यह प्रश्न कैसा गोल-सा:

प्रात-रव है दूर जो “हरि बोल!”-सा,

पार, सपना है–कि धारा है–कि रात ?

कुहा में कुछ सर झुकाए, साथ-साथ,

जा रहा परछाइयों का गोल-सा ।

प्राण का है मृत्यु से कुछ मोल-सा;

सत्य की है एक बोली, एक बात ।

( १९४५ में लिखित )

शाम होने को हुई

शाम होने को हुई, लौटे किसान
दूर पेड़ों में बढ़ा खग-रव।
धूल में लिपटा हुआ है आसमान :
शाम होने को हुई, नीरव।
 
तू न चेता। काम से थक कर
फटे-मैले वस्‍त्र में कमकर
लौट आये खोलियों में मौन।
चेतने वाला न तू – है कौन?
 
शाम; हम-तुम, और बाबू लोग,
लड़कियाँ चंचल, निठल्‍ले युवक,
स्‍फूर्त-मन सब सिनेमा की ओर
चले : जाने कौन-सी है ललक।
 
घुमड़ते-घुटते हृदय के भाव
चित्रपट पर नग्‍न आते बिखर :
आर्थिक वास्‍तविकता का दाँव
भूल, हम छूते अपार्थिव शिखर।
 
हाय कर उठते हमारे नयन;
होंट सी लेते दबा अफसोस :
माँगता उर-भार अन्तिम शयन …
चाँदनी सित वक्ष कोमल ओस।
 
दूर की मर्मर-मिली नीहार,
दूर की नीहार मालाएँ;
निकट, तम-विक्षिप्‍त सागर-फेन।
एक ही आह्वान : आ जाएँ!
आज आ जाएँ हमारे ऐन!
 
भूल के मंदिर सुघर बहुमूल्‍य
हृदय को विश्‍वास देते दान :
प्राप्‍य श्‍लाघा से अयाचित मान;
स्‍वप्‍न भावी, द्रव्‍य से अनुकूल।
 
दीन का व्‍यापार श्‍लाघामय!
… …
छिन्‍न-दल कर कागजी विस्‍मय
सत्‍य के बल शूल हूलूँ मैं!
– शाम निर्धन की न भूलूँ मैं!

रात हो आयी; चमक उट्ठे कई
बल्ब; ऊपर अग्रहायण, दूर –
नभ में। दूर तक उट्ठे अधीर
भाव …कैसे सहज, कैसे क्रूर!
[1945]

कठिन प्रस्तर में 

कठिन प्रस्‍तर में अगिन सूराख।
मौन पर्तों में हिला मैं कीट।
(ढीठ कितनी रीढ़ है तन की –
                  तनी है!)
 

आत्‍मा है भाव :
भाव-दीठ
      झुक रही है
अगम अंतर में
      अनगिनत सूराख-सी करती।

अम्न का राग / भाग 1 

सच्चाइयाँ
जो गंगा के गोमुख से मोती की तरह बिखरती रहती हैं
हिमालय की बर्फ़ीली चोटी पर चाँदी के उन्मुक्त नाचते
परों में झिलमिलाती रहती हैं
जो एक हज़ार रंगों के मोतियों का खिलखिलाता समन्दर है
उमंगों से भरी फूलों की जवान कश्तियाँ
कि बसंत के नए प्रभात सागर में छोड़ दी गई हैं।

ये पूरब-पश्चिम मेरी आत्मा के ताने-बाने हैं
मैंने एशिया की सतरंगी किरनों को अपनी दिशाओं के गिर्द

लपेट लिया
और मैं यूरोप और अमरीका की नर्म आँच की धूप-छाँव पर

बहुत हौले-हौले से नाच रहा हूँ
सब संस्कृतियाँ मेरे संगम में विभोर हैं
क्योंकि मैं हृदय की सच्ची सुख-शांति का राग हूँ
बहुत आदिम, बहुत अभिनव।

हम एक साथ उषा के मधुर अधर बन उठे
सुलग उठे हैं
सब एक साथ ढाई अरब धड़कनों में बज उठे हैं
सिम्फोनिक आनंद की तरह
यह हमारी गाती हुई एकता
संसार के पंच परमेश्वर का मुकुट पहन
अमरता के सिंहासन पर आज हमारा अखिल लोकप्रेसिडेंट

बन उठी है

 

अम्न का राग / भाग 2 

देखो न हक़ीक़त हमारे समय की जिसमें
होमर एक हिन्दी कवि सरदार जाफ़री को
इशारे से अपने क़रीब बुला रहा है
कि जिसमें
फ़ैयाज़ खाँ बिटाफ़ेन के कान में कुछ कह रहा है
मैंने समझा कि संगीत की कोई अमर लता हिल उठी
मैं शेक्सपियर का ऊँचा माथा उज्जैन की घाटियों में
झलकता हुआ देख रहा हूँ
और कालिदास को वैमर कुंजों में विहार करते
और आज तो मेरा टैगोर मेरा हाफ़िज़ मेरा तुलसी मेरा
ग़ालिब
एक-एक मेरे दिल के जगमग पावर हाउस का
कुशल आपरेटर है।

आज सब तुम्हारे ही लिए शांति का युग चाहते हैं
मेरी कुटुबुटु
तुम्हारे ही लिए मेरे प्रतिभाशाली भाई तेजबहादुर
मेरे गुलाब की कलियों से हँसते-खेलते बच्चों
तुम्हारे ही लिए, तुम्हारे ही लिए
मेरे दोस्तों, जिनमें ज़िन्दगी में मानी पैदा होते हैं
और उस निश्छल प्रेम के लिए
जो माँ की मूर्ति है
और उस अमर परमशक्ति के लिए जो पिता का रूप है।

अम्न का राग / भाग 3

हर घर में सुख
शांति का युग
हर छोटा-बड़ा हर नया पुराना आज-कल-परसों के
आगे और पीछे का युग
शांति की स्निग्ध कला में डूबा हुआ
क्योंकि इसी कला का नाम भरी-पूरी गति है।

मुझे अमरीका का लिबर्टी स्टैचू उतना ही प्यारा है
जितना मास्को का लाल तारा
और मेरे दिल में पीकिंग का स्वर्गीय महल
मक्का-मदीना से कम पवित्र नहीं
मैं काशी में उन आर्यों का शंख-नाद सुनता हूँ
जो वोल्गा से आए
मेरी देहली में प्रह्लाद की तपस्याएँ दोनों दुनियाओं की
चौखट पर
युद्ध के हिरण्यकश्य को चीर रही हैं।

यह कौन मेरी धरती की शांति की आत्मा पर कुरबान हो
गया है
अभी सत्य की खोज तो बाकी ही थी
यह एक विशाल अनुभव की चीनी दीवार
उठती ही बढ़ती आ रही है
उसकी ईंटें धड़कते हुए सुर्ख दिल हैं
यह सच्चाइयाँ बहुत गहरी नींवों में जाग रही हैं
वह इतिहास की अनुभूतियाँ हैं
मैंने सोवियत यूसुफ़ के सीने पर कान रखकर सुना है।

अम्न का राग / भाग 4

आज मैंने गोर्की को होरी के आँगन में देखा
और ताज के साए में राजर्षि कुंग को पाया
लिंकन के हाथ में हाथ दिए हुए
और ताल्स्ताय मेरे देहाती यूपियन होंठों से बोल उठा
और अरागों की आँखों में नया इतिहास
मेरे दिल की कहानी की सुर्खी बन गया
मैं जोश की वह मस्ती हूँ जो नेरूदा की भवों से
जाम की तरह टकराती है
वह मेरा नेरुदा जो दुनिया के शांति पोस्ट आफ़िस का
प्यारा और सच्चा क़ासिद
वह मेरा जोश कि दुनिया का मस्त आशिक़
मैं पंत के कुमार छायावादी सावन-भादों की चोट हूँ
हिलोर लेते वर्ष पर
मैं निराला के राम का एक आँसू
जो तीसरे महायुद्ध के कठिन लौह पर्दों को
एटमी सुई-सा पार कर गया पाताल तक
और वहीं उसको रोक दिया
मैं सिर्फ एक महान विजय का इंदीवर जनता की आँख में
जो शांति की पवित्रतम आत्मा है।

पश्चिम मे काले और सफ़ेद फूल हैं और पूरब में पीले और लाल
उत्तर में नीले कई रंग के और हमारे यहाँ चम्पई-साँवले
औऱ दुनिया में हरियाली कहाँ नहीं
जहाँ भी आसमान बादलों से ज़रा भी पोंछे जाते हों
और आज गुलदस्तों मे रंग-रंग के फूल सजे हुए हैं
और आसमान इन खुशियों का आईना है।

अम्न का राग / भाग 5 

आज न्यूयार्क के स्काईस्क्रेपरों पर
शांति से ‘डवों’ और उसके राजहंसों ने
एक मीठे उजले सुख का हल्का-सा अंधेरा
और शोर पैदा कर दिया है।
और अब वो अर्जेन्टीना की सिम्त अतलांतिक को पार कर
रहे हैं
पाल राब्सन ने नई दिल्ली से नए अमरीका की
एक विशाल सिम्फ़नी ब्राडकास्ट की है
औऱ उदयशंकर ने दक्षिणी अफ़्रीका में नई अजंता को
स्टेज पर उतारा है
यह महान नृत्य वह महान स्वर कला और संगीत
मेरा है यानी हर अदना से अदना इंसान का
बिल्कुल अपना निजी।
युद्ध के नक़्शों की कैंची से काटकर कोरियाई बच्चों ने
झिलमिली फूलपत्तों की रौशन फ़ानूसें बना ली हैं
और हथियारों का स्टील और लोहा हज़ारों
देशों को एक-दूसरे से मिलानेवाली रेलों के जाल में बिछ
गया है
और ये बच्चे उन पर दौड़ती हुई रेलों के डिब्बों की
खिड़कियों से
हमारी ओर झाँक रहे हैं
यह फ़ौलाद और लोहा खिलौनों मिठाइयों और किताबों
से लदे स्टीमरों के रूप में
नदियों की सार्थक सजावट बन गया है
या विशाल ट्रैक्टर-कंबाइन और फ़ैक्टरी-मशीनों के
हृदय में
नवीन छंद और लय का प्रयोग कह रहा है।

अम्न का राग / भाग 6

यह सुख का भविष्य शांति की आँखों में ही वर्तमान है
इन आँखों से हम सब अपनी उम्मीदों की आँखें सेंक
रहे हैं
ये आँखें हमारे दिल में रौशन और हमारी पूजा का
फूल हैं
ये आँखें हमारे कानून का सही चमकता हुआ मतलब
और हमारे अधिकारों की ज्योति से भरी शक्ति हैं
ये आँखें हमारे माता-पिता की आत्मा और हमारे बच्चों
का दिल है
ये आँखें हमारे इतिहास की वाणी
और हमारी कला का सच्चा सपना हैं
ये आँखें हमारा अपना नूर और पवित्रता हैं
ये आँखें ही अमर सपनों की हक़ीक़त और
हक़ीक़त का अमर सपना हैं
इनको देख पाना ही अपने आपको देख पाना है, समझ
पाना है।
हम मनाते हैं कि हमारे नेता इनको देख रहे हों।

बात बोलेगी

बात बोलेगी,
हम नहीं।
भेद खोलेगी
बात ही।

सत्य का मुख
झूठ की आँखें
क्या-देखें!

सत्य का रूख़
समय का रूख़ हैः
अभय जनता को
सत्य ही सुख है
सत्य ही सुख।

दैन्य दानव; काल
भीषण; क्रूर
स्थिति; कंगाल
बुद्धि; घर मजूर।

सत्य का
क्या रंग है?-
पूछो
एक संग।
एक-जनता का
दुःख : एक।
हवा में उड़ती पताकाएँ
अनेक।

दैन्य दानव। क्रूर स्थिति।
कंगाल बुद्धि : मजूर घर भर।
एक जनता का – अमर वर :
एकता का स्वर।

निराला के प्रति

भूलकर जब राह- जब-जब राह…भटका मैं
तुम्हीं झलके, हे महाकवि,
सघन तम की आंख बन मेरे लिए,
अकल क्रोधित प्रकृति का विश्वास बन मेरे लिये-
जगत के उन्माद का
परिचय लिए,-
और आगत-प्राण का संचय लिए, झलके प्रमन तुम,
हे महाकवि! सहजतम लघु एक जीवन में
अखिल का परिणय लिए-
प्राणमय संचार करते शक्ति औ’ छवि के मिलन का हास मंगलमय;
मधुर आठों याम
विसुध खुलते
कंठस्वर में तुम्हारे, कवि,
एक ऋतुओं के विहंसते सूर्य!
काल में (तम घोर)-
बरसाते प्रवाहित रस अथोर अथाह!
छू, किया करते
आधुनिकतम दाह मानव का
साधना स्वर से
शांत-शीतलतम ।

हाँ, तुम्हीं हो, एक मेरे कवि :
जानता क्या मैं-
हृदय में भरकर तुम्हारी साँस-
किस तरह गाता,
(ओ विभूति परंपरा की!)
समझ भी पाता तुम्हें यदि मैं कि जितना चाहता हूँ,
महाकवि मेरे !


(1939 में विरचित,’कुछ कविताएँ’ नामक कविता-संग्रह से)

राग

1
मैंने शाम से पूछा –
             या शाम ने मुझसे पूछा :
                  इन बातों का मतलब?
मैंने कहा –
शाम ने मुझसे कहा :
              राग अपना है।
 

2
आँखें मुँद गयीं।
सरलता का आकाश था
जैसे त्रिलोचन की रचनाएँ।
नींद ही इच्‍छाएँ।
 

3
मैने उससे पूछा –
उसने मुझसे :
            कब?
मैंने कहा –
उसने मुझसे कहा :
            समय अपना राग है।

4
तुमने ‘धरती’ का पद्य पढ़ा है?
उसकी सहजता प्राण है।
तुमने अपनी यादों की पुस्‍तक खोली है?
जब यादें मिटती हुई एकाएक स्‍पष्‍ट हो गयी हों?
जब आँसू छलक न जाकर
आकाश का फूल बन गया हो?
– वह मेरी कविताओं-सा मुझे लगेगा :
तब तुम मुझे क्‍या कहोगे?
 

5
उसने मुझसे पूछा, तुम्‍हारी कविताओं का क्‍या मतलब है?
मैंने कहा – कुछ नहीं।
उसने पूछा – फिर तुम इन्‍हें क्‍यों लिखते हो?
मैंने कहा – ये लिख जाती हैं। तब
इनकी रक्षा कैसे हो जाती है?
                    उसने क्‍यों यह प्रश्‍न किया?
 

मैंने पूछा :
मेरी रक्षा कहाँ होती है? मेरी साँस तो –
तुम्‍हारी कविताएँ हैं : उसने कहा। पर –
 

इन साँसों की रक्षा कैसे होती आई?
वे साँसों में बँध गये; शायद ऐसी ही रक्षा
          होती आई। फिर बहुत-से गीत
          खो गये।
 

6
वह अनायास मेरा पद गुनगुनाता हुआ बैठा
         रहा, और मैंने उसकी ओर
         देखा, और मैं समझ गया।
और यह संग्रह उसी के हाथों में खो गया।
 

7
उसने मुझसे पूछा, इन शब्‍दों का क्‍या
     मतलब है? मैंने कहा : शब्‍द
     कहाँ है? वह मौन मेरी ओर
     देखता चुप रहा। फिर मैंने
     श्रम-पूर्वक बोलते हुए कहा – कि :
     शाम हो गयी है। उसने मेरी
     आँखों में देखा, और फिर – एकटक देखता
     ही रहा। क्‍यों फिर उसने मेरा संग्रह
     अपनी धुँधली गोद में खोला और
     मुझसे कुछ भी पूछना भूल गया।
     मुझको भी नहीं मालूम, कौन था
     वह। केवल वह मुझे याद है।
 

8
तब छंदों के तार खिंचे-खिंचे थे,
राग बँधा-बँधा था,
प्‍यास उँगलियों में विकल थी –
कि मेघ गरजे;
और मोर दूर और कई दिशाओं से
बोलने लगे – पीयूअ! पीयूअ! उनकी
हीरे-नीलम की गर्दनें बिजलियों की तरह
हरियाली के आगे चमक रही थीं।
कहीं छिपा हुआ बहता पानी
बोल रहा था : अपने स्‍पष्‍टमधुर
प्रवाहित बोल।
[1945

एक नीला आईना बेठोस / 

एक नीला आईना
बेठोस-सी यह चाँदनी
और अंदर चल रहा हूँ मैं
उसी के महातल के मौन में ।
मौन में इतिहास का
कन किरन जीवित, एक, बस ।
एक पल की ओट में है कुल जहान ।
आत्मा है
अखिल की हठ-सी ।
चाँदनी में घुल गए हैं
बहुत-से तारे, बहुत कुछ
घुल गया हूँ मैं
बहुत कुछ अब ।
रह गया-सा एक सीधा बिंब
चल रहा है जो
शांत इंगित-सा
न जाने किधर ।

एक नीला आईना बेठोस

एक नीला आईना
बेठोस-सी यह चाँदनी
और अंदर चल रहा हूँ मैं
उसी के महातल के मौन में ।
मौन में इतिहास का
कन किरन जीवित, एक, बस ।
एक पल की ओट में है कुल जहान ।
आत्मा है
अखिल की हठ-सी ।
चाँदनी में घुल गए हैं
बहुत-से तारे, बहुत कुछ
घुल गया हूँ मैं
बहुत कुछ अब ।
रह गया-सा एक सीधा बिंब
चल रहा है जो
शांत इंगित-सा
न जाने किधर ।

पूर्णिमा का चाँद

 

चाँद निकला बादलों से पूर्णिमा का।
        गल रहा है आसमान।
एक दरिया उबलकर पीले गुलाबों का
        चूमता है बादलों के झिलमिलाते
        स्वप्न जैसे पाँव।

उषा

प्रात नभ था बहुत नीला शंख जैसे

भोर का नभ

राख से लीपा हुआ चौका
(अभी गीला पड़ा है)

बहुत काली सिल जरा-से लाल केशर से
कि धुल गयी हो

स्लेट पर या लाल खड़िया चाक
        मल दी हो किसी ने

नील जल में या किसी की
        गौर झिलमिल देह
जैसे हिल रही हो ।

और…
        जादू टूटता है इस उषा का अब
सूर्योदय हो रहा है।


(कविता-संग्रह, “टूटी हुई बिखरी हुई” से)

लेकर सीधा नारा

लेकर सीधा नारा

कौन पुकारा

अंतिम आशाओं की संध्याओं से ?

पलकें डूबी ही-सी थीं —

पर अभी नहीं;

कोई सुनता-सा था मुझे

कहीं;

फिर किसने यह, सातों सागर के पार

एकाकीपन से ही, मानो-हार,

एकाकी उठ मुझे पुकारा

कई बार ?

मैं समाज तो नहीं; न मैं कुल

जीवन;

कण-समूह में हूँ मैं केवल

एक कण ।

–कौन सहारा !

मेरा कौन सहारा !

रेडियो पर एक योरपीय संगीत सुनकर /

मैं
सुनूँगा तेरी आवाज
पैरती बर्फ की सतह में तीर-सी
            शबनम की रातों में
                  तारों की टूटती
                         गर्म
                         गर्म
                              शमशीर-सी –
            तेरी आवाज
                   खाबों में घूमती-झूमती
                          आहों की एक तसवीर सी
                   सुनूँगा : मेरी-तेरी है वह
                          खोई हुई
                          रोई हुई
                               एक तकदीर-सी
परदों में – जल के – शान्त
      झिलमिल
      झिलमिल
             कमलदल।
 
रात की हँसी है तेरे गले में,
                  सीने में,
            बहुत काली सुर्मयी पलकों में,
            साँसों में, लहरीली अलकों में :
                        आयी तू, ओ किसकी!
                        फिर मुसकरायी तू
            नींद में – खामोश… वस्‍ल।
 
शुरू है आखिरी पीर।
 
सलाम!…
मेरे दर्द से हमकलाम
            न हो!
       जा, अब सो,
            न रो।
तू मेरी बेबस बाँहों पर, सर रख कर, ओह,
           न रो !

     जो कुछ है
     जो कुछ है
          खो!
          खो!
          खो!
ओ शीरीं! ओ लैला! ओ हीर!
          – जा!
          – जा!
          – जा! – सो!…

× ×

बेखबर मैं,
बाखबर आधी-सी रात।
बेखबर सपने हैं।
बाखबर है एक, बस, उसकी जात!
       तू मेरी!…
       आमीन!
       आमीन!
       आमीन!

एक पीली शाम

 

एक पीली शाम
      पतझर का जरा अटका हुआ पत्ता
शान्त
मेरी भावनाओं में तुम्‍हारा मुखकमल
कृश म्‍लान हारा-सा
     (कि मैं हूँ वह
मौन दर्पण में तुम्‍हारे कहीं?)

     वासना डूबी
     शिथिल पल में
     स्‍नेह काजल में
     लिये अद्भुत रूप-कोमलता

अब गिरा अब गिरा वह अटका हुआ आँसू
सान्‍ध्‍य तारक-सा
      अतल में।

[1953]

अंतिम विनिमय

हृदय का परिवार काँपा अकस्मात ।

भावनाओं में हुआ भूडोल-सा ।

पूछता है मौन का एकांत हाथ

वक्ष छू, यह प्रश्न कैसा गोल-सा:

प्रात-रव है दूर जो “हरि बोल!”-सा,

पार, सपना है–कि धारा है–कि रात ?

कुहा में कुछ सर झुकाए, साथ-साथ,

जा रहा परछाइयों का गोल-सा ।

प्राण का है मृत्यु से कुछ मोल-सा;

सत्य की है एक बोली, एक बात ।

( १९४५ में लिखित )

शाम होने को हुई

शाम होने को हुई, लौटे किसान
दूर पेड़ों में बढ़ा खग-रव।
धूल में लिपटा हुआ है आसमान :
शाम होने को हुई, नीरव।
 
तू न चेता। काम से थक कर
फटे-मैले वस्‍त्र में कमकर
लौट आये खोलियों में मौन।
चेतने वाला न तू – है कौन?
 
शाम; हम-तुम, और बाबू लोग,
लड़कियाँ चंचल, निठल्‍ले युवक,
स्‍फूर्त-मन सब सिनेमा की ओर
चले : जाने कौन-सी है ललक।
 
घुमड़ते-घुटते हृदय के भाव
चित्रपट पर नग्‍न आते बिखर :
आर्थिक वास्‍तविकता का दाँव
भूल, हम छूते अपार्थिव शिखर।
 
हाय कर उठते हमारे नयन;
होंट सी लेते दबा अफसोस :
माँगता उर-भार अन्तिम शयन …
चाँदनी सित वक्ष कोमल ओस।
 
दूर की मर्मर-मिली नीहार,
दूर की नीहार मालाएँ;
निकट, तम-विक्षिप्‍त सागर-फेन।
एक ही आह्वान : आ जाएँ!
आज आ जाएँ हमारे ऐन!
 
भूल के मंदिर सुघर बहुमूल्‍य
हृदय को विश्‍वास देते दान :
प्राप्‍य श्‍लाघा से अयाचित मान;
स्‍वप्‍न भावी, द्रव्‍य से अनुकूल।
 
दीन का व्‍यापार श्‍लाघामय!
… …
छिन्‍न-दल कर कागजी विस्‍मय
सत्‍य के बल शूल हूलूँ मैं!
– शाम निर्धन की न भूलूँ मैं!

रात हो आयी; चमक उट्ठे कई
बल्ब; ऊपर अग्रहायण, दूर –
नभ में। दूर तक उट्ठे अधीर
भाव …कैसे सहज, कैसे क्रूर!
[1945]

कठिन प्रस्तर में 

कठिन प्रस्‍तर में अगिन सूराख।
मौन पर्तों में हिला मैं कीट।
(ढीठ कितनी रीढ़ है तन की –
                  तनी है!)
 

