जनवरी की उफनती पूरबी धुंध
और गंगातट से अनवरत उठते उस थोड़े से धुँए के बीच
मैं आया इस शहर में
जहाँ आने का मुझे बरसो से
इन्तज़ार था
किसी भी दूसरे बड़े शहर की तरह
यहाँ भी
बहुत तेज़ भागती थी सड़कें
लेकिन रिक्शों, टैम्पू या मोटरसाइकिल-स्कूटरवालों में बवाल हो जाने पर
रह-रहकर
रूकने-थमने भी लगती थी
मुझे जाना था लंका और उससे भी आगे
सामने घाट
महेशनगर पश्चिम तक
मैं पहली बार शहर आए
किसी गँवई किसान-सा निहारता था
चीज़ों को
अलबत्ता मैंने देखे थे कई शहर
किसान भी कभी नहीं था
और रहा गँवई होना –
तो उसके बारे में खुद ही बता पाना
कतई मुमकिन नहीं
किसी भी कवि के लिए
स्टेशन छोड़ते ही यह शुरू हो जाता था
जिसे हम बनारस कहते हैं
बहुत प्राचीन-सी दिखती कुछ इमारतों के बीच
अचानक ही
निकल आती थी
रिलायंस वेब वर्ल्ड जैसी कोई अपरिचित परालौकिक दुनिया
मैंने नहीं पढ़े थे शास्त्र
लेकिन उनकी बहुश्रुत धारणा के मुताबिक
यह शहर पहले ही
परलोक की राह पर था
जिसे सुधारने न जाने कहाँ से भटकते आते थे साधू-सन्यासी
औरतें रोती-कलपती
अपना वैधव्य काटने
बाद में विदेशी भी आने लगे बेहिसाब
इस लोक के सीमान्त पर बसे
अपनी तरह के
एक अकेले
अलबेले शहर को जानने
लेकिन
मैं इसलिए नहीं आया था यहाँ
मुझे कुछ लोगों से मिलना था
देखनी थीं
कुछ जगहें भी
लेकिन मुक्ति के लिए नहीं
बँध जाने के लिए
खोजनी थीं कुछ राहें
बचपन की
बरसों की ओट में छुपी
भूली-बिसरी गलियों में कहीं
कोई दुनिया थी
जो अब तलक मेरी थी
नानूकानू बाबा की मढ़िया
और उसके तले
मंत्र से कोयल को मार गिराते एक तांत्रिक की
धुंधली-सी याद भी
रास्तो पर उठते कोलाहल से कम नहीं थी
पता नहीं क्या कहेंगे इसे
पर पहँचते ही जाना था हरिश्चंद्र घाट
मेरे काँधों पर अपनी दादी के बाद
यह दूसरी देह
वाचस्पति जी की माँ की थी
बहुत हल्की
बहुत कोमल
वह शायद भीतर का संताप था
जो पड़ता था भारी
दिल में उठती कोई मसोस
घाट पर सर्वत्र मँडराते थे डोम
शास्त्रों की दुहाई देते एक व्यक्ति से
पैसों के लिए झगड़ते हुए कहा एक काले-मलंग डोम ने-
‘किसी हरिश्चंद्र के बाप का नहीं
कल्लू डोम का है ये घाट!’
उनके बालक
लम्बे और रूखे बालों वाले
जैसे पुराणों से निकलकर उड़ाते पतंग
और लपकने को उन्हें
उलाँघते चले जाते
तुरन्त की बुझी चिताओं को भी
आसमान में
धुँए और गंध के साथ
उनका यह
अलिखित उत्साह भी था
पानी बहुत मैला
लगभग मरी हुई गंगा का
उसमें भी गुड़प-गुड़प डुबकी लगाते कछुए
जिनके लिए फेंका जाता शव का
कोई एक अधजला हिस्सा
शवयात्रा के अगुआ
डॉ0 गया सिंह पर नहीं चलता था रौब
किसी भी डोम का
कीनाराम सम्प्रदाय के वे कुशल अध्येता
गालियों से नवाज़ते उन्हें
लगभग समाधिष्ठ से थे
लगातार आते अंग्रेज़
तरह-तरह के कैमरे सम्भाले
देखते हिन्दुओं के इस आख़िरी सलाम को
उनकी औरतें भी लगभग नंगी
जिन्हें इस अवस्था में अपने बीच पाकर
किशोर और युवतर डोमों की जाँघों में
रह-रहकर
एक हर्षपूर्ण खुजली-सी उठती थी
खुजाते उसे वे
अचम्भित से लुंगी में हाथ डाल
टकटकी बाँधे
मानो ऑंखो ही ऑंखों में कहते
उनसे –
हमारी मजबूरी है यह
कृपया इस कार्य-व्यापार का कोई
अनुचित
या अश्लील अर्थ न लगाएँ
गहराती शाम में आए काशीनाथ जी
शोकमग्न
घाट पर उन्हें पा घुटने छूने को लपके बी0एच0यू0 के
दो नवनियुक्त प्राध्यापक
जिन्हें अपने निकटतम भावबोध में
अगल-बगल लिए
वे एक बैंच पर विराजे
‘यह शिरीष आया है रानीखेत से’ – कहा वाचस्पति जी ने
पर शायद
दूर से आए किसी भी व्यक्ति से मिल पाने की
फुर्सत ही नहीं थी उनके पास
उस शाम एक बार मेरी तरफ अपनी ऑंखें चमका
वे पुन: कर्म में लीन हुए
मैं निहारने लगा गंगा के उस पार
रेती पर कंडे सुलगाए खाना पकाता था कोई
इस तरफ लगातार जल रहे शवों से
बेपरवाह
रात हम लौटे अस्सी-भदैनी से गुज़रते
