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हरजिन्दर सिंह लाल्टूकी रचनाएँ

देखो, हर ओर उल्लास है

1

पत्ता पत्ते से
फूल फूल से
क्या कह रहा है

मैं तुम्हारी और तुम मेरी आँखों में
क्या देख रहे हैं

जो मारे गए
क्या वे चुप हो गए हैं?

नहीं, वे हमारी आँखों से देख रहे हैं
पत्तों फूलों में गा रहे हैं
देखो, हर ओर उल्लास है।

2

बच्चा क्या सोचता है
क्या कहता है
देखता है प्राण बहा जाता सृष्टि में

चींटी से, केंचुए से बातें करता है
उँगली पर कीट को बैठाकर नाचता है कि
कायनात में कितने रंग हैं
यह कौन हमारे अन्दर के बच्चे का गला घोंट रहा है
पत्ता पत्ते से
फूल फूल से पूछता है
मैं और तुम भींच लेते हैं एक दूजे की हथेलियाँ

जो मारे गए
क्या वे चुप हो गए हैं?

नहीं, वे हमारी आँखों से देख रहे हैं
पत्तों फूलों में गा रहे हैं
देखो, हर ओर उल्लास है।

3

लोग हँस खेल रहे हैं
ऐसा कभी पहले हुआ था

बहुत देर लगी जानने में कि एक मुल्क क़ैदख़ाने में तब्दील हो गया है
धरती पर बहुत सारे लोग इस तकलीफ़ में हैं
कि कैसे वे उन यादों की क़ैद से छूट सकें
जिनमें उनके पुरखों ने हँसते-खेलते एक मुल्क को क़ैदख़ाना बना दिया था

इसलिए ऐ शरीफ़ लोगो, देखो
हमारी हथेलियाँ उठ रहीं हैं साथ-साथ
मनों में उमंग है
अब हर कोई अख़लाक है
हर कोई कलबुर्गी
हर कोई अंकारा में है
हर कोई दादरी में है
हर प्राण फिलस्तीन है

हमारी मुट्ठियाँ तन रही हैं साथ-साथ
देखो, हर ओर उल्लास है।

4

हवा बहती है, मुल्क की धमनियों को छूती हवा बहती है
खेतों मैदानों पर हवा बहती है
लोग हवा की साँय-साँय सुनने को बेताब कान खड़े किए हैं
हवा बहती है, पहाड़ों, नदियों पर हवा बहती है
किसको यह गुमान कि वह हवा पर सवार
वह नहीं जानता कि हवा ढोती है प्यार

उसे पछाड़ती बह जाएगी
यह हवा की फितरत है

सदियों से हवा ने हमारा प्यार ढोया है

जो मारे गए
क्या वे चुप हो गए हैं?

नहीं, वे हमारी आँखों से देख रहे हैं
पत्तों फूलों में गा रहे हैं
देखो, हर ओर उल्लास है।

बुद्ध को क्या पता था

v1

(“कोई उम्मीद बर नहीं आती
कोई सूरत नज़र नहीं आती”)

बहते हैं और नहीं बहते हैं
कि कोई आकर थाम ले इन आँसुओं को
रोना नहीं है रोना नहीं है कह ले

कहीं तो जाने का मन करता है
कहाँ जाऊँ

महानगर में सड़क किनारे बैठा हूँ
देखता हूँ एक ऊँट है चल रहा धीरे-धीरे
उसकी कूबड़ के साथ बिछावन के रंगों को देखता हूँ
उस पर बैठे लड़के को देखता हूँ

है, उम्मीद है, अनजाने ही उसे कहता हूँ
कि सारे तारे आस्माँ से ग़ायब नहीं होंगे
अन्धेरे को चीरता टिमटिमाएगा आख़िरी नक्षत्र
रचता रहेगा कविता गीत गाता रहेगा

उठता हूँ
कोई पूछता है
कि कब तक उम्मीदों का भार सँभालोगे
फिलहाल इतना ही निजी इतना ही राजनैतिक
चलता हूँ राजपथ पर।

सोचते रहो कि एक दिन सब चाहतें ख़त्म हो जाएँगीं
नहीं होंगी
ऐसे ही तड़पते रहोगे हमेशा
दूर से वायलिन की आवाज़ आएगी
पलकें उठकर फिर नीचे आ जाएँगीं
कोई नहीं होगा उस दिशा में
जहाँ कोई तड़प बुलाती-सी लगती है

देह ख़त्म भी हो जाे
तो क्या
हवा बहेगी तो उड़ेगी खाक जिसमें तुम रहोगे
हवा की साँय-साँय से दरों-दीवारों की खरोंचों में
तुम जिओगे ऐसे ही रोते हुए
बुद्ध को क्या पता था कि ख़त्म होने के बाद क्या होता है
तुम जानोगे
जब रोओगे उन सबके लिए
जिन्हें भरपूर प्यार नहीं कर पाए।

2

मारते रहो मुझे बार-बार
मैं और नहीं कहूँगा तुम्हारे बारे में
मुझे कहना है अपने बारे में
मैं प्यार में डूबा हूँ
अपने अवसाद अपने उल्लास में डूबा हूँ

मार दो मुझे कि मैं तुम्हारे खिलाफ़ कभी न कह सकूँ
सिर्फ़ इस वजह से मैं रोऊँगा नहीं
नहीं गरजूँगा
नहीं तड़पूँगा
रोने को मुहब्बत हैं कम नहीं ज़माने में
ग़मों के लिए मैं नहीं रोऊँगा।

डर

मैं सोच रहा था कि उमस बढ़ रही है
उसने कहा कि आपको डर नहीं लगता
मैंने कहा कि लगता है
उसने सोचा कि जवाब पूरा नहीं था
तो मैंने पूछा — तो।

बढ़ती उमस में सिर भारी हो रहा था
उसने विस्तार से बात की —
नहीं, जैसे ख़बर बढ़ी आती है कि
लोग मारे जाएँगे।
मैंने कहा — हाँ।

मैं उमस के मुखातिब था
यह तो मैं तब समझा जब उसने निकाला खंजर
कि वह मुझसे सवाल कर रहा था।

वे सुन्दर लोग

आज जुलूस में, कल घर से, हर कहीं से
कौन पकड़ा जाता है, कौन छूट जाता है
क्या फ़र्क पड़ता है
मिट्टी से आया मिट्टी में जाएगा
यह सब क़िस्मत की बात है
इनसान गाय-बकरी खा सकता है तो
इनसान इनसान को क्यों नहीं मार सकता है?

वे सचमुच हक़ीक़ी इश्क़ में हैं
तय करते हैं कि आदमी मारा जाएगा
शालीनता से काम निपटाते हैं
कोई आदेश देता है, कोई इन्तज़ाम करता है
और कोई जल्लाद कहलाता है

उन्हें कभी कोई शक नहीं होता
यह ख़ुदा का करम यह ज़िम्मेदारी
उनकी फ़ितरत है

हम ग़म ग़लत करते हैं
वे
पीते होंगे तो बच्चों के सामने नहीं
अक्सर शाकाहारी होते हैं
बीवी से बातें करते वक़्त उसकी ओर ताक़ते नहीं हैं
वे सुन्दर लोग हैं।

हमलोग उन्हें समझ नहीं आते
कभी-कभी झल्लाते हैं
उनकी आँखों में अधिकतर दया का भाव होता है
अपनी ताक़त का अहसास होता है उन्हें हर वक़्त

हम अचरज में होते हैं कि
सचमुच खर्राटों वाली भरपूर नींद में वे सोते हैं।
वे सुन्दर लोग।

सड़क पर 

1

हम किसी सफर में नहीं हैं
कोई पहाड़ी, नदी या बाग नहीं
हम शहर के बीच हैं

ये आम दिन हैं
सड़क पर फ़ोन बजता है
सैंकड़ों वाहनों के बीच बातें करते हैं हम
जीवन के रंगों की बातें हैं
दफ्तर के रंग बच्चों के रंग

जैसे वर्षों से बसन्त ढूँढती
औरत का रंग
छत की मुण्डेर से आस्मान में चल पड़ते आदमी का रंग
ख़ुद से ही छिपती जाती लड़की का रंग
कुछ रंग वर्षों से धुँधले होते गए हैं
और हम भूल ही जाते हैं उन्हें

यूँ सड़क पर फ़ोन पर
अपने दिनों पर बातें करते हुए
हम मान लेते हैं कि ज़िन्दगी अभी भी जीने लायक है

अचानक आती है कवियों की गुहार
कि बाक़ी लोगों का क्या होगा
अपनी तो सोच ली
बाक़ी लोगों का क्या होगा ।

2

मैं देर से इन्तज़ार में हूँ
कि एक दिन इसी सड़क पर
ईश्वर की आवाज़ आएगी
या चित्रगुप्त
मुझे बतलाएगा
कि ईश्वर आएगा
मेरे सभी तर्कों का खण्डन कर
वह प्रतिष्ठित करेगा ख़ुद को

मैं इसी सड़क पर उसे कहूँगा
कि वह हत्यारों को पहचानने से कतराए नहीं
और जब वह आए तो
नाच भी ले तो मुझे क्या

ग़लती से वह आ गया तो
जो सच देखने से कतराते हैं
वह उनके मुँह पर दे मारेगा
सच भरी कड़ाहियाँ

एक बार सही
गलियों से निकल
अनगिनत लोग सड़क पर इकट्ठे हो एक साथ
गाने लगेंगे
कि इन्द्रधनुष खिल उठा है
कि जर्जर बलवान और
खूँखार मेमने बन गए हैं

मैं देर से इन्तज़ार में हूँ
कि ईश्वर आ ही जाएगा कभी
और इसी सड़क पर मैं सुर में गाने लगूँगा

3

सड़क पर ही ध्यान आता है कि
मैं तुम्हें कुछ लिखना चाहता हूँ
क्या लिखूँ सोच कर
किसी एक विषय पर ध्यान टिकाता हूँ
जब तक मन की डायरी में लिखना शुरू करता हूँ
कोई और विषय आकर
सामने बिछ जाता है

ये सारे विषय सड़क पर जैसे हर पल झरती ठण्ड की बारिश जैसे हैं
इसलिए लिखना छोड़ बैठता हूँ
यह सोचता कि शायद मेरे न लिखने पर
धूप निकल आए