आत्‍मा है भाव :
भाव-दीठ
      झुक रही है
अगम अंतर में
      अनगिनत सूराख-सी करती।

अम्न का राग / भाग 1 

सच्चाइयाँ
जो गंगा के गोमुख से मोती की तरह बिखरती रहती हैं
हिमालय की बर्फ़ीली चोटी पर चाँदी के उन्मुक्त नाचते
परों में झिलमिलाती रहती हैं
जो एक हज़ार रंगों के मोतियों का खिलखिलाता समन्दर है
उमंगों से भरी फूलों की जवान कश्तियाँ
कि बसंत के नए प्रभात सागर में छोड़ दी गई हैं।

ये पूरब-पश्चिम मेरी आत्मा के ताने-बाने हैं
मैंने एशिया की सतरंगी किरनों को अपनी दिशाओं के गिर्द

लपेट लिया
और मैं यूरोप और अमरीका की नर्म आँच की धूप-छाँव पर

बहुत हौले-हौले से नाच रहा हूँ
सब संस्कृतियाँ मेरे संगम में विभोर हैं
क्योंकि मैं हृदय की सच्ची सुख-शांति का राग हूँ
बहुत आदिम, बहुत अभिनव।

हम एक साथ उषा के मधुर अधर बन उठे
सुलग उठे हैं
सब एक साथ ढाई अरब धड़कनों में बज उठे हैं
सिम्फोनिक आनंद की तरह
यह हमारी गाती हुई एकता
संसार के पंच परमेश्वर का मुकुट पहन
अमरता के सिंहासन पर आज हमारा अखिल लोकप्रेसिडेंट

बन उठी है

 

अम्न का राग / भाग 2 

देखो न हक़ीक़त हमारे समय की जिसमें
होमर एक हिन्दी कवि सरदार जाफ़री को
इशारे से अपने क़रीब बुला रहा है
कि जिसमें
फ़ैयाज़ खाँ बिटाफ़ेन के कान में कुछ कह रहा है
मैंने समझा कि संगीत की कोई अमर लता हिल उठी
मैं शेक्सपियर का ऊँचा माथा उज्जैन की घाटियों में
झलकता हुआ देख रहा हूँ
और कालिदास को वैमर कुंजों में विहार करते
और आज तो मेरा टैगोर मेरा हाफ़िज़ मेरा तुलसी मेरा
ग़ालिब
एक-एक मेरे दिल के जगमग पावर हाउस का
कुशल आपरेटर है।

आज सब तुम्हारे ही लिए शांति का युग चाहते हैं
मेरी कुटुबुटु
तुम्हारे ही लिए मेरे प्रतिभाशाली भाई तेजबहादुर
मेरे गुलाब की कलियों से हँसते-खेलते बच्चों
तुम्हारे ही लिए, तुम्हारे ही लिए
मेरे दोस्तों, जिनमें ज़िन्दगी में मानी पैदा होते हैं
और उस निश्छल प्रेम के लिए
जो माँ की मूर्ति है
और उस अमर परमशक्ति के लिए जो पिता का रूप है।

अम्न का राग / भाग 3

हर घर में सुख
शांति का युग
हर छोटा-बड़ा हर नया पुराना आज-कल-परसों के
आगे और पीछे का युग
शांति की स्निग्ध कला में डूबा हुआ
क्योंकि इसी कला का नाम भरी-पूरी गति है।

मुझे अमरीका का लिबर्टी स्टैचू उतना ही प्यारा है
जितना मास्को का लाल तारा
और मेरे दिल में पीकिंग का स्वर्गीय महल
मक्का-मदीना से कम पवित्र नहीं
मैं काशी में उन आर्यों का शंख-नाद सुनता हूँ
जो वोल्गा से आए
मेरी देहली में प्रह्लाद की तपस्याएँ दोनों दुनियाओं की
चौखट पर
युद्ध के हिरण्यकश्य को चीर रही हैं।

यह कौन मेरी धरती की शांति की आत्मा पर कुरबान हो
गया है
अभी सत्य की खोज तो बाकी ही थी
यह एक विशाल अनुभव की चीनी दीवार
उठती ही बढ़ती आ रही है
उसकी ईंटें धड़कते हुए सुर्ख दिल हैं
यह सच्चाइयाँ बहुत गहरी नींवों में जाग रही हैं
वह इतिहास की अनुभूतियाँ हैं
मैंने सोवियत यूसुफ़ के सीने पर कान रखकर सुना है।

अम्न का राग / भाग 4

आज मैंने गोर्की को होरी के आँगन में देखा
और ताज के साए में राजर्षि कुंग को पाया
लिंकन के हाथ में हाथ दिए हुए
और ताल्स्ताय मेरे देहाती यूपियन होंठों से बोल उठा
और अरागों की आँखों में नया इतिहास
मेरे दिल की कहानी की सुर्खी बन गया
मैं जोश की वह मस्ती हूँ जो नेरूदा की भवों से
जाम की तरह टकराती है
वह मेरा नेरुदा जो दुनिया के शांति पोस्ट आफ़िस का
प्यारा और सच्चा क़ासिद
वह मेरा जोश कि दुनिया का मस्त आशिक़
मैं पंत के कुमार छायावादी सावन-भादों की चोट हूँ
हिलोर लेते वर्ष पर
मैं निराला के राम का एक आँसू
जो तीसरे महायुद्ध के कठिन लौह पर्दों को
एटमी सुई-सा पार कर गया पाताल तक
और वहीं उसको रोक दिया
मैं सिर्फ एक महान विजय का इंदीवर जनता की आँख में
जो शांति की पवित्रतम आत्मा है।

पश्चिम मे काले और सफ़ेद फूल हैं और पूरब में पीले और लाल
उत्तर में नीले कई रंग के और हमारे यहाँ चम्पई-साँवले
औऱ दुनिया में हरियाली कहाँ नहीं
जहाँ भी आसमान बादलों से ज़रा भी पोंछे जाते हों
और आज गुलदस्तों मे रंग-रंग के फूल सजे हुए हैं
और आसमान इन खुशियों का आईना है।

अम्न का राग / भाग 5 

आज न्यूयार्क के स्काईस्क्रेपरों पर
शांति से ‘डवों’ और उसके राजहंसों ने
एक मीठे उजले सुख का हल्का-सा अंधेरा
और शोर पैदा कर दिया है।
और अब वो अर्जेन्टीना की सिम्त अतलांतिक को पार कर
रहे हैं
पाल राब्सन ने नई दिल्ली से नए अमरीका की
एक विशाल सिम्फ़नी ब्राडकास्ट की है
औऱ उदयशंकर ने दक्षिणी अफ़्रीका में नई अजंता को
स्टेज पर उतारा है
यह महान नृत्य वह महान स्वर कला और संगीत
मेरा है यानी हर अदना से अदना इंसान का
बिल्कुल अपना निजी।
युद्ध के नक़्शों की कैंची से काटकर कोरियाई बच्चों ने
झिलमिली फूलपत्तों की रौशन फ़ानूसें बना ली हैं
और हथियारों का स्टील और लोहा हज़ारों
देशों को एक-दूसरे से मिलानेवाली रेलों के जाल में बिछ
गया है
और ये बच्चे उन पर दौड़ती हुई रेलों के डिब्बों की
खिड़कियों से
हमारी ओर झाँक रहे हैं
यह फ़ौलाद और लोहा खिलौनों मिठाइयों और किताबों
से लदे स्टीमरों के रूप में
नदियों की सार्थक सजावट बन गया है
या विशाल ट्रैक्टर-कंबाइन और फ़ैक्टरी-मशीनों के
हृदय में
नवीन छंद और लय का प्रयोग कह रहा है।

अम्न का राग / भाग 6

यह सुख का भविष्य शांति की आँखों में ही वर्तमान है
इन आँखों से हम सब अपनी उम्मीदों की आँखें सेंक
रहे हैं
ये आँखें हमारे दिल में रौशन और हमारी पूजा का
फूल हैं
ये आँखें हमारे कानून का सही चमकता हुआ मतलब
और हमारे अधिकारों की ज्योति से भरी शक्ति हैं
ये आँखें हमारे माता-पिता की आत्मा और हमारे बच्चों
का दिल है
ये आँखें हमारे इतिहास की वाणी
और हमारी कला का सच्चा सपना हैं
ये आँखें हमारा अपना नूर और पवित्रता हैं
ये आँखें ही अमर सपनों की हक़ीक़त और
हक़ीक़त का अमर सपना हैं
इनको देख पाना ही अपने आपको देख पाना है, समझ
पाना है।
हम मनाते हैं कि हमारे नेता इनको देख रहे हों।

बात बोलेगी

बात बोलेगी,
हम नहीं।
भेद खोलेगी
बात ही।

सत्य का मुख
झूठ की आँखें
क्या-देखें!

सत्य का रूख़
समय का रूख़ हैः
अभय जनता को
सत्य ही सुख है
सत्य ही सुख।

दैन्य दानव; काल
भीषण; क्रूर
स्थिति; कंगाल
बुद्धि; घर मजूर।

सत्य का
क्या रंग है?-
पूछो
एक संग।
एक-जनता का
दुःख : एक।
हवा में उड़ती पताकाएँ
अनेक।

दैन्य दानव। क्रूर स्थिति।
कंगाल बुद्धि : मजूर घर भर।
एक जनता का – अमर वर :
एकता का स्वर।

निराला के प्रति

भूलकर जब राह- जब-जब राह…भटका मैं
तुम्हीं झलके, हे महाकवि,
सघन तम की आंख बन मेरे लिए,
अकल क्रोधित प्रकृति का विश्वास बन मेरे लिये-
जगत के उन्माद का
परिचय लिए,-
और आगत-प्राण का संचय लिए, झलके प्रमन तुम,
हे महाकवि! सहजतम लघु एक जीवन में
अखिल का परिणय लिए-
प्राणमय संचार करते शक्ति औ’ छवि के मिलन का हास मंगलमय;
मधुर आठों याम
विसुध खुलते
कंठस्वर में तुम्हारे, कवि,
एक ऋतुओं के विहंसते सूर्य!
काल में (तम घोर)-
बरसाते प्रवाहित रस अथोर अथाह!
छू, किया करते
आधुनिकतम दाह मानव का
साधना स्वर से
शांत-शीतलतम ।

हाँ, तुम्हीं हो, एक मेरे कवि :
जानता क्या मैं-
हृदय में भरकर तुम्हारी साँस-
किस तरह गाता,
(ओ विभूति परंपरा की!)
समझ भी पाता तुम्हें यदि मैं कि जितना चाहता हूँ,
महाकवि मेरे !


(1939 में विरचित,’कुछ कविताएँ’ नामक कविता-संग्रह से)

राग

1
मैंने शाम से पूछा –
             या शाम ने मुझसे पूछा :
                  इन बातों का मतलब?
मैंने कहा –
शाम ने मुझसे कहा :
              राग अपना है।
 

2
आँखें मुँद गयीं।
सरलता का आकाश था
जैसे त्रिलोचन की रचनाएँ।
नींद ही इच्‍छाएँ।
 

3
मैने उससे पूछा –
उसने मुझसे :
            कब?
मैंने कहा –
उसने मुझसे कहा :
            समय अपना राग है।

4
तुमने ‘धरती’ का पद्य पढ़ा है?
उसकी सहजता प्राण है।
तुमने अपनी यादों की पुस्‍तक खोली है?
जब यादें मिटती हुई एकाएक स्‍पष्‍ट हो गयी हों?
जब आँसू छलक न जाकर
आकाश का फूल बन गया हो?
– वह मेरी कविताओं-सा मुझे लगेगा :
तब तुम मुझे क्‍या कहोगे?
 

5
उसने मुझसे पूछा, तुम्‍हारी कविताओं का क्‍या मतलब है?
मैंने कहा – कुछ नहीं।
उसने पूछा – फिर तुम इन्‍हें क्‍यों लिखते हो?
मैंने कहा – ये लिख जाती हैं। तब
इनकी रक्षा कैसे हो जाती है?
                    उसने क्‍यों यह प्रश्‍न किया?
 

मैंने पूछा :
मेरी रक्षा कहाँ होती है? मेरी साँस तो –
तुम्‍हारी कविताएँ हैं : उसने कहा। पर –
 

इन साँसों की रक्षा कैसे होती आई?
वे साँसों में बँध गये; शायद ऐसी ही रक्षा
          होती आई। फिर बहुत-से गीत
          खो गये।
 

6
वह अनायास मेरा पद गुनगुनाता हुआ बैठा
         रहा, और मैंने उसकी ओर
         देखा, और मैं समझ गया।
और यह संग्रह उसी के हाथों में खो गया।
 

7
उसने मुझसे पूछा, इन शब्‍दों का क्‍या
     मतलब है? मैंने कहा : शब्‍द
     कहाँ है? वह मौन मेरी ओर
     देखता चुप रहा। फिर मैंने
     श्रम-पूर्वक बोलते हुए कहा – कि :
     शाम हो गयी है। उसने मेरी
     आँखों में देखा, और फिर – एकटक देखता
     ही रहा। क्‍यों फिर उसने मेरा संग्रह
     अपनी धुँधली गोद में खोला और
     मुझसे कुछ भी पूछना भूल गया।
     मुझको भी नहीं मालूम, कौन था
     वह। केवल वह मुझे याद है।
 

8
तब छंदों के तार खिंचे-खिंचे थे,
राग बँधा-बँधा था,
प्‍यास उँगलियों में विकल थी –
कि मेघ गरजे;
और मोर दूर और कई दिशाओं से
बोलने लगे – पीयूअ! पीयूअ! उनकी
हीरे-नीलम की गर्दनें बिजलियों की तरह
हरियाली के आगे चमक रही थीं।
कहीं छिपा हुआ बहता पानी
बोल रहा था : अपने स्‍पष्‍टमधुर
प्रवाहित बोल।
[1945

एक नीला आईना बेठोस / 

एक नीला आईना
बेठोस-सी यह चाँदनी
और अंदर चल रहा हूँ मैं
उसी के महातल के मौन में ।
मौन में इतिहास का
कन किरन जीवित, एक, बस ।
एक पल की ओट में है कुल जहान ।
आत्मा है
अखिल की हठ-सी ।
चाँदनी में घुल गए हैं
बहुत-से तारे, बहुत कुछ
घुल गया हूँ मैं
बहुत कुछ अब ।
रह गया-सा एक सीधा बिंब
चल रहा है जो
शांत इंगित-सा
न जाने किधर ।

एक नीला आईना बेठोस

एक नीला आईना
बेठोस-सी यह चाँदनी
और अंदर चल रहा हूँ मैं
उसी के महातल के मौन में ।
मौन में इतिहास का
कन किरन जीवित, एक, बस ।
एक पल की ओट में है कुल जहान ।
आत्मा है
अखिल की हठ-सी ।
चाँदनी में घुल गए हैं
बहुत-से तारे, बहुत कुछ
घुल गया हूँ मैं
बहुत कुछ अब ।
रह गया-सा एक सीधा बिंब
चल रहा है जो
शांत इंगित-सा
न जाने किधर ।

पूर्णिमा का चाँद

 

चाँद निकला बादलों से पूर्णिमा का।
        गल रहा है आसमान।
एक दरिया उबलकर पीले गुलाबों का
        चूमता है बादलों के झिलमिलाते
        स्वप्न जैसे पाँव।

उषा

प्रात नभ था बहुत नीला शंख जैसे

भोर का नभ

राख से लीपा हुआ चौका
(अभी गीला पड़ा है)

बहुत काली सिल जरा-से लाल केशर से
कि धुल गयी हो

स्लेट पर या लाल खड़िया चाक
        मल दी हो किसी ने

नील जल में या किसी की
        गौर झिलमिल देह
जैसे हिल रही हो ।

और…
        जादू टूटता है इस उषा का अब
सूर्योदय हो रहा है।


(कविता-संग्रह, “टूटी हुई बिखरी हुई” से)

लेकर सीधा नारा

लेकर सीधा नारा

कौन पुकारा

अंतिम आशाओं की संध्याओं से ?

पलकें डूबी ही-सी थीं —

पर अभी नहीं;

कोई सुनता-सा था मुझे

कहीं;

फिर किसने यह, सातों सागर के पार

एकाकीपन से ही, मानो-हार,

एकाकी उठ मुझे पुकारा

कई बार ?

मैं समाज तो नहीं; न मैं कुल

जीवन;

कण-समूह में हूँ मैं केवल

एक कण ।

–कौन सहारा !

मेरा कौन सहारा !

रेडियो पर एक योरपीय संगीत सुनकर /

मैं
सुनूँगा तेरी आवाज
पैरती बर्फ की सतह में तीर-सी
            शबनम की रातों में
                  तारों की टूटती
                         गर्म
                         गर्म
                              शमशीर-सी –
            तेरी आवाज
                   खाबों में घूमती-झूमती
                          आहों की एक तसवीर सी
                   सुनूँगा : मेरी-तेरी है वह
                          खोई हुई
                          रोई हुई
                               एक तकदीर-सी
परदों में – जल के – शान्त
      झिलमिल
      झिलमिल
             कमलदल।
 
रात की हँसी है तेरे गले में,
                  सीने में,
            बहुत काली सुर्मयी पलकों में,
            साँसों में, लहरीली अलकों में :
                        आयी तू, ओ किसकी!
                        फिर मुसकरायी तू
            नींद में – खामोश… वस्‍ल।
 
शुरू है आखिरी पीर।
 
सलाम!…
मेरे दर्द से हमकलाम
            न हो!
       जा, अब सो,
            न रो।
तू मेरी बेबस बाँहों पर, सर रख कर, ओह,
           न रो !

     जो कुछ है
     जो कुछ है
          खो!
          खो!
          खो!
ओ शीरीं! ओ लैला! ओ हीर!
          – जा!
          – जा!
          – जा! – सो!…

× ×

बेखबर मैं,
बाखबर आधी-सी रात।
बेखबर सपने हैं।
बाखबर है एक, बस, उसकी जात!
       तू मेरी!…
       आमीन!
       आमीन!
       आमीन!

एक पीली शाम

 

एक पीली शाम
      पतझर का जरा अटका हुआ पत्ता
शान्त
मेरी भावनाओं में तुम्‍हारा मुखकमल
कृश म्‍लान हारा-सा
     (कि मैं हूँ वह
मौन दर्पण में तुम्‍हारे कहीं?)

     वासना डूबी
     शिथिल पल में
     स्‍नेह काजल में
     लिये अद्भुत रूप-कोमलता

अब गिरा अब गिरा वह अटका हुआ आँसू
सान्‍ध्‍य तारक-सा
      अतल में।

[1953]

अंतिम विनिमय

हृदय का परिवार काँपा अकस्मात ।

भावनाओं में हुआ भूडोल-सा ।

पूछता है मौन का एकांत हाथ

वक्ष छू, यह प्रश्न कैसा गोल-सा:

प्रात-रव है दूर जो “हरि बोल!”-सा,

पार, सपना है–कि धारा है–कि रात ?

कुहा में कुछ सर झुकाए, साथ-साथ,

जा रहा परछाइयों का गोल-सा ।

प्राण का है मृत्यु से कुछ मोल-सा;

सत्य की है एक बोली, एक बात ।

( १९४५ में लिखित )

शाम होने को हुई

शाम होने को हुई, लौटे किसान
दूर पेड़ों में बढ़ा खग-रव।
धूल में लिपटा हुआ है आसमान :
शाम होने को हुई, नीरव।
 
तू न चेता। काम से थक कर
फटे-मैले वस्‍त्र में कमकर
लौट आये खोलियों में मौन।
चेतने वाला न तू – है कौन?
 
शाम; हम-तुम, और बाबू लोग,
लड़कियाँ चंचल, निठल्‍ले युवक,
स्‍फूर्त-मन सब सिनेमा की ओर
चले : जाने कौन-सी है ललक।
 
घुमड़ते-घुटते हृदय के भाव
चित्रपट पर नग्‍न आते बिखर :
आर्थिक वास्‍तविकता का दाँव
भूल, हम छूते अपार्थिव शिखर।
 
हाय कर उठते हमारे नयन;
होंट सी लेते दबा अफसोस :
माँगता उर-भार अन्तिम शयन …
चाँदनी सित वक्ष कोमल ओस।
 
दूर की मर्मर-मिली नीहार,
दूर की नीहार मालाएँ;
निकट, तम-विक्षिप्‍त सागर-फेन।
एक ही आह्वान : आ जाएँ!
आज आ जाएँ हमारे ऐन!
 
भूल के मंदिर सुघर बहुमूल्‍य
हृदय को विश्‍वास देते दान :
प्राप्‍य श्‍लाघा से अयाचित मान;
स्‍वप्‍न भावी, द्रव्‍य से अनुकूल।
 
दीन का व्‍यापार श्‍लाघामय!
… …
छिन्‍न-दल कर कागजी विस्‍मय
सत्‍य के बल शूल हूलूँ मैं!
– शाम निर्धन की न भूलूँ मैं!

रात हो आयी; चमक उट्ठे कई
बल्ब; ऊपर अग्रहायण, दूर –
नभ में। दूर तक उट्ठे अधीर
भाव …कैसे सहज, कैसे क्रूर!
[1945]

कठिन प्रस्तर में 

कठिन प्रस्‍तर में अगिन सूराख।
मौन पर्तों में हिला मैं कीट।
(ढीठ कितनी रीढ़ है तन की –
                  तनी है!)
 

आत्‍मा है भाव :
भाव-दीठ
      झुक रही है
अगम अंतर में
      अनगिनत सूराख-सी करती।

अम्न का राग / भाग 1 

सच्चाइयाँ
जो गंगा के गोमुख से मोती की तरह बिखरती रहती हैं
हिमालय की बर्फ़ीली चोटी पर चाँदी के उन्मुक्त नाचते
परों में झिलमिलाती रहती हैं
जो एक हज़ार रंगों के मोतियों का खिलखिलाता समन्दर है
उमंगों से भरी फूलों की जवान कश्तियाँ
कि बसंत के नए प्रभात सागर में छोड़ दी गई हैं।

ये पूरब-पश्चिम मेरी आत्मा के ताने-बाने हैं
मैंने एशिया की सतरंगी किरनों को अपनी दिशाओं के गिर्द

लपेट लिया
और मैं यूरोप और अमरीका की नर्म आँच की धूप-छाँव पर

बहुत हौले-हौले से नाच रहा हूँ
सब संस्कृतियाँ मेरे संगम में विभोर हैं
क्योंकि मैं हृदय की सच्ची सुख-शांति का राग हूँ
बहुत आदिम, बहुत अभिनव।

हम एक साथ उषा के मधुर अधर बन उठे
सुलग उठे हैं
सब एक साथ ढाई अरब धड़कनों में बज उठे हैं
सिम्फोनिक आनंद की तरह
यह हमारी गाती हुई एकता
संसार के पंच परमेश्वर का मुकुट पहन
अमरता के सिंहासन पर आज हमारा अखिल लोकप्रेसिडेंट

बन उठी है

 

अम्न का राग / भाग 2 

देखो न हक़ीक़त हमारे समय की जिसमें
होमर एक हिन्दी कवि सरदार जाफ़री को
इशारे से अपने क़रीब बुला रहा है
कि जिसमें
फ़ैयाज़ खाँ बिटाफ़ेन के कान में कुछ कह रहा है
मैंने समझा कि संगीत की कोई अमर लता हिल उठी
मैं शेक्सपियर का ऊँचा माथा उज्जैन की घाटियों में
झलकता हुआ देख रहा हूँ
और कालिदास को वैमर कुंजों में विहार करते
और आज तो मेरा टैगोर मेरा हाफ़िज़ मेरा तुलसी मेरा
ग़ालिब
एक-एक मेरे दिल के जगमग पावर हाउस का
कुशल आपरेटर है।

आज सब तुम्हारे ही लिए शांति का युग चाहते हैं
मेरी कुटुबुटु
तुम्हारे ही लिए मेरे प्रतिभाशाली भाई तेजबहादुर
मेरे गुलाब की कलियों से हँसते-खेलते बच्चों
तुम्हारे ही लिए, तुम्हारे ही लिए
मेरे दोस्तों, जिनमें ज़िन्दगी में मानी पैदा होते हैं
और उस निश्छल प्रेम के लिए
जो माँ की मूर्ति है
और उस अमर परमशक्ति के लिए जो पिता का रूप है।

अम्न का राग / भाग 3

हर घर में सुख
शांति का युग
हर छोटा-बड़ा हर नया पुराना आज-कल-परसों के
आगे और पीछे का युग
शांति की स्निग्ध कला में डूबा हुआ
क्योंकि इसी कला का नाम भरी-पूरी गति है।

मुझे अमरीका का लिबर्टी स्टैचू उतना ही प्यारा है
जितना मास्को का लाल तारा
और मेरे दिल में पीकिंग का स्वर्गीय महल
मक्का-मदीना से कम पवित्र नहीं
मैं काशी में उन आर्यों का शंख-नाद सुनता हूँ
जो वोल्गा से आए
मेरी देहली में प्रह्लाद की तपस्याएँ दोनों दुनियाओं की
चौखट पर
युद्ध के हिरण्यकश्य को चीर रही हैं।

यह कौन मेरी धरती की शांति की आत्मा पर कुरबान हो
गया है
अभी सत्य की खोज तो बाकी ही थी
यह एक विशाल अनुभव की चीनी दीवार
उठती ही बढ़ती आ रही है
उसकी ईंटें धड़कते हुए सुर्ख दिल हैं
यह सच्चाइयाँ बहुत गहरी नींवों में जाग रही हैं
वह इतिहास की अनुभूतियाँ हैं
मैंने सोवियत यूसुफ़ के सीने पर कान रखकर सुना है।

अम्न का राग / भाग 4

आज मैंने गोर्की को होरी के आँगन में देखा
और ताज के साए में राजर्षि कुंग को पाया
लिंकन के हाथ में हाथ दिए हुए
और ताल्स्ताय मेरे देहाती यूपियन होंठों से बोल उठा
और अरागों की आँखों में नया इतिहास
मेरे दिल की कहानी की सुर्खी बन गया
मैं जोश की वह मस्ती हूँ जो नेरूदा की भवों से
जाम की तरह टकराती है
वह मेरा नेरुदा जो दुनिया के शांति पोस्ट आफ़िस का
प्यारा और सच्चा क़ासिद
वह मेरा जोश कि दुनिया का मस्त आशिक़
मैं पंत के कुमार छायावादी सावन-भादों की चोट हूँ
हिलोर लेते वर्ष पर
मैं निराला के राम का एक आँसू
जो तीसरे महायुद्ध के कठिन लौह पर्दों को
एटमी सुई-सा पार कर गया पाताल तक
और वहीं उसको रोक दिया
मैं सिर्फ एक महान विजय का इंदीवर जनता की आँख में
जो शांति की पवित्रतम आत्मा है।

पश्चिम मे काले और सफ़ेद फूल हैं और पूरब में पीले और लाल
उत्तर में नीले कई रंग के और हमारे यहाँ चम्पई-साँवले
औऱ दुनिया में हरियाली कहाँ नहीं
जहाँ भी आसमान बादलों से ज़रा भी पोंछे जाते हों
और आज गुलदस्तों मे रंग-रंग के फूल सजे हुए हैं
और आसमान इन खुशियों का आईना है।

अम्न का राग / भाग 5 

आज न्यूयार्क के स्काईस्क्रेपरों पर
शांति से ‘डवों’ और उसके राजहंसों ने
एक मीठे उजले सुख का हल्का-सा अंधेरा
और शोर पैदा कर दिया है।
और अब वो अर्जेन्टीना की सिम्त अतलांतिक को पार कर
रहे हैं
पाल राब्सन ने नई दिल्ली से नए अमरीका की
एक विशाल सिम्फ़नी ब्राडकास्ट की है
औऱ उदयशंकर ने दक्षिणी अफ़्रीका में नई अजंता को
स्टेज पर उतारा है
यह महान नृत्य वह महान स्वर कला और संगीत
मेरा है यानी हर अदना से अदना इंसान का
बिल्कुल अपना निजी।
युद्ध के नक़्शों की कैंची से काटकर कोरियाई बच्चों ने
झिलमिली फूलपत्तों की रौशन फ़ानूसें बना ली हैं
और हथियारों का स्टील और लोहा हज़ारों
देशों को एक-दूसरे से मिलानेवाली रेलों के जाल में बिछ
गया है
और ये बच्चे उन पर दौड़ती हुई रेलों के डिब्बों की
खिड़कियों से
हमारी ओर झाँक रहे हैं
यह फ़ौलाद और लोहा खिलौनों मिठाइयों और किताबों
से लदे स्टीमरों के रूप में
नदियों की सार्थक सजावट बन गया है
या विशाल ट्रैक्टर-कंबाइन और फ़ैक्टरी-मशीनों के
हृदय में
नवीन छंद और लय का प्रयोग कह रहा है।

अम्न का राग / भाग 6

यह सुख का भविष्य शांति की आँखों में ही वर्तमान है
इन आँखों से हम सब अपनी उम्मीदों की आँखें सेंक
रहे हैं
ये आँखें हमारे दिल में रौशन और हमारी पूजा का
फूल हैं
ये आँखें हमारे कानून का सही चमकता हुआ मतलब
और हमारे अधिकारों की ज्योति से भरी शक्ति हैं
ये आँखें हमारे माता-पिता की आत्मा और हमारे बच्चों
का दिल है
ये आँखें हमारे इतिहास की वाणी
और हमारी कला का सच्चा सपना हैं
ये आँखें हमारा अपना नूर और पवित्रता हैं
ये आँखें ही अमर सपनों की हक़ीक़त और
हक़ीक़त का अमर सपना हैं
इनको देख पाना ही अपने आपको देख पाना है, समझ
पाना है।
हम मनाते हैं कि हमारे नेता इनको देख रहे हों।

बात बोलेगी

बात बोलेगी,
हम नहीं।
भेद खोलेगी
बात ही।

सत्य का मुख
झूठ की आँखें
क्या-देखें!

