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शिवनारायण जौहरी ‘विमल’ की रचनाएँ

डर 

आदमी से आदमी का डर।
बड़ा उपकार है परस्पर डर का
हमारी ज़िन्दगी पर वर्ना
अणु विस्फोटों की होड़ से
मानव को बचाता कौन
आदमी की राख भी मिलती नहीं।

जिस बंगले के आगे
चौकीदार रहता हो
उसमें डर का निवास है।
जहाँ कुछ खोने को नहीं
वहाँ क्या ईंट पत्थर की
चौकीदारी करेगा आदमी।
सब कुछ खोगया हो
वहाँ चौकीदार का क्या काम।

डर चिपका रहता है
उम्मीद की तस्वीर के पीछे।

डर कुर्सी का
उस के चार पायों का
शिखर के आगे
गहरी खाई होती है।

गश्त लगाता है डर
सत्ता के गलियारों में
दबंगों के पूरे इलाके में।

पुलिस की वर्दी में लगा
रहता है तमगा की तरह
लपेटे में आजाय जो
मत पूछना खैरियत उसकी।

डर रहता है अंधेरी गली में
अभी एक कन्या मर गई
देती रही दरोदीवार पर
खून की दस्तक लेकिन
डर ने ताले डाल रखे थे
हर घर में।

सूने राजमार्ग पर
गश्त लगाता है डर
महिला का अपहरण
देखता रहता है चुपचाप।

डर है न्याय मंदिर के
देवी देवताओं के मंदिरों के
और गुरुद्वारे के गुम्बदों
मस्जिद की मीनारों
गिरजाघरों के पास।

कभी तो अपने आप से
लगने लगता है डर
अपने वीभत्स चहरे से
दर्पण में अपने
गुनाहों के विम्ब से।

डर लगता है अपनों से
छिपे हुए खंज़र से
डरना कोई नहीं चाहता
लेकिन सब डरते हैं
अपनेअपने कारणों से।
सपेरा सांप से डरता नहीं
मरता है उसी के काटने से।

जो जान कर अजान
रहना चाहता है
उस डर से
जो कर रहा है पीछा
जन्म के दिन से।
अंत में हार जाता है।

नहीं है पहुँच उस
चौगान तक डर की
जहाँ फाड़ कर व्यवधान सारे
सच खडा है तान कर सीना
न मौत का डर
न जीने की तमन्ना।
SHIV JOHRI
ये तो सिस्टम है
ये तो सिस्टम है
देखता आरहा हूँ दो साल से
जेल में क्या नहीं है क्या नहीं होता
वह तो महज़ एक कमरा है
वी.आई.पी. दबंग आरोपियों के लिए
पांच सितारों का होटल तो नहीं है
बाहर मिर्च क्यों फ़ैली हुई है
अधकारी क्या बच्चों कों ज़हर दे
मेरी जेल में अस्पताल भी है
मरीजों के लिए पलंगों की व्यवस्था है
आधे खाली रखे जाते है
उनके लिए जो बीमार नहीं हैं
केवल वेतन से डाक्टर का
पेट भरता ही नहीं वह क्या करे
बाहर दूकाने लगी हैं
जो चाहो खरीदो भेज दो अन्दर
आधी तो पहुंच ही जायगी उस तक।
पहुंचाने की इजाजत
मुफ्त में मिलती नहीं।
सिस्टम में दीमक लगी है
सब जानते हैं।

ये तो सिस्टम है

न्याय का मंदिर
यहाँ पत्ते-पत्ते पर लिखा है
सत्यामेव जयते
पर वास्तविकता कुछ और है
यहाँ तो बस सत्य की
खोज चलती है निरंतर
झूठ के सेलाब में लड़ते हुए सच
कभी थक कर डूब जाता है
यहाँ कुछ ग़लत भी हो जाय
फिर भी वह न्याय समझा जायगा
जब तक फैसला पलटे नहीं
अन्याय करना जांनते ही नहीं
हमारे विव्दान न्यायाधीश।
नीचे से ऊप्रर तक हवा में
गूँज है इसकी।
किसी कों तो राहत
मिल ही जाती है
चाहे कीमत कितनी भी लगे
और दीमक लगा बुढापा
रह जाय मरने के लिए.
न्यालय परिसर में घुसते ही
हवा भारी लगने लगती है
सच और झूठ के संग्राम का धुवां
घूमता है पूरे परिसर में
आशा और निराशा तैरते है वायुमंडल में
मैं देखता हूँ हर शाख पर कौए बैठे हुए
अपनी चोंच पैनी कर रहे है
फर्श पर जोंके रेंगती है।
वजन रख तो कागज़ चलने लगता है
फ़ाइल दौडती है
कोर्ट में तो क्भी कभी
गर्मी इतनी हो जाती है जाड़ों तक में
पसीना छूट जाता है।