नहीं लिखता हूँ
तो बची-खुची रोशनी
ग़ायब हो जाती है और
ठण्ड का अँधेरा छाने लगता है
सड़क पर चलता ही रहता हूँ
फ़ोन बजता ही रहता है

कोई है — पुकारता हूँ
कोई है जो ख़बर ले कि अँधेरा छा रहा है

कोई है — पुकारता हूँ
अब यह बात सरहदों के बीच की नहीं है
धरती के हर छोर पर अँधेरा छा रहा है

अब बहुत देर हो चुकी है
अँधेरा दूर तक छा गया है
अब यह बात सरहदों के बीच की नहीं है
धरती के हर छोर पर अँधेरा छा रहा है

4

सड़क पर फलवाली है
अगली बार मिलते ही जो शिकवा करेगी
कि मैंने फल नहीं ख़रीदे
सड़क पर नारियल पानी वाला है
सड़क पर चिढ़ है जो धुँआ छोड़ती गाड़ियों की है
सड़क पर सड़क है
जिसे बच्चे की तरह देख सकता हूँ बार-बार

5

सड़क पर सोलह दिशाओं से वाहन आते हैं
एक सौ अट्ठाइस गलियों में
खड़ा है ईश
क्या करें उन बीस का
जो ज़्यादा हैं ईश के नाम
शायद वही हैं यम के धाम

यह कुछ ऐसी पहेली है
कि ईश के एक सौ आठ नाम
दरअसल कवि का विलास भरा ख़याल है
सड़क के लिए हर नाम जटिल सवाल है

6

सड़क ने देखा है कि मेरी दुनिया इधर सिमटती चली है
मेरे पढ़ने की सामग्री सिकुड़ गई है
इण्टरनेट पर मेरे लिए कुछ भी नहीं होता
मेरे दोस्त मुझे मेल नहीं करते
मुझे फ़ोन करने वालों की तादाद सिफ़र के क़रीब है
स्मृतियाँ मुझे विदा कह रही हैं
मैं अब जाने के तरीकों पर सोचूँ

7

कोई यमदूतों से कह दे कि मुझे अब ले जाएँ
मैं कभी भी चला जा सकता हूँ
हाल की कोई हिट धुन गाते हुए
या एक दो एक लेफ्ट राइट लेफ्ट मार्च भी कर सकता हूँ जाते हुए
आकाश से पलकों की झपक में आ उतरे
अन्तरिक्ष वाहन
और सड़क के सँभलने से पहले ही उठा लिया जाऊँ मैं

पास से कोई गाते हुए गुजरता है
‘अजीब दास्ताँ है ये
कहाँ शुरू कहाँ ख़तम’

तुम कहती हो कि यूँ जाते हुए कौन सा जाना होगा
इससे बेहतर और जीना क्या होता है
कि कोई मार्च करे और फिल्मी धुन गाए
जब जाना होगा तब धुन थम जाएगी
क़दम पड़ जाएँगे शिथिल

यह सब दूर से ही कहती रहोगी
कहना ही हो तो पास आकर कहो कि
हम साथ साथ रो सकें
इतनी दूर से कैसे टपकाऊँ आँसू तुम्हारी गोद में
कैसे चूमूँ तुम्हारे गालों पर थमे आँसू
लोग-बाग देखेंगे तो क्या कहेंगे

जाने से पहले जीता रहूँगा
यूँ दूरी में नज़दीकी
या कि इस तरह जीते हुए
जाता रहूँगा लगातार

8

कैसे भ्रम में हूँ
सड़क ही जीती है दरअस्ल
मैं नहीं ।

उत्तर-आधुनिक हिंसा

मैं
हिंसा

तुम
हिंसा

वह
हिंसा

हिंसा ही है
अहिंसा ।

तकलीफ़

मैं
ऐसे किसी भी ख़ुदा को मानने को
तैयार हूँ

जो
एक रोते बच्चे को हँसा दे

वे
कैसे लोग होते हैं

जिन्हें
बच्चों की किलकारियाँ शोर
लगती हैं

ए० सी० की मशीनी धड़धड़ में सोते हैं
खर्राटे मारते

और
बच्चे के उल्लास से परेशान
होते हैं

दुनिया के हर बच्चे से कहता
हूँ कि हमारी मत मानो


आ कर दाढ़ी खींचो हमारी

और
अपनी राहों पर चल पड़ो ।

कुत्तों के पिल्लों और सूअर
के बच्चों से भी
तकरीबन
यही कहना है

तकलीफ़ यह कि मुझे उनकी भाषा
नहीं आती ।

कभी बन गया हूँ वह मैं

मैं
धरती की परिक्रमा कर
चुका था

जब
उसे आख़िरी बार बरामदे से झुककर

मुझे
विदा कहते देखा था

उसके
मरने पर थोड़ा ज़रूर पर बहुत
ज़्यादा रोया न था

अजीब
लगता था

धरती
के इस पार वह मर चुका था

जिसके
निःसृत अणुओं से

माँ
के पेट में कभी मैं जन्मा था

उसके
मरने पर मैं कुछ तो बदला था

तभी
से मुड़-मुड़
कर सोचता रहा हूँ चालीस साल

असके
कन्धों पर मैं

और
अँधेरी सड़कों पर चलता वह

अनजाने
ही कभी बन गया हूँ वह मैं

मेरे
कन्धों पर कोई और है

अँधेरी
सड़कें भी हैं

मैं
चलता चला हूँ ।

उड़ते हुए

उड़ते
हुए नीचे लहरों से कहो कि

तुम्हें
आगे जाना ही है

तुम
बढ़ोगे तो तुम्हारे पीछे आने
वाले बढ़ेंगे

इसलिए
आगे बढ़ते हुए अपनी उँगलियाँ
पीछे रखो

कि
कोई उन्हें छू सके ।

उन कमरों को देख आओ /

रोके
जाने से कोई रुक जाए यह
ज़रूरी नहीं

जीते
जी नहीं तो मर कर बढ़ आते हैं

जिनको
लक्ष्य तक पहुँचना है

जब
लक्ष्य ही जीवन

तो
जीना क्या और क्या मरना

उन कमरों को देख आओ

जिनमें
तुम्हें रहना है

जो
रोकते हैं उनसे भी दुआ-सलाम
कर आओ

वह
भी जानते हैं कि तुम रुकोगे
नहीं

पूरा कुछ कैसे बनाऊँ

विषय अधूरा समझ
अधूरी

जगत अधूरा सोच
अधूरी

दृश्य अधूरा दृष्टि
अधूरी

जिनसे
मिलता हूँ वे अधूरे

पूरा-पूरा
सोचने को तड़पता मन

नाव
लेकर समुद्र में गए हैं
मछुआरे

आधी
सी बहती हवा में आ-आकर
सुनाती हैं लहरें

गीत अधूरे

फिसलती
रहती हाथों से

शाम
अधूरी ।

कावेरी तुम कहाँ

(अब मान लो कि उन तीन सौ में मैं हूँ
ऐमस्टर्डम से मेलबोर्न की उड़ान पर
बस छह घण्टे और कि पहुँच कर आराम करूँ और कल पर्चा पढ़ने की तैयारी करूँ)

परिचारिका अभी-अभी एक और जिन और टॉनिक दे गई है
चुस्कियों में फ़िल्म देखते आँख लग गई और
फिर
कैसा झटका
क्रमशः शोर में तब्दील होते गुंजन के साथ यह धुँआ कैसा
उफ़्फ़ ! कावेरी तुम कहाँ हो ?
तुम जगी हो या सोई हो
तुम जानती हो क्या कि मैं तेज़ी से गिरता जा रहा हूँ
धरती खींच रही है मुझे
बस दो पल हैं कि मैं कह सकूँ कि
मैंने जितना चाहा उससे कम ही तुम्हें प्यार कर पाया
कि मैं रो नहीं रहा पर मेरी आँखों से लगातार आँसू बह रहे हैं
मैंने कोई जंग नहीं लड़ी
किसकी जंग है जो मुझे छीन ले गई तुमसे
मेरे सामने की सीट पर कोई बच्चा रो रहा है
उसकी माँ के चेहरे पर बहता ख़ून बहुत सुन्दर लग रहा है
एक आदमी गिर पड़ा है मेरे सामने
किसी को गालियाँ निकाल रहा है
उसके लिए दया का एक पल मेरे पास बचा है

कावेरी तुम कहाँ हो ?

तरक़्क़ी

कितनी तरक़्क़ी कर ली।
इतनी कि लिखना चाह कर भी रुकता है मन ।
लैंग्वेज़ इनपुट ठीक है, यूनिकोड कैरेक्टर्स हैं, प्यार पर्दे पर बरसने को है, पर
क्या करें उन ज़ालिमों का जो ख़ुद को ज़ुल्मों के तड़पाए मानकर ताण्डव नाच रहे हैं;
मन कहता है लिखो प्यार और फ़ोन आता है कि चलो इकट्ठे होना है जंग के ख़िलाफ़ आवाज़ उठानी है
क्या करें
कितनी बार कितनी विरोध सभाओं में जाएँ कि जंगखोर धरती की आह सुन लें

कहना है खुद से कि हुई है तरक्की
प्यार को रोक नहीं सकी है नफ़रत की आग
वो रहता अपनी जंगें लड़ें
हम अपनी जंगें लड़ेंगे
हुई है तरक़्क़ी
उनकी अपनी और हमारी अपनी

सड़क पर होंगे तो गीत गाएँगे
घर दफ़्तर में लैंग्वेज़ इनपुट ठीक है, यूनिकोड कैरेक्टर्स हैं, प्यार पर्दे पर बरसता रहेगा ।

सुबह-सुबह साँसों में 

1.

अलसुबह वह आदमी एक शरीर लेकर निकलता है ।
वज़न के साथ घुटने ढोते हैं कई और जीवन । सुबह वह वरजिश करता है कि दिनभर ढो सके एकाधिक प्राण । पुख़्ता करता है तन-मन । इस कोशिश में तेज़ी से टहलता है । कभी थोड़ी दौड़ भी । दौड़ते हुए बड़बड़ाता है :

कसरत करो तो मन की भी करो तन की तरह
मन की भी होतीं शिराएँ, मज्जाएँ, हड्डियाँ, तन की तरह ।
मन की कसरत न होने पर सूख जाता है मन ।
अक्सर दुबारा गीले नहीं हो पाते सूखे मन ।

शरीर चलता है मैदान के एक कोने से दूसरे कोने तक । शरीर चलता है ब्रह्माण्ड की शुरुआत तक ।

2.