सत्य का रूख़
समय का रूख़ हैः
अभय जनता को
सत्य ही सुख है
सत्य ही सुख।

दैन्य दानव; काल
भीषण; क्रूर
स्थिति; कंगाल
बुद्धि; घर मजूर।

सत्य का
क्या रंग है?-
पूछो
एक संग।
एक-जनता का
दुःख : एक।
हवा में उड़ती पताकाएँ
अनेक।

दैन्य दानव। क्रूर स्थिति।
कंगाल बुद्धि : मजूर घर भर।
एक जनता का – अमर वर :
एकता का स्वर।

निराला के प्रति

भूलकर जब राह- जब-जब राह…भटका मैं
तुम्हीं झलके, हे महाकवि,
सघन तम की आंख बन मेरे लिए,
अकल क्रोधित प्रकृति का विश्वास बन मेरे लिये-
जगत के उन्माद का
परिचय लिए,-
और आगत-प्राण का संचय लिए, झलके प्रमन तुम,
हे महाकवि! सहजतम लघु एक जीवन में
अखिल का परिणय लिए-
प्राणमय संचार करते शक्ति औ’ छवि के मिलन का हास मंगलमय;
मधुर आठों याम
विसुध खुलते
कंठस्वर में तुम्हारे, कवि,
एक ऋतुओं के विहंसते सूर्य!
काल में (तम घोर)-
बरसाते प्रवाहित रस अथोर अथाह!
छू, किया करते
आधुनिकतम दाह मानव का
साधना स्वर से
शांत-शीतलतम ।

हाँ, तुम्हीं हो, एक मेरे कवि :
जानता क्या मैं-
हृदय में भरकर तुम्हारी साँस-
किस तरह गाता,
(ओ विभूति परंपरा की!)
समझ भी पाता तुम्हें यदि मैं कि जितना चाहता हूँ,
महाकवि मेरे !


(1939 में विरचित,’कुछ कविताएँ’ नामक कविता-संग्रह से)

राग

1
मैंने शाम से पूछा –
             या शाम ने मुझसे पूछा :
                  इन बातों का मतलब?
मैंने कहा –
शाम ने मुझसे कहा :
              राग अपना है।
 

2
आँखें मुँद गयीं।
सरलता का आकाश था
जैसे त्रिलोचन की रचनाएँ।
नींद ही इच्‍छाएँ।
 

3
मैने उससे पूछा –
उसने मुझसे :
            कब?
मैंने कहा –
उसने मुझसे कहा :
            समय अपना राग है।

4
तुमने ‘धरती’ का पद्य पढ़ा है?
उसकी सहजता प्राण है।
तुमने अपनी यादों की पुस्‍तक खोली है?
जब यादें मिटती हुई एकाएक स्‍पष्‍ट हो गयी हों?
जब आँसू छलक न जाकर
आकाश का फूल बन गया हो?
– वह मेरी कविताओं-सा मुझे लगेगा :
तब तुम मुझे क्‍या कहोगे?
 

5
उसने मुझसे पूछा, तुम्‍हारी कविताओं का क्‍या मतलब है?
मैंने कहा – कुछ नहीं।
उसने पूछा – फिर तुम इन्‍हें क्‍यों लिखते हो?
मैंने कहा – ये लिख जाती हैं। तब
इनकी रक्षा कैसे हो जाती है?
                    उसने क्‍यों यह प्रश्‍न किया?
 

मैंने पूछा :
मेरी रक्षा कहाँ होती है? मेरी साँस तो –
तुम्‍हारी कविताएँ हैं : उसने कहा। पर –
 

इन साँसों की रक्षा कैसे होती आई?
वे साँसों में बँध गये; शायद ऐसी ही रक्षा
          होती आई। फिर बहुत-से गीत
          खो गये।
 

6
वह अनायास मेरा पद गुनगुनाता हुआ बैठा
         रहा, और मैंने उसकी ओर
         देखा, और मैं समझ गया।
और यह संग्रह उसी के हाथों में खो गया।
 

7
उसने मुझसे पूछा, इन शब्‍दों का क्‍या
     मतलब है? मैंने कहा : शब्‍द
     कहाँ है? वह मौन मेरी ओर
     देखता चुप रहा। फिर मैंने
     श्रम-पूर्वक बोलते हुए कहा – कि :
     शाम हो गयी है। उसने मेरी
     आँखों में देखा, और फिर – एकटक देखता
     ही रहा। क्‍यों फिर उसने मेरा संग्रह
     अपनी धुँधली गोद में खोला और
     मुझसे कुछ भी पूछना भूल गया।
     मुझको भी नहीं मालूम, कौन था
     वह। केवल वह मुझे याद है।
 

8
तब छंदों के तार खिंचे-खिंचे थे,
राग बँधा-बँधा था,
प्‍यास उँगलियों में विकल थी –
कि मेघ गरजे;
और मोर दूर और कई दिशाओं से
बोलने लगे – पीयूअ! पीयूअ! उनकी
हीरे-नीलम की गर्दनें बिजलियों की तरह
हरियाली के आगे चमक रही थीं।
कहीं छिपा हुआ बहता पानी
बोल रहा था : अपने स्‍पष्‍टमधुर
प्रवाहित बोल।
[1945

एक नीला आईना बेठोस / 

एक नीला आईना
बेठोस-सी यह चाँदनी
और अंदर चल रहा हूँ मैं
उसी के महातल के मौन में ।
मौन में इतिहास का
कन किरन जीवित, एक, बस ।
एक पल की ओट में है कुल जहान ।
आत्मा है
अखिल की हठ-सी ।
चाँदनी में घुल गए हैं
बहुत-से तारे, बहुत कुछ
घुल गया हूँ मैं
बहुत कुछ अब ।
रह गया-सा एक सीधा बिंब
चल रहा है जो
शांत इंगित-सा
न जाने किधर ।

एक नीला आईना बेठोस

एक नीला आईना
बेठोस-सी यह चाँदनी
और अंदर चल रहा हूँ मैं
उसी के महातल के मौन में ।
मौन में इतिहास का
कन किरन जीवित, एक, बस ।
एक पल की ओट में है कुल जहान ।
आत्मा है
अखिल की हठ-सी ।
चाँदनी में घुल गए हैं
बहुत-से तारे, बहुत कुछ
घुल गया हूँ मैं
बहुत कुछ अब ।
रह गया-सा एक सीधा बिंब
चल रहा है जो
शांत इंगित-सा
न जाने किधर ।

पूर्णिमा का चाँद

 

चाँद निकला बादलों से पूर्णिमा का।
        गल रहा है आसमान।
एक दरिया उबलकर पीले गुलाबों का
        चूमता है बादलों के झिलमिलाते
        स्वप्न जैसे पाँव।

उषा

प्रात नभ था बहुत नीला शंख जैसे

भोर का नभ

राख से लीपा हुआ चौका
(अभी गीला पड़ा है)

बहुत काली सिल जरा-से लाल केशर से
कि धुल गयी हो

स्लेट पर या लाल खड़िया चाक
        मल दी हो किसी ने

नील जल में या किसी की
        गौर झिलमिल देह
जैसे हिल रही हो ।

और…
        जादू टूटता है इस उषा का अब
सूर्योदय हो रहा है।


(कविता-संग्रह, “टूटी हुई बिखरी हुई” से)

लेकर सीधा नारा

लेकर सीधा नारा

कौन पुकारा

अंतिम आशाओं की संध्याओं से ?

पलकें डूबी ही-सी थीं —

पर अभी नहीं;

कोई सुनता-सा था मुझे

कहीं;

फिर किसने यह, सातों सागर के पार

एकाकीपन से ही, मानो-हार,

एकाकी उठ मुझे पुकारा

कई बार ?

मैं समाज तो नहीं; न मैं कुल

जीवन;

कण-समूह में हूँ मैं केवल

एक कण ।

–कौन सहारा !

मेरा कौन सहारा !

रेडियो पर एक योरपीय संगीत सुनकर /

मैं
सुनूँगा तेरी आवाज
पैरती बर्फ की सतह में तीर-सी
            शबनम की रातों में
                  तारों की टूटती
                         गर्म
                         गर्म
                              शमशीर-सी –
            तेरी आवाज
                   खाबों में घूमती-झूमती
                          आहों की एक तसवीर सी
                   सुनूँगा : मेरी-तेरी है वह
                          खोई हुई
                          रोई हुई
                               एक तकदीर-सी
परदों में – जल के – शान्त
      झिलमिल
      झिलमिल
             कमलदल।
 
रात की हँसी है तेरे गले में,
                  सीने में,
            बहुत काली सुर्मयी पलकों में,
            साँसों में, लहरीली अलकों में :
                        आयी तू, ओ किसकी!
                        फिर मुसकरायी तू
            नींद में – खामोश… वस्‍ल।
 
शुरू है आखिरी पीर।
 
सलाम!…
मेरे दर्द से हमकलाम
            न हो!
       जा, अब सो,
            न रो।
तू मेरी बेबस बाँहों पर, सर रख कर, ओह,
           न रो !

     जो कुछ है
     जो कुछ है
          खो!
          खो!
          खो!
ओ शीरीं! ओ लैला! ओ हीर!
          – जा!
          – जा!
          – जा! – सो!…

× ×

बेखबर मैं,
बाखबर आधी-सी रात।
बेखबर सपने हैं।
बाखबर है एक, बस, उसकी जात!
       तू मेरी!…
       आमीन!
       आमीन!
       आमीन!

एक पीली शाम

 

एक पीली शाम
      पतझर का जरा अटका हुआ पत्ता
शान्त
मेरी भावनाओं में तुम्‍हारा मुखकमल
कृश म्‍लान हारा-सा
     (कि मैं हूँ वह
मौन दर्पण में तुम्‍हारे कहीं?)

     वासना डूबी
     शिथिल पल में
     स्‍नेह काजल में
     लिये अद्भुत रूप-कोमलता

अब गिरा अब गिरा वह अटका हुआ आँसू
सान्‍ध्‍य तारक-सा
      अतल में।

[1953]

अंतिम विनिमय

हृदय का परिवार काँपा अकस्मात ।

भावनाओं में हुआ भूडोल-सा ।

पूछता है मौन का एकांत हाथ

वक्ष छू, यह प्रश्न कैसा गोल-सा:

प्रात-रव है दूर जो “हरि बोल!”-सा,

पार, सपना है–कि धारा है–कि रात ?

कुहा में कुछ सर झुकाए, साथ-साथ,

जा रहा परछाइयों का गोल-सा ।

प्राण का है मृत्यु से कुछ मोल-सा;

सत्य की है एक बोली, एक बात ।

( १९४५ में लिखित )

शाम होने को हुई

शाम होने को हुई, लौटे किसान
दूर पेड़ों में बढ़ा खग-रव।
धूल में लिपटा हुआ है आसमान :
शाम होने को हुई, नीरव।
 
तू न चेता। काम से थक कर
फटे-मैले वस्‍त्र में कमकर
लौट आये खोलियों में मौन।
चेतने वाला न तू – है कौन?
 
शाम; हम-तुम, और बाबू लोग,
लड़कियाँ चंचल, निठल्‍ले युवक,
स्‍फूर्त-मन सब सिनेमा की ओर
चले : जाने कौन-सी है ललक।
 
घुमड़ते-घुटते हृदय के भाव
चित्रपट पर नग्‍न आते बिखर :
आर्थिक वास्‍तविकता का दाँव
भूल, हम छूते अपार्थिव शिखर।
 
हाय कर उठते हमारे नयन;
होंट सी लेते दबा अफसोस :
माँगता उर-भार अन्तिम शयन …
चाँदनी सित वक्ष कोमल ओस।
 
दूर की मर्मर-मिली नीहार,
दूर की नीहार मालाएँ;
निकट, तम-विक्षिप्‍त सागर-फेन।
एक ही आह्वान : आ जाएँ!
आज आ जाएँ हमारे ऐन!
 
भूल के मंदिर सुघर बहुमूल्‍य
हृदय को विश्‍वास देते दान :
प्राप्‍य श्‍लाघा से अयाचित मान;
स्‍वप्‍न भावी, द्रव्‍य से अनुकूल।
 
दीन का व्‍यापार श्‍लाघामय!
… …
छिन्‍न-दल कर कागजी विस्‍मय
सत्‍य के बल शूल हूलूँ मैं!
– शाम निर्धन की न भूलूँ मैं!

रात हो आयी; चमक उट्ठे कई
बल्ब; ऊपर अग्रहायण, दूर –
नभ में। दूर तक उट्ठे अधीर
भाव …कैसे सहज, कैसे क्रूर!
[1945]

कठिन प्रस्तर में 

कठिन प्रस्‍तर में अगिन सूराख।
मौन पर्तों में हिला मैं कीट।
(ढीठ कितनी रीढ़ है तन की –
                  तनी है!)
 

आत्‍मा है भाव :
भाव-दीठ
      झुक रही है
अगम अंतर में
      अनगिनत सूराख-सी करती।

अम्न का राग / भाग 1 

सच्चाइयाँ
जो गंगा के गोमुख से मोती की तरह बिखरती रहती हैं
हिमालय की बर्फ़ीली चोटी पर चाँदी के उन्मुक्त नाचते
परों में झिलमिलाती रहती हैं
जो एक हज़ार रंगों के मोतियों का खिलखिलाता समन्दर है
उमंगों से भरी फूलों की जवान कश्तियाँ
कि बसंत के नए प्रभात सागर में छोड़ दी गई हैं।

ये पूरब-पश्चिम मेरी आत्मा के ताने-बाने हैं
मैंने एशिया की सतरंगी किरनों को अपनी दिशाओं के गिर्द

लपेट लिया
और मैं यूरोप और अमरीका की नर्म आँच की धूप-छाँव पर

बहुत हौले-हौले से नाच रहा हूँ
सब संस्कृतियाँ मेरे संगम में विभोर हैं
क्योंकि मैं हृदय की सच्ची सुख-शांति का राग हूँ
बहुत आदिम, बहुत अभिनव।

हम एक साथ उषा के मधुर अधर बन उठे
सुलग उठे हैं
सब एक साथ ढाई अरब धड़कनों में बज उठे हैं
सिम्फोनिक आनंद की तरह
यह हमारी गाती हुई एकता
संसार के पंच परमेश्वर का मुकुट पहन
अमरता के सिंहासन पर आज हमारा अखिल लोकप्रेसिडेंट

बन उठी है

 

अम्न का राग / भाग 2 

देखो न हक़ीक़त हमारे समय की जिसमें
होमर एक हिन्दी कवि सरदार जाफ़री को
इशारे से अपने क़रीब बुला रहा है
कि जिसमें
फ़ैयाज़ खाँ बिटाफ़ेन के कान में कुछ कह रहा है
मैंने समझा कि संगीत की कोई अमर लता हिल उठी
मैं शेक्सपियर का ऊँचा माथा उज्जैन की घाटियों में
झलकता हुआ देख रहा हूँ
और कालिदास को वैमर कुंजों में विहार करते
और आज तो मेरा टैगोर मेरा हाफ़िज़ मेरा तुलसी मेरा
ग़ालिब
एक-एक मेरे दिल के जगमग पावर हाउस का
कुशल आपरेटर है।

आज सब तुम्हारे ही लिए शांति का युग चाहते हैं
मेरी कुटुबुटु
तुम्हारे ही लिए मेरे प्रतिभाशाली भाई तेजबहादुर
मेरे गुलाब की कलियों से हँसते-खेलते बच्चों
तुम्हारे ही लिए, तुम्हारे ही लिए
मेरे दोस्तों, जिनमें ज़िन्दगी में मानी पैदा होते हैं
और उस निश्छल प्रेम के लिए
जो माँ की मूर्ति है
और उस अमर परमशक्ति के लिए जो पिता का रूप है।

अम्न का राग / भाग 3

हर घर में सुख
शांति का युग
हर छोटा-बड़ा हर नया पुराना आज-कल-परसों के
आगे और पीछे का युग
शांति की स्निग्ध कला में डूबा हुआ
क्योंकि इसी कला का नाम भरी-पूरी गति है।

मुझे अमरीका का लिबर्टी स्टैचू उतना ही प्यारा है
जितना मास्को का लाल तारा
और मेरे दिल में पीकिंग का स्वर्गीय महल
मक्का-मदीना से कम पवित्र नहीं
मैं काशी में उन आर्यों का शंख-नाद सुनता हूँ
जो वोल्गा से आए
मेरी देहली में प्रह्लाद की तपस्याएँ दोनों दुनियाओं की
चौखट पर
युद्ध के हिरण्यकश्य को चीर रही हैं।

यह कौन मेरी धरती की शांति की आत्मा पर कुरबान हो
गया है
अभी सत्य की खोज तो बाकी ही थी
यह एक विशाल अनुभव की चीनी दीवार
उठती ही बढ़ती आ रही है
उसकी ईंटें धड़कते हुए सुर्ख दिल हैं
यह सच्चाइयाँ बहुत गहरी नींवों में जाग रही हैं
वह इतिहास की अनुभूतियाँ हैं
मैंने सोवियत यूसुफ़ के सीने पर कान रखकर सुना है।

अम्न का राग / भाग 4

आज मैंने गोर्की को होरी के आँगन में देखा
और ताज के साए में राजर्षि कुंग को पाया
लिंकन के हाथ में हाथ दिए हुए
और ताल्स्ताय मेरे देहाती यूपियन होंठों से बोल उठा
और अरागों की आँखों में नया इतिहास
मेरे दिल की कहानी की सुर्खी बन गया
मैं जोश की वह मस्ती हूँ जो नेरूदा की भवों से
जाम की तरह टकराती है
वह मेरा नेरुदा जो दुनिया के शांति पोस्ट आफ़िस का
प्यारा और सच्चा क़ासिद
वह मेरा जोश कि दुनिया का मस्त आशिक़
मैं पंत के कुमार छायावादी सावन-भादों की चोट हूँ
हिलोर लेते वर्ष पर
मैं निराला के राम का एक आँसू
जो तीसरे महायुद्ध के कठिन लौह पर्दों को
एटमी सुई-सा पार कर गया पाताल तक
और वहीं उसको रोक दिया
मैं सिर्फ एक महान विजय का इंदीवर जनता की आँख में
जो शांति की पवित्रतम आत्मा है।

पश्चिम मे काले और सफ़ेद फूल हैं और पूरब में पीले और लाल
उत्तर में नीले कई रंग के और हमारे यहाँ चम्पई-साँवले
औऱ दुनिया में हरियाली कहाँ नहीं
जहाँ भी आसमान बादलों से ज़रा भी पोंछे जाते हों
और आज गुलदस्तों मे रंग-रंग के फूल सजे हुए हैं
और आसमान इन खुशियों का आईना है।

अम्न का राग / भाग 5 

आज न्यूयार्क के स्काईस्क्रेपरों पर
शांति से ‘डवों’ और उसके राजहंसों ने
एक मीठे उजले सुख का हल्का-सा अंधेरा
और शोर पैदा कर दिया है।
और अब वो अर्जेन्टीना की सिम्त अतलांतिक को पार कर
रहे हैं
पाल राब्सन ने नई दिल्ली से नए अमरीका की
एक विशाल सिम्फ़नी ब्राडकास्ट की है
औऱ उदयशंकर ने दक्षिणी अफ़्रीका में नई अजंता को
स्टेज पर उतारा है
यह महान नृत्य वह महान स्वर कला और संगीत
मेरा है यानी हर अदना से अदना इंसान का
बिल्कुल अपना निजी।
युद्ध के नक़्शों की कैंची से काटकर कोरियाई बच्चों ने
झिलमिली फूलपत्तों की रौशन फ़ानूसें बना ली हैं
और हथियारों का स्टील और लोहा हज़ारों
देशों को एक-दूसरे से मिलानेवाली रेलों के जाल में बिछ
गया है
और ये बच्चे उन पर दौड़ती हुई रेलों के डिब्बों की
खिड़कियों से
हमारी ओर झाँक रहे हैं
यह फ़ौलाद और लोहा खिलौनों मिठाइयों और किताबों
से लदे स्टीमरों के रूप में
नदियों की सार्थक सजावट बन गया है
या विशाल ट्रैक्टर-कंबाइन और फ़ैक्टरी-मशीनों के
हृदय में
नवीन छंद और लय का प्रयोग कह रहा है।

अम्न का राग / भाग 6

यह सुख का भविष्य शांति की आँखों में ही वर्तमान है
इन आँखों से हम सब अपनी उम्मीदों की आँखें सेंक
रहे हैं
ये आँखें हमारे दिल में रौशन और हमारी पूजा का
फूल हैं
ये आँखें हमारे कानून का सही चमकता हुआ मतलब
और हमारे अधिकारों की ज्योति से भरी शक्ति हैं
ये आँखें हमारे माता-पिता की आत्मा और हमारे बच्चों
का दिल है
ये आँखें हमारे इतिहास की वाणी
और हमारी कला का सच्चा सपना हैं
ये आँखें हमारा अपना नूर और पवित्रता हैं
ये आँखें ही अमर सपनों की हक़ीक़त और
हक़ीक़त का अमर सपना हैं
इनको देख पाना ही अपने आपको देख पाना है, समझ
पाना है।
हम मनाते हैं कि हमारे नेता इनको देख रहे हों।

बात बोलेगी

बात बोलेगी,
हम नहीं।
भेद खोलेगी
बात ही।

सत्य का मुख
झूठ की आँखें
क्या-देखें!

सत्य का रूख़
समय का रूख़ हैः
अभय जनता को
सत्य ही सुख है
सत्य ही सुख।

दैन्य दानव; काल
भीषण; क्रूर
स्थिति; कंगाल
बुद्धि; घर मजूर।

सत्य का
क्या रंग है?-
पूछो
एक संग।
एक-जनता का
दुःख : एक।
हवा में उड़ती पताकाएँ
अनेक।

दैन्य दानव। क्रूर स्थिति।
कंगाल बुद्धि : मजूर घर भर।
एक जनता का – अमर वर :
एकता का स्वर।

निराला के प्रति

भूलकर जब राह- जब-जब राह…भटका मैं
तुम्हीं झलके, हे महाकवि,
सघन तम की आंख बन मेरे लिए,
अकल क्रोधित प्रकृति का विश्वास बन मेरे लिये-
जगत के उन्माद का
परिचय लिए,-
और आगत-प्राण का संचय लिए, झलके प्रमन तुम,
हे महाकवि! सहजतम लघु एक जीवन में
अखिल का परिणय लिए-
प्राणमय संचार करते शक्ति औ’ छवि के मिलन का हास मंगलमय;
मधुर आठों याम
विसुध खुलते
कंठस्वर में तुम्हारे, कवि,
एक ऋतुओं के विहंसते सूर्य!
काल में (तम घोर)-
बरसाते प्रवाहित रस अथोर अथाह!
छू, किया करते
आधुनिकतम दाह मानव का
साधना स्वर से
शांत-शीतलतम ।

हाँ, तुम्हीं हो, एक मेरे कवि :
जानता क्या मैं-
हृदय में भरकर तुम्हारी साँस-
किस तरह गाता,
(ओ विभूति परंपरा की!)
समझ भी पाता तुम्हें यदि मैं कि जितना चाहता हूँ,
महाकवि मेरे !