और हमने पोई के यहाँ चाय पीना तय किया
लेकिन कुछ देर पहले तक
वह भी हमारे साथ घाट पर ही था
और अभी खोल नहीं पाया था
अपनी दुकान
पोई – उसी केदार का बेटा
बरसों रहा जिसका रिश्ता राजनीति और साहित्य के संसार से
सुना कई बरस पहले
गरबीली गरीबी के दौरान नामवर जी के कुर्ते की जेब में
अकसर ही
कुछ पैसे डाल दिया करता था
रात चढ़ी चली आती थी
बहुत रौशन
लेकिन बेरतरतीब-सा दीखता था लंका
सबसे ज्यादा चहल-पहल शाकाहारी भोजनालयों में थी
चौराहे पर खड़ी मूर्ति मालवीय जी की
गुज़रे बरसों की गर्द से ढँकी
उसी के पास एक ठेला
तली हुई मछली-मुर्गे-अंडे इत्यादि के सुस्वादु भार से शोभित
जहाँ लड़खड़ाते कदम बढ़ते कुछ नौजवान
ठीक सामने
विराट द्वार ‘काशी हिन्दू विश्वविद्यालय’ का
…
अजीब थी आधी रात की नीरवता
घर से कुछ दूर गंगा में डुबकी लगातीं शिशुमार
मछलियाँ सोतीं
एक सावधान डूबती-उतराती नींद
तल पर पाँव टिकाए पड़ें हों शायद कछुए भी
शहर नदी की तलछट में भी कहीं साफ़ चमकता था
तब भी
हमारी पलकों के भीतर नींद से ज्यादा धुँआ था
फेफड़ों में हवा से ज्यादा
एक गंध
बहुत ज़ोर से साँस भी नहीं ले सकते थे हम
अभी इस घर से कोई गया था
अभी इस घर में उसके जाने से अधिक
उसके होने का अहसास था
रसोई में पड़े बर्तनों के बीच शायद कुलबुला रहे थे
चूहे
खाना नहीं पका था इस रात
और उनका उपवास था
…
सुबह आयी तो जैसे सब कुछ धोते हुए
क्या इसी को कहते हैं
सुबहे-बनारस ?
क्या रोज़ यह आती है ऐसे ही?
गंगा के पानी से उठती भाप
बदलती हुई घने कुहरे में
कहीं से भटकता आता आरती का स्वर
कुछ भैंसें बहुत गदराए काले शरीर वाली
धीरे से पैठ जातीं
सुबह 6 बजे के शीतल पानी में
हले!हले! करते पुकारते उन्हें उनके ग्वाले
कुछ सूअर भी गली के कीच में लोट लगाते
छोड़ते थूथन से अपनी
गजब उसाँसे
जो बिल्कुल हमारे मुँह से निकलती भाप सरीखी ही
दिखती थीं
साइकिल पर जाते बलराज पांडे
रीडर हिन्दी बी.एच.यू.
सड़क के पास अचानक ही दिखता
किसी अचरज-सा एक पेड़
बादाम का
एक बच्चा लपकता जाता लेने
कुरकुरी जलेबी
एक लौटता चाशनी से तर पौलीथीन लटकाए
अभी पान का वक्त नहीं पर
दुकान साफ कर अगरबत्ताी जलाने में लीन
झब्बर मूँछोंवाला दुकानदार भी
यह धरती पर भोर का उतरना है
इस तरह कि बहुत हल्के से हट जाए चादर रात की
उतारकर जिसे
रखते तहाए
चले जाते हैं पीढ़ी दर पीढ़ी
बनारस के आदमी
अभी धुंध हटेगी
और राह पर आते-जातों की भरमार होगी
अभी खुलेंगे स्कूल
चलते चले जायेंगे रिक्शे
ढेर के ढेर बच्चों को लाद
अभी गुज़रेंगे माफियाओं के ट्रक
रेता-रोड़ी गिराते
जिनके पहियों से उछलकर
थाम ही लेगा
हर किसी का दामन
गङ्ढों में भरा गंदला पानी
अभी
एक मिस्त्री की साइकिल गुज़रेगी
जो जाता होगा
कहीं कुछ बनाने को
अभी गुज़रेगी ज़बरे की कार भी
हूटर और बत्ती से सजी
ललकारती सारे शहर को
एक अजब-सी
मदभरी अश्लील आवाज़ में
इन राहों पर दुनिया चलती है
ज़रूर चलते होंगे कहीं
इसे बचाने वाले भी
कुछ ही देर पहले वे उठे होंगे एक उचाट नींद से
कुछ ही देर पहले उन्होंने अपने कुनमुनाते हुए बच्चों के
मुँह देखे होंगे
अभी उनके जीवन में प्रेम उतरा होगा
अभी वे दिन भर के कामों का ब्यौरा तैयार करेंगे
और चल देंगे
कोई नहीं जानता
कि उनके कदम किस तरफ बढ़ेंगे
लौटेंगे
रोज़ ही की तरह पिटे हुए
या फिर चुपके से कहीं कोई एक हिसाब
बराबर कर देंगे
अभी तो उमड़ता ही जाता है
यह मानुष-प्रवाह
जिसमें अगर छुपा है हलाहल
जीवन का
तो कहीं थोड़ा-सा अमृत भी है
जिसकी एक बँद अभी उस बच्चे की ऑंखों में चमकी थी
जो अपना बस्ता उतार
रिक्शा चलाने की नाकाम कोशिश में था
दूसरी भी थी वहीं
रिक्शेवाले की पनियाली ऑंखों में
जो स्नेह से झिड़कता कहता था उसे – हटो बाबू साहेब
यह तुम्हारा काम नहीं!