मसलन याद आता है अभी सड़क पर चलते टूटे नल से पिया पानी । पहाड़ी शहर की गली में चट्टानों पर कोठरी की खिड़की के हाथ हिलाती बच्ची ।
लोक अचानक ही जीवन से गायब होते हैं, हालाँकि हर रोज़ वे हमारे आस-पास ही दिखते हैं ।

3.

अंकल को देखकर वह अन्ना के पीछे छिप जाती है । अंकल कहता है — मैं तुम्हें देख रहा हूँ । वह छिपने-दिखने का खेल गढ़ती है । अंकल हँसते-हँसते दो क़दम दाँए-बाँए होता है। वह फूलों की झाड़ी के पीछे छिप जाती है । फूल उसे छिपाकर ज़ोर से हँसते हैं ।

उसका खेल, फूलों का हँसना, अंकल की सुबह ।

4.

मैदान में कुत्तों ने डेरा जमा रखा है । थोड़ी दूर और छोटे मैदान में पाँच पिल्ले खेल रहे हैं । आदमी को पिल्लों से प्यार है । वह डरता है कि पास जाने पर पिल्लों की माँ उस पर हमला कर देगी । सोचता है कुत्तों के बारे में शिकायत करे । फिर सोचता है कि आख़िर कुत्ते कहाँ जाएँ ?
इन दिनों कुत्तों की आवाज़ें सिर्फ़ रात को सुनाई देती हैं । बेजान आवाज़ें ही दिन की आवाज़ें हैं ।

सुबह-सुबह साँसों में पिल्लों के खेल, फूलों की हँसी ।

रात अकेली न थी

रात अकेली न थी
जैसे सचमुच कोई न था रात के साथ
एक एक अनेक सपने थे
हर सपना जानता था कि तारे भी हैं
सपने अकेले न थे
जैसे सचमुच कोई तारा न था किसी सपने के साथ
ग़म भी अकेले न थे
सुबह और तेज़ धूप साथ-साथ
जैसे सचमुच धूप न थी सुबह के साथ

तुम्हारा निर्णय और तुम साथ आए
दोनों को जाना ही था साथ
जब से तुम गई हो
आती हो तुम हर रात
जैसे सचमुच तुम नहीं आती हो
मैं दरवाज़ों की ओर जाना चाहकर भी नहीं जाता
बारिश होती है तुम्हारे साथ
जैसे कोई बारिश सचमुच नहीं होती

मैं सचमुच तुम्हें लेने बाहर नहीं आता
अन्दर वापस जाता हूँ
जैसे सचमुच नहीं जाता

वे दिन जो थे सच थे
अकेले होते थे हम साथ साथ
रातें थीं ग़मज़दा
जब लेते थे ख़ुशियाँ बाँट
नींद होती थी वह भी रात
जब तुम नहीं होती थी साथ
तुम कहाँ किधर होती थी
हमेशा मुझे पता न होता था
अकेले होते थे हम साथ-साथ
अकेलापन था धरती का साथ

तेज़ धूप में तपता है कमरा
गर्म हवा हल्की हो गई है इतनी
हर साँस भारी होती जाती है
साँस की दूरी बढ़ती है
सुबह-सुबह कोई रोता है
जैसे सचमुच सुबह कोई नहीं रोता है ।

खिड़की की कॉर्निस पर दो पक्षी हैं

खिड़की की कॉर्निस पर दो पक्षी हैं
चिड़िया कहता हूँ उन्हें
मन ही मन कई सारे नाम दुहराता
मैना, चिरैया आदि सोचते हुए फूलों के नाम भी सोचने लगता हूँ

यहाँ से हर रोज़ पक्षी दिखते हैं
ऋतुओं के साथ पक्षी बदलते हैं
आजकल कोई देसी नामों से उन्हें नहीं पहचानता
इण्डियन फ़ेज़ेंट का हिन्दी नाम कौन है जानता

पक्षियों के नाम न जानने से जो तकलीफ़ थी, फूलों के नाम सोचने पर वह कम हुई है
जैसे कोई बुख़ार उतर-सा गया है, या तुम्हारे न होने की तकलीफ़ कम हो
गई है

तुमसे दूर रहना भी एक बीमारी है
जिसे किसी अस्पताल में जाँचा नहीं जा सकता
मैं बीमार और डाक्टर भी मैं हूँ
अनजाने ही पक्षियों फूलों के साथ सोचते हुए
अपना इलाज कर बैठता हूँ
देसी नाम भूलकर भूला बचपन
पक्षियों को दुबारा देखते हुए याद आता है टुकड़ों में

बचपन, कैशोर्य, कुछ निश्छल प्रतिज्ञाएँ ।

प्रतिज्ञाएँ सोचते हुए डर लगता है
इंकलाब जैसे शब्द अब कविता में थोड़े ही लिखे जा सकते हैं
जो वैज्ञानिक है उसे विज्ञान
जो अर्थशास्त्री उसे अर्थशास्त्र लिखना है
मैं जो सपनों की चीर-फाड़ करता हूँ

मुझे कभी तो लिखना है सपनों पर
आलोचक बतलाएँगे कि सपना आत्मीय शब्द नहीं है ।

खिड़की की कार्निस पर दो पक्षी हैं
चिडिय़ा कहता हूँ उन्हें ।

प्रतीक्षालय

चारों ओर से अलग-अलग क़िस्म की आवाज़ें आ रही हैं।
दो महीने नहीं लिख पाने की तकलीफ़ को धन्यवाद; एक घण्टा आवाज़ों के साथ बैठना आसान हो गया ।
ऐसे वक़्त कविता और चित्रकला आपस में गुफ़्तगू करते हैं ।

थोड़ी दूर सामने छत से एक टेलीविज़न लटका हुआ है । टेलीविज़न में लोग तालियाँ बजा रहे हैं । टेलीविज़न के ऊपर लोहे की पाइपों में बने मचान पर बैठा कामगार बिजली की तारों से खेल रहा है । जो मुझे खेल लगता है, उसे वह रोटी दिखता है ।

लाल स्कर्ट सफ़ेद ब्लाउज़ । थोड़ी देर पहले आइने में देखते हुए उसने ख़ुद को थप्पड़ मारा है । कारण जानने से पहले उसके साथ आया लड़का मुझसे टाइम पूछ रहा है । हर जगह वक़्त की घोषणा हो रही है, हर कोई वक़्त पूछ रहा है। वक़्त पूछने से दुनिया हो जाती है जो वह है । टेलीविज़न पर आदमी को फाँसी दिए जाने की ख़बर आ जाती है । बहुत सारे लोग ख़बरें और ख़बरों की ब्रेक्स सुनते हैं । एकटक ताकती उनकी आँखों में मानव और निष्प्राण मशीनें एक से बिकते हैं ।
मैं लिखता हूँ ख़बरें जिसको सत्यापित करने के लिए मेरे पास कोई पुराण नहीं है, कोई विज्ञान नहीं है । ख़बरें आवाज़ें। आवाज़ें ख़बरें। प्रतीक्षा लम्बी है। प्रतीक्षा कभी ख़त्म नहीं होती। मैं नहीं रहूँगा, मेरी प्रतीक्षा रहेगी ।

दो महीने नहीं लिख पाने की तकलीफ़ को धन्यवाद; एक घण्टा आवाज़ों के साथ बैठना आसान हो गया।।

क्या हो सकता है और क्या है

हो सकता है
दो महीने तुम्हारे साथ किसी पहाड़ी इलाके में रहना ।
हर सुबह एक दूसरे को चाय पिलाना ।
थोड़ी सी चुहल । पिछली रात पढ़ी किताब पर चर्चा ।
दोपहर खाना खाकर टहलने निकलना ।
घूमना । घूमते रहना ।
शाम कहीं मेरा बीयर या सोडा पीना ।
इन सब के बीच सामुदायिक केंद्र में बच्चों को कहानियाँ सुनाना ।
एक साथ बच्चे हो जाना ।

है
बच्चों की बातें सुन कर रोना आना ।
बच्चों को देख-देख रोना आना ।
रोते हुए कई बार कुमार विकल याद आना ।
कि ‘मार्क्स और लेनिन भी रोते थे
पर रोने के बाद वे कभी नहीं सोते थे ।’
फिर यह सोच कर रोना आना
कि इन सब बातों का मतलब क्या
धरती में अब नहीं बिगड़ रहा ऐसा बचा क्या ।
इस तरह अन्दर-बाहर नदियों का बहना।
पहाड़ी इलाकों से उतरती नदियों में बहना ।
नदियों में बहना खाड़ियों सागरों में डूबना ।
कोई बीयर नहीं सोडा नहीं जो थोड़ी देर के लिए बन सके प्रवंचना ।

फिर भी तो है ही जीना ।
तुम्हें साथ लिए बहते हुए नदियाँ बन जाना ।
ताप्ती, गोदावरी, नर्मदा, गंगा
अफरात नील दज़ला
नावों में बहना, नाविकों में बहना ।
यात्राओं में विरह गीतों में बहना ।

आख़िर में कुछ लड़ाइयों में हम ही जीतेंगे ख़ुद से है कहना ।

वह जो बार-बार पास आता है 

वह जो बार बार पास आता है
क्या उसे पता है वह क्या चाहता है

वह जाता है
लौटकर नाराज़गी के मुहावरों
के किले गढ़
भेजता है शब्दों की पतंगें

मैं समझता हूँ मैं क्या चाहता हूँ
क्या सचमुच मुझे पता है मैं क्या चाहता हूँ

जैसे चांद पर मुझे कविता लिखनी है
वैसे ही लिखनी है उस पर भी
मज़दूरों के साथ बिताई एक शाम की
चांदनी में लौटते हुए
एक चांद उसके लिए देखता हूँ

चांदनी हम दोनों को छूती
पार करती असंख्य वन-पर्वत
बीहड़ों से बीहड़ इंसानी दरारों
को पार करती चांदनी

उस पर कविता लिखते हुए
लिखता हूँ तांडव गीत
तोड़ दो, तोड़ दो, सभी सीमाओं को तोड़ दो।