(1939 में विरचित,’कुछ कविताएँ’ नामक कविता-संग्रह से)

राग

1
मैंने शाम से पूछा –
             या शाम ने मुझसे पूछा :
                  इन बातों का मतलब?
मैंने कहा –
शाम ने मुझसे कहा :
              राग अपना है।
 

2
आँखें मुँद गयीं।
सरलता का आकाश था
जैसे त्रिलोचन की रचनाएँ।
नींद ही इच्‍छाएँ।
 

3
मैने उससे पूछा –
उसने मुझसे :
            कब?
मैंने कहा –
उसने मुझसे कहा :
            समय अपना राग है।

4
तुमने ‘धरती’ का पद्य पढ़ा है?
उसकी सहजता प्राण है।
तुमने अपनी यादों की पुस्‍तक खोली है?
जब यादें मिटती हुई एकाएक स्‍पष्‍ट हो गयी हों?
जब आँसू छलक न जाकर
आकाश का फूल बन गया हो?
– वह मेरी कविताओं-सा मुझे लगेगा :
तब तुम मुझे क्‍या कहोगे?
 

5
उसने मुझसे पूछा, तुम्‍हारी कविताओं का क्‍या मतलब है?
मैंने कहा – कुछ नहीं।
उसने पूछा – फिर तुम इन्‍हें क्‍यों लिखते हो?
मैंने कहा – ये लिख जाती हैं। तब
इनकी रक्षा कैसे हो जाती है?
                    उसने क्‍यों यह प्रश्‍न किया?
 

मैंने पूछा :
मेरी रक्षा कहाँ होती है? मेरी साँस तो –
तुम्‍हारी कविताएँ हैं : उसने कहा। पर –
 

इन साँसों की रक्षा कैसे होती आई?
वे साँसों में बँध गये; शायद ऐसी ही रक्षा
          होती आई। फिर बहुत-से गीत
          खो गये।
 

6
वह अनायास मेरा पद गुनगुनाता हुआ बैठा
         रहा, और मैंने उसकी ओर
         देखा, और मैं समझ गया।
और यह संग्रह उसी के हाथों में खो गया।
 

7
उसने मुझसे पूछा, इन शब्‍दों का क्‍या
     मतलब है? मैंने कहा : शब्‍द
     कहाँ है? वह मौन मेरी ओर
     देखता चुप रहा। फिर मैंने
     श्रम-पूर्वक बोलते हुए कहा – कि :
     शाम हो गयी है। उसने मेरी
     आँखों में देखा, और फिर – एकटक देखता
     ही रहा। क्‍यों फिर उसने मेरा संग्रह
     अपनी धुँधली गोद में खोला और
     मुझसे कुछ भी पूछना भूल गया।
     मुझको भी नहीं मालूम, कौन था
     वह। केवल वह मुझे याद है।
 

8
तब छंदों के तार खिंचे-खिंचे थे,
राग बँधा-बँधा था,
प्‍यास उँगलियों में विकल थी –
कि मेघ गरजे;
और मोर दूर और कई दिशाओं से
बोलने लगे – पीयूअ! पीयूअ! उनकी
हीरे-नीलम की गर्दनें बिजलियों की तरह
हरियाली के आगे चमक रही थीं।
कहीं छिपा हुआ बहता पानी
बोल रहा था : अपने स्‍पष्‍टमधुर
प्रवाहित बोल।
[1945

एक नीला आईना बेठोस / 

एक नीला आईना
बेठोस-सी यह चाँदनी
और अंदर चल रहा हूँ मैं
उसी के महातल के मौन में ।
मौन में इतिहास का
कन किरन जीवित, एक, बस ।
एक पल की ओट में है कुल जहान ।
आत्मा है
अखिल की हठ-सी ।
चाँदनी में घुल गए हैं
बहुत-से तारे, बहुत कुछ
घुल गया हूँ मैं
बहुत कुछ अब ।
रह गया-सा एक सीधा बिंब
चल रहा है जो
शांत इंगित-सा
न जाने किधर ।

एक नीला आईना बेठोस

एक नीला आईना
बेठोस-सी यह चाँदनी
और अंदर चल रहा हूँ मैं
उसी के महातल के मौन में ।
मौन में इतिहास का
कन किरन जीवित, एक, बस ।
एक पल की ओट में है कुल जहान ।
आत्मा है
अखिल की हठ-सी ।
चाँदनी में घुल गए हैं
बहुत-से तारे, बहुत कुछ
घुल गया हूँ मैं
बहुत कुछ अब ।
रह गया-सा एक सीधा बिंब
चल रहा है जो
शांत इंगित-सा
न जाने किधर ।

पूर्णिमा का चाँद

 

चाँद निकला बादलों से पूर्णिमा का।
        गल रहा है आसमान।
एक दरिया उबलकर पीले गुलाबों का
        चूमता है बादलों के झिलमिलाते
        स्वप्न जैसे पाँव।

उषा

प्रात नभ था बहुत नीला शंख जैसे

भोर का नभ

राख से लीपा हुआ चौका
(अभी गीला पड़ा है)

बहुत काली सिल जरा-से लाल केशर से
कि धुल गयी हो

स्लेट पर या लाल खड़िया चाक
        मल दी हो किसी ने

नील जल में या किसी की
        गौर झिलमिल देह
जैसे हिल रही हो ।

और…
        जादू टूटता है इस उषा का अब
सूर्योदय हो रहा है।


(कविता-संग्रह, “टूटी हुई बिखरी हुई” से)

लेकर सीधा नारा

लेकर सीधा नारा

कौन पुकारा

अंतिम आशाओं की संध्याओं से ?

पलकें डूबी ही-सी थीं —

पर अभी नहीं;

कोई सुनता-सा था मुझे

कहीं;

फिर किसने यह, सातों सागर के पार

एकाकीपन से ही, मानो-हार,

एकाकी उठ मुझे पुकारा

कई बार ?

मैं समाज तो नहीं; न मैं कुल

जीवन;

कण-समूह में हूँ मैं केवल

एक कण ।

–कौन सहारा !

मेरा कौन सहारा !

रेडियो पर एक योरपीय संगीत सुनकर /

मैं
सुनूँगा तेरी आवाज
पैरती बर्फ की सतह में तीर-सी
            शबनम की रातों में
                  तारों की टूटती
                         गर्म
                         गर्म
                              शमशीर-सी –
            तेरी आवाज
                   खाबों में घूमती-झूमती
                          आहों की एक तसवीर सी
                   सुनूँगा : मेरी-तेरी है वह
                          खोई हुई
                          रोई हुई
                               एक तकदीर-सी
परदों में – जल के – शान्त
      झिलमिल
      झिलमिल
             कमलदल।
 
रात की हँसी है तेरे गले में,
                  सीने में,
            बहुत काली सुर्मयी पलकों में,
            साँसों में, लहरीली अलकों में :
                        आयी तू, ओ किसकी!
                        फिर मुसकरायी तू
            नींद में – खामोश… वस्‍ल।
 
शुरू है आखिरी पीर।
 
सलाम!…
मेरे दर्द से हमकलाम
            न हो!
       जा, अब सो,
            न रो।
तू मेरी बेबस बाँहों पर, सर रख कर, ओह,
           न रो !

     जो कुछ है
     जो कुछ है
          खो!
          खो!
          खो!
ओ शीरीं! ओ लैला! ओ हीर!
          – जा!
          – जा!
          – जा! – सो!…

× ×

बेखबर मैं,
बाखबर आधी-सी रात।
बेखबर सपने हैं।
बाखबर है एक, बस, उसकी जात!
       तू मेरी!…
       आमीन!
       आमीन!
       आमीन!

एक पीली शाम

 

एक पीली शाम
      पतझर का जरा अटका हुआ पत्ता
शान्त
मेरी भावनाओं में तुम्‍हारा मुखकमल
कृश म्‍लान हारा-सा
     (कि मैं हूँ वह
मौन दर्पण में तुम्‍हारे कहीं?)

     वासना डूबी
     शिथिल पल में
     स्‍नेह काजल में
     लिये अद्भुत रूप-कोमलता

अब गिरा अब गिरा वह अटका हुआ आँसू
सान्‍ध्‍य तारक-सा
      अतल में।

[1953]

अंतिम विनिमय

हृदय का परिवार काँपा अकस्मात ।

भावनाओं में हुआ भूडोल-सा ।

पूछता है मौन का एकांत हाथ

वक्ष छू, यह प्रश्न कैसा गोल-सा:

प्रात-रव है दूर जो “हरि बोल!”-सा,

पार, सपना है–कि धारा है–कि रात ?

कुहा में कुछ सर झुकाए, साथ-साथ,

जा रहा परछाइयों का गोल-सा ।

प्राण का है मृत्यु से कुछ मोल-सा;

सत्य की है एक बोली, एक बात ।

( १९४५ में लिखित )

शाम होने को हुई

शाम होने को हुई, लौटे किसान
दूर पेड़ों में बढ़ा खग-रव।
धूल में लिपटा हुआ है आसमान :
शाम होने को हुई, नीरव।
 
तू न चेता। काम से थक कर
फटे-मैले वस्‍त्र में कमकर
लौट आये खोलियों में मौन।
चेतने वाला न तू – है कौन?
 
शाम; हम-तुम, और बाबू लोग,
लड़कियाँ चंचल, निठल्‍ले युवक,
स्‍फूर्त-मन सब सिनेमा की ओर
चले : जाने कौन-सी है ललक।
 
घुमड़ते-घुटते हृदय के भाव
चित्रपट पर नग्‍न आते बिखर :
आर्थिक वास्‍तविकता का दाँव
भूल, हम छूते अपार्थिव शिखर।
 
हाय कर उठते हमारे नयन;
होंट सी लेते दबा अफसोस :
माँगता उर-भार अन्तिम शयन …
चाँदनी सित वक्ष कोमल ओस।
 
दूर की मर्मर-मिली नीहार,
दूर की नीहार मालाएँ;
निकट, तम-विक्षिप्‍त सागर-फेन।
एक ही आह्वान : आ जाएँ!
आज आ जाएँ हमारे ऐन!
 
भूल के मंदिर सुघर बहुमूल्‍य
हृदय को विश्‍वास देते दान :
प्राप्‍य श्‍लाघा से अयाचित मान;
स्‍वप्‍न भावी, द्रव्‍य से अनुकूल।
 
दीन का व्‍यापार श्‍लाघामय!
… …
छिन्‍न-दल कर कागजी विस्‍मय
सत्‍य के बल शूल हूलूँ मैं!
– शाम निर्धन की न भूलूँ मैं!

रात हो आयी; चमक उट्ठे कई
बल्ब; ऊपर अग्रहायण, दूर –
नभ में। दूर तक उट्ठे अधीर
भाव …कैसे सहज, कैसे क्रूर!
[1945]

कठिन प्रस्तर में 

कठिन प्रस्‍तर में अगिन सूराख।
मौन पर्तों में हिला मैं कीट।
(ढीठ कितनी रीढ़ है तन की –
                  तनी है!)
 

आत्‍मा है भाव :
भाव-दीठ
      झुक रही है
अगम अंतर में
      अनगिनत सूराख-सी करती।

अम्न का राग / भाग 1 

सच्चाइयाँ
जो गंगा के गोमुख से मोती की तरह बिखरती रहती हैं
हिमालय की बर्फ़ीली चोटी पर चाँदी के उन्मुक्त नाचते
परों में झिलमिलाती रहती हैं
जो एक हज़ार रंगों के मोतियों का खिलखिलाता समन्दर है
उमंगों से भरी फूलों की जवान कश्तियाँ
कि बसंत के नए प्रभात सागर में छोड़ दी गई हैं।

ये पूरब-पश्चिम मेरी आत्मा के ताने-बाने हैं
मैंने एशिया की सतरंगी किरनों को अपनी दिशाओं के गिर्द

लपेट लिया
और मैं यूरोप और अमरीका की नर्म आँच की धूप-छाँव पर

बहुत हौले-हौले से नाच रहा हूँ
सब संस्कृतियाँ मेरे संगम में विभोर हैं
क्योंकि मैं हृदय की सच्ची सुख-शांति का राग हूँ
बहुत आदिम, बहुत अभिनव।

हम एक साथ उषा के मधुर अधर बन उठे
सुलग उठे हैं
सब एक साथ ढाई अरब धड़कनों में बज उठे हैं
सिम्फोनिक आनंद की तरह
यह हमारी गाती हुई एकता
संसार के पंच परमेश्वर का मुकुट पहन
अमरता के सिंहासन पर आज हमारा अखिल लोकप्रेसिडेंट

बन उठी है

 

अम्न का राग / भाग 2 

देखो न हक़ीक़त हमारे समय की जिसमें
होमर एक हिन्दी कवि सरदार जाफ़री को
इशारे से अपने क़रीब बुला रहा है
कि जिसमें
फ़ैयाज़ खाँ बिटाफ़ेन के कान में कुछ कह रहा है
मैंने समझा कि संगीत की कोई अमर लता हिल उठी
मैं शेक्सपियर का ऊँचा माथा उज्जैन की घाटियों में
झलकता हुआ देख रहा हूँ
और कालिदास को वैमर कुंजों में विहार करते
और आज तो मेरा टैगोर मेरा हाफ़िज़ मेरा तुलसी मेरा
ग़ालिब
एक-एक मेरे दिल के जगमग पावर हाउस का
कुशल आपरेटर है।

आज सब तुम्हारे ही लिए शांति का युग चाहते हैं
मेरी कुटुबुटु
तुम्हारे ही लिए मेरे प्रतिभाशाली भाई तेजबहादुर
मेरे गुलाब की कलियों से हँसते-खेलते बच्चों
तुम्हारे ही लिए, तुम्हारे ही लिए
मेरे दोस्तों, जिनमें ज़िन्दगी में मानी पैदा होते हैं
और उस निश्छल प्रेम के लिए
जो माँ की मूर्ति है
और उस अमर परमशक्ति के लिए जो पिता का रूप है।

अम्न का राग / भाग 3

हर घर में सुख
शांति का युग
हर छोटा-बड़ा हर नया पुराना आज-कल-परसों के
आगे और पीछे का युग
शांति की स्निग्ध कला में डूबा हुआ
क्योंकि इसी कला का नाम भरी-पूरी गति है।

मुझे अमरीका का लिबर्टी स्टैचू उतना ही प्यारा है
जितना मास्को का लाल तारा
और मेरे दिल में पीकिंग का स्वर्गीय महल
मक्का-मदीना से कम पवित्र नहीं
मैं काशी में उन आर्यों का शंख-नाद सुनता हूँ
जो वोल्गा से आए
मेरी देहली में प्रह्लाद की तपस्याएँ दोनों दुनियाओं की
चौखट पर
युद्ध के हिरण्यकश्य को चीर रही हैं।

यह कौन मेरी धरती की शांति की आत्मा पर कुरबान हो
गया है
अभी सत्य की खोज तो बाकी ही थी
यह एक विशाल अनुभव की चीनी दीवार
उठती ही बढ़ती आ रही है
उसकी ईंटें धड़कते हुए सुर्ख दिल हैं
यह सच्चाइयाँ बहुत गहरी नींवों में जाग रही हैं
वह इतिहास की अनुभूतियाँ हैं
मैंने सोवियत यूसुफ़ के सीने पर कान रखकर सुना है।

अम्न का राग / भाग 4

आज मैंने गोर्की को होरी के आँगन में देखा
और ताज के साए में राजर्षि कुंग को पाया
लिंकन के हाथ में हाथ दिए हुए
और ताल्स्ताय मेरे देहाती यूपियन होंठों से बोल उठा
और अरागों की आँखों में नया इतिहास
मेरे दिल की कहानी की सुर्खी बन गया
मैं जोश की वह मस्ती हूँ जो नेरूदा की भवों से
जाम की तरह टकराती है
वह मेरा नेरुदा जो दुनिया के शांति पोस्ट आफ़िस का
प्यारा और सच्चा क़ासिद
वह मेरा जोश कि दुनिया का मस्त आशिक़
मैं पंत के कुमार छायावादी सावन-भादों की चोट हूँ
हिलोर लेते वर्ष पर
मैं निराला के राम का एक आँसू
जो तीसरे महायुद्ध के कठिन लौह पर्दों को
एटमी सुई-सा पार कर गया पाताल तक
और वहीं उसको रोक दिया
मैं सिर्फ एक महान विजय का इंदीवर जनता की आँख में
जो शांति की पवित्रतम आत्मा है।

पश्चिम मे काले और सफ़ेद फूल हैं और पूरब में पीले और लाल
उत्तर में नीले कई रंग के और हमारे यहाँ चम्पई-साँवले
औऱ दुनिया में हरियाली कहाँ नहीं
जहाँ भी आसमान बादलों से ज़रा भी पोंछे जाते हों
और आज गुलदस्तों मे रंग-रंग के फूल सजे हुए हैं
और आसमान इन खुशियों का आईना है।

अम्न का राग / भाग 5 

आज न्यूयार्क के स्काईस्क्रेपरों पर
शांति से ‘डवों’ और उसके राजहंसों ने
एक मीठे उजले सुख का हल्का-सा अंधेरा
और शोर पैदा कर दिया है।
और अब वो अर्जेन्टीना की सिम्त अतलांतिक को पार कर
रहे हैं
पाल राब्सन ने नई दिल्ली से नए अमरीका की
एक विशाल सिम्फ़नी ब्राडकास्ट की है
औऱ उदयशंकर ने दक्षिणी अफ़्रीका में नई अजंता को
स्टेज पर उतारा है
यह महान नृत्य वह महान स्वर कला और संगीत
मेरा है यानी हर अदना से अदना इंसान का
बिल्कुल अपना निजी।
युद्ध के नक़्शों की कैंची से काटकर कोरियाई बच्चों ने
झिलमिली फूलपत्तों की रौशन फ़ानूसें बना ली हैं
और हथियारों का स्टील और लोहा हज़ारों
देशों को एक-दूसरे से मिलानेवाली रेलों के जाल में बिछ
गया है
और ये बच्चे उन पर दौड़ती हुई रेलों के डिब्बों की
खिड़कियों से
हमारी ओर झाँक रहे हैं
यह फ़ौलाद और लोहा खिलौनों मिठाइयों और किताबों
से लदे स्टीमरों के रूप में
नदियों की सार्थक सजावट बन गया है
या विशाल ट्रैक्टर-कंबाइन और फ़ैक्टरी-मशीनों के
हृदय में
नवीन छंद और लय का प्रयोग कह रहा है।

अम्न का राग / भाग 6

यह सुख का भविष्य शांति की आँखों में ही वर्तमान है
इन आँखों से हम सब अपनी उम्मीदों की आँखें सेंक
रहे हैं
ये आँखें हमारे दिल में रौशन और हमारी पूजा का
फूल हैं
ये आँखें हमारे कानून का सही चमकता हुआ मतलब
और हमारे अधिकारों की ज्योति से भरी शक्ति हैं
ये आँखें हमारे माता-पिता की आत्मा और हमारे बच्चों
का दिल है
ये आँखें हमारे इतिहास की वाणी
और हमारी कला का सच्चा सपना हैं
ये आँखें हमारा अपना नूर और पवित्रता हैं
ये आँखें ही अमर सपनों की हक़ीक़त और
हक़ीक़त का अमर सपना हैं
इनको देख पाना ही अपने आपको देख पाना है, समझ
पाना है।
हम मनाते हैं कि हमारे नेता इनको देख रहे हों।

बात बोलेगी

बात बोलेगी,
हम नहीं।
भेद खोलेगी
बात ही।

सत्य का मुख
झूठ की आँखें
क्या-देखें!

सत्य का रूख़
समय का रूख़ हैः
अभय जनता को
सत्य ही सुख है
सत्य ही सुख।

दैन्य दानव; काल
भीषण; क्रूर
स्थिति; कंगाल
बुद्धि; घर मजूर।

सत्य का
क्या रंग है?-
पूछो
एक संग।
एक-जनता का
दुःख : एक।
हवा में उड़ती पताकाएँ
अनेक।

दैन्य दानव। क्रूर स्थिति।
कंगाल बुद्धि : मजूर घर भर।
एक जनता का – अमर वर :
एकता का स्वर।

निराला के प्रति

भूलकर जब राह- जब-जब राह…भटका मैं
तुम्हीं झलके, हे महाकवि,
सघन तम की आंख बन मेरे लिए,
अकल क्रोधित प्रकृति का विश्वास बन मेरे लिये-
जगत के उन्माद का
परिचय लिए,-
और आगत-प्राण का संचय लिए, झलके प्रमन तुम,
हे महाकवि! सहजतम लघु एक जीवन में
अखिल का परिणय लिए-
प्राणमय संचार करते शक्ति औ’ छवि के मिलन का हास मंगलमय;
मधुर आठों याम
विसुध खुलते
कंठस्वर में तुम्हारे, कवि,
एक ऋतुओं के विहंसते सूर्य!
काल में (तम घोर)-
बरसाते प्रवाहित रस अथोर अथाह!
छू, किया करते
आधुनिकतम दाह मानव का
साधना स्वर से
शांत-शीतलतम ।

हाँ, तुम्हीं हो, एक मेरे कवि :
जानता क्या मैं-
हृदय में भरकर तुम्हारी साँस-
किस तरह गाता,
(ओ विभूति परंपरा की!)
समझ भी पाता तुम्हें यदि मैं कि जितना चाहता हूँ,
महाकवि मेरे !


(1939 में विरचित,’कुछ कविताएँ’ नामक कविता-संग्रह से)

राग

1
मैंने शाम से पूछा –
             या शाम ने मुझसे पूछा :
                  इन बातों का मतलब?
मैंने कहा –
शाम ने मुझसे कहा :
              राग अपना है।
 

2
आँखें मुँद गयीं।
सरलता का आकाश था
जैसे त्रिलोचन की रचनाएँ।
नींद ही इच्‍छाएँ।
 

3
मैने उससे पूछा –
उसने मुझसे :
            कब?
मैंने कहा –
उसने मुझसे कहा :
            समय अपना राग है।

4
तुमने ‘धरती’ का पद्य पढ़ा है?
उसकी सहजता प्राण है।
तुमने अपनी यादों की पुस्‍तक खोली है?
जब यादें मिटती हुई एकाएक स्‍पष्‍ट हो गयी हों?
जब आँसू छलक न जाकर
आकाश का फूल बन गया हो?
– वह मेरी कविताओं-सा मुझे लगेगा :
तब तुम मुझे क्‍या कहोगे?
 

5
उसने मुझसे पूछा, तुम्‍हारी कविताओं का क्‍या मतलब है?
मैंने कहा – कुछ नहीं।
उसने पूछा – फिर तुम इन्‍हें क्‍यों लिखते हो?
मैंने कहा – ये लिख जाती हैं। तब
इनकी रक्षा कैसे हो जाती है?
                    उसने क्‍यों यह प्रश्‍न किया?
 

मैंने पूछा :
मेरी रक्षा कहाँ होती है? मेरी साँस तो –
तुम्‍हारी कविताएँ हैं : उसने कहा। पर –
 

इन साँसों की रक्षा कैसे होती आई?
वे साँसों में बँध गये; शायद ऐसी ही रक्षा
          होती आई। फिर बहुत-से गीत
          खो गये।
 

6
वह अनायास मेरा पद गुनगुनाता हुआ बैठा
         रहा, और मैंने उसकी ओर
         देखा, और मैं समझ गया।
और यह संग्रह उसी के हाथों में खो गया।
 

7
उसने मुझसे पूछा, इन शब्‍दों का क्‍या
     मतलब है? मैंने कहा : शब्‍द
     कहाँ है? वह मौन मेरी ओर
     देखता चुप रहा। फिर मैंने
     श्रम-पूर्वक बोलते हुए कहा – कि :
     शाम हो गयी है। उसने मेरी
     आँखों में देखा, और फिर – एकटक देखता
     ही रहा। क्‍यों फिर उसने मेरा संग्रह
     अपनी धुँधली गोद में खोला और
     मुझसे कुछ भी पूछना भूल गया।
     मुझको भी नहीं मालूम, कौन था
     वह। केवल वह मुझे याद है।
 

8
तब छंदों के तार खिंचे-खिंचे थे,
राग बँधा-बँधा था,
प्‍यास उँगलियों में विकल थी –
कि मेघ गरजे;
और मोर दूर और कई दिशाओं से
बोलने लगे – पीयूअ! पीयूअ! उनकी
हीरे-नीलम की गर्दनें बिजलियों की तरह
हरियाली के आगे चमक रही थीं।
कहीं छिपा हुआ बहता पानी
बोल रहा था : अपने स्‍पष्‍टमधुर
प्रवाहित बोल।
[1945

एक नीला आईना बेठोस / 

एक नीला आईना
बेठोस-सी यह चाँदनी
और अंदर चल रहा हूँ मैं
उसी के महातल के मौन में ।
मौन में इतिहास का
कन किरन जीवित, एक, बस ।
एक पल की ओट में है कुल जहान ।
आत्मा है
अखिल की हठ-सी ।
चाँदनी में घुल गए हैं
बहुत-से तारे, बहुत कुछ
घुल गया हूँ मैं
बहुत कुछ अब ।
रह गया-सा एक सीधा बिंब
चल रहा है जो
शांत इंगित-सा
न जाने किधर ।

एक नीला आईना बेठोस

एक नीला आईना
बेठोस-सी यह चाँदनी
और अंदर चल रहा हूँ मैं
उसी के महातल के मौन में ।
मौन में इतिहास का
कन किरन जीवित, एक, बस ।
एक पल की ओट में है कुल जहान ।
आत्मा है
अखिल की हठ-सी ।
चाँदनी में घुल गए हैं
बहुत-से तारे, बहुत कुछ
घुल गया हूँ मैं
बहुत कुछ अब ।
रह गया-सा एक सीधा बिंब
चल रहा है जो
शांत इंगित-सा
न जाने किधर ।

पूर्णिमा का चाँद

 

चाँद निकला बादलों से पूर्णिमा का।
        गल रहा है आसमान।
एक दरिया उबलकर पीले गुलाबों का
        चूमता है बादलों के झिलमिलाते
        स्वप्न जैसे पाँव।

उषा

प्रात नभ था बहुत नीला शंख जैसे

भोर का नभ

राख से लीपा हुआ चौका
(अभी गीला पड़ा है)

बहुत काली सिल जरा-से लाल केशर से
कि धुल गयी हो

स्लेट पर या लाल खड़िया चाक
        मल दी हो किसी ने

नील जल में या किसी की
        गौर झिलमिल देह
जैसे हिल रही हो ।

और…
        जादू टूटता है इस उषा का अब
सूर्योदय हो रहा है।


(कविता-संग्रह, “टूटी हुई बिखरी हुई” से)

लेकर सीधा नारा

लेकर सीधा नारा

कौन पुकारा

अंतिम आशाओं की संध्याओं से ?

