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अकलमंदी और मूर्खता

स्त्रियों की मूर्खता को पहचानते हुए
पुरुषों की अक्लमंदी को भी पहचाना जा सकता है

इस बात को उलटी तरह भी कहा जा सकता है

पुरुषों की मूर्खताओं को पहचानते हुए
स्त्रियों की अक्लमंदी को भी पहचाना जा सकता है

वैसे इस बात पर कोई विवाद नहीं है कि
स्त्रियों में भी मूर्खताएँ होती हैं और पुरुषों में भी

सच तो ये है
कि मूर्खों में अक्लमंद
और अक्लमन्दों में मूर्ख छिपे रहते हैं
मनुष्यता ऐसी ही होती है

फिर भी अगर स्त्रियों की
अक्लमंदी पहचाननी है तो
पुरुषों की मूर्खताओं पर कैमरा फ़ोकस करना होगा।

अभी देखना बाक़ी है

क़ौसर बानो इसलिए मारी गई
कि मुसलमान थी
रूपकँवर इसलिए जलाई गई
कि हिन्दू थी

रूपकँवर और कौसर बानो
दुबकी हैं हर शहर में

अभी गुजरात कहाँ देखा
अभी तो हम औरतों पर
चुटकले सुन रहे हैं
और सेक्स मज़ा लेने की चीज़ है

कितने ही शहरों से गुज़रकर
गुजरात अभी देखना बाक़ी है।

आजकल

लोग पॉलीथिन के थैले पैकेट और डिब्बे लिए
शॅपिंग के बाद लदे-फँदे जा रहे थे

मैं ख़ाली हाथ गुज़रती थी उस सड़क से

मेरे साथ चल रहा था एक नीम का पेड़
थोड़ा लँगड़ाता हुआ
एक शीशम चल रहा था उसकी फुग्गियाँ हिलती थीं
वह मज़े में था।

बहुत सी चिड़ियाएँ थीं और घोंसले में उनके अण्डे भी थे
चींटियाँ भूरी लकीर की तरह साथ थीं
और मेरे सामने शीशम पर चढ़े दो चींटों ने
एक दूसरे को टाँग मारी
यहाँ तक कि एक मैना ने आँख मारी एक तोते को

मेरे हाथ ख़ाली थे

एक पुराना तालाब याद आता था जिसमें देखी थी
मैंने अपनी परछाँई और एक कीकर था
जो मुझे मेरी परछाँई सहित देख रहा था

बाज़ार के बीच यह राज़ कोई नहीं जानता था

आता-जाता आदमी

चिड़िया गाती है
हवा पानी में घुल जाती है
धूप रेत में घुस जाती है

पेड़ छाया बनकर दौड़-भाग करते हैं
पानी पर काई फैलती है बड़ी शान से
टिड्डे उड़ान रोककर घास पर कूदने लगते हैं

ओछे दिल का आदमी बड़ी-बड़ी आँखें
बड़े-बड़े कान लिए आता-जाता रहता है
बिना कुछ देखे-बिना कुछ सुने

आदमखोर-1 

एक स्त्री बात करने की कोशिश कर रही है
तुम उसका चेहरा अलग कर देते हो धड़ से
तुम उसकी छातियाँ अलग कर देते हो
तुम उसकी जांघें अलग कर देते हो

तुम एकांत में करते हो आहार
आदमखोर! तुम इसे हिंसा नहीं मानते

आदमखोर-2

आदमखोर उठा लेता है
छह साल की बच्ची
लहूलुहान कर देता है उसे

अपना लिंग पोंछता है
और घर पहुँच जाता है
मुँह हाथ धोता है और
खाना खाता है

रहता है बिल्कुल शरीफ़ आदमी की तरह
शरीफ़ आदमियों को भी लगता है
बिल्कुल शरीफ़ आदमी की तरह।

इच्छा

मैं चाहती हूँ कुछ अव्यवहारिक लोग
एक गोष्ठी करें
कि समस्याओं को कैसे बचाया जाए
उन्हें जन्म लेने दिया जाए
वे अपना पूरा कद पाएँ
वे खड़ी हों
और दिखाई दें
उनकी एक भाषा हो
और कोई उन्हें सुने

इस क्षण

पक्ष और​ विपक्ष
दोनो एक साथ

प्रेम और घृणा
न्याय और अन्याय
नया और पुराना
भीतर और बाहर
एक ही डण्ठल पर

क्रान्ति और प्रतिक्रान्ति
एक ही अन्धकार में

भविष्य का जैविक धागा
बारीक पुच्छल बून्द की तरह
जैसे अभी है अभी नहीं।

उत्सव के बाहर 

बहुत दिन हुए नहीं देखी हरियाली
न पेड़ न कोई बच्चा न घास का तिनका
न प्राणवायु गुज़री इधर से
सम्वेदनाएँ ख़़ून की कमी की शिकार हो चली हैं

एक बच्ची की लाश दिखाई देती रही
पानी के टैंक में पड़ी
उसके साथ स्कूल में बलात्कार हुआ था

छोटी-छोटी बच्चियाँ दिखाई दीं मातम में बाल खोले
वे रो नहीं रही थीं
चारों ओर फैले थे बच्चियों के भ्रूण

माता-पिता और न्यायाधीश
टीचर और मसीहा
पत्रकार और सेनानायक
चले गए थे एक उत्सव में शामिल होने के लिए।

एक और मुश्किल

अत्याचार कहने पर प्रतिक्रिया होती है
दुःख कहने पर कोई दिल पसीजता है

दोनों के बीच हिलता एक धागा छूटता रहता है
भाषा संदिग्ध होती जाती है

कविता लिखते शर्म आती है

न लिखी कविता साथ चलती है सिर झुकाए
गरीब की बेटी की तरह
जैसे जन्म लेकर
मुसीबत में डाल दिया है किसी को।

एक ख़याल 

वह टीला वहीं होगा
झड़बेरियाँ उसपर चढ़ जमने की कोशिश में होंगी
चींटियाँ अपने अण्डे लिए बिलों की ओर जा रही होंगी

हरा टिड्डा भी मुट्ठी भर घास पर बैठा होगा कुछ सोचता हुआ

आसमान में पाँव ठहराकर उड़ती हुई चील दोपहर को और सफ़ेद बना रही होगी
कीकर के पेड़ों से ज़रा आगे रुकी खड़ी होगी उनकी परछाँई