…
बहुत शान्त दीखते थे बी.एच.यू. के रास्ते
टहलते निकलते लड़के-लड़कियाँ
‘मैत्री’ के आगे खड़े
चंदन पांडे, मयंक चतुर्वेदी, श्रीकान्त चौबे और अनिल
मेरे इन्तज़ार में
उनसे गले मिलते
अचानक लगा मुझे इसी गिरोह की तो तलाश थी
अजीब-सी भंगिमाओं से लैस हिन्दी के हमलावरों के बीच
कितना अच्छा था
कि इन छात्रों में से किसी की भी पढ़ाई में
हिन्दी शामिल नहीं थी
ज़िन्दगी की कहानियाँ लिखते
वे सपनों से भरे थे और हक़ीक़त से वाकिफ़
मैं अपनी ही दस बरस पुरानी शक्ल देखता था
उनमें
हम लंका की सड़क पर घूमते थे
यूनीवर्सल में किताबें टटोलते
आनी वाली दुनिया में अपने वजूद की सम्भावनाओं से भरे
हम जैसे और भी कई होंगे
जो घूमते होंगे किन्हीं दूसरी राहों पर
मिलेंगे एक दिन वे भी यों ही अचानक
वक्त के परदे से निकलकर
ये, वो और हम
सब दोस्त बनेंगे
अपनी दुनिया अपने हिसाब से रचेंगे
फिलहाल तो धूल थी और धूप
हमारे बीच
और हम बढ़ चले थे अपनी जुदा राहों पर
एक ही जगह जाने को
साथ थे पिता की उम्र के वाचस्पति जी
जिन्हें मैं चाचा कहता हँ
बुरा वक्त देख चुकने के बावजूद
उनकी ऑंखों में वही सपना बेहतर जिन्दगी का
और जोश
हमसे भी ज्यादा
साहित्य, सँस्कृति और विचार के स्वघोषित आकाओं के बरअक्स
उनके भीतर उमड़ता एक सच्चा संसार
जिसमें दीखते नागार्जुन, त्रिलोचन, शमशेर, धूमिल और केदार
और उनके साथ
कहीं-कहीं हमारे भी अक्स
दुविधाओं में घिरे राह तलाशते
किसी बड़े का हाथ पकड़ घर से निकलते
और लौटते
…
हम पैदल भटकते थे – वाचस्पति जी और मैं
जाना था लौहटिया
जहाँ मेरे बचपन का स्कूल था
याद आती थीं
प्रधानाध्यापिका मैडम शकुन्तला शुक्ल
उनका छह महीने का बच्चा
रोता नींद से जागकर गुँजाता हुआ सारी कक्षाओं को
व्योमेश
जो अब युवा आलोचक और रंगकर्मी बना
एक छोटी सड़क से निकलते हुए वाचस्पति जी ने कहा –
यहाँ कभी प्रेमचन्द रहते थे
थोड़ा आगे बड़ा गणेश
गाड़ियों की आवाजाही से बजबजाती सड़क
धुँए और शोर से भरी
इसी सब के बीच से मिली राह
और एक गली के आख़ीर में वही – बिलकुल वही इमारत
स्कूल की
और यह जीवन में पहली बार था
जब छुट्टी की घंटी बज चुकने के बाद के सन्नाटे में
मैं जा रहा था वहाँ
वहाँ मेरे बचपन की सीट थी
सत्ताइस साल बाद भी बची हुई
ज्यों की त्यों
अब उस पर कोई और बैठता था
मेरे लिए
वह लकड़ी नहीं एक समूचा समय था
धड़कता हुआ
मेरी हथेलियों के नीचे
जिसमें एक बच्चे का पूरा वजूद था
ब्लैकबोर्ड पर छूट गया था
उस दिन का सबक
जिसके आगे इतने बरस बाद भी
मैं लगभग बेबस था
बदल गयी मेरी ज़िन्दगी
लेकिन
बनारस ने अब तलक कुछ भी नहीं बदला था
यह वहीं था
सत्ताइस बरस पहले
खोलता हुआ
दुनिया को बहुत सम्भालकर
मेरे आगे
…
गाड़ी खुलने को थी – बुन्देलखण्ड एक्सप्रेस
जाती पूरब से दूर ग्वालियर की तरफ
इससे ही जाना था मुझे
याद आते थे कल शाम इसी स्टेशन के पुल पर खड़े
कवि ज्ञानेन्द्रपति
देखते अपने में गुम न जाने क्या-क्या
गुज़रता जाता था एक सैलाब
बैग-अटैची बक्सा-पेटी
गठरी-गुदड़ी लिए कई-कई तरह के मुसाफिरों का
मेरी निगाह लौटने वालों पर थी
वे अलग ही दिखते थे
जाने वालों से
उनके चेहरे पर थकान से अधिक चमक नज़र आती थी
वे दिल्ली और पंजाब से आते थे
महीनों की कमाई लिए
कुछ अभिजन भी
अपनी सार्वभौमिक मुद्रा से लैस
जो एक निगाह देख भर लेने से
शक करते थे
छोड़ने आए वाचस्पति जी की ऑंखों में
अचानक पढ़ा मैंने- विदाई!