पलकें डूबी ही-सी थीं —

पर अभी नहीं;

कोई सुनता-सा था मुझे

कहीं;

फिर किसने यह, सातों सागर के पार

एकाकीपन से ही, मानो-हार,

एकाकी उठ मुझे पुकारा

कई बार ?

मैं समाज तो नहीं; न मैं कुल

जीवन;

कण-समूह में हूँ मैं केवल

एक कण ।

–कौन सहारा !

मेरा कौन सहारा !

रेडियो पर एक योरपीय संगीत सुनकर /

मैं
सुनूँगा तेरी आवाज
पैरती बर्फ की सतह में तीर-सी
            शबनम की रातों में
                  तारों की टूटती
                         गर्म
                         गर्म
                              शमशीर-सी –
            तेरी आवाज
                   खाबों में घूमती-झूमती
                          आहों की एक तसवीर सी
                   सुनूँगा : मेरी-तेरी है वह
                          खोई हुई
                          रोई हुई
                               एक तकदीर-सी
परदों में – जल के – शान्त
      झिलमिल
      झिलमिल
             कमलदल।
 
रात की हँसी है तेरे गले में,
                  सीने में,
            बहुत काली सुर्मयी पलकों में,
            साँसों में, लहरीली अलकों में :
                        आयी तू, ओ किसकी!
                        फिर मुसकरायी तू
            नींद में – खामोश… वस्‍ल।
 
शुरू है आखिरी पीर।
 
सलाम!…
मेरे दर्द से हमकलाम
            न हो!
       जा, अब सो,
            न रो।
तू मेरी बेबस बाँहों पर, सर रख कर, ओह,
           न रो !

     जो कुछ है
     जो कुछ है
          खो!
          खो!
          खो!
ओ शीरीं! ओ लैला! ओ हीर!
          – जा!
          – जा!
          – जा! – सो!…

× ×

बेखबर मैं,
बाखबर आधी-सी रात।
बेखबर सपने हैं।
बाखबर है एक, बस, उसकी जात!
       तू मेरी!…
       आमीन!
       आमीन!
       आमीन!

एक पीली शाम

 

एक पीली शाम
      पतझर का जरा अटका हुआ पत्ता
शान्त
मेरी भावनाओं में तुम्‍हारा मुखकमल
कृश म्‍लान हारा-सा
     (कि मैं हूँ वह
मौन दर्पण में तुम्‍हारे कहीं?)

     वासना डूबी
     शिथिल पल में
     स्‍नेह काजल में
     लिये अद्भुत रूप-कोमलता

अब गिरा अब गिरा वह अटका हुआ आँसू
सान्‍ध्‍य तारक-सा
      अतल में।

[1953]

अंतिम विनिमय

हृदय का परिवार काँपा अकस्मात ।

भावनाओं में हुआ भूडोल-सा ।

पूछता है मौन का एकांत हाथ

वक्ष छू, यह प्रश्न कैसा गोल-सा:

प्रात-रव है दूर जो “हरि बोल!”-सा,

पार, सपना है–कि धारा है–कि रात ?

कुहा में कुछ सर झुकाए, साथ-साथ,

जा रहा परछाइयों का गोल-सा ।

प्राण का है मृत्यु से कुछ मोल-सा;

सत्य की है एक बोली, एक बात ।

( १९४५ में लिखित )

शाम होने को हुई

शाम होने को हुई, लौटे किसान
दूर पेड़ों में बढ़ा खग-रव।
धूल में लिपटा हुआ है आसमान :
शाम होने को हुई, नीरव।
 
तू न चेता। काम से थक कर
फटे-मैले वस्‍त्र में कमकर
लौट आये खोलियों में मौन।
चेतने वाला न तू – है कौन?
 
शाम; हम-तुम, और बाबू लोग,
लड़कियाँ चंचल, निठल्‍ले युवक,
स्‍फूर्त-मन सब सिनेमा की ओर
चले : जाने कौन-सी है ललक।
 
घुमड़ते-घुटते हृदय के भाव
चित्रपट पर नग्‍न आते बिखर :
आर्थिक वास्‍तविकता का दाँव
भूल, हम छूते अपार्थिव शिखर।
 
हाय कर उठते हमारे नयन;
होंट सी लेते दबा अफसोस :
माँगता उर-भार अन्तिम शयन …
चाँदनी सित वक्ष कोमल ओस।
 
दूर की मर्मर-मिली नीहार,
दूर की नीहार मालाएँ;
निकट, तम-विक्षिप्‍त सागर-फेन।
एक ही आह्वान : आ जाएँ!
आज आ जाएँ हमारे ऐन!
 
भूल के मंदिर सुघर बहुमूल्‍य
हृदय को विश्‍वास देते दान :
प्राप्‍य श्‍लाघा से अयाचित मान;
स्‍वप्‍न भावी, द्रव्‍य से अनुकूल।
 
दीन का व्‍यापार श्‍लाघामय!
… …
छिन्‍न-दल कर कागजी विस्‍मय
सत्‍य के बल शूल हूलूँ मैं!
– शाम निर्धन की न भूलूँ मैं!

रात हो आयी; चमक उट्ठे कई
बल्ब; ऊपर अग्रहायण, दूर –
नभ में। दूर तक उट्ठे अधीर
भाव …कैसे सहज, कैसे क्रूर!
[1945]

कठिन प्रस्तर में 

कठिन प्रस्‍तर में अगिन सूराख।
मौन पर्तों में हिला मैं कीट।
(ढीठ कितनी रीढ़ है तन की –
                  तनी है!)
 

आत्‍मा है भाव :
भाव-दीठ
      झुक रही है
अगम अंतर में
      अनगिनत सूराख-सी करती।

अम्न का राग / भाग 1 

सच्चाइयाँ
जो गंगा के गोमुख से मोती की तरह बिखरती रहती हैं
हिमालय की बर्फ़ीली चोटी पर चाँदी के उन्मुक्त नाचते
परों में झिलमिलाती रहती हैं
जो एक हज़ार रंगों के मोतियों का खिलखिलाता समन्दर है
उमंगों से भरी फूलों की जवान कश्तियाँ
कि बसंत के नए प्रभात सागर में छोड़ दी गई हैं।

ये पूरब-पश्चिम मेरी आत्मा के ताने-बाने हैं
मैंने एशिया की सतरंगी किरनों को अपनी दिशाओं के गिर्द

लपेट लिया
और मैं यूरोप और अमरीका की नर्म आँच की धूप-छाँव पर

बहुत हौले-हौले से नाच रहा हूँ
सब संस्कृतियाँ मेरे संगम में विभोर हैं
क्योंकि मैं हृदय की सच्ची सुख-शांति का राग हूँ
बहुत आदिम, बहुत अभिनव।

हम एक साथ उषा के मधुर अधर बन उठे
सुलग उठे हैं
सब एक साथ ढाई अरब धड़कनों में बज उठे हैं
सिम्फोनिक आनंद की तरह
यह हमारी गाती हुई एकता
संसार के पंच परमेश्वर का मुकुट पहन
अमरता के सिंहासन पर आज हमारा अखिल लोकप्रेसिडेंट

बन उठी है

 

अम्न का राग / भाग 2 

देखो न हक़ीक़त हमारे समय की जिसमें
होमर एक हिन्दी कवि सरदार जाफ़री को
इशारे से अपने क़रीब बुला रहा है
कि जिसमें
फ़ैयाज़ खाँ बिटाफ़ेन के कान में कुछ कह रहा है
मैंने समझा कि संगीत की कोई अमर लता हिल उठी
मैं शेक्सपियर का ऊँचा माथा उज्जैन की घाटियों में
झलकता हुआ देख रहा हूँ
और कालिदास को वैमर कुंजों में विहार करते
और आज तो मेरा टैगोर मेरा हाफ़िज़ मेरा तुलसी मेरा
ग़ालिब
एक-एक मेरे दिल के जगमग पावर हाउस का
कुशल आपरेटर है।

आज सब तुम्हारे ही लिए शांति का युग चाहते हैं
मेरी कुटुबुटु
तुम्हारे ही लिए मेरे प्रतिभाशाली भाई तेजबहादुर
मेरे गुलाब की कलियों से हँसते-खेलते बच्चों
तुम्हारे ही लिए, तुम्हारे ही लिए
मेरे दोस्तों, जिनमें ज़िन्दगी में मानी पैदा होते हैं
और उस निश्छल प्रेम के लिए
जो माँ की मूर्ति है
और उस अमर परमशक्ति के लिए जो पिता का रूप है।

अम्न का राग / भाग 3

हर घर में सुख
शांति का युग
हर छोटा-बड़ा हर नया पुराना आज-कल-परसों के
आगे और पीछे का युग
शांति की स्निग्ध कला में डूबा हुआ
क्योंकि इसी कला का नाम भरी-पूरी गति है।

मुझे अमरीका का लिबर्टी स्टैचू उतना ही प्यारा है
जितना मास्को का लाल तारा
और मेरे दिल में पीकिंग का स्वर्गीय महल
मक्का-मदीना से कम पवित्र नहीं
मैं काशी में उन आर्यों का शंख-नाद सुनता हूँ
जो वोल्गा से आए
मेरी देहली में प्रह्लाद की तपस्याएँ दोनों दुनियाओं की
चौखट पर
युद्ध के हिरण्यकश्य को चीर रही हैं।

यह कौन मेरी धरती की शांति की आत्मा पर कुरबान हो
गया है
अभी सत्य की खोज तो बाकी ही थी
यह एक विशाल अनुभव की चीनी दीवार
उठती ही बढ़ती आ रही है
उसकी ईंटें धड़कते हुए सुर्ख दिल हैं
यह सच्चाइयाँ बहुत गहरी नींवों में जाग रही हैं
वह इतिहास की अनुभूतियाँ हैं
मैंने सोवियत यूसुफ़ के सीने पर कान रखकर सुना है।

अम्न का राग / भाग 4

आज मैंने गोर्की को होरी के आँगन में देखा
और ताज के साए में राजर्षि कुंग को पाया
लिंकन के हाथ में हाथ दिए हुए
और ताल्स्ताय मेरे देहाती यूपियन होंठों से बोल उठा
और अरागों की आँखों में नया इतिहास
मेरे दिल की कहानी की सुर्खी बन गया
मैं जोश की वह मस्ती हूँ जो नेरूदा की भवों से
जाम की तरह टकराती है
वह मेरा नेरुदा जो दुनिया के शांति पोस्ट आफ़िस का
प्यारा और सच्चा क़ासिद
वह मेरा जोश कि दुनिया का मस्त आशिक़
मैं पंत के कुमार छायावादी सावन-भादों की चोट हूँ
हिलोर लेते वर्ष पर
मैं निराला के राम का एक आँसू
जो तीसरे महायुद्ध के कठिन लौह पर्दों को
एटमी सुई-सा पार कर गया पाताल तक
और वहीं उसको रोक दिया
मैं सिर्फ एक महान विजय का इंदीवर जनता की आँख में
जो शांति की पवित्रतम आत्मा है।

पश्चिम मे काले और सफ़ेद फूल हैं और पूरब में पीले और लाल
उत्तर में नीले कई रंग के और हमारे यहाँ चम्पई-साँवले
औऱ दुनिया में हरियाली कहाँ नहीं
जहाँ भी आसमान बादलों से ज़रा भी पोंछे जाते हों
और आज गुलदस्तों मे रंग-रंग के फूल सजे हुए हैं
और आसमान इन खुशियों का आईना है।

अम्न का राग / भाग 5 

आज न्यूयार्क के स्काईस्क्रेपरों पर
शांति से ‘डवों’ और उसके राजहंसों ने
एक मीठे उजले सुख का हल्का-सा अंधेरा
और शोर पैदा कर दिया है।
और अब वो अर्जेन्टीना की सिम्त अतलांतिक को पार कर
रहे हैं
पाल राब्सन ने नई दिल्ली से नए अमरीका की
एक विशाल सिम्फ़नी ब्राडकास्ट की है
औऱ उदयशंकर ने दक्षिणी अफ़्रीका में नई अजंता को
स्टेज पर उतारा है
यह महान नृत्य वह महान स्वर कला और संगीत
मेरा है यानी हर अदना से अदना इंसान का
बिल्कुल अपना निजी।
युद्ध के नक़्शों की कैंची से काटकर कोरियाई बच्चों ने
झिलमिली फूलपत्तों की रौशन फ़ानूसें बना ली हैं
और हथियारों का स्टील और लोहा हज़ारों
देशों को एक-दूसरे से मिलानेवाली रेलों के जाल में बिछ
गया है
और ये बच्चे उन पर दौड़ती हुई रेलों के डिब्बों की
खिड़कियों से
हमारी ओर झाँक रहे हैं
यह फ़ौलाद और लोहा खिलौनों मिठाइयों और किताबों
से लदे स्टीमरों के रूप में
नदियों की सार्थक सजावट बन गया है
या विशाल ट्रैक्टर-कंबाइन और फ़ैक्टरी-मशीनों के
हृदय में
नवीन छंद और लय का प्रयोग कह रहा है।

अम्न का राग / भाग 6

यह सुख का भविष्य शांति की आँखों में ही वर्तमान है
इन आँखों से हम सब अपनी उम्मीदों की आँखें सेंक
रहे हैं
ये आँखें हमारे दिल में रौशन और हमारी पूजा का
फूल हैं
ये आँखें हमारे कानून का सही चमकता हुआ मतलब
और हमारे अधिकारों की ज्योति से भरी शक्ति हैं
ये आँखें हमारे माता-पिता की आत्मा और हमारे बच्चों
का दिल है
ये आँखें हमारे इतिहास की वाणी
और हमारी कला का सच्चा सपना हैं
ये आँखें हमारा अपना नूर और पवित्रता हैं
ये आँखें ही अमर सपनों की हक़ीक़त और
हक़ीक़त का अमर सपना हैं
इनको देख पाना ही अपने आपको देख पाना है, समझ
पाना है।
हम मनाते हैं कि हमारे नेता इनको देख रहे हों।

बात बोलेगी

बात बोलेगी,
हम नहीं।
भेद खोलेगी
बात ही।

सत्य का मुख
झूठ की आँखें
क्या-देखें!

सत्य का रूख़
समय का रूख़ हैः
अभय जनता को
सत्य ही सुख है
सत्य ही सुख।

दैन्य दानव; काल
भीषण; क्रूर
स्थिति; कंगाल
बुद्धि; घर मजूर।

सत्य का
क्या रंग है?-
पूछो
एक संग।
एक-जनता का
दुःख : एक।
हवा में उड़ती पताकाएँ
अनेक।

दैन्य दानव। क्रूर स्थिति।
कंगाल बुद्धि : मजूर घर भर।
एक जनता का – अमर वर :
एकता का स्वर।

निराला के प्रति

भूलकर जब राह- जब-जब राह…भटका मैं
तुम्हीं झलके, हे महाकवि,
सघन तम की आंख बन मेरे लिए,
अकल क्रोधित प्रकृति का विश्वास बन मेरे लिये-
जगत के उन्माद का
परिचय लिए,-
और आगत-प्राण का संचय लिए, झलके प्रमन तुम,
हे महाकवि! सहजतम लघु एक जीवन में
अखिल का परिणय लिए-
प्राणमय संचार करते शक्ति औ’ छवि के मिलन का हास मंगलमय;
मधुर आठों याम
विसुध खुलते
कंठस्वर में तुम्हारे, कवि,
एक ऋतुओं के विहंसते सूर्य!
काल में (तम घोर)-
बरसाते प्रवाहित रस अथोर अथाह!
छू, किया करते
आधुनिकतम दाह मानव का
साधना स्वर से
शांत-शीतलतम ।

हाँ, तुम्हीं हो, एक मेरे कवि :
जानता क्या मैं-
हृदय में भरकर तुम्हारी साँस-
किस तरह गाता,
(ओ विभूति परंपरा की!)
समझ भी पाता तुम्हें यदि मैं कि जितना चाहता हूँ,
महाकवि मेरे !


(1939 में विरचित,’कुछ कविताएँ’ नामक कविता-संग्रह से)

राग

1
मैंने शाम से पूछा –
             या शाम ने मुझसे पूछा :
                  इन बातों का मतलब?
मैंने कहा –
शाम ने मुझसे कहा :
              राग अपना है।
 

2
आँखें मुँद गयीं।
सरलता का आकाश था
जैसे त्रिलोचन की रचनाएँ।
नींद ही इच्‍छाएँ।
 

3
मैने उससे पूछा –
उसने मुझसे :
            कब?
मैंने कहा –
उसने मुझसे कहा :
            समय अपना राग है।

4
तुमने ‘धरती’ का पद्य पढ़ा है?
उसकी सहजता प्राण है।
तुमने अपनी यादों की पुस्‍तक खोली है?
जब यादें मिटती हुई एकाएक स्‍पष्‍ट हो गयी हों?
जब आँसू छलक न जाकर
आकाश का फूल बन गया हो?
– वह मेरी कविताओं-सा मुझे लगेगा :
तब तुम मुझे क्‍या कहोगे?
 

5
उसने मुझसे पूछा, तुम्‍हारी कविताओं का क्‍या मतलब है?
मैंने कहा – कुछ नहीं।
उसने पूछा – फिर तुम इन्‍हें क्‍यों लिखते हो?
मैंने कहा – ये लिख जाती हैं। तब
इनकी रक्षा कैसे हो जाती है?
                    उसने क्‍यों यह प्रश्‍न किया?
 

मैंने पूछा :
मेरी रक्षा कहाँ होती है? मेरी साँस तो –
तुम्‍हारी कविताएँ हैं : उसने कहा। पर –
 

इन साँसों की रक्षा कैसे होती आई?
वे साँसों में बँध गये; शायद ऐसी ही रक्षा
          होती आई। फिर बहुत-से गीत
          खो गये।
 

6
वह अनायास मेरा पद गुनगुनाता हुआ बैठा
         रहा, और मैंने उसकी ओर
         देखा, और मैं समझ गया।
और यह संग्रह उसी के हाथों में खो गया।
 

7
उसने मुझसे पूछा, इन शब्‍दों का क्‍या
     मतलब है? मैंने कहा : शब्‍द
     कहाँ है? वह मौन मेरी ओर
     देखता चुप रहा। फिर मैंने
     श्रम-पूर्वक बोलते हुए कहा – कि :
     शाम हो गयी है। उसने मेरी
     आँखों में देखा, और फिर – एकटक देखता
     ही रहा। क्‍यों फिर उसने मेरा संग्रह
     अपनी धुँधली गोद में खोला और
     मुझसे कुछ भी पूछना भूल गया।
     मुझको भी नहीं मालूम, कौन था
     वह। केवल वह मुझे याद है।
 

8
तब छंदों के तार खिंचे-खिंचे थे,
राग बँधा-बँधा था,
प्‍यास उँगलियों में विकल थी –
कि मेघ गरजे;
और मोर दूर और कई दिशाओं से
बोलने लगे – पीयूअ! पीयूअ! उनकी
हीरे-नीलम की गर्दनें बिजलियों की तरह
हरियाली के आगे चमक रही थीं।
कहीं छिपा हुआ बहता पानी
बोल रहा था : अपने स्‍पष्‍टमधुर
प्रवाहित बोल।
[1945

एक नीला आईना बेठोस / 

एक नीला आईना
बेठोस-सी यह चाँदनी
और अंदर चल रहा हूँ मैं
उसी के महातल के मौन में ।
मौन में इतिहास का
कन किरन जीवित, एक, बस ।
एक पल की ओट में है कुल जहान ।
आत्मा है
अखिल की हठ-सी ।
चाँदनी में घुल गए हैं
बहुत-से तारे, बहुत कुछ
घुल गया हूँ मैं
बहुत कुछ अब ।
रह गया-सा एक सीधा बिंब
चल रहा है जो
शांत इंगित-सा
न जाने किधर ।

एक नीला आईना बेठोस

एक नीला आईना
बेठोस-सी यह चाँदनी
और अंदर चल रहा हूँ मैं
उसी के महातल के मौन में ।
मौन में इतिहास का
कन किरन जीवित, एक, बस ।
एक पल की ओट में है कुल जहान ।
आत्मा है
अखिल की हठ-सी ।
चाँदनी में घुल गए हैं
बहुत-से तारे, बहुत कुछ
घुल गया हूँ मैं
बहुत कुछ अब ।
रह गया-सा एक सीधा बिंब
चल रहा है जो
शांत इंगित-सा
न जाने किधर ।

पूर्णिमा का चाँद

 

चाँद निकला बादलों से पूर्णिमा का।
        गल रहा है आसमान।
एक दरिया उबलकर पीले गुलाबों का
        चूमता है बादलों के झिलमिलाते
        स्वप्न जैसे पाँव।

उषा

प्रात नभ था बहुत नीला शंख जैसे

भोर का नभ

राख से लीपा हुआ चौका
(अभी गीला पड़ा है)

बहुत काली सिल जरा-से लाल केशर से
कि धुल गयी हो

स्लेट पर या लाल खड़िया चाक
        मल दी हो किसी ने

नील जल में या किसी की
        गौर झिलमिल देह
जैसे हिल रही हो ।

और…
        जादू टूटता है इस उषा का अब
सूर्योदय हो रहा है।


(कविता-संग्रह, “टूटी हुई बिखरी हुई” से)

लेकर सीधा नारा

लेकर सीधा नारा

कौन पुकारा

अंतिम आशाओं की संध्याओं से ?

पलकें डूबी ही-सी थीं —

पर अभी नहीं;

कोई सुनता-सा था मुझे

कहीं;

फिर किसने यह, सातों सागर के पार

एकाकीपन से ही, मानो-हार,

एकाकी उठ मुझे पुकारा

कई बार ?

मैं समाज तो नहीं; न मैं कुल

जीवन;

कण-समूह में हूँ मैं केवल

एक कण ।

–कौन सहारा !

मेरा कौन सहारा !

रेडियो पर एक योरपीय संगीत सुनकर /

मैं
सुनूँगा तेरी आवाज
पैरती बर्फ की सतह में तीर-सी
            शबनम की रातों में
                  तारों की टूटती
                         गर्म
                         गर्म
                              शमशीर-सी –
            तेरी आवाज
                   खाबों में घूमती-झूमती
                          आहों की एक तसवीर सी
                   सुनूँगा : मेरी-तेरी है वह
                          खोई हुई
                          रोई हुई
                               एक तकदीर-सी
परदों में – जल के – शान्त
      झिलमिल
      झिलमिल
             कमलदल।
 
रात की हँसी है तेरे गले में,
                  सीने में,
            बहुत काली सुर्मयी पलकों में,
            साँसों में, लहरीली अलकों में :
                        आयी तू, ओ किसकी!
                        फिर मुसकरायी तू
            नींद में – खामोश… वस्‍ल।
 
शुरू है आखिरी पीर।
 
सलाम!…
मेरे दर्द से हमकलाम
            न हो!
       जा, अब सो,
            न रो।
तू मेरी बेबस बाँहों पर, सर रख कर, ओह,
           न रो !

     जो कुछ है
     जो कुछ है
          खो!
          खो!
          खो!
ओ शीरीं! ओ लैला! ओ हीर!
          – जा!
          – जा!
          – जा! – सो!…

× ×

बेखबर मैं,
बाखबर आधी-सी रात।
बेखबर सपने हैं।
बाखबर है एक, बस, उसकी जात!
       तू मेरी!…
       आमीन!
       आमीन!
       आमीन!

एक पीली शाम

 

एक पीली शाम
      पतझर का जरा अटका हुआ पत्ता
शान्त
मेरी भावनाओं में तुम्‍हारा मुखकमल
कृश म्‍लान हारा-सा
     (कि मैं हूँ वह
मौन दर्पण में तुम्‍हारे कहीं?)