तारीख पर तारीख झेलता
आरहा हूँ दो साल से
हर बार यह उम्मीद जगती है
इस बार तो सुनवाई हो ही जायगी
पर न्यायाधीश के सामने कोइ लेजाता नहीं
और अगली तारीख लिख जाती है
वारंट पर मेरे
बड़े जज साहब से फरयाद की
उत्तर मिला अनुसंधान कों
रोका नहीं जासकता
दस साल के बाद
आज में निर्दोष पाया गया हूँ
जेल से तो मुक्ति मुझ कों मिल गई
पर सिस्टम से पूंछता हूँ में
कौन और कैसे लौटाए जासकेगे
मेरी जवानीके सुनहले साल
बच्चे पढ़ नहीं पाए
पत्नी मर गई इलाज हो पाया नहीं
इतनी ज़िन्दगियों कों मिटाने का हक
किसने दे दिया तुमको।

इच्छाएँ

दुबले पतंगी कागज़ का
उड़ता हुआ टुकड़ा नहीं
प्रसूती मन की
बलवती संतान हैं।

तन, बदन, रूप और
आकार कुछ होता नहीं
पिंजड़े से निकल भागें
फिर पकड़ कर बताए कोई
दिल पर राज करतीं हैं।

रंगीन तितली बैठती है
फूल फूल पर मेरे साथ
हम बात करते हैं
मधु कलश लेकिन
भर नहीं पाता कभी
प्यास बनी रहती है।

इच्छा की, तभी तो
पैर आगे बढ़ गया, वर्ना
पडा होता दक्षणी
अफ्रीका की कंदराओं में
जंगली जानवर।

ले जाती है दोनों हाथ बांधे
दौड़ते अश्व के पीछे
किसी अपराधी की तरह।

डोज़र है जंगल पहाड़ों को
काट कर रास्ता बनाती है।
विंध्याचल झुक जाता है
अगस्थ मुनि को रास्ता देने।

नदी पर पुल, समुन्दर पर
जहाज बन जातीं हैं इच्छाएँ
लिफ्ट हैं मंजिलें चढ़ने के लिए.
नई खोज नए
आविष्कार की जननी।
आकाश को फाड़ कर
दूसरा ब्रह्मांड खोजने
जाना चाहतीं हैं इच्छाएँ।

सवेरा हो गया है

हरे पत्तों से घिरी कोपल
नोक पर आकाश उठाए
फ़ैल जाना चाहती है
संजीवनी धूप के मैदान में।
विकासोन्मुख गुलाबी कली
खोलती है आँख
अंगडाइयाँ लेकर
मखमली पटल पर
हीरे की कनी
ओस की बूँद
दिशाओं में नाना
रंग भरते कुसुम
खिलखिला कर हंस रहे हैं
चहरे से चादर हटा कर
मंथर पवन लेजा रही है
लूट कर मकरंद
शहनाइयों के स्वरों का कम्पन
काले उदधि की
गहराइयों से निकल कर
पवन की सवारी करने लगा है
प्रखर किरणों से पराजित चाँदनी
रात की जड़ शांति लेकर
उड़ गई आकाश में
मंदिर के गुम्बदों को
चूमती पहली किरण
देवता को गहन
निद्रा से जगाती है
पुजारी ने खोल दिए पट
आस्था के पैर के घुँघरू
बजने लगे नमन के भाव में
एक कबूतर आकर बैठ गया
रोशन्दान पर
कुछ देर गुटरगूं करता रहा
फिर उड़ गया आकाश में
लिख गया दरोदीवार पर
अब सवेरा हो गया है
प्रश्न जो कल
रह गए थे अनुत्तरित
मुंह उठाए फिर
खड़े हैं उत्तरापेक्षी
नए प्रश्नों की आहट
सुनाई दे रही है
रात को जो सो गईं थीं
चिंताएँ फिर जग गई हैं
कुछ वास्तविक कुछ काल्पनिक
फिर बटोरे जारही है जिंदगी
कुछ हार के गम
कुछ जीत की खुशियाँ
सबेरा हो गया है

नया महाभारत

निवृत विधि सचिव
नया महाभारत
ज्वाला मुखी सोये हुए है
जंगल की आग बुझ चुकी
केवल मरुथल ही जल रहा है
उसका ही धुआ है जो
आ रहा है इस ओर