अब मुझे चले जाना था सीटी बजाती इसी गाड़ी में
जो मेरे सामने खड़ी थी
भारतीय रेल का सबसे प्रामाणिक संस्करण
प्लेटफार्म भरा हुआ आने-जाने और उनसे भी ज्यादा
छोड़ने-लेने आनेवालों से
सीट दिला देने में कुशल कुली और टी.टी. भी
अपने-अपने सौदों में लीन
समय दोपहर का साढ़े तीन
कहीं पहँचना भी दरअसल कहीं से छूट जाना है
लेकिन बनारस में पहँचा फिर नहीं छूटता
कहते हैं लोग
इस बात को याद करने का यही सबसे वाजिब समय था
अपनी तयशुदा मध्दम रफ्तार से चल रही थी ट्रेन
और पीछे बगटुट भाग रहा था बनारस
मुझे मालूम था
कुछ ही पलों में यह आगे निकल जाएगा
बार-बार मेरे सामने आएगा
इस दुनिया में क्या किसी को मालूम है
बनारस से निकला हुआ आदमी
आख़िर कहाँ जाएगा?
हल
उसमें बैलों की ताकत है और लोहे का पैनापन
एक जवान पेड की मजबूती
किसी बढ़ई की कलाकार कुशलता
धौंकनी की तेज़ आंच में तपा
लुहार का धीरज
इन सबसे बढ़ कर
धरती को फोड़ कर उर्वर बना देने की
उत्कट मानवीय इच्छा है
उसमें
दिन भर की जोत के बाद पहाड़ में
मेरे घर की दीवार से सट कर खडा वह
मुझे किसी दुबके हुए जानवर की तरह
लगता है
बस एक लंबी छलाँग
और वह गायब हो जाएगा
मेरे अतीत में कहीँ।
पुरानी हवाएं
वे उस तरह अप्रमाणित, साम्प्रदायिक और हिंसक नहीं हैं
जिस तरह इस दुनिया के
हमारे ईश्वर
कभी वे थे सचमुच के ज़िन्दा इंसान
हमारी ही तरह
रक्त और मांस के बने
वायवीय नहीं थी उनकी उपस्थिति
सैकड़ों बरस पहले वे आए
किन्हीं अनाम दुश्मनों से बचते-बचाते
जीवन की खोज में
मुट्ठी भर लोगों के साथ
इन अगम-अलंघ्य पहाड़ों पर
उनकी वह दुर्धर्ष जिजीविषा खींच लाई
उन्हें यहां
उन्होंने पार की नदियां
अपनी बांहों के सहारे
खोजे
जीवनदायी गाड़-गधेरे-सोते
भेदा
किसी तरह मृत्यु का वह सूचीभेद्य अन्धकार
और आ बसे इन दुर्गम जंगली लेकिन निरापद जगहों में
अपने कुनबों के साथ
राज नहीं किया उन्होंने बस साथ दिया अपने लोगों का
और न्याय किया
संकट के कठोरतम क्षणों में भी
इस तरह वे नायक बने मरने के बाद
गुज़रे सैकड़ों साल
उनकी प्रामाणिक छवियां धुंधलाती गईं
जन्म लेते गए मिथक
बनती गईं लोकगाथाएं और किंवदन्तियां
जिनमें
आज भी वे रहते हैं
अपने पूरे सम्मान और गरिमा के साथ
गांव-गांव में बने हैं उनके थान
ढाढ़स बंधाते हारते हुए मनुष्यों को
दिलाते हुए याद उस ताक़त की जिसे हर हाल में
हम जीवन कहते हैं
वाकई
समय भी एक दिशा है
जहां आज भी दिख जाएंगे वे
लकड़ी चीरते
पीठ पर मिट्टी ढो मेहनत कर सीढ़ीदार खेत बनाते
बुवाई करते
काटते फसलें
मनाते अपने उत्सव-त्यौहार
और साथ ही
धार लगाते अपनी तलवारों को भी किन्हीं अमूर्त दुश्मनों के
खिलाफ
वे आज भी लौट आते हैं
दुख की मारी देहों में बार-बार
कभी होते हुए क्रुद्ध
तो कभी करते हुए विलाप
वे क्यों लौट आते हैं
बार-बार?
मैं आपसे पूछता हूं
उनके इस तरह लौट आने को क्या कहेंगे आप?