कव्वे प्यासे बैठे होंगे और भी सभी होंगे वहाँ
ऐसे उठँग पत्थर पर जैसे कोई सभा कर रहे हों
हवा आराम कर रही होगी शीशम की पत्तियों में छिपी

हो सकता है ये सब मेरी स्मृति में ही बचा हो
यह भी हो सकता है मेरी स्मृति न रहे
और ये सब ऐसे ही बने रहें।

एक पत्ता

ये पत्ता जिसे बथुआ कहते हैं
उगता है कहीं भी
उत्तर भारत के
खेतों और मैदानों में

यह वही पत्ता है
जिसके साथ वह दो बड़ी रोटियाँ खा रही थी
एक स्त्री कवि साहसमय बेशर्मी ठान कर
उसे अपनी इस भूख पर शर्म थी

रोटी बनाई थीं एक कैंसर ग्रस्त स्त्री ने
यह बात है दो स्त्रियों की
जो इत्तेफाक़ से माँ बेटी थीं

बथुए से रोटी खा कर
उस स्त्री ने लिखी ऐसी कविता
जिसे समझना नहीं अपनाना मुश्किल है
समझ तो लेते हैं उसे फिर भी
चतुर और भले लोग

उसमें एक कड़वापन है जैसे नीम में होता है
वह दिखाती है आम सहमति की
एक कुत्सित जगह
मामूली समझौतों में छिपी जघन्यताएँ
शराफत और सफलता में छिपी
एक बदबू
जो मुर्दों के सड़ने पर आती है

इन सबके बीच
प्रकृति का कण अजब
जैसे कुदरत का पारस
उस अजानी स्त्री की अजानी कविता को
एक दिन सम्भव बनाया
इसी बथुए ने

कहते हैं इसमें सोना होता है
आप पत्ते को पलट कर देखिए
आपको भ्रम होगा

उसमें ओस चमक रही है
वह एक मख़मल ओढ़े है
यह एक जीवित धातु का घर है
इस पत्ते की वजह से
अकेले लोग भी अकेले नहीं होते।

एकालाप

क्या नष्ट किया जा रहा है
यह दृश्य है जो खत्म हो रहा है
या मेरी नज़र
ये मेरी आवाज़ खत्म हो रही है
या गूंज पैदा करने वाले दबाव

आत्मजगत मिट रहा है या वस्तुजगत

कौन देख सकता है भला इस
मक्खी की भनभनाहट
इसकी बेचैन उड़ान

कौन तड़प सकता है
संवाद के लिए और उसके
बनने तक कौन कर सकता है
एकालाप ।

एक और एक

एक और एक
दो नहीं होते

एक और एक ग्यारह भी नहीं होते

क्योंकि एक नहीं है
एक के टुकड़े हैं
जिनसे एक भी नहीं बनता

इसे टूटना कहते हैं।

एक लम्बी दूरी 

एक लम्बी दूरी
एक अधूरा काम
एक भ्रूण
ये सभी जगाते हैं कल्पना
कल्पना से
दूरी कम नहीं होती
काम पूरा नहीं होता
फिर भी दिखती है मंज़िल

दिखाई पड़ती है हँसती हुई
एक बच्ची रास्ते पर

औरतें

औरतें मिट्टी के खिलौने बनाती हैं
मिट्टी के चूल्हे
और झाँपी बनाती हैं

औरतें मिट्टी से घर लीपती हैं
मिट्टी के रंग के कपडे पहनती हैं
और मिट्टी की तरह गहन होती हैं

औरतें इच्छाएँ पैदा करती हैं और
ज़मीन में गाड़ देती हैं

औरतों की इच्छाएँ
बहुत दिनों में फलती हैं

औरतें काम करती हैं

चित्रकारों, राजनीतिज्ञों, दार्शनिकों की
दुनिया के बाहर
मालिकों की दुनिया के बाहर
पिताओं की दुनिया के बाहर
औरतें बहुत से काम करती हैं

वे बच्चे को बैल जैसा बलिष्ठ
नौजवान बना देती हैं
आटे को रोटी में
कपड़े को पोशाक में
और धागे को कपड़े में बदल देती हैं।

वे खंडहरों को
घरों में बदल देती हैं
और घरों को कुएँ में
वे काले चूल्हे मिट्टी से चमका देती हैं
और तमाम चीज़ें सँवार देती हैं

वे बोलती हैं
और कई अंधविश्वासों को जन्म देती हैं
कथाएँ और लोकगीत रचती हैं

बाहर की दुनिया के आदमी को देखते ही
औरतें ख़ामोश हो जाती हैं।

औरत की ज़रूरत

मुझे संरक्षण नहीं चाहिए
न पिता का न भाई का न माँ का
जो संरक्षण देते हुए मुझे
कुएँ में धकेलते हैं और
मेरे रोने पर तसल्ली देने आते हैं
हवाला देते हैं अपने प्रेम का

मुझे राज्य का संरक्षण भी नहीं चाहिए
जो एक रंगारंग कार्यक्रम में
मुझे डालता है और
भ्रष्ट करता है

मुझे चाहिए एक संगठन
जिसके पास तसल्ली न हो
जो एक रास्ता हो
कठोर लेकिन सादा

जो सच्चाई की तरह खुलते हुए
मुझे खड़ा कर दे मेरे रू-ब-रू

जहाँ आराम न हो लेकिन
जोख़िम अपनी ओर खींचते हों लगातार

जहाँ नतीजे तुरन्त न मिलें
लेकिन संघर्ष छिड़ते हों लम्बे

एक लम्बा रास्ता
एक गहरा जोख़िम
रास्ते की तरह खुलती
एक जटिल सच्चाई मुझे चाहिए ।

औरत के बिना जीवन

औरत दुनिया से डरती है
और दुनियादार की तरह जीवन बिताती है
वह घर में और बाहर
मालिक की चाकरी करती है

वह रोती है
उलाहने देती है
कोसती है
पिटती है
और मर जाती है

बच्चे आवारा हो जाते हैं
बूढ़े असहाय
और मर्द अनाथ हो जाते हैं
वे अपने घर में चोर की तरह रहते हैं
और दुखपूर्वक अपनी थाली ख़ुद मांजते हैं