नहीं सुहाता है गोतमी भूमि पर
भरत के वंशजों कों
नऐ महाभारत की बिजली का
चमकना धुऐ की गह्रराइयों से
चिंतित है सभी
नगर से गाँव तक।
हथियारों की खरीदी ने गरीबी कों
और नंगा कर दिया है
भूखी और प्यासी माँ के
सूखे हुए स्तन
अब दूध देते ही नहीं
क्या पिलाए गोद के शिशु कों
खेत में सूखा पड़ा है
पर्यावरण बिगड़ता जा रहा है।

जल थल और आसमां में
सीमा रेखाएँ खिची है
सेन्य दल दीवार फौलादी
वना उन पर खड़ा है।

पीछे हम और हमारे देवता
निहत्थे खड़े है तमाशा देखते
कानून ने हमकों निहत्था कर दिया है
धर्माचार्य आधुनिक शस्त्र
और आधुनिक वाहन
देते ही नहीं है देवताओं को
आज के संग्राम
तीर और तलवार से
जीते नहीं जाते।

घर में देशद्रोही
शत्रु का झंडा उठाए घूमते है
शत्रु की जय कार करते हैं
भारत माँ के प्रति वफादारी की
उड़ा कर धज्जियाँ
जिन्दा अभी तक हैं

युद्ध जारी है एकतरफा
एक कोड़े मारने में व्यस्त
दूसरा चमड़ी बचाने में
कब तक चलेगा सिलसिला ऐसा।

कट गया हूँ

मैंने सुन लिया था माँ
जब किया स्वीकार तुमने
अपने देवत़ा पति से
कि मेरा पित़ा तेरा पति नहीं था।

तुमने रों रो कर बताया था
कि उस दिन आसमाँ से
बरसती जारही थी शाम
बादलों से झर रहीं थीं फुहारें
गाए जा रहा था वह
प्यार में भींगे हुए नगमे
कमजोर होती जारही थी मैं
उसी कमजोर पल में
आगया मैं तुम्हारी कोख में।

माँ तुम्हारे हरेक अछर ने
कर दिए हैं सेकड़ों टुकड़े
मेरे मन प्राण श्रद्धा प्यार के
सभी से कट गया हूँ मैं।

तुम्हारे बेरहम सच ने
तोड़ दी कमर उस विश्वास की
जिसके लिए बेटा
शंकाकुल हो ही नहीं सकता।

कट गई पतंग का
कोई ठिकाना नहीं होता
पेड़ों में उलझ कर हवा के
झकोले सह नहीं पाती।

तुम्हारी एक सुन्दर छवि
अंकित होगई थी ह्रदय पर मेरे
जिसकी रोज़ पूजा किया करता था
उस पर स्याही तुमने ही छिडक दी।
और जो आज तक मेरे पित़ा थे
कितना प्यार था उनसे
कट गया हूँ आज उनसे भी।
कौन से रिश्ते से कहूँ
यह बाप हैं मेरे।

पावन प्यार की
दरकार थी तुमसे
बाकी सफर को पैर थे मेरे
सम्मान की ज़िन्दगी
के पैर तुमने काट डाले
पहाडी चढूँगा कैसे

पेड़ से टूटा हुआ पत्ता
वापस चिपकाया नहीं जाता
मोहोब्बत का दूसरा नाम
समझौता नहीं होता

सन्नाटा

क्या किसी की बांसुरी ने
छू लिया है चांदनी का दिल
हवा कों नींद क्यों आने लगी है
पत्तियों की खडखड़ाहट बंद है
दवा कर पैर कोई आरहा है
तनाव सारे चुप खड़े हैं
सन्नाटा छाया हुआ है
क्षितिज के उस पार
कोई दुर्घटना घटी है
चाँद तारे सांस साधे
लगाए टकटकी
देखते हैं उस तरफ
सन्नाटा छाया हुआ है
झींगुर कों चुप चाप
सोने के लिए
राजी कर लिया है क्या
अमावस की रात ने
सड़क के पैर भी खामोश हे
बिचारे चल नहीं पाते
एक सन्यासी समाधिस्थ है
देह संज्ञाहीन है
मन व्यस्त है शून्य की गहराइयों में
बाहर शोर होया सन्नाटा
दोनोब्राब हैं।
देवताओं कों शयन करवा कर
पुजारी जा चुका है
सन्नाटा घुस रहा है देवघर मैं
दो प्रेमी लिपटे पड़े है कक्ष में अपने
बाहर पहरा देरहा है सन्नाटा अकेला

रात 

रात उस समय भी होती है
जब मन में अँधेरा हो
दरवाजे खिड़कियाँ बंद हो जाएँ
हाथ को हाथ ढूँढता रह जाय।

रात ही कहलायगा वह दिन
जब मैं अकेला
अपने आपको ढूँढू और
एक खालीपन के अलावा
हाथ कुछ आए नहीं।