ग्रामदेवता
वे उस तरह अप्रमाणित, साम्प्रदायिक और हिंसक नहीं हैं
जिस तरह इस दुनिया के
हमारे ईश्वर
कभी वे थे सचमुच के ज़िन्दा इंसान
हमारी ही तरह
रक्त और मांस के बने
वायवीय नहीं थी उनकी उपस्थिति
सैकड़ों बरस पहले वे आए
किन्हीं अनाम दुश्मनों से बचते-बचाते
जीवन की खोज में
मुट्ठी भर लोगों के साथ
इन अगम-अलंघ्य पहाड़ों पर
उनकी वह दुर्धर्ष जिजीविषा खींच लाई
उन्हें यहा
उन्होंने पार की नदियां
अपनी बांहों के सहारे
खोजे
जीवनदायी गाड़-गधेरे-सोते
भेदा
किसी तरह मृत्यु का वह सूचीभेद्य अन्धकार
और आ बसे इन दुर्गम जंगली लेकिन निरापद जगहों में
अपने कुनबों के साथ
राज नहीं किया उन्होंने बस साथ दिया अपने लोगों का
और न्याय किया
संकट के कठोरतम क्षणों में भी
इस तरह वे नायक बने मरने के बाद
गुज़रे सैकड़ों साल
उनकी प्रामाणिक छवियां धुंधलाती गईं
जन्म लेते गए मिथक
बनती गईं लोकगाथाएं और किंवदन्तियां
जिनमें
आज भी वे रहते हैं
अपने पूरे सम्मान और गरिमा के साथ
गांव-गांव में बने हैं उनके थान
ढाढ़स बंधाते हारते हुए मनुष्यों को
दिलाते हुए याद उस ताक़त की जिसे हर हाल में
हम जीवन कहते हैं
वाकई
समय भी एक दिशा है
जहां आज भी दिख जाएंगे वे
लकड़ी चीरते
पीठ पर मिट्टी ढो मेहनत कर सीढ़ीदार खेत बनाते
बुवाई करते
काटते फसलें
मनाते अपने उत्सव-त्यौहार
और साथ ही
धार लगाते अपनी तलवारों को भी किन्हीं अमूर्त दुश्मनों के
खिलाफ
वे आज भी लौट आते हैं
दुख की मारी देहों में बार-बार
कभी होते हुए क्रुद्ध
तो कभी करते हुए विलाप
वे क्यों लौट आते हैं
बार-बार?
मैं आपसे पूछता हूं
उनके इस तरह लौट आने को क्या कहेंगे आप?
उसका लौटना
अभी मैंने जाना उसका लौटना
वह जो हमारे मुहल्ले की सबसे खूबसूरत लड़की थी
अब लौट आयी है हमेशा के लिए
शादी के तीन साल बाद वापस
हमारे ही मुहल्ले में
उसे कहाँ रखे -समझ नहीं पा रहा है उसका लज्जित परिवार
उसके शरीर पर पिटने के स्थाई निशान हैं
और चेहरे पर
उतना ही स्थाई एक भाव जिसे मैं चाहूँ तो भी नाउम्मीदी नहीं कह सकता
जहाँ लौटी है
वह एक क़स्बा है जिसे अपने ही जैसे अनगिन हिन्दुस्तानी क़स्बों की तरह
शहर बनने की तीव्र इच्छा और हड़बड़ी है
हालांकि मालिक से पिटा ठर्रा पीकर घर लौटता एक मज़दूर भी
औरत के नाम पर
पूरा सामन्त हो जाता है यहाँ
तीन बरस दूसरे उपनाम और कुल-गोत्र में रहने की
असफल कोशिश के बाद
वह लौटी है
दुबारा अपने नाम के भीतर खोजती हुई
अपनी वही पुरानी सुन्दर पहचान
महान हिन्दू परम्पराओं के अनुसार कुल-गोत्र में उसकी वापसी सम्भव नहीं
तब भी उसने अपनाया है
दुबारा वही उपनाम
जिसे वह छोड़ गई थी अपने कुछ गुमनाम चाहने वालों की स्मृतियों में कहीं
आज उसे फिर से पाया है उसने
किसी खोये हुए क़ीमती गहने की तरह
जहाँ
डोली में गई औरत के अर्थी पर ही लौटने का विधान हो
वहाँ वो लौटी है
लम्बे-लम्बे डग भरती
मिट चुकने के बाद भी
उसके उन साहसी पदचिन्हों की गवाह रहेगी
ये धरती
हमारे देश में कितनी औरतें लौटती हैं
इस तरह
जैसे वो लौटी है बिना शर्मिन्दा हुए
नज़रें उठाए ?
वो लौटी है
अपने साल भर के बच्चे को छाती से चिपटाए
अपने बचपन के घर में
पहले भी घूमते थे शोहदे
हमारी गली में
लेकिन उनकी हिम्मत इतनी नहीं बढ़ी थी
तब वो महज इस मुहल्ले की नहीं
किसी परीलोक की लड़की थी
पर अब कोई भी उधेड़ सकता है सीवन
उसके जीवन की
कितने ही लालच से भरकर
राह चलते कंधा मार सकता है उसे
प्रतिरोध की कोई ख़ास चिंता किए
बग़ैर
कुछ उसके मृत पिता
और कुछ उसकी वापसी के शोक में निरूपाय-सी
अकसर ही बिलख उठती है उसकी माँ
पता नहीं क्या हुआ
कि अब मुहल्ले में उसके लिए कोई भाई नहीं रहा
कोई चाचा
कोई ताऊ
या फिर ऐसा ही कोई और रिश्ता
एक पुरुष को छोड़ते ही जैसे
कई-कई
पुरुषों से भर गई उसकी दुनिया
खेलती है अकसर
छोटी बहन के साथ बैडमिंटन अपने घर की खुली हुई
बिना मुंडेर वाली खतरनाक छत पर
तो सोचता हूँ मैं
कि यार आख़िर किस चीज़ से बनी होती है औरत !