कराची में भी कोई चांद देखता है 

कराची में भी कोई चाँद देखता है
युद्ध सरदार परेशान
ऐसे दिनों में हम चाँद देख रहे हैं

चाँद के बारे में सबसे अच्छी ख़बर कि
वहाँ कोई हिंद पाक नहीं है
चाँद ने उन्हें खारिज शब्दों की तरह कूड़ेदान में फेंक दिया है ।

आलोक धन्वा! तुम्हारे जुलूस में मैं हूँ, वह है
चाँद की पकाई खीर खाने हम साथ बैठेंगे
बगदाद, कराची, अमृतसर, श्रीनगर जा
अनधोए अँगूठों पर चिपके दाने चाटेंगे।

चांद से अनगिनत इच्छाएँ

चाँद से अनगिनत इच्छाएँ साझी करता हूँ
चाँद ने मेरी बातें बहुत पहले सुन ली हैं
फिर भी कहता हूँ
और चाँद का हाथ
अपने बालों में अनुभव करता हूँ

चाँद ने काग़ज़ क़लम बढ़ाते हुए
कविताएँ लिखने को कहा है
सायरन बज रहा है ।

मेरे लिए भी कोई 

मेरे लिए भी कोई सोचता है
अंधेरे में तारों की रोशनी में उसे देखता हूँ
दूर खिड़की पर उदास खड़ी है । दबी हुई मुस्कान
जो दिन भर उसे दिगंत तक फैलाए हुए थी
उस वक़्त बहुत दब गई है।

अनगिनत सीमाओं पार खिड़की पर वह उदास है।
उसके खयालों में मेरी कविताएँ हैं । सीमाएँ पार
करते हुए गोलीबारी में कविताएँ हैं लहूलुहान।

वह मेरी हर कविता की शुरुआत।
वह कश्मीर के बच्चों की उदासी।
वह मेरा बसंत, मेरा नवगीत,
वह मुर्झाए पौधों के फिर से खिलने-सी।

वह जो मेरा है

वह जो मेरा है
मेरे पास होकर भी मुझ से बहुत दूर है।
पास आने के मेरे उसके ख़याल
आश्चर्य का छायाचित्र बन दीवार पर टँगे हैं,
द्विआयामी अस्तित्व में हम अवाक देखते हैं
हमारे बीच की ऊँची दीवार।

ईश्वर अल्लाह तेरे नाम
अनजान लकीर के इस पार,उस पार
उंगलियाँ छूती हैं
स्पर्श पौधा बन पुकारता है
स्पर्श ही अल्लाह, स्पर्श ही ईश्वर।

मैं कौन हूँ ? तुम कौन हो ? 

मैं कौन हूँ? तुम कौन हो?
मैं एक पिता देखता हूँ पितृहीन प्राण।
ग्रहों को पार कर मैं आया हूँ
एक भरपूर जीवन जीता बयालीस की बालिग उम्र
देख रहा हूँ एक बच्चे को मेरा सीना चाहिए

उसकी निश्छलता की लहरों में मैं काँपता हूँ
मेरे एकाकी क्षणों में उसका प्रवेश सृष्टि का आरंभ है
मेरी दुनिया बनाते हुए वह मुस्कराता है
सुनता हूँ बसंत के पूर्वाभास में पत्तियों की खड़खड़ाहट
दूर दूर से आवाज़ें आती हैं उसके होने के उल्लास में
आश्चर्य मानव संतान
अपनी संपूर्णता के अहसास से बलात् दूर
उंगलियाँ उठाता है, मांगता है भोजन के लिए कुछ पैसे।

दढ़ियल बरगद

मुड़ मुड़ उसके लिए दढ़ियल बरगद बनने की प्रतिज्ञा करता हूँ।
सन् २००० में मेरी दाढ़ी खींचने पर धू धू लपटें उसे घेर लेंगीं।
मेरी नियति पहाड़ बनाने के अलावा और कुछ नहीं।
उसकी खुली आँखों को सिरहाने तले सँजोता हूँ।
उड़न-खटोले पर बैठते वक्त वह मेरे पास होगा।

युद्ध सरदारों सुनो! मैं उसे बूंद बूंद अपने सीने में सींचूंगा।
उसे बादल बन ढक लूंगा। उसकी आँखों में आँसू बन छल-छल छलकूंगा।
उसके होंठों में विस्मय की ध्वनि तरंग बनूंगा।
तुम्हारी लपटों को मैं लगातार प्यार की बारिश बन बुझाऊंगा।

एक दिन

जुलूस
सड़क पर कतारबद्ध
छोटे -छोटे हाथ
हाथों में छोटे-छोटे तिरंगे
लड्डू बर्फ़ी के लिफ़ाफ़े

साल में एक बार आता वह दिन
कब लड्डू बर्फ़ी की मिठास खो बैठा
और बन गया
दादी के अंधविश्वासों सा मज़ाक

भटका हुआ रिपोर्टर
छाप देता है
सिकुड़े चमड़े वाले चेहरे
जिनके लिए हर दिन एक जैसा
उन्हीं के बीच मिलता
महानायकों को सम्मान
एक छोटे गाँव में
अदना शिक्षक लोगों से चुपचाप
पहनता मालाएँ

गुस्से के कौवे
बीट करते पाइप पर
बंधा झंडा आसमान में
तड़पता कटी पतंग-सा
एक दिन को औरों से अलग करने को ।

निर्वासित औरत की कविताएँ 

(बांग्लादेश की प्रख्यात लेखिका तसलीमा नसरीन पर हैदराबाद में पुस्तक लोकार्पण के दौरान कट्टरपंथियों ने हमला किया। इस शर्मनाक घटना से आहत मैं इस बेहूदा हरकत की निंदा करता हूँ। जैसा कि तसलीमा ने ख़ुद कहा है ये लोग भारत की बहुसंख्यक जनता का हिस्सा नहीं हैं, जो वैचारिक स्वाधीनता और विविधता का सम्मान करती है। तसलीमा को मैं नहीं जानता। पर हर तरक्कीपसंद इंसान की तरह मुझे उनसे बहुत प्यार है। १९९५ में बांग्ला भाषा की ‘देश’ नामक पत्रिका में तसलीमा की सोलह कविताएँ प्रकाशित हुईं थीं। उन्हें पढ़कर मैंने यह कविता लिखी थी।)

मैं हर वक्त कविताएँ नहीं लिख सकता
दुनिया में कई काम हैं । कई सभाओं से लौटता हूँ
कई लोगों से बचने की कोशिश में थका हूँ
आज वैसे भी ठंड के बादल सिर पर गिरते रहे

पर पढ़ी कविताएँ तुम्हारी तस्लीमा
सोलह कविताएँ निर्वासित औरत की
तुम्हारी कल्पना करता हूँ तुम्हारे लिखे देशों में

जैसे तुमने देखा ख़ुद को एक से दूसरा देश लाँघते हुए
जैसे चूमा ख़ुद को भीड़ में से आए कुछेक होंठों से

देखता हूँ तुम्हें तस्लीमा
पैंतीस का तुम्हारा शरीर
सोचता हूँ बार-बार
कविता न लिख पाने की यातना में
ईर्ष्या अचंभा पता नहीं क्या-क्या
मन में होता तुम्हें सोचकर

एक ही बात रहती निरंतर
चाहत तुम्हें प्यार करने की जी भर।

चुपचाप प्यार

चुपचाप प्यार आता है

आता ही रहता है निरंतर
हालांकि हर ओर अंधेरा
धूप भरी दोपहर में भी
शिशु की शरारती मुस्कान ले
बार-बार चुपचाप प्यार आता है

रेंग के आता ऊपर या नीचे से
शरीर पर मन पर चढ़ जाता
जहाँ कहीं भी बंजर, सीने में खिल उठता
कमज़ोर दिल की धड़कनों पर महक बन छाता है

बेवजह आते हैं फिर जलजले
आती है चाह
फूल पौधों हवा में समाने की, अंजान पथों
पर भटका पथिक बन जाने की
ओ पेड़, ओ हवाओं, मुझे अपनी बाहों में ले लो
मैं प्रेम कविताओं में डूब चला हूँ

आता है बेख़बर बेहिस प्यार जब
पशु-पक्षी भी सुबकते हैं
सुख की सिसकियों में बार-बार
चुपचाप प्यार आता है

दो न

दो न, दे दो न मुझे सारे दुख

आज नहीं तो कल बारिश होगी
धमनियों को निचोड़ धो डालूँगा
अपने तुम्हारे आँसू
कागज़ की नौका पर दुखों का ढेर बहा दूँगा

वर्षा थमते ही ले आऊँगा अरमानों की बहार
जिसमें सुबह शाम बस प्यार और प्यार

उसे देखा 

खिलने को जन्मा
दिन
मुरझाता
मैंने देखा
उसे देखा
दिन
खिलने को जन्मा

दिन जन्मा
मैं एक बार फिर जन्मा
उसे देखा
देखा चराचर

खिल रहे
अपने-अपने दुखों में बराबर
दिन खिलता
रोता
मैंने देखा

दिन
खिलने को जन्मा

तीन सौ युवा लड़कियाँ 

तीन सौ युवा लड़कियाँ
दबीं मलबे के नीचे

तीन सौ युवा लड़कियों
क्या था तुम्हारे मन में
उन आख़िरी क्षणों में

तीन सौ युवा लड़कियों
तुम डर रहीं थीं कि तुम्हारे
जाने-जानाँ का क्या हश्र है

तीन सौ युवा लड़कियों
तुमने चीख़कर अल्लाह को पुकारा
वह कहीं नहीं है

तीन सौ युवा लड़कियों
तुमने चीख़कर अम्मा को पुकारा
वह रो रही अपनी पीड़ा के भार तले

तीन सौ युवा लड़कियों
तुम्हारे अब्बा पहली बार रो रहे हैं

तीन सौ युवा लड़कियों
मलबे के नीचे दबी हुईं

कुलपति ने भेजा संदेश
होस्टल के मलबे में
दबी पड़ी हैं
तीन सौ युवा लड़कियाँ |

(संदर्भ-कश्मीर में भूकंप)

वर्षों बाद

वर्षों बाद
अदिति
तुम वहीं
मैं वह

कान्फ्रेंस में पर्चे पढे जाते हैं
विद्यार्थी सवाल जवाब करते हैं
खमखयाली प्रकृति हम परखते हैं
बंद कमरों में निर्जीव उपकरणों के साथ