जब गहराई तक डूबने पर भी
विचार शून्यता घेरे रहे।
रास्ता भूल जाए घने जंगल में

वह भी रात होती है
जब दिन के उजाले में
आँख की और ध्यान की
दिशाएँ भिन्न हो जाएँ
आँख को सामने का
द्रश्य भी दिखता न हो

जब पेट की आग
आँखों में उतर आये
दिशाएँ जल उठें चारों
तब रात आती है
नई सुबह को गोद में लेकर।

रात है उम्मीद
गुलाबी उषा से मुलाक़ात की
उजली ज़िन्द्गी की
रंगीन लम्हों की।

हर ज़िन्दगी में एक बार
पूर्वाभास दिए बगैर
आती है ऐसी रात
जिसका सबेरा होता नहीं।

मेरी रात रानी आगई तुम
नर्मदा से निकल कर
पहचानी हुई खुशबू में
लपेटे हुए अपना बदन
प्यार ने पंख फिर फैला दिए
चलो थोड़ी दूर तक घूम आएँ
बैठ कर इन पर।
(2)
रात की सूरज से
अनबन है शुरू से
एक दूजे का चहरा
देखना भाता नहीं हैं।

दोनों ने अपने खिलोने तक
अलग कर लिए हैं।
दिन का खिलौना
हंसती खेलती मृगया।
रात के खिलोने स्वप्न में
चलते फिरते बोलते
बात करते खिलोने
जिनका वीडियो
चला करता है सारी रात।

निराशा, दुःख, पीडा, गरीबी
रात के मेंग्नीफाइंग ग्लास में
भयानक दिखाई देते हैं।

दिन की भगा दौड़ी
से थक कर निढाल हुए
आदमी को सहारा देती है
रात मीठी नींद में
थपकियाँ देकर।
तैयार करती है
कल की मेंराथोंन में
भाग लेने के लिए।

हँसने खेलने के दिन 

स्कूल के कमरे से छूट कर
चौगान में दूसरों के हुडदंग से मिल
बिखर जाने के दिन
हँसने खेलने के दिन।
लौट कर घर में घुसते हुए
कहीं जूते कहीं टोपी
कहीं बस्ता फेंकते हुए
माँ के आँचल से
लिपट जाने के दिन।
बरसते पानी में छपा छप
करते हुए कीचड़ उछाल कर
भूत बन जाने के दिन
माँ की प्यारी-प्यारी
डाट खाने के दिन।
जवां खुशियों का
घूंघट हटा कर प्यार के
होश उड़ जाने के दिन
सीने से लगा लेने के दिन।
मोती उछालती लहरों के किनारे
चाँद की ज्योत्स्ना में डूबी हुई
रातें किसी के संग बिताने के दिन
नए महमान को गोद में लेकर
झूला झुलाने चूमने के दिन
पोपली मुस्कान पर
सौबार मर जाने के दिन।
स्कूल से लौटती गुडिया को
चलती साइकिल पर
बिठा लेने के दिन
पुलकंन भरे रोमांच के दिन
वे दिन उम्र के साथ चल नहीं पाए
रह गए पीछे बहुत पीछे
आँगन में लेटा हुआ
जब उनको बुलाता हूँ
तो आज मेरी उम्र को
दर्पण दिखाने लगे है वे दिन।

लोकतंत्र

में सोचता हूँ कि
यह जो हमारा लोकतंत्र है
जिस पर गर्व है हमको
दुनिया में हम सम्मानित हैं
जिसकी वज़ह से
वह हमारा ईमान है
या हमारी नीतियों की ढाल।

में यह मानता हूँ कि
नऐ युग की कल्पना
साकार करने के लिए
नया चहरा बनाने के लिए
पैनी क़लम और सधी हुई
उंगलियाँ भी चाहिए।

में समझना चाहता हूँ कि
सत्ता कि गली के बाहर जो शोर है
वह रचनात्मक आलोचना का है
या विध्वंसक दुराग्रह का।
मधु मक्खियों के
उजडे हुऐ छत्ते का अरण्य रोदन।
फिर भी लोकतंत्र में
वाणी का मुखर रहना ज़रूरी है।

दुर्भाग्य है इस लोकतंत्र में
अपराधियों और शासन
की लगी है होड़
देखें कौन आगे निकलता है।

हमेशा कि तरह इस तंत्र ने भी
गरीबी को हटाने का
संकल्प लिया है।
गरीबी भी खडी है बाज़ार में
बिकने के लिए पर कोई गाहक
नहीं आया है अभी तक।

एक पड़ोसी बिक चुका है
आतंक के हाथों
दूसरा तानाशाह विस्तारवादी
जाग्रत है लोकतंत्र का प्रहरी

