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शुजाअ खावर की रचनाएँ

और क्या इस शहर में धंधा करें

ख़्वाब इतने हैं यही बेचा करें
और क्या इस शहर में धंधा करें

क्या ज़रा सी बात का शिकवा करें
शुक्रिये से उसको शर्मिंदा करें

तू कि हमसे भी न बोले एक लफ़्ज़
और हम सबसे तिरा चर्चा करें

सबके चेह्रे एक जैसे हैं तो क्या
आप मेरे ग़म का अंदाज़ा करें

ख़्वाब उधर है और हक़ीक़त है इधर
बीच में हम फँस गये हैं क्या करें

हर कोई बैठा है लफ़्ज़ों पर सवार
हम ही क्यों मफ़हूम का पीछा करें

दूसरी बातों में हमको हो गया घाटा बहुत 

दूसरी बातों में हमको हो गया घाटा बहुत
वरना फ़िक़्रे-शऊर को दो वक़्त का आटा बहुत

आरज़ू का शोर बरपा हिज्र की रातों में था
वस्ल की शब को हुआ जाता है सन्नाटा बहुत

दिल की बातें दूसरों से मत कहो कट जाओगे
आजकल इज़हार के धन्धे में है घाटा बहुत

कायनात और ज़ात में कुछ चल रही है आजकल
जब से अन्दर शोर है बाहर है सन्नाटा बहुत

मौत की आज़ादियाँ भी ऐसी कुछ दिलकश नहीं
फिर भी हमने ज़िन्दगी की क़ैद को काटा बहुत

क्या फ़िक्र जो दुश्मन हैं मिरे यार ग़ज़ल के

क्या फ़िक्र जो दुश्मन हैं मिरे यार ग़ज़ल के
मददाह भी मिल जायेंगे दो-चार ग़ज़ल के

उस्लूब के तूफ़ान में मज़मून की कश्ती
अल्लाह उतारेगा मुझे पार ग़ज़ल के

तूफ़ान हो सीने में मगर लब पे खमोशी
हज़रात यही होते हैं आसार ग़ज़ल के

दुनिया की इनायत हो कि हो तेरी नवाज़िश
ख़ाली नहीं जाते हैं कभी वार ग़ज़ल के

दोनों में हकीक़त में कोई फ़र्क़ नहीं है
होते हैं सुख़नफ़ह्म तरफ़दार ग़ज़ल के

अल्फ़ाज़ के अल्फ़ाज़ मआनी के मआनी
हुशियार बड़े होते हैं फ़नकार ग़ज़ल के

वो मीर का उस्लूब वो ग़ालिब का सलीक़ा
पहले न थे अंदाज़ दिल-आज़ार ग़ज़ल के

वो बहरो-क़वाफ़ी वो रदीफ़ें वो ज़मीनें
दिलचस्प बड़े होते हैं किरदार ग़ज़ल के

सौ बार ये सोचा कि बस अब नज़्म लिखेंगे
चक्कर में मगर आ गये हर-बार ग़ज़ल के

बाज़ार में हर शख़्स क़सीदे का तलबगार
हम हैं कि लिए फिरते हैं अशआर ग़ज़ल के

रोज़ सुन सुन के उन अल्फ़ाज़ का डर बैठ गया 

रोज़ सुन सुन के उन अल्फ़ाज़ का डर बैठ गया
दिल किसी तौर सम्हाला तो जिगर बैठ गया

हम बहुत ख़ुश थे कि बारिश के भी दिन बीत गये
धूप दो रोज़ पड़ी ऐसी कि घर बैठ गया

उस परीवश का बयां फिर है ज़बां पर मेरी
राज़दां आज मिरा जाने किधर बैठ गया

कर दिया सोच ने तरतीब को दरहम-बरहम
यूँ समझ लो कि परिंदे पे शजर बैठ गया

मेरे इज़हार से उसको तो बदलना क्या था
उसकी ख़ामोशी का ख़ुद मुझ पे असर बैठ गया

पार उतरने के लिए तो ख़ैर बिलकुल चाहिये 

पार उतरने के लिए तो ख़ैर बिलकुल चाहिये
बीच दरिया डूबना भी हो तो इक पुल चाहिये

फ़िक्र तो अपनी बहुत है बस तगज्ज़ुल चाहिये
नाला-ए-बुलबुल को गोया खंदा-ए-गुल चाहिये

शख्सियत में अपनी वो पहली सी गहराई नहीं
फिर तेरी जानिब से थोडा सा तगाफ़ुल चाहिये

जिनको क़ुदरत है तखैय्युल पर उन्हें दिखता नहीं
जिनकी ऑंखें ठीक हैं उनको तखैय्युल चाहिए

रोज़ हमदर्दी जताने के लिए आते हैं लोग
मौत के बाद अब हमें जीना न बिलकुल चाहिए

मेरा दिल हाथों में ले लो क्या तुम्हारा जायेगा /

मेरा दिल हाथों में ले लो क्या तुम्हारा जायेगा
और मेरा ही समरक़न्दो-बुख़ारा जायेगा