औरत के हाथ में न्याय 

औरत कम से कम पशु की तरह
अपने बच्चे को प्यार करती है
उसकी रक्षा करती है

अगर आदमी छोड़ दे
बच्चा माँ के पास रहता है
अगर माँ छोड़ दे
बच्चा अकेला रहता है

औरत अपने बच्चे के लिए
बहुत कुछ चाहती है
और चतुर ग़ुलाम की तरह
मालिकों से उसे बचाती है
वह तिरिया-चरित्तर रचती है

जब कोई उम्मीद नहीं रहती
औरत तिरिया-चरित्तर छोड़कर
बच्चे की रक्षा करती है

वह चालाकी छोड़
न्याय की तलवार उठाती है

औरत के हाथ में न्याय
उसके बच्चे के लिए ज़रूरी
तमाम चीज़ों की गारन्टी है

कवि की हालत

उजड़ी हुई औरत
तीन ओर पत्थर रखकर
सार्वजनिक जगह पर
बनाती है चूल्हा

रात को उसकी गर्म राख में
कुत्ते सोते हैं
सुबह उसे कोई उजाड़ देता है

शाम फिर जमाती है वह
अपना चूल्हा।

गैंगरेप

लिंग का सामूहिक प्रदर्शन
जिसे हम गैंगरेप कहते हैं
बाक़ायदा टीम बनाकर
टीम भावना के साथ अंजाम दिया जाता​ है।

एकान्त मे स्त्री के साथ
ज़ोर जबरदस्ती तो ख़ैर
सभ्यता का हिस्सा रहा है
युद्धों और दुश्मनियों के सन्दर्भ में
वीरता दिखाने के लिए भी
बलात्कार एक हथियार रहा है

मगर ये नई बात है
लगभग बिना बात
लिंग का हिंसक प्रदर्शन

लिंगधारी जब उठते बैठते हैं
तो भी ऐसा लगता है जैसे
वे लिंग का प्रदर्शन करना चाहते हैं
खुजली जैसे बहानों के साथ भी
वे ऐसा व्यापक पैमाने पर करते हैं
माँ बहन की गालियाँ देते हुए भी
वे लिंग पर इतरा रहे होते हैं।

आख़िर लिंग देखकर ही
माता-पिता थाली बजाने लगते हैं
दाईयाँ नाचने लगती हैं
लोग मिठाई के लिए मुँह फाड़े आने लगते हैं

ये ज़्यादा पुरानी बात नहीं है
जब फ्रायड महाशय
लिंग पर इतने मुग्ध हुए
कि वे एक पेचीदा संरचना को
समझ नहीं सके

लिंग के रूप पर मुग्ध
वे उसी तरह​ नाचने लगे
जैसे हमारी दाईयां नाचती हैं

पूँजी और सर्वसत्ताओं के मेल से
परिमाण और ताक़त में गठजोड़ हो गया
ज़ाहिर है गुणवत्ता का मेल
सत्ताविहीन और वंचित से होना था

हमारे शास्त्र पुराण, महान धार्मिक कर्मकाण्ड, मनोविज्ञान
मिठाई औरनाते रिश्तों के योग से
लिंग इस तरह स्थापित हुआ
जैसे सर्वशक्तिमान सृष्टिकर्ता

आश्चर्य नहीं कि माँ की स्तुतियाँ
कई बार लिंग के यशोगान की तरह सुनाई पड़ती हैं।

लिंग का हिंसक प्रदर्शन
उस समय ज़रूरी हो जाता है
जब लिंगधारी का प्रभामण्डल ध्वस्त हो रहा हो

योनि, गर्भाशय, अण्डाशय, स्तन, दूध की ग्रन्थियों
और विवेक सम्मत शरीर के साथ
गुणात्मक रूप से भिन्न मनुष्य
जब नागरिक समाज में प्रवेश करता है
तो वह एक चुनौती है

लिंग की आकृति पर मुग्ध
विवेकहीन लिंगधारी सामूहिक रूप में अपना
डगमगाता वर्चस्व जमाना चाहता है।

जो हम नहीं कहते 

यह परिस्थितियाँ हीं हैं जो
आदमी के अन्दर ढल रहीं हैं क्रूरता की तरह
कभी विवशता की तरह
एक सामाजिक संरचना हिंसा बनकर उतरती है आदमी में
हम कहते हैं फलाने ने फलाने की हत्या कर दी
हम नहीं कहते कबीलों में हत्या होती ही है
परायों की

हम उस चीज़ को नहीं देखते जो
लोगों को अपने पराए में बाँटती है
इन्सान विभाजित हो जाता है अपने अन्दर ही
हम इस विभाजन को नहीं देखते

हम कहते हैं उसने हत्या की या उसने आत्महत्या की
आस-पास ही खोज लेते हैं हम कोई कारण भी

जैसे पुलिस जब चाहती है सबूत जुटा लेती है
या उन्हें मिटा डालती है।

टूटना-1

एक और एक
दो नहीं होते
एक और एक ग्यारह नहीं होते
क्योंकि एक नहीं है
एक के टुकड़े हैं
जिनसे एक भी नहीं बनता
इसे टूटना कहते हैं

टूटना-2 

हवा आधी है
आग आधी है
पानी आधा है
दुनिया आधी है
आधा-आधा है
बीच से टूटा है
यह संसार बीच से टूटा है

दिलरुबा के सुर

हमारे कन्धे इस तरह बच्चों को उठाने के लिए नहीं बने हैं
क्या यह बच्चा इसलिए पैदा हुआ था
तेरह साल की उम्र में
गोली खाने के लिए

क्या बच्चे अस्पताल, जेल और क़ब्र के लिए बने हैं
क्या वे अन्धे होने के लिए बने हैं
अपने दरिया का पानी उनके लिए बहुत था
अपने पेड़ घास पत्तियाँ और साथ के बच्चे उनके लिए बहुत थे
छोटा-मोटा स्कूल उनके लिए
बहुत था
ज़रा सा सालन और चावल उनके लिए बहुत था
आस-पास के बुज़ुर्ग और मामूली लोग उनके लिए बहुत थे

वे अपनी माँ के साथ फूल पत्ते लकड़ियाँ चुनते
अपना जीवन बिता देते
मेमनों के साथ हँसते-खेलते

वे अपनी ज़मीन पर थे
अपनों के दुख-सुख में थे
तुम बीच में कौन हो

सारे क़रार तोड़ने वाले
शेख़ को जेल में डालने वाले
गोलियाँ चलाने वाले
तुम बीच में कौन हो