कविता बह निकलती है

कविता बह निकलती है
अत्याचार देखा हो
सुना हो या सहा हो
और उसका उपचार संभव हो न पाए
तो ह्रदय की धडकनों से
बह निकल पड़ती है कविता
आशा कि निराशा कि साह्स की
सग्राम की कविता।

पीर अपनी हो पराई हो
सहन की शक्ति जब थकने लगे
जीभ में कांटे उगे हों गला रुंध जाये
तो उँगलियों से बह
निकलती है आंसू चूमती कविता।

जब कोई अनगढ़ पत्थरों को
तराश कर सौन्दर्य को साक्षात क्रर दे
चिपक कर रह जाय मन की आँख से
छेनी की नोक से लिखी गई
सौन्दर्य की प्यार की मनुहार की
यादों भरी कविता।

जब वात्सल्य के रस में
डूबा हुआ बचपन लौट कर आजाय
आँख नम हो जाय तो
माँ की याद से कविता निकलती है।

जब जनकल्याण को समर्पित संवेदना
के मानसरोवर कोई उफान आजाए
तो निकल पड़ती है भागीरथी कविता
जो शिव के रोकने पर भी नहीं रुकती

अधखुली आँखें
ठंडी सुबह
चाय की चुस्की पेट में पहुँची
उबल कर आगई कविता
कलम की नोक पर
जाने कब का संचित गुवार
बह निकला अचानक।

औरत

मोहनी, घर भर का खिलोना।
सब कुछ नया है अजूबा है
पकड़ लेती है चमक देख कर
जलता हुआ कोयला।

किशोरी, पल्लू को हटा कर
क्या दिखाना चाहती है
आयने को।
मन के एक कोने में

छिपी है कामना
लज्जा का श्रृंगार
कोई पलट कर देख ले
मीठी नज़र से।
द्राक्षासव
सरिता का भींगा किनारा
हवा फैला देती है
जवानी की मादक महक।

एक सूनापन उभरता है
उसके आँगन में
झाड कर साफ़ रखती है।
अनाम आगंतुक की प्रतीक्षा।

घूंघट में संजोती है
सपने हज़ारों
प्यार की प्यास के
उजले धरातल पर
महरवां जिंदगी
भुजपाश की अंगडाइयाँ
समय थम-सा गया।

टूटने लगे जब कंचुकी के बंद
अंक में होने लगी
मातृत्व की सिहरन
एक तारा
उतरने लगा आकाश से।

लम्बे सफ़र में
भर जाता है इतना
ताप तन मन में
कोई छूले तो झुलस जाए
पर धुआं बाहर नहीं आता।

परिवार ही संसार है उसका
चिड़िया अपने
घोंसले को बचाने के लिए
सांप से लडती है
अंतिम स्वांस तक।

युद्ध जारी है

युद्ध जारी है
सत्य का झूठ से
प्रकाश का अन्धकार से
जीवन का मृत्यु से
विकारों का अंतरात्मा से
अपराध का कारागार से
आदमी का अहंकार से |

तुमने भेज तो दिया मुझको
भाल पर विजय की कामना
का टीका लगा कर
भेज तो दिया चल रहे संग्राम
में कौशल दिखाने के लिए
बिला यह बतलाए कि
कौन अपना है कौन पराया
किससे युद्ध करना है किससे नहीं
पर में स्वयं से भी
युद्ध करने के लिए तैयार हूँ |

मेरे सामने महारथियों की भीड है
और मै बिलकुल अकेला हूँ
इस चक्रव्यूह में
अभिमन्यू की तरह सभी
मेरे कवच कुंडल टूट गए हैं
तलवार छूट गई हाथ से
धनुष की प्रत्यंचा कट गई है
सारथी और अश्व घायल हो गए हैं
किन्तु यह रक्त रंजित तन
और आहत मन अभी हारे नहीं है
विजय का परचम लिए
में फिर खडा हूँ युद्ध जारी है |