आग से ?
या पानी से ?
हो सकता है
वह बनी होती हो आग और पानी के मिलने से
जैसे बनती है भाप
और उसे बहुत जल्दी से अपनी ओर खींच लेते हैं
आकाश के खुले हुए हाथ
मैं सोचता हूँ तो वो मुझे
हाथ में रैकेट सम्भाले आकाश की ओर आती सांझ के
रंगीन बादलों सरीखा अपना आँचल फहराती
उड़ती दीखती है
दरअसल
एक अनोखे आत्मसम्मान से भरा
जीवन का कितना असम्भव पाठ है यह
जिसे मेरी कविता
अपने डूबते हुए शिल्प में
इस तरह
वापस घर लौटी एक लड़की से सीखती है !
राजा और किले का किस्सा
एक है राजा
राजा अमनपसन्द है और अदबपसन्द भी
राजा शांति चाहता है राजा चाहता है झुकी हुई गरदनें
बंधे हुए हाथ
वह चाहता है उसके सामने कोई मुंह न खोले जब उसकी मर्जी हो तब बोले !
राजा के पास है किला
जिसमें राजा की पूरी-पूरी सुरक्षा है
किला शहर से बाहर है
आदमी से दूर किले की अपनी भाषा है
अपना मुहावरा
किले में जब भी राजा का खून गरमाता है
वह दरबार लगाता है
एक दरबार खास होता है और एक आम होता है
एक दरबार में काम होता है
और दूसरे से नाम होता है
दरबार में होते हैं दरबारी
जी-हुजूरिये
जिनकी सहायता से राजा इंसाफ करता है
जिसे चाहे दंड देता है जिसे चाहे माफ करता है
दरबार से बाहर होती है प्रजा
प्रजा बेचारी दुखी रहती है
अपने दुखों में
बालू के ढेर-सी ढहती है
एक दिन
प्रजा के बीच से निकलता है
एक आदमी
और किले के सामने खड़ा हो जाता है
उसकी नजर किले के द्वार से सीधी टकराती है
जिस पर लगी लोहे की जंजीर
अपने आप खड़क जाती है
राजा
इस आदमी से बहुत डरता है
फौरन उसके कत्ल का हुक्म जारी करता है
फिर जब पूरे देश में होता है अंधेरा
और रात गहराती है
किले के पत्थरों से मारे गए आदमी की आवाज आती है
किले की नींव में
उस आदमी का खून सरसराता है
और राजा
रात भर सो नहीं पाता है
फिर आता है अगला दिन
और राजा एक और आदमी को किले के सामने खड़ा पाता है
इस आदमी को देखकर
किले की दीवारें बुरी तरह हिलती हैं
इस आदमी की शक्ल
मारे गए गए आदमी से हू-ब-हू मिलती है !
अपने शहर में
अपने शहर में
जब मैं कुछ बोलता था
तो उसका
जवाब आता था
अब मैं बोलता रहता हूँ
अकेला ही
किसी काम नहीं आता
मेरा बोलना
यह बताने के भी नहीं
कि मैं
अपने शहर में हूँ !
गालियाँ
अशोक पांडे के लिए कविता…
भाषा में
वे हमारे शरीर से आती ह
और लौट जाती हैं अपना काम करके
वापस शरीर में
वे बेधक होती हैं कभी
और कातर भी
उनमें चहरे दिखायी देते हैं
कभी अपमान तो कभी क्रोध से भरे
उनमें झलकते हैं हमारे दिल
प्रेम और घृणा
साहस और कायरता से बने
वे ताक़त का अभद्र बखान हो सकती हैं
और असमर्थता का हताश बयान भी
जो भी हो पूरी दुनिया में
हर कहीँ
वीभत्स और अश्लील करार दिए जाने के बावजूद
वे एक पुराना और ज़रूरी हिस्सा हैं
हमारी अभिव्यक्ति का<
सोचिये तो ज़रा
कितना पराया लग सकता है एक दोस्त
अगर नहीं देता गालियाँ !
विद्वेष
आप
उसे महसूस कर सकते हैं
बातों की
धूप – छाँव में
चेहरे पर वह कुछ अलग तरह की रेखाएं
बनाता है
पहली निगाह में दिखाई भले न दे
पर धीरे – धीरे
समझ में आता है
अचानक ही जन्म नहीं लेता वह
ह्रदय में पलता है
सरीसृपों के अंडे -सा
फूटता है
वांछित गर्माहट और नमी पा कर
मादा मगरमच्छ की तरह
हमेशा तैयार मिलते हैं
उसे
संभालकर मुंह में दबाये
जीवन के प्रवाह तक
पहुंचाने वाले !