तिश्नगी का एक-एक पहलू उभरा जायेगा
वस्ल की शब को भी फुरक़त में गुज़ारा जायेगा

कल ये मंसूबा बनाया हमने पी लेने के बाद
आसमानों को ज़मीनों पर उतरा जायेगा

डूबने से फ़ायदा भी होगा और नुक़सान भी
ज़हन से तूफ़ान हाथों से किनारा जायेगा

दर्द जायेगा तो कुछ-कुछ जायेगा पर देखना
चैन जब जायेगा तो सारा का सारा जायेगा

कुछ नहीं बोला तो मर जाएगा अन्दर से ‘शुजाअ’
और अगर बोला तो फिर बाहर से मारा जाएगा

आ पड़ा हूँ नाउमीदी के खुले मैदान में

आ पड़ा हूँ नाउमीदी के खुले मैदान में
कोई घर ख़ाली नहीं है कूचा-ए-इमकान में

आम इंसा क्या मुफ़क्किर भी रहे नुक़सान में
बामो-दर क्या फ़लसफ़े भी उड़ गए तूफ़ान में

हम समझते थे फ़क़त हम ही हैं इस बुहरान में
देखकर बेजान सबको जान आयी जान में

है मुक़द्दसतर शबे-वादा से रोज़े-इन्तिज़ार
सच्चे रोज़ेदार की तो ईद है रमज़ान में

अपनी ग़ुरबत का ज़ियादा तज़करा अच्छा नहीं
फ़ारसी ख़ुद अजनबी लगती हो जब ईरान में

शायरी में गुफ़्तगू के लफ़्ज़ हम लाये मगर
फूल जो अस्ली थे मसनूई लगे गुलदान में

आपका अंदाज़ रहना चाहिए था आप तक
ग़ैर भी करता है गुस्ताख़ी हमारी शान में

शिद्दते-तन्हाई की तारीख़ गोया दफ़्न है
मेरी तन्हा चारपाई के शिकस्ता बान में

सारी दुनिया कर रही है उसकी सहरा में तलाश
और दीवाना छुपा है ‘मीर’ के दीवान में

लोग ख़ुश हैं और हमको ज़ात का ग़म हो रहा है

लोग खुश हैं और हमको ज़ात का ग़म हो रहा है
दिन-ब-दिन दुनिया से अपना राबता कम हो रहा है

वो समझ ले जो समझ सकता है हम फिर कह रहे हैं
कर्बला में आजकल जश्ने-मुहर्रम हो रहा है

इस तरफ हालात के हरबे बराबर बढ़ रहे हैं
उस तरफ यादों का दस्ता फिर मुनज्ज़म हो रहा है

हम बज़ोमे-ख़ुद बहुत बरहम ज़माने से हैं लेकिन
लोग कहते हैं ज़माना हमसे बरहम हो रहा है

जाने कब बदलेगा ये मंज़र जहाने-आरज़ू का
हादसा होने से पहले इतना मातम हो रहा है

सुकूँ ज़मीने-कनाअत पे जब नज़र आया

सुकूँ ज़मीने-कनाअत पे जब नज़र आया
तो आरज़ू की बुलंदी से मैं उतर आया

हुजूमे-फ़िक्र में तेरा ख़याल दर आया
कोई तो आशना इस भीड़ में नज़र आया

रक़ीब मेरे ख़िलाफ़ उसके कान भर आया
जो उस गरीब के बस का था काम कर आया

हयातो-मौत की कुछ साज़-बाज़ लगती है
तिरा ख़याल गया और चारागर आया

दिलो-दिमाग की सब नफरतें बरहना थीं
अचानक आज जो दुश्मन हमारे घर आया

जो हमसे होगा वो हम भी ज़ुरूर कर लेंगे
अगर बहार का मौसम शबाब पर आया

वो जिससे पूरा तअर्रुफ़ भी हो न पाया था
वो एक शख्स हमें याद उम्र भर आया

तिरे क़सीदे से उसका भला तो क्या होता
‘शुजाअ’ कुछ तिरा उसलूब ही निखर आया

उड़ा क्या जो रुख़ पर हवा के उड़ा 

उड़ा क्या जो रुख़ पर हवा के उड़ा
कि इससे तो अच्छा हूँ मैं बेउड़ा

किसी दिन अचानक क़रीब आ के तू
तसव्वुर में मेरे परखचे उड़ा

अभी तक नज़र मैं है मेरा वुजूद
तख़य्युल ज़रा और नीचे उड़ा

जिसे सब समझते थे बे-बालो-पर
वही इक परिंदा क़फ़स ले उड़ा

‘शुजा’ आँधियों कि करो फ़िक्र तुम
वो आयी सहर और मैं ये उड़ा

पहुँचा हुजूर-ए-शाह हर एक रंग का फ़कीर

पहुँचा हुजूर-ए-शाह हर एक रंग का फ़कीर
पहुँचा नहीं जो, था वही पोंह्चा हुआ फ़कीर

वो वक्त का गुलाम तो यह नाम का फ़कीर
क्या बादशाह-ए-वक्त मियाँ और क्या फ़कीर

मंदर्जा जेल लफ्जों के मानी तालाश कर
दरवेश, मस्त, सूफी, कलंदर, गदा, फकीर

हम कुछ नहीं थे शहर में, इसका मलाल है
एक शख्स शहरयार था और एक था फकीर

क्या दौर आ गया है कि रोज़ी की फिक्र में
हाकिम बना हुआ है एक अच्छा भला फकीर

इस कशमकश में कुछ नहीं बन पाओगे ‘शुजाअ’
या शहरयार बन के रहो और या फ़कीर

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