     वासना डूबी
     शिथिल पल में
     स्‍नेह काजल में
     लिये अद्भुत रूप-कोमलता

अब गिरा अब गिरा वह अटका हुआ आँसू
सान्‍ध्‍य तारक-सा
      अतल में।

[1953]

अंतिम विनिमय

हृदय का परिवार काँपा अकस्मात ।

भावनाओं में हुआ भूडोल-सा ।

पूछता है मौन का एकांत हाथ

वक्ष छू, यह प्रश्न कैसा गोल-सा:

प्रात-रव है दूर जो “हरि बोल!”-सा,

पार, सपना है–कि धारा है–कि रात ?

कुहा में कुछ सर झुकाए, साथ-साथ,

जा रहा परछाइयों का गोल-सा ।

प्राण का है मृत्यु से कुछ मोल-सा;

सत्य की है एक बोली, एक बात ।

( १९४५ में लिखित )

शाम होने को हुई

शाम होने को हुई, लौटे किसान
दूर पेड़ों में बढ़ा खग-रव।
धूल में लिपटा हुआ है आसमान :
शाम होने को हुई, नीरव।
 
तू न चेता। काम से थक कर
फटे-मैले वस्‍त्र में कमकर
लौट आये खोलियों में मौन।
चेतने वाला न तू – है कौन?
 
शाम; हम-तुम, और बाबू लोग,
लड़कियाँ चंचल, निठल्‍ले युवक,
स्‍फूर्त-मन सब सिनेमा की ओर
चले : जाने कौन-सी है ललक।
 
घुमड़ते-घुटते हृदय के भाव
चित्रपट पर नग्‍न आते बिखर :
आर्थिक वास्‍तविकता का दाँव
भूल, हम छूते अपार्थिव शिखर।
 
हाय कर उठते हमारे नयन;
होंट सी लेते दबा अफसोस :
माँगता उर-भार अन्तिम शयन …
चाँदनी सित वक्ष कोमल ओस।
 
दूर की मर्मर-मिली नीहार,
दूर की नीहार मालाएँ;
निकट, तम-विक्षिप्‍त सागर-फेन।
एक ही आह्वान : आ जाएँ!
आज आ जाएँ हमारे ऐन!
 
भूल के मंदिर सुघर बहुमूल्‍य
हृदय को विश्‍वास देते दान :
प्राप्‍य श्‍लाघा से अयाचित मान;
स्‍वप्‍न भावी, द्रव्‍य से अनुकूल।
 
दीन का व्‍यापार श्‍लाघामय!
… …
छिन्‍न-दल कर कागजी विस्‍मय
सत्‍य के बल शूल हूलूँ मैं!
– शाम निर्धन की न भूलूँ मैं!

रात हो आयी; चमक उट्ठे कई
बल्ब; ऊपर अग्रहायण, दूर –
नभ में। दूर तक उट्ठे अधीर
भाव …कैसे सहज, कैसे क्रूर!
[1945]

कठिन प्रस्तर में 

कठिन प्रस्‍तर में अगिन सूराख।
मौन पर्तों में हिला मैं कीट।
(ढीठ कितनी रीढ़ है तन की –
                  तनी है!)
 

आत्‍मा है भाव :
भाव-दीठ
      झुक रही है
अगम अंतर में
      अनगिनत सूराख-सी करती।

अम्न का राग / भाग 1 

सच्चाइयाँ
जो गंगा के गोमुख से मोती की तरह बिखरती रहती हैं
हिमालय की बर्फ़ीली चोटी पर चाँदी के उन्मुक्त नाचते
परों में झिलमिलाती रहती हैं
जो एक हज़ार रंगों के मोतियों का खिलखिलाता समन्दर है
उमंगों से भरी फूलों की जवान कश्तियाँ
कि बसंत के नए प्रभात सागर में छोड़ दी गई हैं।

ये पूरब-पश्चिम मेरी आत्मा के ताने-बाने हैं
मैंने एशिया की सतरंगी किरनों को अपनी दिशाओं के गिर्द

लपेट लिया
और मैं यूरोप और अमरीका की नर्म आँच की धूप-छाँव पर

बहुत हौले-हौले से नाच रहा हूँ
सब संस्कृतियाँ मेरे संगम में विभोर हैं
क्योंकि मैं हृदय की सच्ची सुख-शांति का राग हूँ
बहुत आदिम, बहुत अभिनव।

हम एक साथ उषा के मधुर अधर बन उठे
सुलग उठे हैं
सब एक साथ ढाई अरब धड़कनों में बज उठे हैं
सिम्फोनिक आनंद की तरह
यह हमारी गाती हुई एकता
संसार के पंच परमेश्वर का मुकुट पहन
अमरता के सिंहासन पर आज हमारा अखिल लोकप्रेसिडेंट

बन उठी है

 

अम्न का राग / भाग 2 

देखो न हक़ीक़त हमारे समय की जिसमें
होमर एक हिन्दी कवि सरदार जाफ़री को
इशारे से अपने क़रीब बुला रहा है
कि जिसमें
फ़ैयाज़ खाँ बिटाफ़ेन के कान में कुछ कह रहा है
मैंने समझा कि संगीत की कोई अमर लता हिल उठी
मैं शेक्सपियर का ऊँचा माथा उज्जैन की घाटियों में
झलकता हुआ देख रहा हूँ
और कालिदास को वैमर कुंजों में विहार करते
और आज तो मेरा टैगोर मेरा हाफ़िज़ मेरा तुलसी मेरा
ग़ालिब
एक-एक मेरे दिल के जगमग पावर हाउस का
कुशल आपरेटर है।

आज सब तुम्हारे ही लिए शांति का युग चाहते हैं
मेरी कुटुबुटु
तुम्हारे ही लिए मेरे प्रतिभाशाली भाई तेजबहादुर
मेरे गुलाब की कलियों से हँसते-खेलते बच्चों
तुम्हारे ही लिए, तुम्हारे ही लिए
मेरे दोस्तों, जिनमें ज़िन्दगी में मानी पैदा होते हैं
और उस निश्छल प्रेम के लिए
जो माँ की मूर्ति है
और उस अमर परमशक्ति के लिए जो पिता का रूप है।

अम्न का राग / भाग 3

हर घर में सुख
शांति का युग
हर छोटा-बड़ा हर नया पुराना आज-कल-परसों के
आगे और पीछे का युग
शांति की स्निग्ध कला में डूबा हुआ
क्योंकि इसी कला का नाम भरी-पूरी गति है।

मुझे अमरीका का लिबर्टी स्टैचू उतना ही प्यारा है
जितना मास्को का लाल तारा
और मेरे दिल में पीकिंग का स्वर्गीय महल
मक्का-मदीना से कम पवित्र नहीं
मैं काशी में उन आर्यों का शंख-नाद सुनता हूँ
जो वोल्गा से आए
मेरी देहली में प्रह्लाद की तपस्याएँ दोनों दुनियाओं की
चौखट पर
युद्ध के हिरण्यकश्य को चीर रही हैं।

यह कौन मेरी धरती की शांति की आत्मा पर कुरबान हो
गया है
अभी सत्य की खोज तो बाकी ही थी
यह एक विशाल अनुभव की चीनी दीवार
उठती ही बढ़ती आ रही है
उसकी ईंटें धड़कते हुए सुर्ख दिल हैं
यह सच्चाइयाँ बहुत गहरी नींवों में जाग रही हैं
वह इतिहास की अनुभूतियाँ हैं
मैंने सोवियत यूसुफ़ के सीने पर कान रखकर सुना है।

अम्न का राग / भाग 4

आज मैंने गोर्की को होरी के आँगन में देखा
और ताज के साए में राजर्षि कुंग को पाया
लिंकन के हाथ में हाथ दिए हुए
और ताल्स्ताय मेरे देहाती यूपियन होंठों से बोल उठा
और अरागों की आँखों में नया इतिहास
मेरे दिल की कहानी की सुर्खी बन गया
मैं जोश की वह मस्ती हूँ जो नेरूदा की भवों से
जाम की तरह टकराती है
वह मेरा नेरुदा जो दुनिया के शांति पोस्ट आफ़िस का
प्यारा और सच्चा क़ासिद
वह मेरा जोश कि दुनिया का मस्त आशिक़
मैं पंत के कुमार छायावादी सावन-भादों की चोट हूँ
हिलोर लेते वर्ष पर
मैं निराला के राम का एक आँसू
जो तीसरे महायुद्ध के कठिन लौह पर्दों को
एटमी सुई-सा पार कर गया पाताल तक
और वहीं उसको रोक दिया
मैं सिर्फ एक महान विजय का इंदीवर जनता की आँख में
जो शांति की पवित्रतम आत्मा है।

पश्चिम मे काले और सफ़ेद फूल हैं और पूरब में पीले और लाल
उत्तर में नीले कई रंग के और हमारे यहाँ चम्पई-साँवले
औऱ दुनिया में हरियाली कहाँ नहीं
जहाँ भी आसमान बादलों से ज़रा भी पोंछे जाते हों
और आज गुलदस्तों मे रंग-रंग के फूल सजे हुए हैं
और आसमान इन खुशियों का आईना है।

अम्न का राग / भाग 5 

आज न्यूयार्क के स्काईस्क्रेपरों पर
शांति से ‘डवों’ और उसके राजहंसों ने
एक मीठे उजले सुख का हल्का-सा अंधेरा
और शोर पैदा कर दिया है।
और अब वो अर्जेन्टीना की सिम्त अतलांतिक को पार कर
रहे हैं
पाल राब्सन ने नई दिल्ली से नए अमरीका की
एक विशाल सिम्फ़नी ब्राडकास्ट की है
औऱ उदयशंकर ने दक्षिणी अफ़्रीका में नई अजंता को
स्टेज पर उतारा है
यह महान नृत्य वह महान स्वर कला और संगीत
मेरा है यानी हर अदना से अदना इंसान का
बिल्कुल अपना निजी।
युद्ध के नक़्शों की कैंची से काटकर कोरियाई बच्चों ने
झिलमिली फूलपत्तों की रौशन फ़ानूसें बना ली हैं
और हथियारों का स्टील और लोहा हज़ारों
देशों को एक-दूसरे से मिलानेवाली रेलों के जाल में बिछ
गया है
और ये बच्चे उन पर दौड़ती हुई रेलों के डिब्बों की
खिड़कियों से
हमारी ओर झाँक रहे हैं
यह फ़ौलाद और लोहा खिलौनों मिठाइयों और किताबों
से लदे स्टीमरों के रूप में
नदियों की सार्थक सजावट बन गया है
या विशाल ट्रैक्टर-कंबाइन और फ़ैक्टरी-मशीनों के
हृदय में
नवीन छंद और लय का प्रयोग कह रहा है।

अम्न का राग / भाग 6

यह सुख का भविष्य शांति की आँखों में ही वर्तमान है
इन आँखों से हम सब अपनी उम्मीदों की आँखें सेंक
रहे हैं
ये आँखें हमारे दिल में रौशन और हमारी पूजा का
फूल हैं
ये आँखें हमारे कानून का सही चमकता हुआ मतलब
और हमारे अधिकारों की ज्योति से भरी शक्ति हैं
ये आँखें हमारे माता-पिता की आत्मा और हमारे बच्चों
का दिल है
ये आँखें हमारे इतिहास की वाणी
और हमारी कला का सच्चा सपना हैं
ये आँखें हमारा अपना नूर और पवित्रता हैं
ये आँखें ही अमर सपनों की हक़ीक़त और
हक़ीक़त का अमर सपना हैं
इनको देख पाना ही अपने आपको देख पाना है, समझ
पाना है।
हम मनाते हैं कि हमारे नेता इनको देख रहे हों।

बात बोलेगी

बात बोलेगी,
हम नहीं।
भेद खोलेगी
बात ही।

सत्य का मुख
झूठ की आँखें
क्या-देखें!

सत्य का रूख़
समय का रूख़ हैः
अभय जनता को
सत्य ही सुख है
सत्य ही सुख।

दैन्य दानव; काल
भीषण; क्रूर
स्थिति; कंगाल
बुद्धि; घर मजूर।

सत्य का
क्या रंग है?-
पूछो
एक संग।
एक-जनता का
दुःख : एक।
हवा में उड़ती पताकाएँ
अनेक।

दैन्य दानव। क्रूर स्थिति।
कंगाल बुद्धि : मजूर घर भर।
एक जनता का – अमर वर :
एकता का स्वर।

निराला के प्रति

भूलकर जब राह- जब-जब राह…भटका मैं
तुम्हीं झलके, हे महाकवि,
सघन तम की आंख बन मेरे लिए,
अकल क्रोधित प्रकृति का विश्वास बन मेरे लिये-
जगत के उन्माद का
परिचय लिए,-
और आगत-प्राण का संचय लिए, झलके प्रमन तुम,
हे महाकवि! सहजतम लघु एक जीवन में
अखिल का परिणय लिए-
प्राणमय संचार करते शक्ति औ’ छवि के मिलन का हास मंगलमय;
मधुर आठों याम
विसुध खुलते
कंठस्वर में तुम्हारे, कवि,
एक ऋतुओं के विहंसते सूर्य!
काल में (तम घोर)-
बरसाते प्रवाहित रस अथोर अथाह!
छू, किया करते
आधुनिकतम दाह मानव का
साधना स्वर से
शांत-शीतलतम ।

हाँ, तुम्हीं हो, एक मेरे कवि :
जानता क्या मैं-
हृदय में भरकर तुम्हारी साँस-
किस तरह गाता,
(ओ विभूति परंपरा की!)
समझ भी पाता तुम्हें यदि मैं कि जितना चाहता हूँ,
महाकवि मेरे !


(1939 में विरचित,’कुछ कविताएँ’ नामक कविता-संग्रह से)

राग

1
मैंने शाम से पूछा –
             या शाम ने मुझसे पूछा :
                  इन बातों का मतलब?
मैंने कहा –
शाम ने मुझसे कहा :
              राग अपना है।
 

2
आँखें मुँद गयीं।
सरलता का आकाश था
जैसे त्रिलोचन की रचनाएँ।
नींद ही इच्‍छाएँ।
 

3
मैने उससे पूछा –
उसने मुझसे :
            कब?
मैंने कहा –
उसने मुझसे कहा :
            समय अपना राग है।

4
तुमने ‘धरती’ का पद्य पढ़ा है?
उसकी सहजता प्राण है।
तुमने अपनी यादों की पुस्‍तक खोली है?
जब यादें मिटती हुई एकाएक स्‍पष्‍ट हो गयी हों?
जब आँसू छलक न जाकर
आकाश का फूल बन गया हो?
– वह मेरी कविताओं-सा मुझे लगेगा :
तब तुम मुझे क्‍या कहोगे?
 

5
उसने मुझसे पूछा, तुम्‍हारी कविताओं का क्‍या मतलब है?
मैंने कहा – कुछ नहीं।
उसने पूछा – फिर तुम इन्‍हें क्‍यों लिखते हो?
मैंने कहा – ये लिख जाती हैं। तब
इनकी रक्षा कैसे हो जाती है?
                    उसने क्‍यों यह प्रश्‍न किया?
 

मैंने पूछा :
मेरी रक्षा कहाँ होती है? मेरी साँस तो –
तुम्‍हारी कविताएँ हैं : उसने कहा। पर –
 

इन साँसों की रक्षा कैसे होती आई?
वे साँसों में बँध गये; शायद ऐसी ही रक्षा
          होती आई। फिर बहुत-से गीत
          खो गये।
 

6
वह अनायास मेरा पद गुनगुनाता हुआ बैठा
         रहा, और मैंने उसकी ओर
         देखा, और मैं समझ गया।
और यह संग्रह उसी के हाथों में खो गया।
 

7
उसने मुझसे पूछा, इन शब्‍दों का क्‍या
     मतलब है? मैंने कहा : शब्‍द
     कहाँ है? वह मौन मेरी ओर
     देखता चुप रहा। फिर मैंने
     श्रम-पूर्वक बोलते हुए कहा – कि :
     शाम हो गयी है। उसने मेरी
     आँखों में देखा, और फिर – एकटक देखता
     ही रहा। क्‍यों फिर उसने मेरा संग्रह
     अपनी धुँधली गोद में खोला और
     मुझसे कुछ भी पूछना भूल गया।
     मुझको भी नहीं मालूम, कौन था
     वह। केवल वह मुझे याद है।
 

8
तब छंदों के तार खिंचे-खिंचे थे,
राग बँधा-बँधा था,
प्‍यास उँगलियों में विकल थी –
कि मेघ गरजे;
और मोर दूर और कई दिशाओं से
बोलने लगे – पीयूअ! पीयूअ! उनकी
हीरे-नीलम की गर्दनें बिजलियों की तरह
हरियाली के आगे चमक रही थीं।
कहीं छिपा हुआ बहता पानी
बोल रहा था : अपने स्‍पष्‍टमधुर
प्रवाहित बोल।
[1945

एक नीला आईना बेठोस / 

एक नीला आईना
बेठोस-सी यह चाँदनी
और अंदर चल रहा हूँ मैं
उसी के महातल के मौन में ।
मौन में इतिहास का
कन किरन जीवित, एक, बस ।
एक पल की ओट में है कुल जहान ।
आत्मा है
अखिल की हठ-सी ।
चाँदनी में घुल गए हैं
बहुत-से तारे, बहुत कुछ
घुल गया हूँ मैं
बहुत कुछ अब ।
रह गया-सा एक सीधा बिंब
चल रहा है जो
शांत इंगित-सा
न जाने किधर ।

एक नीला आईना बेठोस

एक नीला आईना
बेठोस-सी यह चाँदनी
और अंदर चल रहा हूँ मैं
उसी के महातल के मौन में ।
मौन में इतिहास का
कन किरन जीवित, एक, बस ।
एक पल की ओट में है कुल जहान ।
आत्मा है
अखिल की हठ-सी ।
चाँदनी में घुल गए हैं
बहुत-से तारे, बहुत कुछ
घुल गया हूँ मैं
बहुत कुछ अब ।
रह गया-सा एक सीधा बिंब
चल रहा है जो
शांत इंगित-सा
न जाने किधर ।

पूर्णिमा का चाँद

 

चाँद निकला बादलों से पूर्णिमा का।
        गल रहा है आसमान।
एक दरिया उबलकर पीले गुलाबों का
        चूमता है बादलों के झिलमिलाते
        स्वप्न जैसे पाँव।

उषा

प्रात नभ था बहुत नीला शंख जैसे

भोर का नभ

राख से लीपा हुआ चौका
(अभी गीला पड़ा है)

बहुत काली सिल जरा-से लाल केशर से
कि धुल गयी हो

स्लेट पर या लाल खड़िया चाक
        मल दी हो किसी ने

नील जल में या किसी की
        गौर झिलमिल देह
जैसे हिल रही हो ।

और…
        जादू टूटता है इस उषा का अब
सूर्योदय हो रहा है।


(कविता-संग्रह, “टूटी हुई बिखरी हुई” से)

लेकर सीधा नारा

लेकर सीधा नारा

कौन पुकारा

अंतिम आशाओं की संध्याओं से ?

पलकें डूबी ही-सी थीं —

पर अभी नहीं;

कोई सुनता-सा था मुझे

कहीं;

फिर किसने यह, सातों सागर के पार

एकाकीपन से ही, मानो-हार,

एकाकी उठ मुझे पुकारा

कई बार ?

मैं समाज तो नहीं; न मैं कुल

जीवन;

कण-समूह में हूँ मैं केवल

एक कण ।

–कौन सहारा !

मेरा कौन सहारा !

रेडियो पर एक योरपीय संगीत सुनकर /

मैं
सुनूँगा तेरी आवाज
पैरती बर्फ की सतह में तीर-सी
            शबनम की रातों में
                  तारों की टूटती
                         गर्म
                         गर्म
                              शमशीर-सी –
            तेरी आवाज
                   खाबों में घूमती-झूमती
                          आहों की एक तसवीर सी
                   सुनूँगा : मेरी-तेरी है वह
                          खोई हुई
                          रोई हुई
                               एक तकदीर-सी
परदों में – जल के – शान्त
      झिलमिल
      झिलमिल
             कमलदल।
 
रात की हँसी है तेरे गले में,
                  सीने में,
            बहुत काली सुर्मयी पलकों में,
            साँसों में, लहरीली अलकों में :
                        आयी तू, ओ किसकी!
                        फिर मुसकरायी तू
            नींद में – खामोश… वस्‍ल।
 
शुरू है आखिरी पीर।
 
सलाम!…
मेरे दर्द से हमकलाम
            न हो!
       जा, अब सो,
            न रो।
तू मेरी बेबस बाँहों पर, सर रख कर, ओह,
           न रो !

     जो कुछ है
     जो कुछ है
          खो!
          खो!
          खो!
ओ शीरीं! ओ लैला! ओ हीर!
          – जा!
          – जा!
          – जा! – सो!…

× ×

बेखबर मैं,
बाखबर आधी-सी रात।
बेखबर सपने हैं।
बाखबर है एक, बस, उसकी जात!
       तू मेरी!…
       आमीन!
       आमीन!
       आमीन!

एक पीली शाम

 

एक पीली शाम
      पतझर का जरा अटका हुआ पत्ता
शान्त
मेरी भावनाओं में तुम्‍हारा मुखकमल
कृश म्‍लान हारा-सा
     (कि मैं हूँ वह
मौन दर्पण में तुम्‍हारे कहीं?)

     वासना डूबी
     शिथिल पल में
     स्‍नेह काजल में
     लिये अद्भुत रूप-कोमलता

अब गिरा अब गिरा वह अटका हुआ आँसू
सान्‍ध्‍य तारक-सा
      अतल में।

[1953]

अंतिम विनिमय

हृदय का परिवार काँपा अकस्मात ।

भावनाओं में हुआ भूडोल-सा ।

पूछता है मौन का एकांत हाथ

वक्ष छू, यह प्रश्न कैसा गोल-सा:

प्रात-रव है दूर जो “हरि बोल!”-सा,

पार, सपना है–कि धारा है–कि रात ?

कुहा में कुछ सर झुकाए, साथ-साथ,

जा रहा परछाइयों का गोल-सा ।

प्राण का है मृत्यु से कुछ मोल-सा;

सत्य की है एक बोली, एक बात ।

( १९४५ में लिखित )

शाम होने को हुई

शाम होने को हुई, लौटे किसान
दूर पेड़ों में बढ़ा खग-रव।
धूल में लिपटा हुआ है आसमान :
शाम होने को हुई, नीरव।
 
तू न चेता। काम से थक कर
फटे-मैले वस्‍त्र में कमकर
लौट आये खोलियों में मौन।
चेतने वाला न तू – है कौन?
 
शाम; हम-तुम, और बाबू लोग,
लड़कियाँ चंचल, निठल्‍ले युवक,
स्‍फूर्त-मन सब सिनेमा की ओर
चले : जाने कौन-सी है ललक।
 
घुमड़ते-घुटते हृदय के भाव
चित्रपट पर नग्‍न आते बिखर :
आर्थिक वास्‍तविकता का दाँव
भूल, हम छूते अपार्थिव शिखर।
 
हाय कर उठते हमारे नयन;
होंट सी लेते दबा अफसोस :
माँगता उर-भार अन्तिम शयन …
चाँदनी सित वक्ष कोमल ओस।
 
दूर की मर्मर-मिली नीहार,
दूर की नीहार मालाएँ;
निकट, तम-विक्षिप्‍त सागर-फेन।
एक ही आह्वान : आ जाएँ!
आज आ जाएँ हमारे ऐन!
 
भूल के मंदिर सुघर बहुमूल्‍य
हृदय को विश्‍वास देते दान :
प्राप्‍य श्‍लाघा से अयाचित मान;
स्‍वप्‍न भावी, द्रव्‍य से अनुकूल।
 
दीन का व्‍यापार श्‍लाघामय!
… …
छिन्‍न-दल कर कागजी विस्‍मय
सत्‍य के बल शूल हूलूँ मैं!
– शाम निर्धन की न भूलूँ मैं!

रात हो आयी; चमक उट्ठे कई
बल्ब; ऊपर अग्रहायण, दूर –
नभ में। दूर तक उट्ठे अधीर
भाव …कैसे सहज, कैसे क्रूर!
[1945]

कठिन प्रस्तर में 

कठिन प्रस्‍तर में अगिन सूराख।
मौन पर्तों में हिला मैं कीट।
(ढीठ कितनी रीढ़ है तन की –
                  तनी है!)
 