शोकसभा में
यह समय
घनीभूत पीड़ा का है
और झुके हुए सिर
इसकी
गवाही दे रहे हैं
तूफान से पहले की नहीं
तूफान के बाद की शांति है ये
अवसाद के इस क्षण में
शोक मुझको भी है
शोक
उसका नहीं उतना
जो खो गया
शोक उसका
जो खो जायेगा एक दिन
यूं ही सिर झुकाये …
किताबें
सदियों से
लिखी और पढ़ी जाती रही हैं
किताबें
किताबों में आदमी का इतिहास होता है
राजा
रियासतें
और हुकूमतें होती हैं किताबों में
जो पन्नों की तरह
पलटी जा सकती हैं
किताबों में होता है
विज्ञान
जो कभी आदमी के पक्ष में होता है तो कभी
टूटता है
कहर बनकर उस पर
कानून होता है किताबों में जो बनाया
और तोड़ा जाता रहा है
किताबों में होती हैं दुनिया भर की बातें
यहां तक कि किताबों के बारे में भी लिखी जाती हैं
किताबें
कुछ किताबें नहीं होतीं हमारे लिए
देवता वास करते हैं
उनमें
पवित्र किताबें होती हैं वे
फरिश्तासिफत इंसानों के पास
हमारी किताबों में तो बढ़ते हुए कदम होते हैं
उठते हुए हाथ होते हैं
हमारी किताबों में
और उन हाथों में होती हैं
किताबें !
राहु
वह क्या है?
ख़ुद की मेहनत से पाए अमृत की चाह में
कलम किया हुआ
एक सर !
देवताओं के इस नए अहद में
उसका नाम
ईराक भी हो सकता है ।
फीकी अरहर दाल
एक बहुत बड़ी गल्ला मण्डी है पिपरिया
एक बहुत छोटा शहर है पिपरिया
मेरे बचपन में यह बहुत छोटा क़स्बा होता था
वो आत्मीय आढ़तें छोटी-छोटी
वो लाजवाब मशहूर अरहर की दाल
वहाँ एक छोटी नगरपालिका है जिसमें मेरा छोटा चाचा
बड़े-बड़े काम करता है
एक लगातार चलती दारू की भट्टी है जिसमें छोटे से बड़ा वाला
दिन-रात दारू पीता
पिपरिया से नागपुर तक डॉक्टरों के चक्कर लगाता है
उससे बड़ा वाला बुरी तरह कराहता है
पुरानी चोटों
और समकालीन दबदबे के बीच अपनी एक अजीब गरिमा के साथ
वह किसी ‘नीच ट्रेजेडी’ में फँसा है
मैं उसे निकाल नहीं सकता
इस बहुत बड़ी गल्ला मण्डी में
झाड़न भी साल भर में लाखों का निकलता है
ठेका-युग में उसके लिए भी दिया जाता है ठेका
ख़ून होते हैं हर साल
झाड़न के लिए
बहुत छोटे शहर के बड़े भविष्य की योजनाओं के नाम
नए बन रहे बढ़ रहे सीमान्तों पर
तहसील में पुराने गोंडों की ज़मीनों के नए-नए दाखिल-खारिज सामने आते हैं
रेलवे लाइन पर मिली है लाश –- यह एक स्थाई समाचार है
चोरी-छिनैती करते आवारा छोकरे स्मैक पीते हैं जिसे आम बोलचाल में
पाउडर कहा जाता है
मैं पिपरिया नहीं जाता
कभी-कभी बरसों पहले गुज़र गई दादी के घर जाता हूँ
मुझे वो घर नहीं मिलता
एक बहुत छोटा शहर मिलता है
मेरे अर्जित किए हुए पहाड़ी सुकून में
पत्नी बनाती है कभी धुली तो कभी छिलके वाली मूंग दाल
कभी उड़द मसाले में छौंकी हुई शानदार
मसूर भी बनती है मक्खन के साथ
जिसे इसी मुँह से खाता हूँ
कभी राजमा
भट्ट की चुड़कानी
कभी स्वादिष्ट रस-भात
किसी दोपहर बनती है अरहर
पहला निवाला तोड़ते ही मुझे आता है याद
कि जीवन में पिपरिया उतना ही बच गया है
जितनी भोजन में उत्तर की यह
फीकी अरहर दाल
ज़मीन को पाला मार रहा है
अभी कुछ समय पहले ढह पड़ी थी
इसकी उर्वर त्वचा झर गई थी
जो बच गई उसे पाला मार रहा है पहाड़ पर
इस मौसम में कौन-सी फ़सलें होती हैं
मैं भूल गया हूं
जबकि अब भी
सीढ़ीदार कठिन खेतों के बीच ही रहता हूं
फ़र्क़ बस इतना है
कि कल तक मैं उनमें उतर पड़ता था पाँयचे समेटे
अब नौकरी करने जाता हूँ
कच्ची बटियों पर कठिन ऋतुओं के संस्मरण
मुझे याद नहीं
कुछ पक्के रास्ते जीवन में चले आए हैं
मुझे इतना याद है
कि सर्दियों के मौसम को भी ख़ाली नहीं छोड़ते थे
उगा ही लेते थे कुछ न कुछ
कुछ सब्जियाँ कुछ समझदारी से कर ली गई
बेमौसम पैदावार
पर इतना याद होने से कुछ नहीं होता
ज़मीन को पाला मार रहा है या मेरे दिमाग़ को