अजब तेरी कुदरत

अजब तेरी कुदरत गजब तेरा खेल
अंडे में आदमी और बीजों में तेल

पेड़ों में पम्प लगे छन्नी के बाद
शुद्ध जल पर हर फल का अलग अलग स्वाद

नमकीन नहीं होता है कोई भी फल
नमक विहीन होता है नारियल का जल

ऐसी हो मशीन गर मरुथल के पास
मिट जाए उस की कई बरसों की प्यास

दिल गुर्दा जिगर आँख नाक और कान
एक कोशिका के इतने रूप इतने काम

सूरज का ताप पिए ठंडी है चांदनी
ब्रम्ह तो गूँज रहा मूक बधिर यामिनी

फैला ब्रम्हांड कोई ओर है न छोर
चकित है भ्रमित है बुद्धिवादी मोर

हवा है पर आँख को दिखती ही नहीं
शिल्प है तो शिल्पी भी ज़रूर होगा कहीं

घूमती धरती हम अचल अपनी जगह
धरती से अलग है क्या उसकी सतह

विराट जब सुनता समर्पण के बोल
माँगता है बाँसुरी राधिका पट खोल।।

मेरे देश की माटी

यह मिट्टी नहीं मेरा जिगर है ,जान है
मेरा धर्म है,ईमान है ,पहिचान है यारों

मेरे पूर्वजों की शहादत के खून में भींगा
एक मंदिर है इबादत है मजार है यारों

इसके हरेक जर्रे में पूरा देश बसता है
यह विविधता में एकता की शान है यारों

प्रगति के हाथ में शक्ति का परचम
देश की माटी का देवी रूप है यारो
इसके पैर में फोलाद हाथ में बिजली
शीष जनकल्याण का तूफान है यारों

नहीं है सड़क पर पड़ी लाश लावारिस
यह पर्वत शिखर का उद्घोष है यारों

नशे में हू इसका रूप रस गंध पी पीकर
चहता हू यह हावी रहे आखीर तक यारों

यह नशा है सर पर चढ़ कर बोलता है
शक्ति का स्फूर्ति का संचार है यारों।।।।

अबकी बार 

अबकी बार जब मैं आउगा इक दिन
स्मृति पटल के सभी अक्षर मिटा कर
आखों पर से केचुल उतरवा कर
नए मुलायम चिकने रेशमी
परिधान धारण कर।
हजारों खिलोने मेरे पालने को
चूमने के लिये आतुर
लाइन में खड़े होगे।

हरे पत्तों से छनकर आई धूप
आंगन में बैठी मिलेगी।
धुँआ और धूल कूड़े दान में
रोते पड़े होंगे
नीले आकाश में झाडू
पोंछा लग चुका होगा
दरवाजे पर पड़े खून के छींटे
धोए जा चुके होंगे।

मलियानिल खिडकी द्वार से
झगड़ कर घर में घुस गई होगी
घर सुवासित हो चुका होगा
दीवारे लिप पुत कर
साफ़ हो चुंकी होंगी।
अब की बार जब मैं आऊगा
रहने लायक हो गया होगा मेरा घर।।

गाँव से शहर तक

1.
नाचता गाता हुआ चौपाल
भीनी फैलती खुशबू
घर घर दे रही न्योता
कभी गरबा कभी झूले
कभी फाग के गाने
मोसम को सजाते हैं
मोसम को सजाते हैं
धूम मचाती जवानी।

दौड़ कर आते हुए बच्चे
लकडी का सहारा लिए बूढें
सारा गाँव जैसे बंधी मुठ्ठी

ख़ुशी की लहर बिखराती हुई
किसान की गाड़ी
फसल लेजाती हुई खलियान में
वह पीर सहलाता
हुआ अपना हाथ
खुशियों से लदा हर मौसम।
2.
शहर में बढती हुई छाया
एक सूनापन भारी हवा
सींमेंट की दीवार सी खड़ी
इमारतों के झुंड

आधी रात बीत चुकी है
एक औरत मर रही फुटपाथ पर
मदद की गुहार लोंट आती है
टकरा कर सीमेंट की
बहुमंजिली दीवार से
डर से कांपता सुनसान।

एक जुलूस निकला
कुर्सी की दुकानें लुट गईं।
दो बच्चे लडे
शहर में दंगा होगया।

होटलों के व्दार पर
सूखी हँसी नकली प्यार के
पोस्टर चिपके हुए हैं।

आतंकी ने रेल की पटरी उडादी
सैकड़ों सोते हुए मारे गए।
भय से कांपता हर लम्हा
दौडती सड़कें व्यस्त जीवन
प्यार के लिए फुर्सत नहीं।

इस शहर में कहा से ढूँढ कर
लाएं खुशी के चार दाने।
चम् चमाती रोशनी के पास
केवल अँधेरा है।

स्वागत है

इस सदी के अठारवे श्रीकृष्ण
उतरो धरा पर हाथ में
मंगल कलश लेकर
स्वागत है नव वर्ष तुम्हारा |

व्दापर की रासलीला को
विकारों से वासना से मुक्त कर दो
न चीर हरण हो
न खून की रक्तरंजित चीख
सुनाई दे हवाओं को
तुम्हारे राज में

न आसमां से राख बरसे
न आंच आए हरी साडी पर
न चांद जैसी निपूती
हो पाय यह धरती
तुम्हारे राज में