हमारे बच्चे बाग़ी हो गए
न कोई ट्रेनिंग
न हथियार
वे ख़ाली हाथ तुम्हारी ओर आए
तुमने उन पर छर्रे बरसाएअन्धे होते हुए
उन्होंने पत्थर उठाए जो
उनके ही ख़ून और आँसुओं से तर थे

सारे क़रार तोड़ने वालो
गोलियों और छर्रों की बरसात करने वालो
दरिया बच्चों की ओर है
चिनार और चीड़ बच्चों की ओर है
हिमाले की बर्फ़ बच्चों की ओर है
उगना और बढ़ना
हवाएँ और पतझड़
जाड़ा और बारिश
सब बच्चों की ओर है

बच्चे अपनी काँगड़ी नहीं छोड़ेंगे
माँ का दामन नहीं छोड़ेंगे
बच्चे सब इधर हैं

क़रार तोड़ने वालो
सारे क़रार बीच में रखे जाएँगे
बच्चों के नाम उनके खिलौने
बीच में रखे जाएँगे
औरतों के फटे दामन
बीच में रखे जाएँगे
मारे गए लोगों की बेगुनाही
बीच में रखी जाएगी
हमें वजूद में लाने वाली
धरती बीच में रखी जाएगी
मुक़द्दमा तो चलेगा
शिनाख़्त तो होगी
हश्र तो यहाँ पर उठेगा

स्कूल बन्द हैं
शादियों के शामियाने उखड़े पड़े हैं
ईद पर मातम है
बच्चों को क़ब्रिस्तान ले जाते लोग
गर्दन झुकाए हैं
उन पर छर्रों और गोलियों की बरसात है ।

दुख का विरह

कहाँ है वह दुख
चट्टानों से टक्कर मारता
भरी-पूरी नदी जैसा

और ये क्या है
बून्द-बून्द टपकता
मरे हुए साँप के
विष जैसा।

न्याय-पुरुष

एक

न्याय के तमाम सिद्धान्त उन्होंने ही बनाए हैं
व्यवहार में कसौटियाँ भी तय की हैं उन्होंने ही

हमारे विचार परख कर वे ही सिद्ध करते हैं
उन्हें सही या ग़लत

हमारे विचारों के लिए कोई और कसौटी नहीं है
क्योंकि हमारे लिए कोई सिद्धान्त नहीं है
और व्यवहार भी हम तय नहीं करतीं

दो

अगर हम एक न्यायसंगत दुनिया बनाएँ
तो सबसे ज़्यादा मुश्किल खड़ी करेंगे न्याय-पुरुष

न्याय-पुरुष सबसे ज़्यादा सोखते हैं नई ऊर्जा को
नई बातों के मर्म को वे इस तरह भेदते हैं
जैसे एक जैविक संरचना समाप्त करना चाहते हैं पृथ्वी से

उनके औज़ारों को निरस्त करना एक सबसे ज़रूरी काम है
वे अक्सर एक आदर्श की तरह सामने आते हैं।

तीन

न्याय-पुरुषों ने ही सबसे पहले अन्याय को औचित्य प्रदान किया
उन्होंने जनतन्त्र को स्थापित करते हुए दासता को वैध बनाया

इस बात को हम स्त्रियों से अधिक और कौन समझ सकता है
हमें अक्सर एक मामूली-सी बात करने के लिए भी न्याय-पुरुषों से लोहा लेना
पड़ता है

भयानक बात ये है कि वे बहुत बार हमें अपने लगते हैं
हमारे अकेलेपन का कोई अन्त नहीं
और हम पर होने वाले अन्याय को नापने का कोई पैमाना नहीं
इस तरह हमें बार-बार निहत्था करते हैं न्याय-पुरुष।

नृत्य

याद नहीं है
जाने कहाँ से मिल गए थे हमें घुँघरू
खूब बड़े नाड़े में पिरोए हुए

उन्हें बाँधकर हमारे पैर लगते थे
बिल्कुल नर्त्तकियों के पैरों जैसे

हम चक्रवात की तरह घूमे
और पक्षियों जैसी उड़ाने लीं हमने
हम अपरिचित थे
नृत्य के तमाम शास्त्र से

लेकिन हम जो कर रहे थे
वह नृत्य ही था।

निडर औरतें

हम औरतें चिताओं को आग नहीं देतीं
क़ब्रों पर मिट्टी नहीं देतीं
हम औरतें मरे हुओं को भी
बहुत समय जीवित देखती हैं

सच तो ये है हम मौत को
लगभग झूठ मानती हैं
और बिछुड़ने का दुख हम
ख़ूब समझती हैं
और बिछुड़े हुओं को हम
खूब याद रखती हैं
वे लगभग सशरीर हमारी
दुनियाओं में चलते-फिरते हैं

हम जन्म देती हैं और इसको
कोई इतना बड़ा काम नहीं मानतीं
कि हमारी पूजा की जाए

ज़ाहिर है जीवन को लेकर हम
काफ़ी व्यस्त रहती हैं
और हमारा रोना-गाना
बस चलता ही रहता है

हम न तो मोक्ष की इच्छा कर पाती हैं
न बैरागी हो पाती हैं
हम नरक का द्वार कही जाती हैं

सारे ऋषि-मुनि, पंडित-ज्ञानी
साधु और संत नरक से डरते हैं

और हम नरक में जन्म देती हैं
इस तरह यह जीवन चलता है

प्यासा आदमी

प्यासा आदमी
पानी को याद करता है
वह उसे पीना चाहता है

फिर प्यास बढ़ती है
तो वह उसे देखना चाहता है

और प्यास बढ़ती है
तो वह उसकी आवाज़ सुनना चाहता है

और प्यास बढ़ती है
तो वह अपने और पानी के बीच की दूरी देखने लगता है

और प्यास बढ़ती है तो वह
इस दूरी को एक रास्ते की तरह देखता है

और दूरी बढ़ती है
तो वह रास्ते को प्यार करने लगता है

और प्यास बढ़ती है
तो हर क्षण पानी भी उसके साथ रहने लगता है

लोग न उसके पानी को देखते हैं न उसकी प्यास को

ऐसा आदमी कभी-कभी गूंगा हो जाता है।

पिताओं के बारे में

मैंने बहुत समय तक
कविता नहीं लिखी
समझिए बस लिखते-लिखते नहीं लिखी

इसकी एक वजह तो आलस ही है
लेकिन ये वजह तो लगभग
झूठ की तरह है

इस बीच मैं पिताओं की
दुनिया में धँसी रही

इस दुनिया में मैं गई थी
अपने पिता को छोड़कर
बेटियों का पीछा करते हुए

मैंने वो पिता देखे जो
बेटी को आँख की पुतली की तरह
सहेजे रहते हैं
लगभग बड़ी घनी
पलक की छाया में