हमारे प्रोफेशनल चेहरों पर
भिन्न ग्रहों से आए सैलानियों-सी उदासीनता
विद्यार्थी सतर्क हैं
आपसी बातचीत को अदृश्य
दायरों में बाँधा है
हमारे शब्द इस वक्त उनका संसार हैं

खयालों में साथ हमारी यादें
वर्षों पहले के कुछ घंटे
कुछ झेंप भरी बातें

वर्षों बाद दस्तानों ढँकी उंगलियाँ
छूती हैं वर्षों पहले की उंगलियों को
एक बडे शहर की
लंबी सडक पर
दिन भर चलते हम

वर्षों बाद
हमारे पास
कुछ कविताएँ
कविताओं में वर्षों का संसार बसा है
नर्म गर्म हाथों से छूते हम परस्पर बसाये संसार

गुजरे वक्त के तमाम शहरों
की कहानियाँ हम सुनते हैं
अनगिनत धूप-छाँव बारिश-तूफान
में एक दूसरे को ले चलते
हमसफर
धरती की नसें कुरेदते

थोडी-थोडी देर बाद
मुस्कराते सोचते
वर्षों बाद
अदिति
तुम वही

मैं वही।
टीन की छत पर टिप-टिप
टिंग-टिंग हो रही
ऊपर के मकानों से बहता पानी
यहीं कहीं गिर
तड-तड हो रहा
गड-गडा रहे बादल

थोडी देर पहले के सुनहरे देवदार
रंग बदलते गाढे हरे और काले
के बीच सरसरा रहे
इन सब के बीच
ऐ जानेमन
सुन रहा साँसों की सां-सां!

इशरत

1
इशरत!
सुबह अँधेरे सडक की नसों ने आग उगली
तू क्या कर रही थी पगली!
लाखों दिलों की धडकनें बनेगी तू
इतना प्यार तेरे लिए बरसेगा
प्यार की बाढ में डूबेगी तू
यह जान ही होगी चली!
सो जा
अब सो जा पगली।

2

इंतज़ार है गर्मी कम होगी
बारिश होगी
हवाएँ चलेंगी

उँगलियाँ चलेंगी
चलेगा मन

इंतज़ार है
तकलीफ़ें काग़ज़ों पर उतरेंगी
कहानियाँ लिखी जाएँगी
सपने देखे जाएँगे
इशरत तू भी जिएगी

गर्मी तो सरकार के साथ है

3.

एक साथ चलती हैं कई सडकें।
सडकें ढोती हैं कहानियाँ ।
कहानियों में कई दुख ।
दुखों का स्नायुतंत्रा ।
दुखों की आकाशगंगा
प्रवहमान।

इतने दुःख कैसे समेंटूँ
सफेद पन्ने फर फर उडते ।
स्याही फैल जाती है
शब्द नहीं उगते। इशरत रे!

हाजिरजवाब नहीं हूँ 

हाजिरजवाब लोग
जवाब देने के बाद होते हैं निश्चिंत
उनके लिए तैयार होते हैं जवाब
जैसे जादूगर के बालों में छिपे रसगुल्ले

जादूगर बाद में बाल धोता होगा
अगली शो की तैयारी में फिर से रसगुल्ले रखता होगा

मैं हाजिरजवाब नहीं हूँ
इसलिए नहीं कह पाया किसी महानायक को
सही सही, सही वक्त पर कि उसकी महानता में
कहीं से अँधेरे की बू आती है
मैं ताज़िंदगी सोचता रहा
कि बहुत जरुरी थी
सही वक्त पर सही बात कहनी।

कभी कहा ठीक तो किसी बच्चे से कहा
कि गिरने पर चोट उसे नहीं
उसकी धरती को लगी है
जो उसी के साथ हो रही है धीरे धीरे बड़ी
कभी कहा ठीक तो किसी सपने से कहा
कि माफ कर देना
रख दिया तुम्हें अधूरा
बहुत चाहते हुए भी नहीं हो सका असाधारण

अचरज यह कि प्यार करते हैं मुझे सबसे ज्यादा
बच्चे और सपने।

शहर में शहर की गंध है

बारिश में बहती
नक्षत्रों के बीच
यात्राओं पर चली
मानव की गंध।

शहर में शहर की गंध है
मानव की गंध
सड़क पर मशीनें बन दौड़ती

बचते हम सरक आते
टूटे कूड़ेदानों के पास
वहां लेटी वही मानव-गंध

मानव-शिशु लेटा है
पटसन की बोरियों में

गू-मूत के पास सक्रिय उसकी उँगलियाँ
शहर की गंध बटोर रहीं
जश्न-ए-आज़ादी से फिंके राष्ट्रध्वज में

आजीवन

1.

फिर मिले
फिर किया वादा
फिर मिलेंगे।

2.

बहुत दूर
इतनी दूर से नहीं कह सकते
जो कुछ भी कहना चाहिए

होते करीब तो कहते वह सब
जो नहीं कहना चाहिए

आजीवन ढूंढते रहेंगे
वह दूरी
सही सही जिसमें कही जाएँगी बातें

ये जो फल हैं

यात्रा पर निकला था जब
समा सुहावना था
रास्ते में डरावने पहाड़, झाड़-झंखाड़ आए
रुकना पड़ा कई बार
प्रचंड जिजीविषा ही थी कि उठा बार-बार
चल पड़ा लगातार

यात्रा पर निकला था जब
दोस्तों से वायदा किया था
कि दूर कितनी भी हो मंज़िल
चलता चलूंगा

थक जाएँ भले सहयात्री
अकेला हो जाऊँ भले एक दिन
बूढ़ा थका अकेला
चलता चलूंगा

ये जो फल हैं
रास्ते में पेड़ों से तोड़े मैंने
उनकी छायाओं में बैठ पोटलियाँ बनाई हैं
अब बाँट रहा तुम्हें।

किन कोनों में छिपोगे

किन कोनों में छिपोगे
कब तक छिपोगे
किस-किस से छिपोगे

बार-बार दुहराता हूँ ग़लतियाँ
रह-रह कर ढूंढ़ता हूँ गुफ़ाएँ
दुबक सकूँ कहीं कि कोई न जान पाए
मल लूँ बदन में स्याह

लंगोट पहन जटाएँ
बन जाऊँ बेनाम भिक्षु

पर भूख है कि लगती ही है
निकलता हूँ गुफ़ाओं से
लोगों की नज़रें अपनी गुफ़ाएँ ढूंढती हैं
सोचता हूँ मुझे ही देखती हैं मुझ से परे जाती निगाहें
कटते दिन-रात इन्हीं प्रवंचनाओं में।

आदतन ही बीत जाएगा दिन

धीरे-धीरे हर बात पुरानी हो जाती है
चाय की चुस्की
प्रेमी का बदन
और अधकचरे इंकलाब
आदत पड़ जाती है चिताओं से बातचीत करने की
पुराने पड़ जाते हैं ख़याल

फिर कहना पड़ता है ख़ुद से
चलो चाय बना लें
पेट में डालने के लिए बिस्किट गिन कर दो ले लें

एक दिन आएगा जब लिखना चाहूंगा आत्म-तर्पण
शोक-गीत लिखने के लिए उंगलियाँ होंगी बेचैन
तब तक आदतन लोग देखेंगे मेरी कविताएँ जी-मेल-याहू पर
और आदतन ही बिना पढ़े आगे बढ़ जाएंगे
किसी को न ध्यान होगा कि कविताएँ आईं नहीं
आदतन ही बीत जाएगा दिन
जैसे बीत गए पचास बरस।

कल चिंताओं से रात भर गुफ़्तगू की 

कल चिंताओं से रात-भर गुफ़्तगू की
बड़ी-छोटी, रंग-बिरंगी चिन्ताएँ
ग़रीब और अमीर चिन्ताएँ
सही और ग़लत चिन्ताएँ
चिन्ताओं ने दरकिनार कर दिया प्यार
कुछ और सिकुड़ से गए आने वाले दिन चार
बिस्तर पर लेटा तो साथ लेटी थीं चिन्ताएँ
करवटॆं ले रही थीं बार-बार चिन्ताएँ

सुबह साथ जगी हैं चिन्ताएँ
न पूरी हुई नींद से थकी हैं चिन्ताएँ।

वैसे सचमुच कौन जानता है कि

वैसे सचमुच कौन जानता है कि
दुख कौन बाँटता है

देवो-दैत्यों के अलावा पीड़ाएँ बाँटने के लिए
कोई और भी है डिपार्टमेंट
ठीक-ठीक हिसाब कर जहाँ हर किसी के लेखे
बँटते हैं आँसू
खारा स्वाद ज़रूरी समझा गया होगा सृष्टि के नियमों में
बाक़ायदा एजेंट तय किए गए होंगे
जिनसे गाहे-बगाहे टकराते हैं हम घर-बाज़ार
और मिलता है हमें अपने दुखों का भंडार

पेड़ों और हवाओं को भी मिलते हैं दुख
अपने हिस्से के
जो हमें देते हैं अपने कंधे
वे पेड़ ही हैं
अपने आँसुओं को हवाओं से साझा कर पोंछते हैं हमारी
गीली आँखें
इसलिए डरते हैं हम यह सोचकर कि वह दुनिया कैसी
होगी
जहाँ पेड़ न होंगे।

इस तरह मरेंगे हम

मोबाइल पर माँ की आवाज़ आती है कि
जल्दी कमरे लौट जाओ
और हमें पता चलता है कि
फिर कहीं बम धमाके हुए हैं
हालाँकि सबकी आदत हो चुकी है
धमाकों की ख़बर को दूसरी दीगर ख़बरों के साथ सजाने की
फिर भी जल्दी लौट आते हैं
दोस्तों के साथ बातचीत होती है
बातों मे धमाके पीछे छूट जाते हैं
बात होती है शहर की
शहर में कहाँ कैसी मटरगश्ती की की
शहर कितना अच्छा या बुरा है की
धमाके होते रहेंगे
जैसे बस या ट्रेन दुर्घटनाएँ होती हैं
जैसे लंबे समय तक जहाँ जंग चल रही है
ऐसे इलाकों में होती रहती हैं वारदातें
आदमी को आदत हो जाती है मौत की
जैसे हत्यारों को आदत पड़ जाती है हत्याओं की
माँओं के फोन आऐंगे और हम सुनेंगे
जैसे सुनते हैं रिश्ते मे किसी की शादी की बात
हालाँकि सावधानी की रस्म निभाऐंगे
और जल्दी कमरे लौट जाएँगे
कविता गीत ग़ज़लों का स्वर होगा धीमा
जैसे धमाके और मौत पर अब रोया नहीं जा सकता
जैसे दूसरे दिन अख़बार में आई रोते हुए औरत की तस्वीर
एक बच्चे की तस्वीर जैसी है
जिसका खिलौना टूट गया है
और हँसते हैं हम यह देखते
कि रोता बच्चा कितना सुंदर है
एक दिन हँसेगे हम
पास पड़ी लाशों को देखकर
इस तरह मरेंगे हम