आओ चिड़ियों की
चहचहाट बनकर
मर्गों की छलांगें बनकर
बच्चों की मुस्कान
मंगल गान बनकर
उजली धूप बनकर
चादनी रात बनकर
आओ मंगल कलाश
अपने हाथ में लेकर।।

बरसात

फिर आगई बरसात
प्यासी तलइयों ने
पिया ख़ूब पानी
छ्लकने लगा है कटोरा
कैसी मिली है सौगात
लो फिर आगई बरसात

झरने हुए बरगद के पेड़
नीचे तक लटकीं जटाए
नदिया नहाय रही
खोल कर लंबी लटें
दूर तक फ़ेल गईं
दुपट्टे के साथ
लो आगई बरसात

नदी किनारे की
खुरदरी दंत पंक्ति को
निगला जल राशि ने
बूढ़े दांतों की क्या बिसात
लो आगई बरसात

बिजली के नर्तन और
बादल के गर्जन ने
बहलाया मौसम के
रूठे मिज़ाज को
होने लगी द्वार द्वार
मीठी मीठी बात
लो आगई बर
जप
ऐसे में आओ प्रिए
हम तुम भी बैठ जाएँ
बाहर गौख में
पास बरखा के
तन भींगे मन भींगे
भींग जाए रात
लो आगई बरसात॥
श्री शिवनारायण जौहरी विमल

मुट्ठी हो गई ढीली 

आदमी अकेला घर में या बाहर
कन्दरा में या खुले जंगल में
बैठा हो सरिता तट या पर्वत शिखर पर
उसकी कोई दुनिया नहीं होती

एक उंगली अकेली
चाहे जल हो या शिला
उठा सकती नहीं ऊपर
चला सकती नहीं तलवार
या बम का गोला
न पकड़ सकती लेखनी
न तस्वीर बनाने का बुरुश

पर तने पर जब कस जाता है
टहनियों और पत्तियों का जाल
तब वह बन जाता है व्रक्ष
आंधी पानी को
ललकार ने लायक

इसी तरह हथेली से ऊगती
यह उँगलियाँ पाचों
मुड कर हथेली पर कस जाएँ
तो बन जाती है मुट्ठी
बन जाता है हथोड़ा
एक सिपाही, एक सेना समूची
जल थल और
आकाश का रक्षा कवच

आज कल इस देश की
मुट्ठी ढीली होगई है
उँगलियाँ आज़ाद हैं
न देश है न राष्ट्र
न लेखनी न बुरुश
न तस्वीर का मॉडल
कौन जाने किस नाव को
कहाँ लेजा रहे हैं
उस नाव के केवट॥

धुआँ

आधुनिक परिवेश में
पुराने और नए प्रशनों के
मनमाने उत्तर
खारोंचे जा रहे
भर जाता है मन, मस्तिष्क में
रंध्रों से निकलता है धुआँ
कौन सच है कौन झूठा
कौन जाने कौन समझे

रात के खंडहर से
नीले पटल पर फूटती चिंगारी
फैल जाती है दिग्दिग्न्तों
में जन्म लेता है
क्या अंधेरे में डूब कर
श्रीहीन हो जाता है उजाला॥

कभी यहाँ जीवन रहा होगा 

आजकल अस्त्र शस्त्रों के
जिम खुल गए हैं
पासीने की जगह उनके
रंध्रों से निकलता है धुआं बारूद का
दूर तक मारने की शक्ति
की होड है बाज़ार में
जन कल्याण का पैसा
लगा है दांव पर
अंतर्राष्ट्रीय दंगल की प्रतीक्षा है

दिग्विजय की लालसा ने
अंधा कर दिया है दिग्गजों को
इस बार मुर्दे नहीं
गरम राख़ परसी
जाएगी यमराज को।

वहशी हवाएँ ढूँढती फिरेंगी
कुओं में कन्दराओं में पहाड़ों में
प्रतिध्वनि उन चीख़ों उन कराहों की
जो दंगल की चपेट में गुम हो गईं।
प्रकाश जल कर काला हो जागया

कभी कोई खोजी आयगा
किसी नक्षत्र से
देख कर जल प्रवाह की
सूखी लकीरें इस धरा कि रेत पर,
कहेगा यहाँ कभी जीवन रहा होगा
हजारों साल पहिले॥

सवेरा हो रहा है

उठो मेरे लाल
जगो मेरे प्राण
आंखेँ खोल कर देखो
समय कैसे करबट बदलता है
यामिनी के सभी शृंगार
फीके पड गए हैं

ऊषा सुंदरी दौड कर
आज़ाद करा लाई है
बाल रवि को
निशा कि क़ैद से
क्षितिज पर बैठा दिया है
चलो खेलें उसी के साथ