और वह पिता भी
जो शर्मसार रहता है
बेटी की छाया ओढ़े

पिता जो एक ज़ख़्म की तरह
बेटी की देखभाल करता है
चेहरे को दर्द की उलझी
सलवटों में छिपाए

उन पिताओं को तो सभी ने देखा है
जो बेटियों से खेलते हैं
गुड़िया की तरह
और विदा भी कर देते हैं
गुड़ियों की तरह
झालरों और गोटे-किनारी से ढककर

अब तो कविताओं में खुद वे पिता भी
आ गए हैं
जो पढ़ाई और नौकरी के रास्ते में
बेटियों के साथ भी भटकते हैं

वह पिता भी बहुत पहले
आ गए कविता में
जो बेटे वालों के लालच पर
क्रुद्ध थे

लड़की की मुश्किलें देखते
पिताओं के
करुण सजल चेहरे भी हैं

ऐसे पिता भी हैं
जिनका ज़िक्र पिता की तरह
नहीं किया जा सकता

मैं चाहती थी उनसे
कविता को बचाना
असल में मैं चाहती थी
थोड़ा झूठ बचा रहे
ताकि स्वप्न और कल्पना
नष्ट न हो
मैं चाहती थी
मिथक गढ़ने वाली
मिट्टी बची रहे

कूड़े का मुझे डर नहीं था
पर एक रसायन से मैं बच रही थी
जो सम्वेदी तन्तुओं को ज़हर से भर देता है

फिर पिता की कुछ स्मृतियों
ने बनाया मुझे
इस रसायन का सामना करने लायक़

ब्राह्मण समाज छोड़कर
जंगलों में भटकते
रमा को संस्कृत पढ़ाते पिता
आए मेरे सपने में
फिर नज़र आए
छोटे से कस्बे में
कचहरी में जज से बहस करते
धारावाहिक संस्कृत श्लोक
उद्धृत करते
प्रताड़ित बेटी के लिए
तलाक़ की वक़ालत
करते

एक दिन सपने में
ग़ालिब जैसी टोपी पहने
सुतवाँ जिस्म वाले
पिता आए
सफेद भवों के नीचे
बड़ी आँखें ढके
मुझे बताते हुए
कि ‘शुभा एक बौद्ध भिक्षुणी थी’

फिर वे नज़र आए
एक रुकी नाली से गाद निकालते
उनकी पीठ नज़र आई
माँ की कराहों के साथ झुकती
जिसमें अपने द्वारा की गई
हिंसा की स्मृति एक शर्म की तरह
पिघल रही थी

मैंने देखा
बेटियों के पिता
अकेले हो गए हैं

वे बदहवास थानों-कचहरियों की ओर
भागते हैं दिन-रात
उन्हें नरक में धकेल दिया गया है
काल्पनिक नहीं असली नरक में
पिता अपने को रोने से रोकते हैं
पर उनके जबड़े कसते जाते हैं
आँखें गड्ढों में उतर जाती हैं
अपमान उन्हें कुछ भी नहीं भूलने देता
वे बेख़बर
हत्या और आत्महत्या तक पहुँचते हैं

जनतन्त्र के जश्न में
नमक की डली की तरह
सबके सामने गल जाते हैं पिता

पितृत्व की क़ीमत बहुत ज़्यादा है
लगभग मातृत्व के बराबर
स्त्री-पुरुष पर चलती बहसें
नकली लगती हैं कभी-कभी

माँएँ रो सकती हैं आख़िर तक
पिताओं को विदा होना होता है चुपचाप

पिता तो ख़ैर
एक जैसे नहीं होते
मगर सभी पिता
अन्ततः पिता तो होते ही हैं

पिताओं को छोड़ देना चाहिए
लड़कियों को बेटी की तरह देखना
उन्हें लड़कियों के पक्ष में
कुछ करना चाहिए

खुद पिता भी पहचानें अपने को
जनतन्त्रा के बाशिन्दे की तरह
लड़कियों के बरक्स।

पेड़ों की उदासी

पेड़ों के पास ऐसी कोई भाषा नहीं थी
जिसके ज़रिये वे अपनी बात
इन्सानों तक पहुँचा सकें

शायद पेड़ बुरा मान गए किसी बात का
वे बीज कम उगाने लगे
और बीजों में उगने की इच्छा ख़त्म हो गई
बचे हुए पेड़ों की उदासी देखी जा सकती है

प्रेमकथा-1 

इच्छाएँ
एक क्षण में
पार करती हैं लम्बी दूरियाँ
फिर छटपटाती हैं अपनी कक्षा में
आँखें खुली रखती हैं
तब भी

प्रेमकथा-2 

यहाँ प्रतिबद्धता का एक केन्द्र है
आत्मा का उत्खनन होता है
एक ही ओर दौड़ी जाती हैं इच्छाएँ
आत्मा का कोयला सारा
अपनी ही छुपी आग से दौड़ा जाता है
दुख और ख़ुशियाँ सब दौड़ती हैं अपनी दरी लपेटे
ज़मीन तोड़कर पानी बह जाता है एक ही दिशा में
उसी दिशा में दौड़ते हैं होशो-हवास

उस दिशा में खड़ा है एक विखंडन
उम्मीद की चादर में अपने को छिपाए।

प्रेमकथा-3 

एक आदमी प्रतिद्वंद्विता की औड़ से बाहर हो जाता है ख़ुद
दौड़ की लाईन देखता है एक फ़िल्मी दृश्य की तरह
उसके पार जैसे कुछ है जिसे देखता वह
अकेला नहीं होता
धारण करता है दुख और शोक चुपचाप
इच्छाओं को ज़बान पर नहीं लाता

कभी-कभी वह एक रहस्य की तरह नज़र आता है
वह हँसता भी है और खाना भी खाता है।

प्रेमकथा-4

यहाँ किसी को बांधकर यातना दी जा रही है
इच्छाओं के भ्रूण फेंके जा रहे हैं
ताज़ा ख़ून की गंध से हवा बोझिल है
एक चीख़ उठकर दौड़ती है
जैसे बाहर निकल भागना चाहती है
फिर डूब जाती है अंधेरे में