आत्‍मा है भाव :
भाव-दीठ
      झुक रही है
अगम अंतर में
      अनगिनत सूराख-सी करती।

अम्न का राग / भाग 1 

सच्चाइयाँ
जो गंगा के गोमुख से मोती की तरह बिखरती रहती हैं
हिमालय की बर्फ़ीली चोटी पर चाँदी के उन्मुक्त नाचते
परों में झिलमिलाती रहती हैं
जो एक हज़ार रंगों के मोतियों का खिलखिलाता समन्दर है
उमंगों से भरी फूलों की जवान कश्तियाँ
कि बसंत के नए प्रभात सागर में छोड़ दी गई हैं।

ये पूरब-पश्चिम मेरी आत्मा के ताने-बाने हैं
मैंने एशिया की सतरंगी किरनों को अपनी दिशाओं के गिर्द

लपेट लिया
और मैं यूरोप और अमरीका की नर्म आँच की धूप-छाँव पर

बहुत हौले-हौले से नाच रहा हूँ
सब संस्कृतियाँ मेरे संगम में विभोर हैं
क्योंकि मैं हृदय की सच्ची सुख-शांति का राग हूँ
बहुत आदिम, बहुत अभिनव।

हम एक साथ उषा के मधुर अधर बन उठे
सुलग उठे हैं
सब एक साथ ढाई अरब धड़कनों में बज उठे हैं
सिम्फोनिक आनंद की तरह
यह हमारी गाती हुई एकता
संसार के पंच परमेश्वर का मुकुट पहन
अमरता के सिंहासन पर आज हमारा अखिल लोकप्रेसिडेंट

बन उठी है

 

अम्न का राग / भाग 2 

देखो न हक़ीक़त हमारे समय की जिसमें
होमर एक हिन्दी कवि सरदार जाफ़री को
इशारे से अपने क़रीब बुला रहा है
कि जिसमें
फ़ैयाज़ खाँ बिटाफ़ेन के कान में कुछ कह रहा है
मैंने समझा कि संगीत की कोई अमर लता हिल उठी
मैं शेक्सपियर का ऊँचा माथा उज्जैन की घाटियों में
झलकता हुआ देख रहा हूँ
और कालिदास को वैमर कुंजों में विहार करते
और आज तो मेरा टैगोर मेरा हाफ़िज़ मेरा तुलसी मेरा
ग़ालिब
एक-एक मेरे दिल के जगमग पावर हाउस का
कुशल आपरेटर है।

आज सब तुम्हारे ही लिए शांति का युग चाहते हैं
मेरी कुटुबुटु
तुम्हारे ही लिए मेरे प्रतिभाशाली भाई तेजबहादुर
मेरे गुलाब की कलियों से हँसते-खेलते बच्चों
तुम्हारे ही लिए, तुम्हारे ही लिए
मेरे दोस्तों, जिनमें ज़िन्दगी में मानी पैदा होते हैं
और उस निश्छल प्रेम के लिए
जो माँ की मूर्ति है
और उस अमर परमशक्ति के लिए जो पिता का रूप है।

अम्न का राग / भाग 3

हर घर में सुख
शांति का युग
हर छोटा-बड़ा हर नया पुराना आज-कल-परसों के
आगे और पीछे का युग
शांति की स्निग्ध कला में डूबा हुआ
क्योंकि इसी कला का नाम भरी-पूरी गति है।

मुझे अमरीका का लिबर्टी स्टैचू उतना ही प्यारा है
जितना मास्को का लाल तारा
और मेरे दिल में पीकिंग का स्वर्गीय महल
मक्का-मदीना से कम पवित्र नहीं
मैं काशी में उन आर्यों का शंख-नाद सुनता हूँ
जो वोल्गा से आए
मेरी देहली में प्रह्लाद की तपस्याएँ दोनों दुनियाओं की
चौखट पर
युद्ध के हिरण्यकश्य को चीर रही हैं।

यह कौन मेरी धरती की शांति की आत्मा पर कुरबान हो
गया है
अभी सत्य की खोज तो बाकी ही थी
यह एक विशाल अनुभव की चीनी दीवार
उठती ही बढ़ती आ रही है
उसकी ईंटें धड़कते हुए सुर्ख दिल हैं
यह सच्चाइयाँ बहुत गहरी नींवों में जाग रही हैं
वह इतिहास की अनुभूतियाँ हैं
मैंने सोवियत यूसुफ़ के सीने पर कान रखकर सुना है।

अम्न का राग / भाग 4

आज मैंने गोर्की को होरी के आँगन में देखा
और ताज के साए में राजर्षि कुंग को पाया
लिंकन के हाथ में हाथ दिए हुए
और ताल्स्ताय मेरे देहाती यूपियन होंठों से बोल उठा
और अरागों की आँखों में नया इतिहास
मेरे दिल की कहानी की सुर्खी बन गया
मैं जोश की वह मस्ती हूँ जो नेरूदा की भवों से
जाम की तरह टकराती है
वह मेरा नेरुदा जो दुनिया के शांति पोस्ट आफ़िस का
प्यारा और सच्चा क़ासिद
वह मेरा जोश कि दुनिया का मस्त आशिक़
मैं पंत के कुमार छायावादी सावन-भादों की चोट हूँ
हिलोर लेते वर्ष पर
मैं निराला के राम का एक आँसू
जो तीसरे महायुद्ध के कठिन लौह पर्दों को
एटमी सुई-सा पार कर गया पाताल तक
और वहीं उसको रोक दिया
मैं सिर्फ एक महान विजय का इंदीवर जनता की आँख में
जो शांति की पवित्रतम आत्मा है।

पश्चिम मे काले और सफ़ेद फूल हैं और पूरब में पीले और लाल
उत्तर में नीले कई रंग के और हमारे यहाँ चम्पई-साँवले
औऱ दुनिया में हरियाली कहाँ नहीं
जहाँ भी आसमान बादलों से ज़रा भी पोंछे जाते हों
और आज गुलदस्तों मे रंग-रंग के फूल सजे हुए हैं
और आसमान इन खुशियों का आईना है।

अम्न का राग / भाग 5 

आज न्यूयार्क के स्काईस्क्रेपरों पर
शांति से ‘डवों’ और उसके राजहंसों ने
एक मीठे उजले सुख का हल्का-सा अंधेरा
और शोर पैदा कर दिया है।
और अब वो अर्जेन्टीना की सिम्त अतलांतिक को पार कर
रहे हैं
पाल राब्सन ने नई दिल्ली से नए अमरीका की
एक विशाल सिम्फ़नी ब्राडकास्ट की है
औऱ उदयशंकर ने दक्षिणी अफ़्रीका में नई अजंता को
स्टेज पर उतारा है
यह महान नृत्य वह महान स्वर कला और संगीत
मेरा है यानी हर अदना से अदना इंसान का
बिल्कुल अपना निजी।
युद्ध के नक़्शों की कैंची से काटकर कोरियाई बच्चों ने
झिलमिली फूलपत्तों की रौशन फ़ानूसें बना ली हैं
और हथियारों का स्टील और लोहा हज़ारों
देशों को एक-दूसरे से मिलानेवाली रेलों के जाल में बिछ
गया है
और ये बच्चे उन पर दौड़ती हुई रेलों के डिब्बों की
खिड़कियों से
हमारी ओर झाँक रहे हैं
यह फ़ौलाद और लोहा खिलौनों मिठाइयों और किताबों
से लदे स्टीमरों के रूप में
नदियों की सार्थक सजावट बन गया है
या विशाल ट्रैक्टर-कंबाइन और फ़ैक्टरी-मशीनों के
हृदय में
नवीन छंद और लय का प्रयोग कह रहा है।

अम्न का राग / भाग 6

यह सुख का भविष्य शांति की आँखों में ही वर्तमान है
इन आँखों से हम सब अपनी उम्मीदों की आँखें सेंक
रहे हैं
ये आँखें हमारे दिल में रौशन और हमारी पूजा का
फूल हैं
ये आँखें हमारे कानून का सही चमकता हुआ मतलब
और हमारे अधिकारों की ज्योति से भरी शक्ति हैं
ये आँखें हमारे माता-पिता की आत्मा और हमारे बच्चों
का दिल है
ये आँखें हमारे इतिहास की वाणी
और हमारी कला का सच्चा सपना हैं
ये आँखें हमारा अपना नूर और पवित्रता हैं
ये आँखें ही अमर सपनों की हक़ीक़त और
हक़ीक़त का अमर सपना हैं
इनको देख पाना ही अपने आपको देख पाना है, समझ
पाना है।
हम मनाते हैं कि हमारे नेता इनको देख रहे हों।

बात बोलेगी

बात बोलेगी,
हम नहीं।
भेद खोलेगी
बात ही।

सत्य का मुख
झूठ की आँखें
क्या-देखें!

सत्य का रूख़
समय का रूख़ हैः
अभय जनता को
सत्य ही सुख है
सत्य ही सुख।

दैन्य दानव; काल
भीषण; क्रूर
स्थिति; कंगाल
बुद्धि; घर मजूर।

सत्य का
क्या रंग है?-
पूछो
एक संग।
एक-जनता का
दुःख : एक।
हवा में उड़ती पताकाएँ
अनेक।

दैन्य दानव। क्रूर स्थिति।
कंगाल बुद्धि : मजूर घर भर।
एक जनता का – अमर वर :
एकता का स्वर।

 

 

 
 
 
 

 

 

 
 
 
 

 

 

 
 
 
 

 

 
 
 
 

निराला के प्रति

भूलकर जब राह- जब-जब राह…भटका मैं
तुम्हीं झलके, हे महाकवि,
सघन तम की आंख बन मेरे लिए,
अकल क्रोधित प्रकृति का विश्वास बन मेरे लिये-
जगत के उन्माद का
परिचय लिए,-
और आगत-प्राण का संचय लिए, झलके प्रमन तुम,
हे महाकवि! सहजतम लघु एक जीवन में
अखिल का परिणय लिए-
प्राणमय संचार करते शक्ति औ’ छवि के मिलन का हास मंगलमय;
मधुर आठों याम
विसुध खुलते
कंठस्वर में तुम्हारे, कवि,
एक ऋतुओं के विहंसते सूर्य!
काल में (तम घोर)-
बरसाते प्रवाहित रस अथोर अथाह!
छू, किया करते
आधुनिकतम दाह मानव का
साधना स्वर से
शांत-शीतलतम ।

हाँ, तुम्हीं हो, एक मेरे कवि :
जानता क्या मैं-
हृदय में भरकर तुम्हारी साँस-
किस तरह गाता,
(ओ विभूति परंपरा की!)
समझ भी पाता तुम्हें यदि मैं कि जितना चाहता हूँ,
महाकवि मेरे !


(1939 में विरचित,’कुछ कविताएँ’ नामक कविता-संग्रह से)

राग

1
मैंने शाम से पूछा –
             या शाम ने मुझसे पूछा :
                  इन बातों का मतलब?
मैंने कहा –
शाम ने मुझसे कहा :
              राग अपना है।
 

2
आँखें मुँद गयीं।
सरलता का आकाश था
जैसे त्रिलोचन की रचनाएँ।
नींद ही इच्‍छाएँ।
 

3
मैने उससे पूछा –
उसने मुझसे :
            कब?
मैंने कहा –
उसने मुझसे कहा :
            समय अपना राग है।

4
तुमने ‘धरती’ का पद्य पढ़ा है?
उसकी सहजता प्राण है।
तुमने अपनी यादों की पुस्‍तक खोली है?
जब यादें मिटती हुई एकाएक स्‍पष्‍ट हो गयी हों?
जब आँसू छलक न जाकर
आकाश का फूल बन गया हो?
– वह मेरी कविताओं-सा मुझे लगेगा :
तब तुम मुझे क्‍या कहोगे?
 

5
उसने मुझसे पूछा, तुम्‍हारी कविताओं का क्‍या मतलब है?
मैंने कहा – कुछ नहीं।
उसने पूछा – फिर तुम इन्‍हें क्‍यों लिखते हो?
मैंने कहा – ये लिख जाती हैं। तब
इनकी रक्षा कैसे हो जाती है?
                    उसने क्‍यों यह प्रश्‍न किया?
 

मैंने पूछा :
मेरी रक्षा कहाँ होती है? मेरी साँस तो –
तुम्‍हारी कविताएँ हैं : उसने कहा। पर –
 

इन साँसों की रक्षा कैसे होती आई?
वे साँसों में बँध गये; शायद ऐसी ही रक्षा
          होती आई। फिर बहुत-से गीत
          खो गये।
 

6
वह अनायास मेरा पद गुनगुनाता हुआ बैठा
         रहा, और मैंने उसकी ओर
         देखा, और मैं समझ गया।
और यह संग्रह उसी के हाथों में खो गया।
 

7
उसने मुझसे पूछा, इन शब्‍दों का क्‍या
     मतलब है? मैंने कहा : शब्‍द
     कहाँ है? वह मौन मेरी ओर
     देखता चुप रहा। फिर मैंने
     श्रम-पूर्वक बोलते हुए कहा – कि :
     शाम हो गयी है। उसने मेरी
     आँखों में देखा, और फिर – एकटक देखता
     ही रहा। क्‍यों फिर उसने मेरा संग्रह
     अपनी धुँधली गोद में खोला और
     मुझसे कुछ भी पूछना भूल गया।
     मुझको भी नहीं मालूम, कौन था
     वह। केवल वह मुझे याद है।
 

8
तब छंदों के तार खिंचे-खिंचे थे,
राग बँधा-बँधा था,
प्‍यास उँगलियों में विकल थी –
कि मेघ गरजे;
और मोर दूर और कई दिशाओं से
बोलने लगे – पीयूअ! पीयूअ! उनकी
हीरे-नीलम की गर्दनें बिजलियों की तरह
हरियाली के आगे चमक रही थीं।
कहीं छिपा हुआ बहता पानी
बोल रहा था : अपने स्‍पष्‍टमधुर
प्रवाहित बोल।
[1945

एक नीला आईना बेठोस / 

एक नीला आईना
बेठोस-सी यह चाँदनी
और अंदर चल रहा हूँ मैं
उसी के महातल के मौन में ।
मौन में इतिहास का
कन किरन जीवित, एक, बस ।
एक पल की ओट में है कुल जहान ।
आत्मा है
अखिल की हठ-सी ।
चाँदनी में घुल गए हैं
बहुत-से तारे, बहुत कुछ
घुल गया हूँ मैं
बहुत कुछ अब ।
रह गया-सा एक सीधा बिंब
चल रहा है जो
शांत इंगित-सा
न जाने किधर ।

एक नीला आईना बेठोस

एक नीला आईना
बेठोस-सी यह चाँदनी
और अंदर चल रहा हूँ मैं
उसी के महातल के मौन में ।
मौन में इतिहास का
कन किरन जीवित, एक, बस ।
एक पल की ओट में है कुल जहान ।
आत्मा है
अखिल की हठ-सी ।
चाँदनी में घुल गए हैं
बहुत-से तारे, बहुत कुछ
घुल गया हूँ मैं
बहुत कुछ अब ।
रह गया-सा एक सीधा बिंब
चल रहा है जो
शांत इंगित-सा
न जाने किधर ।

पूर्णिमा का चाँद

 

चाँद निकला बादलों से पूर्णिमा का।
        गल रहा है आसमान।
एक दरिया उबलकर पीले गुलाबों का
        चूमता है बादलों के झिलमिलाते
        स्वप्न जैसे पाँव।

उषा

प्रात नभ था बहुत नीला शंख जैसे

भोर का नभ

राख से लीपा हुआ चौका
(अभी गीला पड़ा है)

बहुत काली सिल जरा-से लाल केशर से
कि धुल गयी हो

स्लेट पर या लाल खड़िया चाक
        मल दी हो किसी ने

नील जल में या किसी की
        गौर झिलमिल देह
जैसे हिल रही हो ।

और…
        जादू टूटता है इस उषा का अब
सूर्योदय हो रहा है।


(कविता-संग्रह, “टूटी हुई बिखरी हुई” से)

लेकर सीधा नारा

लेकर सीधा नारा

कौन पुकारा

अंतिम आशाओं की संध्याओं से ?

पलकें डूबी ही-सी थीं —

पर अभी नहीं;

कोई सुनता-सा था मुझे

कहीं;

फिर किसने यह, सातों सागर के पार

एकाकीपन से ही, मानो-हार,

एकाकी उठ मुझे पुकारा

कई बार ?

मैं समाज तो नहीं; न मैं कुल

जीवन;

कण-समूह में हूँ मैं केवल

एक कण ।

–कौन सहारा !

मेरा कौन सहारा !

रेडियो पर एक योरपीय संगीत सुनकर /

मैं
सुनूँगा तेरी आवाज
पैरती बर्फ की सतह में तीर-सी
            शबनम की रातों में
                  तारों की टूटती
                         गर्म
                         गर्म
                              शमशीर-सी –
            तेरी आवाज
                   खाबों में घूमती-झूमती
                          आहों की एक तसवीर सी
                   सुनूँगा : मेरी-तेरी है वह
                          खोई हुई
                          रोई हुई
                               एक तकदीर-सी
परदों में – जल के – शान्त
      झिलमिल
      झिलमिल
             कमलदल।
 
रात की हँसी है तेरे गले में,
                  सीने में,
            बहुत काली सुर्मयी पलकों में,
            साँसों में, लहरीली अलकों में :
                        आयी तू, ओ किसकी!
                        फिर मुसकरायी तू
            नींद में – खामोश… वस्‍ल।
 
शुरू है आखिरी पीर।
 
सलाम!…
मेरे दर्द से हमकलाम
            न हो!
       जा, अब सो,
            न रो।
तू मेरी बेबस बाँहों पर, सर रख कर, ओह,
           न रो !

     जो कुछ है
     जो कुछ है
          खो!
          खो!
          खो!
ओ शीरीं! ओ लैला! ओ हीर!
          – जा!
          – जा!
          – जा! – सो!…

× ×

बेखबर मैं,
बाखबर आधी-सी रात।
बेखबर सपने हैं।
बाखबर है एक, बस, उसकी जात!
       तू मेरी!…
       आमीन!
       आमीन!
       आमीन!

एक पीली शाम

 

एक पीली शाम
      पतझर का जरा अटका हुआ पत्ता
शान्त
मेरी भावनाओं में तुम्‍हारा मुखकमल
कृश म्‍लान हारा-सा
     (कि मैं हूँ वह
मौन दर्पण में तुम्‍हारे कहीं?)

     वासना डूबी
     शिथिल पल में
     स्‍नेह काजल में
     लिये अद्भुत रूप-कोमलता

अब गिरा अब गिरा वह अटका हुआ आँसू
सान्‍ध्‍य तारक-सा
      अतल में।

[1953]

अंतिम विनिमय

हृदय का परिवार काँपा अकस्मात ।

भावनाओं में हुआ भूडोल-सा ।

पूछता है मौन का एकांत हाथ

वक्ष छू, यह प्रश्न कैसा गोल-सा:

प्रात-रव है दूर जो “हरि बोल!”-सा,

पार, सपना है–कि धारा है–कि रात ?

कुहा में कुछ सर झुकाए, साथ-साथ,

जा रहा परछाइयों का गोल-सा ।

प्राण का है मृत्यु से कुछ मोल-सा;

सत्य की है एक बोली, एक बात ।

( १९४५ में लिखित )

शाम होने को हुई

शाम होने को हुई, लौटे किसान
दूर पेड़ों में बढ़ा खग-रव।
धूल में लिपटा हुआ है आसमान :
शाम होने को हुई, नीरव।
 
तू न चेता। काम से थक कर
फटे-मैले वस्‍त्र में कमकर
लौट आये खोलियों में मौन।
चेतने वाला न तू – है कौन?
 
शाम; हम-तुम, और बाबू लोग,
लड़कियाँ चंचल, निठल्‍ले युवक,
स्‍फूर्त-मन सब सिनेमा की ओर
चले : जाने कौन-सी है ललक।
 
घुमड़ते-घुटते हृदय के भाव
चित्रपट पर नग्‍न आते बिखर :
आर्थिक वास्‍तविकता का दाँव
भूल, हम छूते अपार्थिव शिखर।
 
हाय कर उठते हमारे नयन;
होंट सी लेते दबा अफसोस :
माँगता उर-भार अन्तिम शयन …
चाँदनी सित वक्ष कोमल ओस।
 
दूर की मर्मर-मिली नीहार,
दूर की नीहार मालाएँ;
निकट, तम-विक्षिप्‍त सागर-फेन।
एक ही आह्वान : आ जाएँ!
आज आ जाएँ हमारे ऐन!
 
भूल के मंदिर सुघर बहुमूल्‍य
हृदय को विश्‍वास देते दान :
प्राप्‍य श्‍लाघा से अयाचित मान;
स्‍वप्‍न भावी, द्रव्‍य से अनुकूल।
 
दीन का व्‍यापार श्‍लाघामय!
… …
छिन्‍न-दल कर कागजी विस्‍मय
सत्‍य के बल शूल हूलूँ मैं!
– शाम निर्धन की न भूलूँ मैं!

रात हो आयी; चमक उट्ठे कई
बल्ब; ऊपर अग्रहायण, दूर –
नभ में। दूर तक उट्ठे अधीर
भाव …कैसे सहज, कैसे क्रूर!
[1945]

कठिन प्रस्तर में 

कठिन प्रस्‍तर में अगिन सूराख।
मौन पर्तों में हिला मैं कीट।
(ढीठ कितनी रीढ़ है तन की –
                  तनी है!)
 

आत्‍मा है भाव :
भाव-दीठ
      झुक रही है
अगम अंतर में
      अनगिनत सूराख-सी करती।

अम्न का राग / भाग 1 

सच्चाइयाँ
जो गंगा के गोमुख से मोती की तरह बिखरती रहती हैं
हिमालय की बर्फ़ीली चोटी पर चाँदी के उन्मुक्त नाचते
परों में झिलमिलाती रहती हैं
जो एक हज़ार रंगों के मोतियों का खिलखिलाता समन्दर है
उमंगों से भरी फूलों की जवान कश्तियाँ
कि बसंत के नए प्रभात सागर में छोड़ दी गई हैं।

ये पूरब-पश्चिम मेरी आत्मा के ताने-बाने हैं
मैंने एशिया की सतरंगी किरनों को अपनी दिशाओं के गिर्द

लपेट लिया
और मैं यूरोप और अमरीका की नर्म आँच की धूप-छाँव पर

बहुत हौले-हौले से नाच रहा हूँ
सब संस्कृतियाँ मेरे संगम में विभोर हैं
क्योंकि मैं हृदय की सच्ची सुख-शांति का राग हूँ
बहुत आदिम, बहुत अभिनव।

हम एक साथ उषा के मधुर अधर बन उठे
सुलग उठे हैं
सब एक साथ ढाई अरब धड़कनों में बज उठे हैं
सिम्फोनिक आनंद की तरह
यह हमारी गाती हुई एकता
संसार के पंच परमेश्वर का मुकुट पहन
अमरता के सिंहासन पर आज हमारा अखिल लोकप्रेसिडेंट

बन उठी है

 

अम्न का राग / भाग 2 

देखो न हक़ीक़त हमारे समय की जिसमें
होमर एक हिन्दी कवि सरदार जाफ़री को
इशारे से अपने क़रीब बुला रहा है
कि जिसमें
फ़ैयाज़ खाँ बिटाफ़ेन के कान में कुछ कह रहा है
मैंने समझा कि संगीत की कोई अमर लता हिल उठी
मैं शेक्सपियर का ऊँचा माथा उज्जैन की घाटियों में
झलकता हुआ देख रहा हूँ
और कालिदास को वैमर कुंजों में विहार करते
और आज तो मेरा टैगोर मेरा हाफ़िज़ मेरा तुलसी मेरा
ग़ालिब
एक-एक मेरे दिल के जगमग पावर हाउस का
कुशल आपरेटर है।

आज सब तुम्हारे ही लिए शांति का युग चाहते हैं
मेरी कुटुबुटु
तुम्हारे ही लिए मेरे प्रतिभाशाली भाई तेजबहादुर
मेरे गुलाब की कलियों से हँसते-खेलते बच्चों
तुम्हारे ही लिए, तुम्हारे ही लिए
मेरे दोस्तों, जिनमें ज़िन्दगी में मानी पैदा होते हैं
और उस निश्छल प्रेम के लिए
जो माँ की मूर्ति है
और उस अमर परमशक्ति के लिए जो पिता का रूप है।

अम्न का राग / भाग 3

हर घर में सुख
शांति का युग
हर छोटा-बड़ा हर नया पुराना आज-कल-परसों के
आगे और पीछे का युग
शांति की स्निग्ध कला में डूबा हुआ
क्योंकि इसी कला का नाम भरी-पूरी गति है।

मुझे अमरीका का लिबर्टी स्टैचू उतना ही प्यारा है
जितना मास्को का लाल तारा
और मेरे दिल में पीकिंग का स्वर्गीय महल
मक्का-मदीना से कम पवित्र नहीं
मैं काशी में उन आर्यों का शंख-नाद सुनता हूँ
जो वोल्गा से आए
मेरी देहली में प्रह्लाद की तपस्याएँ दोनों दुनियाओं की
चौखट पर
युद्ध के हिरण्यकश्य को चीर रही हैं।

यह कौन मेरी धरती की शांति की आत्मा पर कुरबान हो
गया है
अभी सत्य की खोज तो बाकी ही थी
यह एक विशाल अनुभव की चीनी दीवार
उठती ही बढ़ती आ रही है
उसकी ईंटें धड़कते हुए सुर्ख दिल हैं
यह सच्चाइयाँ बहुत गहरी नींवों में जाग रही हैं
वह इतिहास की अनुभूतियाँ हैं
मैंने सोवियत यूसुफ़ के सीने पर कान रखकर सुना है।

अम्न का राग / भाग 4

आज मैंने गोर्की को होरी के आँगन में देखा
और ताज के साए में राजर्षि कुंग को पाया
लिंकन के हाथ में हाथ दिए हुए
और ताल्स्ताय मेरे देहाती यूपियन होंठों से बोल उठा
और अरागों की आँखों में नया इतिहास
मेरे दिल की कहानी की सुर्खी बन गया
मैं जोश की वह मस्ती हूँ जो नेरूदा की भवों से
जाम की तरह टकराती है
वह मेरा नेरुदा जो दुनिया के शांति पोस्ट आफ़िस का
प्यारा और सच्चा क़ासिद
वह मेरा जोश कि दुनिया का मस्त आशिक़
मैं पंत के कुमार छायावादी सावन-भादों की चोट हूँ
हिलोर लेते वर्ष पर
मैं निराला के राम का एक आँसू
जो तीसरे महायुद्ध के कठिन लौह पर्दों को
एटमी सुई-सा पार कर गया पाताल तक
और वहीं उसको रोक दिया
मैं सिर्फ एक महान विजय का इंदीवर जनता की आँख में
जो शांति की पवित्रतम आत्मा है।

पश्चिम मे काले और सफ़ेद फूल हैं और पूरब में पीले और लाल
उत्तर में नीले कई रंग के और हमारे यहाँ चम्पई-साँवले
औऱ दुनिया में हरियाली कहाँ नहीं
जहाँ भी आसमान बादलों से ज़रा भी पोंछे जाते हों
और आज गुलदस्तों मे रंग-रंग के फूल सजे हुए हैं
और आसमान इन खुशियों का आईना है।

अम्न का राग / भाग 5 

आज न्यूयार्क के स्काईस्क्रेपरों पर
शांति से ‘डवों’ और उसके राजहंसों ने
एक मीठे उजले सुख का हल्का-सा अंधेरा
और शोर पैदा कर दिया है।
और अब वो अर्जेन्टीना की सिम्त अतलांतिक को पार कर
रहे हैं
पाल राब्सन ने नई दिल्ली से नए अमरीका की
एक विशाल सिम्फ़नी ब्राडकास्ट की है
औऱ उदयशंकर ने दक्षिणी अफ़्रीका में नई अजंता को
स्टेज पर उतारा है
यह महान नृत्य वह महान स्वर कला और संगीत
मेरा है यानी हर अदना से अदना इंसान का
बिल्कुल अपना निजी।
युद्ध के नक़्शों की कैंची से काटकर कोरियाई बच्चों ने
झिलमिली फूलपत्तों की रौशन फ़ानूसें बना ली हैं
और हथियारों का स्टील और लोहा हज़ारों
देशों को एक-दूसरे से मिलानेवाली रेलों के जाल में बिछ
गया है
और ये बच्चे उन पर दौड़ती हुई रेलों के डिब्बों की
खिड़कियों से
हमारी ओर झाँक रहे हैं
यह फ़ौलाद और लोहा खिलौनों मिठाइयों और किताबों
से लदे स्टीमरों के रूप में
नदियों की सार्थक सजावट बन गया है
या विशाल ट्रैक्टर-कंबाइन और फ़ैक्टरी-मशीनों के
हृदय में
नवीन छंद और लय का प्रयोग कह रहा है।

अम्न का राग / भाग 6

यह सुख का भविष्य शांति की आँखों में ही वर्तमान है
इन आँखों से हम सब अपनी उम्मीदों की आँखें सेंक
रहे हैं
ये आँखें हमारे दिल में रौशन और हमारी पूजा का
फूल हैं
ये आँखें हमारे कानून का सही चमकता हुआ मतलब
और हमारे अधिकारों की ज्योति से भरी शक्ति हैं
ये आँखें हमारे माता-पिता की आत्मा और हमारे बच्चों
का दिल है
ये आँखें हमारे इतिहास की वाणी
और हमारी कला का सच्चा सपना हैं
ये आँखें हमारा अपना नूर और पवित्रता हैं
ये आँखें ही अमर सपनों की हक़ीक़त और
हक़ीक़त का अमर सपना हैं
इनको देख पाना ही अपने आपको देख पाना है, समझ
पाना है।
हम मनाते हैं कि हमारे नेता इनको देख रहे हों।

बात बोलेगी

बात बोलेगी,
हम नहीं।
भेद खोलेगी
बात ही।

सत्य का मुख
झूठ की आँखें
क्या-देखें!