अगर मेरे जैसे और भी दिमाग़ हुए इस विस्मरण काल में
तो ज़मीन को पाला मार रहा है जैसा वाक्य
कितना भयावह साबित हो सकता है
यह सोच कर पछता रहा हूं
ज़मीन को पाला मारने पर हम घास के पूले खोलकर
सघन बिछा देते थे
नवाँकुरों पर
मैं बहुत बेचैन
दिमाग़ के लिए भी कोई उतनी ही सुरक्षित
और हल्की-हवादार परत खोज रहा हूँ
पनपने का मौसम हो या न हो पर बमुश्किल उग रहे जीवन को
नष्ट होने देना भी
उसकी मृत्यु में सहभागी होना ही होगा ।
मैं पुरानी कविता लिखता हूँ
इधर
पुरानी कविताएँ मेरा पीछा करती हैं
मैं भूल जाता हूँ उनके नाम
कई बार तो उनके समूचे वजूद तक को मैं भूल जाता हूँ
कोई कवि-मित्र दिलाता है याद –
मसलन अशोक ने बताया मेरी ही पंक्ति थी यह
कि स्त्री की योनि में गाड़ कर फहराई जाती रहीं
धर्म-ध्वजाएँ
अब मुझे यह कविता ही नहीं मिल रही
शायद चली गई जहाँ ज़रूरत थी इसकी
उन लोगों के बीच
जिनके लिए लिखी गई
इधर कविता इतना तात्कालिक मसला बन गई है
कि लगता है कवि इन्तज़ार ही कर रहे थे
घटनाओं का
दंगों का
घोटालों का
बलात्कारों का
कृपया मेरी क्रूरता का बुरा मानें
मेरे कहे को अन्यथा लें
मेरे भूल जाने के बीच याद रखने का कोलाहल है अगल-बगल
मुझे बुरा लगता है
जब कवि प्रतीक्षा करते हैं अपनी कविताओं के लिए
आन्दोलनों का
ख़ुद उतर नहीं पड़ते
न उतरें सड़कों पर
पन्नों पर ही कुछ लिखें
फिर कविताओं में भी शान से दिखें
हिन्दी कविता के
इस सुरक्षित उत्तर-काल में
मुझे माफ़ करना दोस्तो
मेरी ऐतिहासिक बेबसी है यह
कि मैं हर बार एक पुरानी कविता लिखता हूँ
और
बहुत जल्द भूल भी जाता हूँ उसे ।
चुनाव-काल में एक उलटबाँसी
सड़क सुधर रही है
मैं काम पर आते-जाते रोज़ देखता हूँ
उसका बनना
गिट्टी-डामर का काम है यह
भारी मशीनें
गर्म कोलतार की गन्ध
ये सब स्थूल तथ्य हैं और हेतु भर बताते हैं
प्रयोजन नहीं
मैं जैसे शब्दों के अभिप्रायों के बारे में सोचता हूँ
वैसे ही क्रियाओं के प्रयोजनों के बारे में
अगर कुछ सुधर रहा है तो मैं उत्सुक हो जाता हूँ
सड़क सुधर रही है तो हमारी सहूलियत के लिए
लेकिन यह भी हेतु ही है
प्रयोजन नहीं है
प्रयोजन तो इन सुधरी हुई सड़कों से सन्निकट चुनाव में सधने हैं
राजनेतागण आराम से कर सकेंगे
अपनी यात्रा
यात्रा की समाप्ति पर इसे अपनी उपलब्धि बता पाएँगे
ये सब बहुत सरल बातें हैं पर इनकी सरलता
विकट है
हम सुधरने से पहले की बिगड़ी हुई सड़कों पर चले थे
कुछ गड्ढे तो हमने हारकर ख़ुद भरे थे
तो जटिलता अब यह है
कि बिगड़ी हुई सड़क पर चले लोग
क्या चन्द दिनों में सुधरी हुई सड़क पर चलने से
सुधर जाएँगे
इस कवि को छुट्टी दीजिए, पाठको
क्योंकि आप तो समझते ही है
अब राजनेताओं को समझने दीजिए यह उलटबाँसी
कि बिगड़ी हुई सड़क पर चले हुए लोग
उनकी सेहत में सुधार लाएँगे
या वहाँ हुए कुछ चालू सुधारों पर चलते हुए
उसे और बिगाड़ जाएँगे ।
गुरु जी, जहाँ बैठूँ वहाँ छाया जी
जतन नहीं करना पड़ता
काम से घर लौट आना होता है भटकना नहीं पड़ता
नींद आने पर बिस्तर मिल जाता है
चलने के लिए रास्ता मिल जाता है
निकलने के लिए राह
कुछ लोग हरदम शुभाकांक्षी रहते हैं
हितैषी चिन्ता करते हैं
हाल पूछ लेते हैं
कोई सहारा दे देता है लड़खड़ाने पर
गिर जाने पर उठा लेता है
ये अलग बात है कि शरीर ही गिरा है
अब तक
मन को कभी गिरने नहीं दिया
किसी के घर जाऊँ तो सुविधाजनक आसन मिलता है
और गर्म चाय
जिससे चाहूँ मिल सकता हूँ
ख़ुशी-ख़ुशी
अपने सामाजिक एकान्त में रह सकता हूँ
अकेला अपने आसपास
अपने लोगों से बोलता-बतियाता
अपनी नज़रों से देखता हूँ और देखता रह सकता हूँ
भरपूर हैरत के साथ
कि यह वैभव सम्भव होता है इसी लोक में
जबकि
परलोक कुछ है ही नहीं
अपने लोक में होना भी
एक सुख है
कविता और जीवन का