उसकी गूँज अटकी रहती है
हवा में धीमे-धीमे हिलती हुई

प्रेमकथा-5

कोई भागा है चप्पलें छोड़कर
घास रौंदी हुई है
टूटी हुई चूड़ियाँ चमक रही हैं
इधर कोई चीज़ घसीटे जाने के निशान हैं
यहाँ घास ख़ून में डूबी हुई है।

प्रेमकथा-6

रात के आख़िरी पहर में
एक औरत अकेली कमरे में बैठकर कुछ सोचती है
सफ़ेद लटों से घिरा अर्थपूर्ण है उसका चेहरा

एक मनुष्य रहता आया उसके अन्दर
उसी को प्रमाणित करने में ख़र्च हुई उम्र

अब अर्जित की है प्रेम करने की योग्यता
पर अवसर अब भी नदारद है

एक व्यंग्य है परिस्थिति में
उसी को बताती है उसकी पूरी आकृति।

फिर भी

एक लम्बी दूरी
एक आधा काम
एक भ्रूण
ये सभी जगाते हैं कल्पना
कल्पना से
दूरी कम नहीं होती
काम पूरा नहीं होता

फिर भी
दिखाई पड़ती है हंसती हुई
एक बच्ची रास्ते पर

बाहर की दुनिया में औरतें 

औरत बाहर की दुनिया में प्रवेश करती है
वह खोलती है
कथाओं में छिपी अंतर्कथाएँ
और न्याय को अपने पक्ष में कर लेती हैं
वह निर्णायक युद्द को
किनारे की ओर धकेलती है
और बीच के पड़ावों को
नष्ट कर देती है

दलितों के बीच
अंधकार से निकलती है औरत
रोशनी के चक्र में धुरी की तरह

वह दुश्मन को गिराती है
और सदियों की सहनशक्ति
प्रमाणित करती है

बिखराव

वनस्पति के पीछे चलती हैं
उसकी ख़ुशबू
सात सुरों की तरह
हज़ार गीतों की तरह

मनुष्य के पीछे चलते हैं
दुख और ख़ुशी
एक-दूसरे का पता देते

सात सुर टूट रहे हैं
जैव-श्रृंखला की तरह
साज़ अभी बज रहा है

हज़ार गीतों के टुकड़े
आपस में उलझ रहे हैं।

बूढ़ी औरत का एकान्त

बूढी औरत को
पानी भी रेत की तरह दिखाई देता है
कभी-कभी वह ठंडी साँस छोड़ती है
तो याद करती है
बचपन में उसे रेत
पानी की तरह दिखाई देती थी ।

भूलना 

बचपन में जो फ्रॉक पहने थे
उनमें से कई की छींट याद है अब तक
किसी का रंग याद है और किसी की लम्बाई
एक महरून रँग का फ्रॉक था

उसमें से आती थी
महरून रँग की ख़ुशबू
कई चीज़ें थीं जिन्हें हम अपना लेते थे
चप्पलें रिबन
हम स्पर्श से पहचान लेते थे अपनी चीज़ें
ऐसा नहीं है कि अब बहुत बूढ़े हो गए हैं

पर मुश्किल होता है किसी चीज़ को अपनाना
बस हम उन्हें बरत लेते हैं
भुला देते हैं
फेंक देते हैं

यहाँ तक कि अपना शरीर भी
याद नहीं रहता अपने शरीर की तरह।

मित्रो की दुनिया

1

एक समय पर मेरा ख़याल था कि मेरे भी मित्र हैं
मैं उस दुनिया में रहती थी जो उनकी थी
वे बार-बार याद दिलाते थे कि मैं एक स्त्री हूँ
वे बताते थे अपनी दुनिया के नियम
कभी-कभी मुझे लगता था मैं अपनी दुनिया में हूँ
तब वे मुझे क्षमा करते थे
उदारता से
वे मुझे बहुत-सी छूट देते थे और मुझे बना रहने देते थे अपनी दुनिया में
वे अच्छे मालिक थे
बाद में जब मैं उनकी ज़मीन छोड़ना चाहती थी
मुझमे उड़ने की बहुत तेज़
इच्छा थी
यह इच्छा उन्हे बड़ी रंजनकारी लगती थी।
उनमे से कोई-कोई इस इच्छा पर मुग्ध हो जाता था और इसका
उपभोग करना चाहता था
उन दिनों मैं रेत में नहाना
चाहती थी
वे नहीं जानते थे और पता नहीं क्या देखते थे
मेरे अन्दर कि कभी-कभी
दुलार से हँसते थे एक
दूरी के साथ।

2

कभी-कभी मुझे याद आती है
उस आदमी की आवाज़
जिसके बारे में
कभी मेरा ख़याल था कि
वह मेरा प्रेमी है
वह आवाज़ एक आदेश की तरह
निष्कर्षात्मक होती है
कभी-कभी वह एक
फुसलाने वाली ध्वनि की तरह होती है जिसकी ओर
अहिंसक जानवर आकर्षित
होते हैं।
कभी-कभी ये आवाज़ एक
छींटे की तरह होती है
जो बाद में त्वचा पर एक
फफोले की तरह उभर आती है।

3

वे कहते थे हम बराबरी मे
यक़ीन करते हैं
वे सभा में बुलाते थे और मुझे भी
बोलने का समय देते थे
जब मैं बोलती थी वे मुग्ध से
मुझे देखते थे या सुनते थे
कभी-कभी वे कहते थे कि मेरी बातें उनकी समझ में नहीं आतीं
और तनाव-मुक्त हो जाते थे
मेरी खुदाई के निशान बंजर ज़मीन
पर कम मेरे हाथों पर ज़्यादा
पड़ते थे
मैं पानी देती थी उनके खेतों में
वे अपनी फ़सल लेकर मण्डी में
जाते थे
मैं क्या लेकर जाती मण्डी में
पानी के साथ मेरी मेहनत
ख़र्च हो चुकी होती थी।

मित्रों की दुनिया

एक

एक समय पर मेरा खयाल था कि मेरे भी मित्र हैं
मैं उस दुनिया में रहती थी जो उनकी थी
वे बार-बार याद दिलाते थे कि मैं एक स्त्री हूँ
वे बताते थे अपनी दुनिया के नियम
कभी-कभी मुझे लगता था मैं अपनी दुनिया में हूँ