नाइन इलेवन

वह दुनिया की सबसे ऊँची छत थी
वहाँ मैं एक औरत को बाँहो में थामे
उसके होंठ चूम रहा था
किसी बाल्मीकि ने पढा नहीं श्लोक
जब तुम आए हमारा शिकार करने
हम अचानक ही गिरे जब वह छत हिली
एकबारगी मुझे लगा था कि किसी मर्द ने
ईर्ष्या से धकेल दिया है मुझे
मैं अपने सीने में साँस भर कर उठने को था
जब मैं गिरता ही चला
मेर चारों ओर तुम्हारा धुँआ था
यह कविता की शुरआत नहीं
यह कविता का अंत था
हमें बहुत देर तक मौका नही मिला
कि हम देखते कविता की वह हत्या
मेरी स्मृति से जल्द ही उतर गई थी वह औरत
जिसे मैं बहुत चाहता था
आखिरी क्षणों मे मेरे होठों पर था उसका स्वाद
जब तुम दे रहे थे अल्लाह को दुहाई
धुँआ फैल रहा था
सारा आकाश धुँआ धुँआ था
कितनी देर मुझे याद रहा कि मैं कौन हूँ
मैंने सोचा भी कि नहीं
कि मैं एक जिहाद का नाम हूँ
मेर जल रहे होंठ
जिनमें जल चुकी थी
एक इंसान की चाहत
यह कहने के काबिल न थे
कि मैं किसी को ढूँढ रहा हूँ
वह दुनिया की सबसे ऊँची छत थी
मेर जीते जी हुई धवस्त
मेर बाद भी बची रह गई थी धरती
जिस पर जलने थे अभी और अनिगनत होंठ
या अल्लाह!

रात भर बारिश 

तीसरे चौथे पहर टिप-टिप सुनता हूँ
झिर-झिर आती है नम हवा
मेढक झींगुर के झीं-झीं टर्र-टर्र के साथ
चादर में काँपता हुआ ध्वनियों को समेटता हूँ

सिकुड़ते बदन के साथ बदलते सपनों के रंग
बैंगनी-सा होता है सपने में अतीत
सुनता हूँ शंख
उलूध्वनि घबराहट माँओं की

यह सपना नहीं जब रात भर पानी छतों से चूता
बाप जगा खपरैल या पालीथीन की छत सँभालता
माँ अपने बदन से ढकती बच्चे को
घुप्प काला है पहर गहराता
यह सोचकर फिर पलकें मूंदता हूँ
कि बसंती उम्मीद भी है हल्की-सी कि
देर से जाएंगे लोग काम पर सुबह
हालाँकि बहुत दिक्कत होगी औरत को
मर्द के लिए चाय बनाने में सुबह सुबह।

रंग हिरोशिमा

ब्लैक ऐंड ह्वाइट फ़ोटोग्राफ़ में गुलाबी
जो भाप बन कर उड़ गया

आँखें फाड़ हम देखते हैं रंग हिरोशिमा
जानते हैं कि हमारे चारों ओर फैला रंग अंधेरा

हिबाकुशा रंग है जीवन का
स्लाइड शो से परे सीटों पर से उड़ते हुए
हमारे प्यार के रंगीन टुकड़ों का

हमारे ही जैसे दिखते हैं दानव
जिनका कोई देश नहीं, नहीं जिनकी कोई धरती
वाकई रंगहीन वे जो धरती से छीन लेना चाहते हैं हरीतिमा
रुकते ही नहीं सवाल
अनजाने ही रंगे गए हमारी चितकबरी चाहतों से
देर तक बहती है हिरोशिमा की याद
एक नितांत ही अंधेरे कमरे में फैलती
भोर की सुनहरी उमंग।

उन सभी मीराओं के लिए 

तुम्हारे पहले भी छंद रचे होंगे युवतियों ने
अधेड़ महिलाएँ सफ़ाई करतीं खाना बनातीं
गाती होंगी गीत तुमसे पहले भी

किसने दी तुम्हें यह हिम्मत
कैसी थी वह व्यथा प्रेम की मीरा
कौन थीं तुम्हारी सखियाँ
जिन्होंने दिया तुम्हें यह जहर

कैसा था वह स्वाद जिसने
छीन ली तुमसे हड्डियों की कंपन
और गाने लगी तुम अमूर्त्त प्रेम के गीत

उन सभी मीराओं के लिए जो तुमसे पहले आईं
मैं दर्ज़ करता हूँ व्यथाओं के खाते में अपना नाम
मेरा प्रतिवाद कि मैं हूँ अधूरा अपूर्ण
मुझसे छीन लिए गए हैं मेरी माँओं के आँसू
आँसू जिनसे सीखने थे मैंने अपने प्रेम के बोल
अपनी राधाओं को जो सुनाने थे छंद।

तुमने पूछा

तुमने पूछा कि बारिश हो रही है
और बारिश होने लगी
क्या तुम पूछ नहीं सकती
कि दिख रहे हैं मुझे
सुखी परिंदे
मैं चाहता हूँ कि विलुप्त हो गई गौरैयों के बारे में पूछो
मुझे यकीन है कि तुम्हारे पूछने पर उड़ आएंगी वे
जहाँ भी वे पिंजड़ों में बंद हैं या अतीत के बिंदुओं पर से
यहाँ चहचहाने को मुझे एक बार भरोसा दिलाने को
कि बुरे दिनों का अंत हो सकता है

पूछो तुम यह भी कि
आशीष लिख रहा है कविताएँ
और मुझे हर सुबह जीमेल पर मिलने लगें
युवा कविताएँ जिनमें ज़िंदा हो दादी की दुनिया
जिनमें तकलीफ़ न हो समंदर किनारे जला दिए घरों की

यह महज ज़िद नहीं
बहुत गहरी तमन्नाएँ हैं कि
तुम पूछो धुआँ हट रहा है
और सूरज दिखे साफ जितना भी गर्म क्यों न

पूछो कि पूछ रहा हूँ मैं।

आज सुबह है कि एक प्रतिज्ञा है 

आज सुबह है कि एक प्रतिज्ञा है
दिनों की सालों की जकड़न फेंक रहा हूँ

आज सुबह है कि पौधे रोपने लगा हूँ
मिट्टी पानी बना हूँ सींचने लगा हूँ

आज आवाज़ें सुनने लगा हूँ
यह जो ठकाठक सुन रहा ये छेनियाँ और हथौड़े हैं
सुबह से भी पहले सुबह होती है उनकी
मेरे जगने तक ठक-ठक ठकाठक चल रहे होते हैं
हर ओर कुछ बन रहा, हो रहा निर्माण
आज सुबह है कि चिढ़ नहीं रहा
आवाज़ों को सँजो रहा हूँ

सों-सों की आवाज़ें हैं बसों की ट्रकों की
थोड़ी ही दूर है सड़क
निंदियाई होंगी आँखें ड्राइवरों की अब भी
मलते हुए आँखों को रेस में लगे हैं
आज सुबह है कि सब को सब कुछ मुआफ है
मैं अपनी ही क़ैद से कर रहा हूँ मुक्त खुद को
ज़मीं से ऊपर नहीं ठोस फर्श पर रख पैर
रच रहा हूँ शब्द।

बीत चुकी रात फिलहाल 

बीत चुकी रात फिलहाल
अंधेरे से निकला हूँ
रोशनी है पठाने खाँ के गायन-सी
गुलाम फरीद के बोल पर नाच रहे हैं पत्ते
मन में मोर पसार रहा पंख

कब बीतेंगी रातें
मैं नहीं निशाचर मैं जीवन का प्यासा
ढूँढता हूँ सोते जीवन के
प्यार की बूँदें

रात का थका
सुबह समेट रहा हूँ बाँहें फैलाए
सूर्य नमस्कार नहीं सूरज को पास लाने की
मुद्राएँ हैं मेरे खयालों में
रूखा ही सही जीभ गर्म स्वाद चाहती है

अक्षर-अक्षर जीवन बुनता हूँ
मात्राएँ गढ़ता हूँ ध्वनियाँ बाँधता हूँ
क़दम-क़दम चलता हूँ
काल से होड़ के सूत्र सीखता हूँ
मैं नहीं निशाचर मैं जीवन का प्यासा
चीखता हूँ पठाने खाँ फरीद बनता हूँ
क्या हाल सुणावाँ दिल दा
कोई मरहम ……

उनकी साँसें मुझमें चल रहीं 

वे अनजान नहीं हैं उनकी साँसें मुझमें चल रहीं
घर बाज़ार धरती आसमान जहाँ भी
आखिरी क्षणों में याद किया अपने प्रियजनों को जिन्होंने
वे यहाँ हैं बैठे इस स्टूल पर
लैपटॉप पर की दबा रहे यूनीकोड इनपुट

लेख जो संपादकीय के साथ के कालम में है
पढ़ रहा हूँ उम्र के बोझ में
अर्थव्यवस्था राजनीति जंग लड़ाई के बीच साँईनाथ हूँ मैं
विदर्भ का मर रहा किसान हूँ
ईराकी फिलस्तीनी हूँ
मर्द हूँ औरत हूँ
न आए अख़बार की हर ख़बर हूँ मैं।

हर बात पुरानी लगती है 

हर बात पुरानी लगती है
ख़बरें दुहराती हैं ख़ुद को

ऐसा नहीं कि फिर से हूण शक कुषाण
चरित्र नहीं वैशिष्ट्य दिखता विद्यमान निरंतर

जीवन शुरु हुआ मुझ से ही
हर धार का उद्गम मैं ही
समझना मुश्किल कि दूसरों को दिखता यह क्यों नहीं