सत्य का रूख़
समय का रूख़ हैः
अभय जनता को
सत्य ही सुख है
सत्य ही सुख।

दैन्य दानव; काल
भीषण; क्रूर
स्थिति; कंगाल
बुद्धि; घर मजूर।

सत्य का
क्या रंग है?-
पूछो
एक संग।
एक-जनता का
दुःख : एक।
हवा में उड़ती पताकाएँ
अनेक।

दैन्य दानव। क्रूर स्थिति।
कंगाल बुद्धि : मजूर घर भर।
एक जनता का – अमर वर :
एकता का स्वर।

निराला के प्रति

भूलकर जब राह- जब-जब राह…भटका मैं
तुम्हीं झलके, हे महाकवि,
सघन तम की आंख बन मेरे लिए,
अकल क्रोधित प्रकृति का विश्वास बन मेरे लिये-
जगत के उन्माद का
परिचय लिए,-
और आगत-प्राण का संचय लिए, झलके प्रमन तुम,
हे महाकवि! सहजतम लघु एक जीवन में
अखिल का परिणय लिए-
प्राणमय संचार करते शक्ति औ’ छवि के मिलन का हास मंगलमय;
मधुर आठों याम
विसुध खुलते
कंठस्वर में तुम्हारे, कवि,
एक ऋतुओं के विहंसते सूर्य!
काल में (तम घोर)-
बरसाते प्रवाहित रस अथोर अथाह!
छू, किया करते
आधुनिकतम दाह मानव का
साधना स्वर से
शांत-शीतलतम ।

हाँ, तुम्हीं हो, एक मेरे कवि :
जानता क्या मैं-
हृदय में भरकर तुम्हारी साँस-
किस तरह गाता,
(ओ विभूति परंपरा की!)
समझ भी पाता तुम्हें यदि मैं कि जितना चाहता हूँ,
महाकवि मेरे !


(1939 में विरचित,’कुछ कविताएँ’ नामक कविता-संग्रह से)

राग

1
मैंने शाम से पूछा –
             या शाम ने मुझसे पूछा :
                  इन बातों का मतलब?
मैंने कहा –
शाम ने मुझसे कहा :
              राग अपना है।
 

2
आँखें मुँद गयीं।
सरलता का आकाश था
जैसे त्रिलोचन की रचनाएँ।
नींद ही इच्‍छाएँ।
 

3
मैने उससे पूछा –
उसने मुझसे :
            कब?
मैंने कहा –
उसने मुझसे कहा :
            समय अपना राग है।

4
तुमने ‘धरती’ का पद्य पढ़ा है?
उसकी सहजता प्राण है।
तुमने अपनी यादों की पुस्‍तक खोली है?
जब यादें मिटती हुई एकाएक स्‍पष्‍ट हो गयी हों?
जब आँसू छलक न जाकर
आकाश का फूल बन गया हो?
– वह मेरी कविताओं-सा मुझे लगेगा :
तब तुम मुझे क्‍या कहोगे?
 

5
उसने मुझसे पूछा, तुम्‍हारी कविताओं का क्‍या मतलब है?
मैंने कहा – कुछ नहीं।
उसने पूछा – फिर तुम इन्‍हें क्‍यों लिखते हो?
मैंने कहा – ये लिख जाती हैं। तब
इनकी रक्षा कैसे हो जाती है?
                    उसने क्‍यों यह प्रश्‍न किया?
 

मैंने पूछा :
मेरी रक्षा कहाँ होती है? मेरी साँस तो –
तुम्‍हारी कविताएँ हैं : उसने कहा। पर –
 

इन साँसों की रक्षा कैसे होती आई?
वे साँसों में बँध गये; शायद ऐसी ही रक्षा
          होती आई। फिर बहुत-से गीत
          खो गये।
 

6
वह अनायास मेरा पद गुनगुनाता हुआ बैठा
         रहा, और मैंने उसकी ओर
         देखा, और मैं समझ गया।
और यह संग्रह उसी के हाथों में खो गया।
 

7
उसने मुझसे पूछा, इन शब्‍दों का क्‍या
     मतलब है? मैंने कहा : शब्‍द
     कहाँ है? वह मौन मेरी ओर
     देखता चुप रहा। फिर मैंने
     श्रम-पूर्वक बोलते हुए कहा – कि :
     शाम हो गयी है। उसने मेरी
     आँखों में देखा, और फिर – एकटक देखता
     ही रहा। क्‍यों फिर उसने मेरा संग्रह
     अपनी धुँधली गोद में खोला और
     मुझसे कुछ भी पूछना भूल गया।
     मुझको भी नहीं मालूम, कौन था
     वह। केवल वह मुझे याद है।
 

8
तब छंदों के तार खिंचे-खिंचे थे,
राग बँधा-बँधा था,
प्‍यास उँगलियों में विकल थी –
कि मेघ गरजे;
और मोर दूर और कई दिशाओं से
बोलने लगे – पीयूअ! पीयूअ! उनकी
हीरे-नीलम की गर्दनें बिजलियों की तरह
हरियाली के आगे चमक रही थीं।
कहीं छिपा हुआ बहता पानी
बोल रहा था : अपने स्‍पष्‍टमधुर
प्रवाहित बोल।
[1945

एक नीला आईना बेठोस / 

एक नीला आईना
बेठोस-सी यह चाँदनी
और अंदर चल रहा हूँ मैं
उसी के महातल के मौन में ।
मौन में इतिहास का
कन किरन जीवित, एक, बस ।
एक पल की ओट में है कुल जहान ।
आत्मा है
अखिल की हठ-सी ।
चाँदनी में घुल गए हैं
बहुत-से तारे, बहुत कुछ
घुल गया हूँ मैं
बहुत कुछ अब ।
रह गया-सा एक सीधा बिंब
चल रहा है जो
शांत इंगित-सा
न जाने किधर ।

एक नीला आईना बेठोस

एक नीला आईना
बेठोस-सी यह चाँदनी
और अंदर चल रहा हूँ मैं
उसी के महातल के मौन में ।
मौन में इतिहास का
कन किरन जीवित, एक, बस ।
एक पल की ओट में है कुल जहान ।
आत्मा है
अखिल की हठ-सी ।
चाँदनी में घुल गए हैं
बहुत-से तारे, बहुत कुछ
घुल गया हूँ मैं
बहुत कुछ अब ।
रह गया-सा एक सीधा बिंब
चल रहा है जो
शांत इंगित-सा
न जाने किधर ।

पूर्णिमा का चाँद

 

चाँद निकला बादलों से पूर्णिमा का।
        गल रहा है आसमान।
एक दरिया उबलकर पीले गुलाबों का
        चूमता है बादलों के झिलमिलाते
        स्वप्न जैसे पाँव।

उषा

प्रात नभ था बहुत नीला शंख जैसे

भोर का नभ

राख से लीपा हुआ चौका
(अभी गीला पड़ा है)

बहुत काली सिल जरा-से लाल केशर से
कि धुल गयी हो

स्लेट पर या लाल खड़िया चाक
        मल दी हो किसी ने

नील जल में या किसी की
        गौर झिलमिल देह
जैसे हिल रही हो ।

और…
        जादू टूटता है इस उषा का अब
सूर्योदय हो रहा है।


(कविता-संग्रह, “टूटी हुई बिखरी हुई” से)

लेकर सीधा नारा

लेकर सीधा नारा

कौन पुकारा

अंतिम आशाओं की संध्याओं से ?

पलकें डूबी ही-सी थीं —

पर अभी नहीं;

कोई सुनता-सा था मुझे

कहीं;

फिर किसने यह, सातों सागर के पार

एकाकीपन से ही, मानो-हार,

एकाकी उठ मुझे पुकारा

कई बार ?

मैं समाज तो नहीं; न मैं कुल

जीवन;

कण-समूह में हूँ मैं केवल

एक कण ।

–कौन सहारा !

मेरा कौन सहारा !

रेडियो पर एक योरपीय संगीत सुनकर /

मैं
सुनूँगा तेरी आवाज
पैरती बर्फ की सतह में तीर-सी
            शबनम की रातों में
                  तारों की टूटती
                         गर्म
                         गर्म
                              शमशीर-सी –
            तेरी आवाज
                   खाबों में घूमती-झूमती
                          आहों की एक तसवीर सी
                   सुनूँगा : मेरी-तेरी है वह
                          खोई हुई
                          रोई हुई
                               एक तकदीर-सी
परदों में – जल के – शान्त
      झिलमिल
      झिलमिल
             कमलदल।
 
रात की हँसी है तेरे गले में,
                  सीने में,
            बहुत काली सुर्मयी पलकों में,
            साँसों में, लहरीली अलकों में :
                        आयी तू, ओ किसकी!
                        फिर मुसकरायी तू
            नींद में – खामोश… वस्‍ल।
 
शुरू है आखिरी पीर।
 
सलाम!…
मेरे दर्द से हमकलाम
            न हो!
       जा, अब सो,
            न रो।
तू मेरी बेबस बाँहों पर, सर रख कर, ओह,
           न रो !

     जो कुछ है
     जो कुछ है
          खो!
          खो!
          खो!
ओ शीरीं! ओ लैला! ओ हीर!
          – जा!
          – जा!
          – जा! – सो!…

× ×

बेखबर मैं,
बाखबर आधी-सी रात।
बेखबर सपने हैं।
बाखबर है एक, बस, उसकी जात!
       तू मेरी!…
       आमीन!
       आमीन!
       आमीन!

एक पीली शाम

 

एक पीली शाम
      पतझर का जरा अटका हुआ पत्ता
शान्त
मेरी भावनाओं में तुम्‍हारा मुखकमल
कृश म्‍लान हारा-सा
     (कि मैं हूँ वह
मौन दर्पण में तुम्‍हारे कहीं?)

     वासना डूबी
     शिथिल पल में
     स्‍नेह काजल में
     लिये अद्भुत रूप-कोमलता

अब गिरा अब गिरा वह अटका हुआ आँसू
सान्‍ध्‍य तारक-सा
      अतल में।

[1953]

अंतिम विनिमय

हृदय का परिवार काँपा अकस्मात ।

भावनाओं में हुआ भूडोल-सा ।

पूछता है मौन का एकांत हाथ

वक्ष छू, यह प्रश्न कैसा गोल-सा:

प्रात-रव है दूर जो “हरि बोल!”-सा,

पार, सपना है–कि धारा है–कि रात ?

कुहा में कुछ सर झुकाए, साथ-साथ,

जा रहा परछाइयों का गोल-सा ।

प्राण का है मृत्यु से कुछ मोल-सा;

सत्य की है एक बोली, एक बात ।

( १९४५ में लिखित )

शाम होने को हुई

शाम होने को हुई, लौटे किसान
दूर पेड़ों में बढ़ा खग-रव।
धूल में लिपटा हुआ है आसमान :
शाम होने को हुई, नीरव।
 
तू न चेता। काम से थक कर
फटे-मैले वस्‍त्र में कमकर
लौट आये खोलियों में मौन।
चेतने वाला न तू – है कौन?
 
शाम; हम-तुम, और बाबू लोग,
लड़कियाँ चंचल, निठल्‍ले युवक,
स्‍फूर्त-मन सब सिनेमा की ओर
चले : जाने कौन-सी है ललक।
 
घुमड़ते-घुटते हृदय के भाव
चित्रपट पर नग्‍न आते बिखर :
आर्थिक वास्‍तविकता का दाँव
भूल, हम छूते अपार्थिव शिखर।
 
हाय कर उठते हमारे नयन;
होंट सी लेते दबा अफसोस :
माँगता उर-भार अन्तिम शयन …
चाँदनी सित वक्ष कोमल ओस।
 
दूर की मर्मर-मिली नीहार,
दूर की नीहार मालाएँ;
निकट, तम-विक्षिप्‍त सागर-फेन।
एक ही आह्वान : आ जाएँ!
आज आ जाएँ हमारे ऐन!
 
भूल के मंदिर सुघर बहुमूल्‍य
हृदय को विश्‍वास देते दान :
प्राप्‍य श्‍लाघा से अयाचित मान;
स्‍वप्‍न भावी, द्रव्‍य से अनुकूल।
 
दीन का व्‍यापार श्‍लाघामय!
… …
छिन्‍न-दल कर कागजी विस्‍मय
सत्‍य के बल शूल हूलूँ मैं!
– शाम निर्धन की न भूलूँ मैं!

रात हो आयी; चमक उट्ठे कई
बल्ब; ऊपर अग्रहायण, दूर –
नभ में। दूर तक उट्ठे अधीर
भाव …कैसे सहज, कैसे क्रूर!
[1945]

कठिन प्रस्तर में 

कठिन प्रस्‍तर में अगिन सूराख।
मौन पर्तों में हिला मैं कीट।
(ढीठ कितनी रीढ़ है तन की –
                  तनी है!)
 

आत्‍मा है भाव :
भाव-दीठ
      झुक रही है
अगम अंतर में
      अनगिनत सूराख-सी करती।

अम्न का राग / भाग 1 

सच्चाइयाँ
जो गंगा के गोमुख से मोती की तरह बिखरती रहती हैं
हिमालय की बर्फ़ीली चोटी पर चाँदी के उन्मुक्त नाचते
परों में झिलमिलाती रहती हैं
जो एक हज़ार रंगों के मोतियों का खिलखिलाता समन्दर है
उमंगों से भरी फूलों की जवान कश्तियाँ
कि बसंत के नए प्रभात सागर में छोड़ दी गई हैं।

ये पूरब-पश्चिम मेरी आत्मा के ताने-बाने हैं
मैंने एशिया की सतरंगी किरनों को अपनी दिशाओं के गिर्द

लपेट लिया
और मैं यूरोप और अमरीका की नर्म आँच की धूप-छाँव पर

बहुत हौले-हौले से नाच रहा हूँ
सब संस्कृतियाँ मेरे संगम में विभोर हैं
क्योंकि मैं हृदय की सच्ची सुख-शांति का राग हूँ
बहुत आदिम, बहुत अभिनव।

हम एक साथ उषा के मधुर अधर बन उठे
सुलग उठे हैं
सब एक साथ ढाई अरब धड़कनों में बज उठे हैं
सिम्फोनिक आनंद की तरह
यह हमारी गाती हुई एकता
संसार के पंच परमेश्वर का मुकुट पहन
अमरता के सिंहासन पर आज हमारा अखिल लोकप्रेसिडेंट

बन उठी है

 

अम्न का राग / भाग 2 

देखो न हक़ीक़त हमारे समय की जिसमें
होमर एक हिन्दी कवि सरदार जाफ़री को
इशारे से अपने क़रीब बुला रहा है
कि जिसमें
फ़ैयाज़ खाँ बिटाफ़ेन के कान में कुछ कह रहा है
मैंने समझा कि संगीत की कोई अमर लता हिल उठी
मैं शेक्सपियर का ऊँचा माथा उज्जैन की घाटियों में
झलकता हुआ देख रहा हूँ
और कालिदास को वैमर कुंजों में विहार करते
और आज तो मेरा टैगोर मेरा हाफ़िज़ मेरा तुलसी मेरा
ग़ालिब
एक-एक मेरे दिल के जगमग पावर हाउस का
कुशल आपरेटर है।

आज सब तुम्हारे ही लिए शांति का युग चाहते हैं
मेरी कुटुबुटु
तुम्हारे ही लिए मेरे प्रतिभाशाली भाई तेजबहादुर
मेरे गुलाब की कलियों से हँसते-खेलते बच्चों
तुम्हारे ही लिए, तुम्हारे ही लिए
मेरे दोस्तों, जिनमें ज़िन्दगी में मानी पैदा होते हैं
और उस निश्छल प्रेम के लिए
जो माँ की मूर्ति है
और उस अमर परमशक्ति के लिए जो पिता का रूप है।

अम्न का राग / भाग 3

हर घर में सुख
शांति का युग
हर छोटा-बड़ा हर नया पुराना आज-कल-परसों के
आगे और पीछे का युग
शांति की स्निग्ध कला में डूबा हुआ
क्योंकि इसी कला का नाम भरी-पूरी गति है।

मुझे अमरीका का लिबर्टी स्टैचू उतना ही प्यारा है
जितना मास्को का लाल तारा
और मेरे दिल में पीकिंग का स्वर्गीय महल
मक्का-मदीना से कम पवित्र नहीं
मैं काशी में उन आर्यों का शंख-नाद सुनता हूँ
जो वोल्गा से आए
मेरी देहली में प्रह्लाद की तपस्याएँ दोनों दुनियाओं की
चौखट पर
युद्ध के हिरण्यकश्य को चीर रही हैं।

यह कौन मेरी धरती की शांति की आत्मा पर कुरबान हो
गया है
अभी सत्य की खोज तो बाकी ही थी
यह एक विशाल अनुभव की चीनी दीवार
उठती ही बढ़ती आ रही है
उसकी ईंटें धड़कते हुए सुर्ख दिल हैं
यह सच्चाइयाँ बहुत गहरी नींवों में जाग रही हैं
वह इतिहास की अनुभूतियाँ हैं
मैंने सोवियत यूसुफ़ के सीने पर कान रखकर सुना है।

अम्न का राग / भाग 4

आज मैंने गोर्की को होरी के आँगन में देखा
और ताज के साए में राजर्षि कुंग को पाया
लिंकन के हाथ में हाथ दिए हुए
और ताल्स्ताय मेरे देहाती यूपियन होंठों से बोल उठा
और अरागों की आँखों में नया इतिहास
मेरे दिल की कहानी की सुर्खी बन गया
मैं जोश की वह मस्ती हूँ जो नेरूदा की भवों से
जाम की तरह टकराती है
वह मेरा नेरुदा जो दुनिया के शांति पोस्ट आफ़िस का
प्यारा और सच्चा क़ासिद
वह मेरा जोश कि दुनिया का मस्त आशिक़
मैं पंत के कुमार छायावादी सावन-भादों की चोट हूँ
हिलोर लेते वर्ष पर
मैं निराला के राम का एक आँसू
जो तीसरे महायुद्ध के कठिन लौह पर्दों को
एटमी सुई-सा पार कर गया पाताल तक
और वहीं उसको रोक दिया
मैं सिर्फ एक महान विजय का इंदीवर जनता की आँख में
जो शांति की पवित्रतम आत्मा है।

पश्चिम मे काले और सफ़ेद फूल हैं और पूरब में पीले और लाल
उत्तर में नीले कई रंग के और हमारे यहाँ चम्पई-साँवले
औऱ दुनिया में हरियाली कहाँ नहीं
जहाँ भी आसमान बादलों से ज़रा भी पोंछे जाते हों
और आज गुलदस्तों मे रंग-रंग के फूल सजे हुए हैं
और आसमान इन खुशियों का आईना है।

अम्न का राग / भाग 5 

आज न्यूयार्क के स्काईस्क्रेपरों पर
शांति से ‘डवों’ और उसके राजहंसों ने
एक मीठे उजले सुख का हल्का-सा अंधेरा
और शोर पैदा कर दिया है।
और अब वो अर्जेन्टीना की सिम्त अतलांतिक को पार कर
रहे हैं
पाल राब्सन ने नई दिल्ली से नए अमरीका की
एक विशाल सिम्फ़नी ब्राडकास्ट की है
औऱ उदयशंकर ने दक्षिणी अफ़्रीका में नई अजंता को
स्टेज पर उतारा है
यह महान नृत्य वह महान स्वर कला और संगीत
मेरा है यानी हर अदना से अदना इंसान का
बिल्कुल अपना निजी।
युद्ध के नक़्शों की कैंची से काटकर कोरियाई बच्चों ने
झिलमिली फूलपत्तों की रौशन फ़ानूसें बना ली हैं
और हथियारों का स्टील और लोहा हज़ारों
देशों को एक-दूसरे से मिलानेवाली रेलों के जाल में बिछ
गया है
और ये बच्चे उन पर दौड़ती हुई रेलों के डिब्बों की
खिड़कियों से
हमारी ओर झाँक रहे हैं
यह फ़ौलाद और लोहा खिलौनों मिठाइयों और किताबों
से लदे स्टीमरों के रूप में
नदियों की सार्थक सजावट बन गया है
या विशाल ट्रैक्टर-कंबाइन और फ़ैक्टरी-मशीनों के
हृदय में
नवीन छंद और लय का प्रयोग कह रहा है।

अम्न का राग / भाग 6

यह सुख का भविष्य शांति की आँखों में ही वर्तमान है
इन आँखों से हम सब अपनी उम्मीदों की आँखें सेंक
रहे हैं
ये आँखें हमारे दिल में रौशन और हमारी पूजा का
फूल हैं
ये आँखें हमारे कानून का सही चमकता हुआ मतलब
और हमारे अधिकारों की ज्योति से भरी शक्ति हैं
ये आँखें हमारे माता-पिता की आत्मा और हमारे बच्चों
का दिल है
ये आँखें हमारे इतिहास की वाणी
और हमारी कला का सच्चा सपना हैं
ये आँखें हमारा अपना नूर और पवित्रता हैं
ये आँखें ही अमर सपनों की हक़ीक़त और
हक़ीक़त का अमर सपना हैं
इनको देख पाना ही अपने आपको देख पाना है, समझ
पाना है।
हम मनाते हैं कि हमारे नेता इनको देख रहे हों।

बात बोलेगी

बात बोलेगी,
हम नहीं।
भेद खोलेगी
बात ही।

सत्य का मुख
झूठ की आँखें
क्या-देखें!

सत्य का रूख़
समय का रूख़ हैः
अभय जनता को
सत्य ही सुख है
सत्य ही सुख।

दैन्य दानव; काल
भीषण; क्रूर
स्थिति; कंगाल
बुद्धि; घर मजूर।

सत्य का
क्या रंग है?-
पूछो
एक संग।
एक-जनता का
दुःख : एक।
हवा में उड़ती पताकाएँ
अनेक।

दैन्य दानव। क्रूर स्थिति।
कंगाल बुद्धि : मजूर घर भर।
एक जनता का – अमर वर :
एकता का स्वर।

 

 

 
 
 
 

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