तब वे मुझे क्षमा करते थे उदारता से
वे मुझे बहुत सी छूट देते थे और मुझे बना रहने देते थे अपनी दुनिया में
वे अच्छे मालिक थे

बाद में जब मैं उनकी ज़मीन छोड़ना चाहती थी
मुझमें उडने की बहुत तेज़ इच्छा थी
यह इच्छा उन्हें बड़ी रंजनकारी लगती थी
उनमें से कोई-कोई इस इच्छा पर मुग्ध हो जाता था और इसका उपभोग करना
चाहता था

उन दिनों मैं रेत में नहाना चाहती थी
वे नहीं जानते थे और पता नहीं क्या देखते थे
मेरे अन्दर कि कभी-कभी दुलार से हँसते थे एक दूरी के साथ

दो

कभी-कभी मुझे याद आती है उस आदमी की आवाज़ जिसके बारे में
कभी मेरा ख़याल था कि वह मेरा प्रेमी है

वह आवाज़ एक आदेश की तरह निष्कर्षात्मक होती है

कभी-कभी वह एक फुसलाने वाली ध्वनि की तरह होती है जिसकी ओर अहिंसक
जानवर
आकर्षित होते हैं

कभी-कभी यह आवाज़ एक छींटे की तरह होती है
जो बाद में त्वचा पर एक फफोले की तरह उभर आती है

तीन

वे कहते थे कि हम बराबरी में यक़ीन करते हैं
वे सभा में बुलाते थे और मुझे भी बोलने का समय देते थे
जब मैं बोलती थी वे मुग्ध से मुझे देखते थे
या सुनते थे
कभी-कभी वे कहते थे कि मेरी बातें उनकी समझ में नहीं आतीं
और तनाव मुक्त हो जाते थे

मेरी खुदाई के निशान बंज़र ज़मीन पर कम मेरे हाथों पर ज़्यादा पड़ते थे
मैं पानी देती थी उनके खेतों में

वे अपनी फ़सल लेकर मण्डी में जाते थे
मैं क्या लेकर जाती मण्डी में पानी के साथ मेरी मेहनत ख़र्च हो चुकी होती थी।

मीठी ईद

जहाँ मैं रहती हूँ
सिवैयाँ बहुत दूर की चीज़ हैं
स्मृति में ही वे नसीब होती हैं कभी
मीठी ईद की तरह

क़साब भी इसी तरह आ बैठा स्मृति में
ईद पर रूठ कर भाग आया था घर से
मैं चाहती थी उसके साथ सिवैयाँ खाना
और ईद पर नए कपड़ों के बारे में बात करना ख़ासकर
नई जीन्स के बारे में

ये नसीब नहीं हुआ
आगे का हाल आप जानते हैं।

मुस्टंडा और बच्चा

भाषा के अन्दर बहुत सी बातें
सबने मिलकर बनाई होती हैं
इसलिए भाषा बहुत समय एक विश्वास की तरह चलती है

जैसे हम अगर कहें बच्चा
तो सभी समझते हैं, हाँ बच्चा
लेकिन बच्चे की जगह बैठा होता है एक परजीवी
एक तानाशाह
फिर भी हम कहते रहते हैं– बच्चा! ओहो बच्चा!
और पूरा देश मुस्टंडों से भर जाता है

किसी उजड़े हुए बूढे में
किसी ठगी गई औरत में
किसी गूंगे में जैसे किसी स्मृति में
छिपकर जान बचाता है बच्चा

अब मुस्टंडा भी है और बच्चा भी है
इन्हें अलग-अलग पहचानने वाला भी है
भाषा अब भी है विश्वास की तरह अकारथ

लाडले

एक
कुछ भी कहिए इन्हें
दूल्हा भाई
या नौशा मियाँ
मर चुके पिता की साईकिल पर दफ़्तर जाते हैं

आज बैठे हैं
घोड़ी पर नोटों की माला पहने
कोशिश कर रहे हैं
सेनानायक की तरह दिखने की।

दो

18 साल की उम्र में इन्हें अधिकार मिला
वोट डालने का
24 साल की उम्र में पाई है नौकरी
ऊपर की अमदनी वाली
अब माँ के आँचल से झाँक-झाँक कर
देख रहे हैं अपनी सम्भावित वधू
चाय और मिठाई के बीच।

लाड़ले 

(1)

कुछ भी कहिये इन्हें
दूल्हा मियाँ या नौशा मियाँ

मर चुके पिता की साइकिल पर दफ़्त्तर जाते हैं

आज बैठे हैं घोडी पर नोटों की माला पहने
कोशिश कर रहे हैं सेनानायक की तरह दिखने की

(2)
१८ साल की उम्र में इन्हें अधिकार मिला
वोट डालने का
२४ की उम्र में पाई है नौकरी
ऊपर की आमदनी वाली
अब माँ के आँचल से झाँक-झाँक कर
देख रहे हैं अपनी संभावित वधु

(3)
सुबह छात्रा महाविद्यालय के सामने
दुपहर पिक्चर हॉल में बिताकर
लौटे हैं लाड़ले

उनके आते ही अफ़रातफ़री-सी मची घर में

बहन ने हाथ धुलाए
भाभी ने खाना परोसा
और माताजी सामने बैठकर
बेटे को जीमते देख रही हैं

देख क्या रही हैं
बस निहाल हो रही हैं

(4)
अभी पिता के सामने सिर हिलाया है
माँ के सामने की है हाँजी हाँजी
अब पत्नी के सामने जा रहे हैं
जी हाँ जी हाँ कराने

विघटन

निर्दोष शरीरों​ और प्राणों के बीच धँसा है हत्यारा
हँसता रहता है

डराता है
खेलता है
मर्ज़ी से करता है हत्या

न्याय का कुटिल मंच रचते हुए
पब्लिक के बीच एक प्रस्तुति की तरह।

विस्मृत मित्र के लिए कुछ पंक्तियाँ-1

सबसे पुराने मित्र हैं हम और इसके बारे में
सबसे पुरानी है हमारी विस्मृति
यहाँ तक कि यह जो निरानंद है उसे
कहते हैं हम जीवन
कारोबार ख़ूब फैला है ऊर्जा का उत्पादन बढ़ रहा है और
पानी के लिए तरसते हुए हम कहते हैं मज़बूरी है
हम अकेले हैं विस्मृति एक-दूसरे की नहीं
उसी आनन्द की विस्मृति है ये जिसे
हमारे साथ ने पैदा किया

यूँ एक-दूसरे को तो जानते हैं हम
बाज़ारों में टंगे हैं स्तन और
कटा हुआ लिंग तड़्प रहा है सार्वजनिक स्थलों पर
इस तरह यह बाज़ार चलता है

अब न्याय लेना है हमें
एक-दूसरे से ही लड़कर
यह न्याय इतना निरानंद क्यों है?