तो क्या कहता रहूँ अब भी कि विरोध ज़रुरी है
ज़रुरी है विक्षिप्त हो उठना हर बसंत हर सावन
देखकर कि उत्सव नहीं है मौसम
मनुष्य के लिए

कि मनुष्य नहीं मनुष्य है जंतु
या कहीं जंतु से भी बदतर

कितनी बार दुहराऊँ कि लकीरें बनावटी हैं
कितनी बार समझाऊँ कि वस्त्र नहीं होते तन पर जब जनमते हैं हम
कितनी बार तड़पूँ कि जितने सुनने वाले हैं
उनसे कहीं ज़्यादा है न सुनने वालों की तादाद

और फिर कुछ हैं कि
जाने क्यूँकर कहते रहते हैं सुख है दैन्य में भी।

सोचने में सबको मुस्कराना

दूसरा इसी में ख़ुश कि साथी ने खिलौना गाड़ी को धागे से बांधकर खींचते हुए
उसे साथ रखा। गाड़ी के साथ वह बंधा। गाड़ी को ढलान मिली। वह ख़ुदबख़ुद चली
जा रही। दोनों की ख़ुशी में उसकी सोच शामिल। सोचना, उन दो को सोचना, उनकी
ख़ुशी सोचना। सोचना कि पता नहीं क्या सोचना सोचना बिना किसी क्रम और
अचानक ही क्रम टूटना। गली की ढलान पर गाड़ी। इतिहास में गली थी पगडंडी।
भविष्य में गली हो सकती है पगडंडी, अमूमन सोचना ऐसा नहीं होता। सोचने का
इतिहास पगडंडी, गली, सड़क नहीं। सोचना कदाचित ही तीसवीं सदी का है। दस
सदियों बाद का सोचना अभी का सोचना। पहला जिसने खिलौना गाड़ी धागे से
बांधी, यह नहीं सोचता कि दस सेकंड बाद दूसरी ओर से तीसरा एक चक्के को
लाठी से घुमाता आ रहा। ढलान के विपरीत चक्का लगातार डगमगा रहा। सोचना यह
कि चक्का नहीं आदमी डगमगाता। चक्का और खिलौना गाड़ी की टक्कर। गाड़ी का
उलटना। पहला तीसरे को देखता। तीसरे का आकार देख आँखें छलछलातीं। सोचना कि
वह भी उतना बड़ा होता तो चक्का चलाता। सोचना कि फिर देखता। पहले के जितने
आकार का दूसरा सिकुड़ कर एक ओर होता। खिलौना गाड़ी खींचने वाला कुछ कहता
और चक्का चलाने वाला गरजता। सोचना कि इतिहास बदलना है। सोचने में क्रम
आना है। सोचने में भविष्य में तीसरे को प्यार से पहले को पुचकारना। सोचने
में दूसरे को मुस्कराना। सोचने में सबको मुस्कराना।

छोटे नहीं होते सपने-1

छोटे-बड़े तारे नहीं जानते ग्रहों में कितनी जटिल
जीवनधारा
आकाशगंगा को नहीं पता भगीरथ का
इतिहास वर्तमान
चल रहा बहुत कुछ हमारी कोशिकाओं में
हमें नहीं पता
अलग-अलग सूक्ष्म दिखता जो संसार
उसके टुकड़ों में भी है प्यार
उनका भी एक दूसरे पर असीमित
अधिकार
जो बड़े हैं
नहीं दिखता उन्हें छोटों का जटिल संसार
छोटे दिखनेवालों का भी होता बड़ा घरबार
छोटी नहीं भावनाएं, तकलीफें
छोटे नहीं होते सपने.
कविता,विज्ञान,सृजन,प्यार
कौन है क्या है वह अपरंपार
छोटे-बड़े हर जटिल का अहसास
सुंदर शिव सत्य ही बार बार.

छोटे नहीं होते सपने-2 

गाओ गीत कि कोई नहीं सर्वज्ञ
पूछो कि क्या तुम्हारी साँस तुम्हारी है
क्या तुम्हारी चाहतें तुम्हारी हैं
क्या तुम प्यार कर सकते हो
जीवन से, जीवन के हर रंग से
क्या तुम ख़ुद से प्यार कर सकते हो
धूल, पानी, हवा, आसमान
शब्द नहीं जीवन हैं
जैसे स्वाधीनता शब्द नहीं, पहेली नहीं
युवाओं, मत लो शपथ
गरजो कि जीवन तुम्हारा है
ज़मीं तुम्हारी है
यह ज़मीं हर इंसान की है
इस ज़मीं पर जो लकीरें हैं
गुलामी है वह
दिलों को बाँटतीं ये लकीरें
युवाओं मत पहनो कपड़े जो तुम्हें दूसरों से अलग नहीं
विच्छिन्न करते हैं
मत गाओ युद्ध गीत
चढ़ो, पेड़ों पर चढ़ो
पहाड़ों पर चढ़ो
खुली आँखें समेटो दुनिया को
यह संसार है हमारे पास
इसी में हमारी आज़ादी, यही हमारी साँस
कोई स्वर्ग नहीं जो यहाँ नहीं
जुट जाओ कि कोई नर्क न हो
देखो बच्चे छूना चाहते तुम्हें
चल पड़ो उनकी उंगलियाँ पकड़
गाओ गीत कि कोई नहीं सर्वज्ञ, कोई नहीं भगवान
हम ही हैं नई भोर के दूत
हम इंसां से प्यार करते हैं
हम जीवन से प्यार करते हैं
स्वाधीन हैं हम।

स्केच 2008 

अभी कोई घंटे भर पहले शाम हुई है
हाल के महीनों में धड़ाधड़ व्यस्त हुए
इस इलाके की सड़क पर दौड़ रही हैं गाड़ियाँ
कहीं न कहीं हर किसी को जाना है औरों से पहले
और शाम है कि अपनी ही गति से उतर रही है

एक काला शरीर सड़क के किनारे
पड़ा है इस बेतुकी लय में बेतुके छंद जैसा
ठीक इस वक्त पास से गुजर रहे हैं दो विदेशी
महिला ने माथे पर पट्टी पहनी है
अंग्रेज़ी की खबर रखने वाले इसे वंडाना कहते हैं
दो चार की जुटी भीड़ से बचते जैसे निकले हैं वे
इसे नीगोशिएट करना कहते हैं
हालांकि इस शब्द का सही मतलब संधि सुलह जैसा कुछ है

दो चार लोग जो जुटे हैं आँखें फाड़ देख रहे हैं
आम तौर पर होता कोई पियक्कड़ यूँ सड़क किनारे गिरा
थोड़ा बहुत बीच बीच में हिलता हुआ
पर यह मरा हुआ शरीर है बिल्कुल स्थिर
दो चार में एक दो कुछ कह रहे हैं जैसे

कि कौन हो सकता है या है
यह शरीर किसी गरीब का
उतना ही कुरुप जितनी सुंदर वह विदेशी महिला
क्या कहें इसे यथार्थ या अतियथार्थ
यह भी सही सही अंग्रेज़ी में ही कहा जाता है
वैसे भी इन बातों पर विषद् चर्चा करने वाले लोग
कहाँ कोई भारतीय भाषा पढ़ते हैं
इस स्केच में अभी पुलिस नहीं है
बाद में भी कोई ज्यादा देर पुलिस की
इसमें होने की संभावना नहीं है

भारत के तमाम और मामलों की तरह पुलिस कहाँ होती है
और किसके पक्ष या किसके खिलाफ होती है

यह भाषाई मामला है
बहरहाल फिलहाल इस स्केच को छोड़ दें
जो मर गया है उसको मरा ही छोड़ना होगा
अगर थोड़ी देर रोना है तो रो लो
पर जो ज़िंदा हैं उनके लिए रोने की अवधि लंबी है
इसलिए आँसुओं को बचाओ और आगे बढ़ो।

अश्लील

एक आदमी होने का मतलब क्या है
एक चींटी या कुत्ता होने का मतलब क्या है
एक भिखारी कुत्तों को रोटी फेंककर हँसता है
मैथुन की दौड़ छोड़ कुत्ते रोटी के लिए
दाँत निकालते हैं

एक अखबार है जिसमें लिखा है
एक वेश्या का बलात्कार हुआ है
एक शब्द है बलात्कार जो बहुत अश्लील है
बर्बर या असभ्य आचरण जैसे शब्दों में
वह सच नहीं
जो बलात्कार शब्द में है

एक अंग्रेज़ी में लिखने वाला आदमी है
तर्कशील अंग्रेज़ी में लिखता है
कि वेश्यावृत्ति एक ज़रुरी चीज है

उस आदमी के लिखते ही
अंग्रेज़ी सबसे अधिक अश्लील भाषा बन जाती है

डरती हूँ 

जब तुम बाहर से लौटते हो
और देख लेते हो एकबार फिर घर

जब तुम अंदर से बाहर जाते हो
और खुली हवा से अधिक खुली होती तुम्हारी श्वास

अंदर बाहर के किसी सतह पर होते जब

डरती हूँ

डरती हूँ जब अकेले होते हो
जब होते हो भीड़

जब होते हो बाप
जब होते हो पति आप

सबसे अधिक डरती हूँ
जब देखती तुम्हारी आँखो में

बढ़ते हुए डर का एक हिस्सा
मेरी अपनी तस्वीर।

उसकी कविता 

उसकी कविता में है प्यार पागलपन विद्रोह
देह जुगुप्सा अध्यात्म की खिचड़ी के आरोह अवरोह

उसकी हूँ मैं उसका घर मेरा घर
मेरे घर में जमा होते उसके साथी कविवर
मैं चाय बनाती वे पीते हैं उसकी कविता
रसोई से सुनती हूँ छिटपुट शब्द वाह-वाह

वक्ष गहन वेदांत के श्लोक
अग्निगिरि काँपते किसी और कवि से उधार
आगे नितंब अथाह थल-नभ एकाकार
और भी आगे और-और अनहद परंपार

पकौड़ों का बेसन हाथों में लिपटे होती हूँ जब चलती शराब
शब्दों में खुलता शरीर उसकी कविता का जो दरअस्ल है एक नाम

समय समय पर बदलती कविता, बदलता वर्ण, मुक्त है वह
वैसे भी मुझे क्या, मैं रह गई जो मौलिक वही एक, गृहिणी