कोई दस्तक दे रहा है द्वार पर
उजेला छत से उतर कर
आगया आंगन मैं
मलियानिल बैठ खिडकी पर
प्रभाती गा रही है
पत्तियाँ झूम, ने लगी है
फूल कर रहे हैं
प्रक्रर्ति के श्रगार का स्वागत
गाय का बछड़ा ब्याकुल है
दूध पीने के लिए

घ्ंटे घड़ियाल बजने लगे
देवों को जगाया जा रहा है
तुम भी जगो मेरे लाल
सबेरा हो रहा है॥

खुली पाठशाला /

नदी ने जल से कहा बहते रहो
रुके तो हो जाओगे मैले
सूख कर मर जाओगे।
चाँद तारे धरा और नक्षत्र
जीवित हैं निरंतर चल रहे हैं।
हरी भरी दूब सहला रही है
बढ़ते हुए युवा चरणों को।

धरती माँ से सीख लो सूखे बीज
को अंकुरित करने की कला
सीख लो कैसे हारे थके जीवन
को नवांकुरित करना है तुम्हें।

गुलाबी गंध फैलाने के लिए
पवन जाने कहाँ से आगई।
लगन और विश्वास को
मिल ही जाता है दैवी सहारा।
प्यास धरती की बुझाने को
आगए आकाश में बादल।
खुले आकाश के नीचे

इस पाठशाला में कोई
प्रत्यक्ष चित्रों से समझा रहा
रचना कि उलझी हुई गुत्थी
टीचर एक विध्यार्थी अनेकानेक।

प्रपात

फूट चला फिर से मेरे काव्य का प्रपात
रोक नहीं सके उसे पर्वतों के हाथ
मन मेन फिर उठने लगे नए-नए ख्वाब
दिवा सपनों के साथ

बादल फिर भर लाए मोतियों के हार
बहती नदी का फिर करने शृंगार
कलम ने भरे मधुर चित्रों में रंग
महकने लगा प्यार का पारिजात
याद आने लगे बिसरे हुए गीत

आंदोलित होगए वीणा के तार
जगत में होगया आनंद का विस्तर

मेरे मित्र

कोई तो देश के खातिर
कूद कर मैदान में
झंडे में लपिटवा कर अपना बदन
शहीद होकर मर गया

कोई हर घड़ी मरता रहा
डरता रहा छ्क्का लगाने से
विकेट पर बने रहना चाहता था
यह नहीं सोचा तुम्हारा भी
विकेट गिर जायगा इक दिन
संकल्प जिस दिन लिया
चढ़ गया एवरेस्ट पर उस दिन।

मित्र तुमने भी शपथ ली थी इक दिन
पर देश मरता और तुम
जीते रहे अपने लिए?
किसी के घाव पर मरहम लगाया?
किसी की पीर सहलाई?
धरती रही पैरों तले
और दृष्टि तारे गिन रही थी॥

सरहद के सिपाही

निशा सुंदरी रजनी बाला
तिमिरांगन की अद्भुत हाला

हीरक हारों से भरा थाल ल्रे
कहाँ चलीं जातीं हर रात
और बेच कर हार रुपहले
सुबह लौटती खाली हाथ

पूरा थाल खरीदा मेंने
चलो आज तुम मेरे साथ
उस सरहद पर जहाँ पराक्रम
दिखा रहा है अपने हाथ

बना भीम सरहद का रक्षक
रिपु की गरदन तोड़ रहा है
पहना दो सब हार उसी को
भारत जय-जय बोल रहा है॥

जब तुम नहीं हो प्रिया 

क्यो खिलते पुष्प कुंज
खिलती क्यों चाँदनी
क्यों सपने साथ लिए
आती है यामिनी
नहीं जब प्राण में जिया
तुम कहाँ प्रिया

रिमझिम की बूंदों से
निकली क्यों रागिनी
बदली में लुका छिपी
खेल रही दामिनी
मयूरा के साथ नची
मयूरी मन भावनी
तुम कहाँ प्रिया

क्षितिज के बालॉ मे
उषा का गुलाल
रंग गए पलाश से
धरती के गाल

ज़िंदगी तार की झंकार
इस वीणा के तार
तुम कहाँ हो प्रिया

यह समय नहीं है

नहीं है यह समय
नहीं है यह समय

मसनद लगाए बैठ
हुक्का गुडगुड़ाने का
पान का बीड़ा दबा
रस पान करने का
न रंगीन पतंगें उड़ाने
होटलों मेँ ऐश करने का

समय है गलवान घाटी का
गरदन मरोड़ देने का
सीमा पर कुर्बान होने का
खून देने खून पीने का॥

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