विस्मृत मित्र के लिए कुछ पंक्तियाँ-2 

जब हम कगार पर होते हैं
बिल्कुल गिरने वाले निराश होने से
ऐन पहले
कैसे हम सिर उठा लेते हैं
दुबारा बुलडोज़र के नीचे से फिर
निकल आती है जिज्ञासा जीवित
फिर उठते हैं सवाल
दुखों में कोई कटौती किए बिना

हम पसीना पोंछ लेते हैं और आँसू
पीठ फेरकर कुछ याद करते हैं
क्या है जो हम भूल गए हैं
फिर भी साथ है।

विस्मृत मित्र के लिए कुछ पंक्तियाँ-3 

आख़िर दो आदि मित्र कब तक
कर सकते हैं पराई भाषा में बात
ये आदेश देना और रियायतें करना छोड़ो
छोड़ो अपराध-बोध और उद्धार की तकनीकें
करुणा भी छोड़ो
इस समय की बेचैनियों में जो ये ख़ास बेचैनी है
जो किसी स्त्री को देखकर पैदा होती है
इसे पहचानो
लो मैं मित्रता का हाथ बढ़ाती हूँ।

विस्मृत मित्र के लिए कुछ पंक्तियाँ-4

मनुष्यता को खारिज करते हुए हम अब
स्त्री और पुरुष बनना चाहते हैं
कभी स्त्री-पुरुष को खारिज करके
बने थे मनुष्य भी
हम ऐसे मनुष्य नहीं बन सकते जो स्त्री हो न पुरुष

तो मनुष्यों में ही होते हैं स्त्री-पुरुष
कहते हैं एक कोमल है दूसरा कठोर
कहते हैं एक दयालु है दूसरा दम्भी
कहते हैं एक ममतालु है दूसरा निर्मोही

हम जानते हैं
जो कहने की बातें हैं
तो हम मिलकर असलियत सिद्ध क्यों नहीं करते।

शोक

अभी उम्र नहीं हुई थी
लेकिन वह चला गया
अभी तो जीवन शुरू भी
नहीं हुआ था

उसके जाने पर मैने महसूस किया
दुनिया छोटी हो गई है

अब भी पानी ठण्डा था
लेकिन उतनी ठण्डक कम हो गई थी
जितनी वह महसूस करता था
असल मे उतना पानी ख़त्म हो गया था

उतनी दुनिया उतना दृश्य
ख़त्म हो गया था जितना वह देखता था

उसकी अनुपस्थिति हवा-पानी
दुनिया मे महसूस की जा सकती है

यहाँ तक कि भाषा
अपनी एक भंगिमा भूल चुकी थी
दुख और ख़ुशी की एक एक लट
ग़ायब थी

हालाँकि सब कुछ पहले जैसा ही था
शान्त एकरस और हलचल से भरा।

स्पर्श

एक चीज़ होती थी स्पर्श
लेकिन इसका अनुभव भुला दिया गया
मतलब स्पर्श जो एक चीज़ नहीं था
भुला दिया गया

अब यह बात कैसे बताई जाए

एक मेमना घास भूलकर
नदी पर आ गया
ज़रा सा आगे बढ़कर नदी ने उसे छुआ
और मेमने ने अपने कान हिलाए

सवर्ण प्रौढ़ प्रतिष्ठित पुरुषों के बीच 

सवर्ण प्रौढ़ प्रतिष्ठित पुरुषों के बीच
मानवीय सार पर बात करना ऐसा ही है
जैसे मुजरा करना
इससे कहीं अच्छा है
जंगल में रहना पत्तियाँ खाना
और गिरगिटों से बातें करना।

हमारे समय में

हम महसूस करते रहते हैं
एक दूसरे की असहायता
हमारे समय में यही है
जनतंत्र का स्वरूप

कई तरह की स्वाधीनता
है हमारे पास

एक सूनी जगह है
जहाँ हम अपनी असहमति
व्यक्त कर सकते हैं
या जंगल की ओर निकल सकते हैं

आत्महत्या करते हुए हम
एक नोट भी छोड़ सकते हैं
या एक नरबलि पर चलते
उत्सव में नाक तक डूब सकते हैं

हम उन शब्दों में
एक दूसरे को तसल्ली दे सकते हैं
जिन शब्दों को
हमारा यकीन छोड़ गया है

हमेशा रहने वाले

’लव मार्केट’
और ‘लव गुरु’ की दुनिया के बाहर
प्रेम न तो बिक रहा है

न डर रहा है
कभी-कभी लगता ज़रूर है
जैसे बाज़ार सर्वशक्तिमान है
पर उसके तो घुटने
धसक जाते हैं

बार-बार
इन प्रेमियों को देख कर
यह लगता है
न जाति सर्वशक्तिमान है

न बेईमानी
बार-बार इन पर फतवे जारी किए जाते हैं
इनके कुचले गए शरीर

मिलते हैं जहाँ-तहाँ
फाँसी के फन्दे सलफ़ास
हत्या के कितने ही तरीक़े
इन पर आज़माए जाते हैं
पर ये हर दिन
मर्ज़ी से प्रेम करने का
रास्ता लेते हैं

लगता है यहीं हमेशा
रहने वाले हैं।

हवा आधी है

हवा आधी है
आग आधी है

पानी आधा है
दुनिया आधी है

आधा-आधा नहीं
बीच से टूटा है

यह संसार
बीच से टूटा है।

हिसाब 

एक

इतना घाटा हुआ समय में भैया इतना घाटा कि
हज़ार साल का

हमारे पुरखों ने नहीं देखे हज़ार साल एक साथ
अब हम देख रहे हैं

दो

कोई लेता नहीं किसे दें हिसाब
थोड़े से पैसे मिले पूरी ज़िन्दगी के लिए
जतन से रखे जतन से ख़र्च किए जतन से रखा हिसाब
अब कोई हिसाब लेता नहीं
जिसे कहो वही कहता है हिसाब तो चलता रहता है
सेन्सिटिव इन्डैक्स कभी ऊपर जाता है
कभी नीचे
अब क्या दोगे हिसाब।

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