गृहिणी, तुम्हारे बाल पकने लगे हैं
अब तुम भी नहीं जानती कि कभी कभार तुम रोती हो
उसकी कविता के लिए होती हो नफ़रत
जब कभी प्यार तुम होती हो।

अर्थ खोना ज़मीन का

मेरा है सिर्फ मेरा
सोचते सोचते उसे दे दिए
उँगलियों के नाखून
रोओं में बहती नदियाँ
स्तनों की थिरकन

उसके पैर मेरी नाभि पर थे
धीरे-धीरे पसलियों से फिसले
पिंडलियों को मथा-परखा
और एक दिन छलाँग लगा चुके थे

सागर-महासागरों में तैर तैर
लौट लौट आते उसके पैर
मैं बिछ जाती
मेरा नाम सिर्फ ज़मीन था
मेरी सोच थी सिर्फ उसके मेरे होने की

एक दिन वह लेटा हुआ
बहुत बेखबर कि उसके बदन से है टपकता कीचड़
सिर्फ मैं देखती लगातार अपना
कीचड़ बनना अर्थ खोना ज़मीन का।

हमारे बीच

जानती थी
कि कभी हमारी राहें दुबारा टकराएँगीं
चाहती थी
तुम्हें कविता में भूल जाऊँ
भूलती-भूलती भुलक्कड़-सी इस ओर आ बैठी
जहाँ तुम्हारी डगर को होना था ।

यहाँ तुम्हारी यादें तक बूढ़ी हो गई हैं

इस मोड़ पर से गुज़रने में उन्हें लंबा समय लगता है
उनमें नहीं चिलचिलाती धूप में जुलूस से निकलती
पसीने की गंध ।

तुम्हारे लफ्ज़ थके हुए हैं
लंबी लड़ाई लड़ कर सुस्ता रहे हैं
मैं अपनी ज़िद पर चली जा रही हूँ
चाहती हुई कि एकबार वापस बुला लो
कहीं कोई और नहीं तो हम दो ही उठाएँगे
कविताओं के पोस्टर ।

मैं मुड़ कर भी नहीं देखती
कि तुम तब तक वहाँ खड़े हो
जब तक मैं ओझल नहीं होती ।

लौटकर अंत में देखती हूँ
हमारे बीच मौजूद है
एक कठोर गोल धरती का
उभरा हुआ सीना ।

मैं तुमसे क्या ले सकता हूँ?

मैं तुमसे क्या ले सकता हूँ?
अगर ऐसा पूछो तो मैं क्या कहूँगा।
बीता हुआ वक्त तुमसे ले सकता हूँ क्या?
शायद ढलती शाम तुम्हारे साथ बैठने का सुख ले सकता हूँ। या जब थका हुआ
हूँ, तुम्हारा कहना,
तुम तो बिल्कुल थके नहीं हो, मुझे मिल सकता है।

तुम्हें मुझसे क्या मिल सकता है?
मेरी दाढ़ी किसी काम की नहीं।
तुम इससे आतंकित होती हो।
असहाय लोगों के साथ जब तुम खड़ी होती हो, साथ में मेरा साथ तुम्हें मिल सकता है।
बाकी बस हँसी-मजाक, कभी-कभी थोड़ा उजड्डपना, यह सब ऊपरी।

यह जो पत्तों की सरसराहट आ रही है, मुझे किसी का पदचाप लगती है,
मुझे पागल तो नहीं कहोगी न?

मैं तुझे खुद में शामिल करता हूँ
मेरी रातों में कही जा तू कविता

फैलता हुआ तुझे थामने स्थिर होता
लील लेता तुझे जब
धरती पर अनंत दुखों का लावा पिघलता ।

बहुत दिनों के बाद तुझसे रूबरू होता हूँ ।

मेरी उँगलियाँ बंद पड़ी हैं
उन्हें खुलने से डर लगता है ।
तू मेरे आकाश में है
आ तू मेरे सीने पे आ
मेरी उँगलियों को तेरा इंतज़ार है
जीवन गीत के छींटों से मुझे गीला कर
तू आ कविता।

डर होता है छत गिरने का
भूकंप आने का
डर न जाने क्या क्या होता।

प्रतिकृतियाँ जिनमें ढूँढते हैं
वे नक्षत्र और दूर हो चले
औरों की आँखों में जो दिखते हैं लिबास
डर होता है कि वे मुझपे ही जड़े हैं ।

आ तू मेरी उँगलियों से बरस
कि वे धरती को डर से मुक्त करें
पेड़ों को खिड़की से अंदर हूँ खींच लाता।

क कथा

क कवित्त
क कुत्ता
क कंकड़
क कुकुरमुत्ता ।

कल भी क था
क कल होगा ।

क क्या था
क क्या होगा।

कोमल ? कर्कश ?

ख खेलें

खराब ख
ख खुले
खेले राजा
खाएं खाजा ।

खराब ख
की खटिया खड़ी
खिटपिट हर ओर
खड़िया की चाक
खेमे रही बाँट ।

खैर खैर
दिन खैर
शब खैर ।

खतरनाक 

जो नियमित हैं उनका अनियम।
जो संतुलित उनका असंतुलन।

जो स्पंदित हैं उनकी जड़ता
जो सरल उनकी जटिलता।

जो इसलिए मेरे साथ कि मैं उनके गाँव का हूँ
या दूर के रिश्ते का भाई या चाचा हूँ
उनकी सरलता।

जो वाहवाही करते हैं उनकी चैन की नीद
बिना नमक की दाल में ज्यादा पड़ा हींग।

दुर्घटना

सूर्यास्त के सूरज और रुक गए भागते पेड़ों के पास
वह था और नहीं था।

हालाँकि उसकी शक्ल आदमी जैसी थी
गाड़ीवालों ने कहा साला साइकिल कहाँ से आ गया
कुछ लोग साइकिल के जख्मों पर पट्टियाँ लगा रहे थे
वह नहीं था

सूर्यास्त के सूरज और रुक गए भागते पेड़ों के पास
वह था और नहीं था।

जो रहता है वह नहीं होता है।

लिखना चाहिये

लिखना चाहिए
और नहीं फाड़ना चाहिए
जो लिखना चाहिए

लिखना चाहिए कि
सरकार की अस्थिरता के आपात दिनों में
एक शाम उसका चेहरा था
मेरी उँगलियों को छूता

कि दिनभर दौड़धूप टकेपैसे की मारकाट के बाद
वह मैं रेलवे प्लेटफार्म पर खड़े
देख रहे थे अस्त जाता सूरज

भीड़ सरकार की अस्थिरता से बेखबर यूँ
सूरज उन तमाम रंगों में रँगा
जो उसके साथ हमें भी शाम के धुँधलके में छिपाए

कि उसके जाने के बाद लगातार कई शाम
मेरी उँगलियाँ ढूँढती हैं
उसकी आँखें
सूरज हर शाम पूछता कुछ सवाल

लिखना चाहिए
और नहीं फाड़ना चाहिए
हमारे उसके रोशनी के क्षण
जब सूरज और अपने दरमियान
अँधेरे में बेचैन है मन।

शरत और दो किशोर

जैसे सिर्फ हाथों का इकट्ठा होना
समूचा आकाश है
फिलहाल दोनों इतने हल्के हैं
जैसे शरत् के बादल

सुबह हल्की बारिश हुई है
ठंडी उमस
पत्ते हिलते
पानी के छींटे कण कण
धूप मद्धिम
चल रहे दो किशोर
नंगे पैरों के तलवे
नर्म
दबती घास ताप से काँपती

संभावनाएँ उनकी अभी बादल हैं
या बादलों के बीच पतंगें
इकट्ठे हाथ
धूप में कभी हँसते कभी गंभीर
एक की आँखें चंचल

ढूँढ रहीं शरत् के बौखलाए घोड़े
दूसरे की आँखों में करुणा
जैसे सिर्फ हाथों का इकट्ठा होना
समूचा आकाश है

उन्हें नहीं पता
इस वक्त किसान बीजों के फसल बन चुकने को
गीतों में सँवार रहे हैं
कामगारों ने भरी हैं ठंडी हवा में हल्की आहें

फिलहाल उनके चलते पैर
आपस की करीबी भोग रहे हैं
पेड़ों के पत्ते
हवा के झोंकों के पीछे पड़े हैं
शरत् की धूप ले रही है गर्मी
उनकी साँसों से

आश्वस्त हैं जनप्राणी
भले दिनों की आशा में
इंतजार में हैं
आश्विन के आगामी पागल दिन।

भारत में जी

बायोटेक्नोलोजी, फेनोमेनोलोजी, ऐसे शब्द है जिनमें आखिर में जी आता है ।
ऐसे शब्द मिलकर गीत गाते हैं । शब्द कहते हैं बैन्ड बजा लो जी।
इसी बीच भारत बैन्ड बजाता हुआ चाँद की ओर जाता है।

चाँद पर कविता उसने नहीं पढ़ी।
भारत को क्या पड़ी थी कि वह जाने चाँद को चाहता है चकोर।
भारत ने चाँद जैसे सलोने लोगो से कह दिया
– ओ बायोटेक्नोलोजी, बैन्ड बजा लो जी।
ओ चाँद बजा लो जी, ओ फेनोमेनोलोजी ।

चाँद जैसे लोगो ने कहा – हड़ताल पर जाना देशद्रोह है।
चाँद उगा टूटी मस्जिद पर। ईद की रात चाँद उगा ।
हर मजलूम का चाँद उगा ।
भारत में।
जी।

भाषा 

एक आंदोलन छेड़ो
पापा ममी को
बाबू माँ बना दो

यह छेड़ो आंदोलन
गोलगप्पे की अंग्रेज़ी कोई न पूछे
कोई न कहे हुतात्मा चौक
फ्लोरा फाउंटेन को
परखनली शिशु को टेस्ट-ट्यूब बेबी बना दो

कहो
नहीं पढ़ेंगे अनुदैर्घ्य उत्क्रमणीय
शब्दों को छुओ कि उलट सकें वे बाजीगरों सरीके
जब नाचता हो कुछ उनमें लंबाई के पीछे पीछे
विज्ञान घर घर में बसा दो
परी भाषा बन कर आओ परिभाषा को कहला दो

यह छेड़ो आंदोलन
कि भाषा पंख पसार उड़ चले
शब्दों को बड़ा आस्माँ सजा दो।

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