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हरजिन्दर सिंह लाल्टू की रचनाएँ

देशभक्त

दिन दहाड़े जिसकी हत्या हुई
जिसने हत्या की।

जिसका नाम इतिहास की पुस्तक में है
जिसका हटाया गया
जिसने बंदूक के सामने सीना ताना
जिसने बंदूक तानी।

कोई भी हो सकता है
माँ का बेटा, धरती का दावेदार
उगते या अस्त होते सूरज को देखकर
पुलकित होता, रोमांच भरे सपनों में
एक अमूर्त्त विचार के साथ प्रेमालाप करता ।

एक क्षण होता है ऐसा
जब उन्माद शिथिल पड़ता है
प्रेम तब प्रेम बन उगता है
देशभक्त का सीना तड़पता है
जीभ पर होता है आम इमली जैसी
स्मृतियों का स्वाद
नभ थल एकाकार उस शून्य में
जीता है वह प्राणी देशभक्त ।

वही जिसने ह्त्या की होती है
जिसकी हत्या हुई होती है ।

एक और औरत

एक और औरत हाथ में साबुन लिए उल्लास की पराकाष्ठा पर है
गद्दे वाली कुर्सी पर बैठ एक और औरत कामुक निगाहों से ताक रही है
इश्तहार से खुली छातियों वाली औरत मुझे देखती मुस्कराती है
एक औरत फ़ोन का डायल घुमा रही है और मैं सोचता हूँ वह मेरा ही नंबर मिला रही है

माँ छः घंटों बस की यात्रा कर आई है
माँ मुझसे मिल नहीं सकती, होस्टल में रात को औरत का आना मना है ।

वह प्यार – 1

तुमने कहा अरे!
अरे क्या! मैंने कहा
फिर लिया लेखा जोखा आपस में हमने
आपस के छूटे हुए दिनों का
तुमने पिलाया पानी
मैंने सोचा कब छूटेगा तुम्हारा बदन
दिन भर के काम से

वह प्यार – 2 

तुम्हारी पीठ पर से कुछ अणु
मेरी हस्त – रेखाओं में बस गये हैं
जहां भी जाता हूं
लोगों से हाथ मिलाता हूं
उनके शरीर में कुछ तुम आ जाती हो
और वे सुन्दर लगने लगते हैं अचानक
कम नहीं होती मुझमें तुम
जहां कहीं से भी लौटता हूं
तुम होती हो हथेलियों पर
सड़कों से नाचते – नाचते लौटता हूं घर
दरवाजा खोलते ही खिलखिलाता हंस उठता है
दीवार पर पसरा भगतसिंह

वह प्यार – 3 

तुम्हारा न होना मेरा अपना न होना है
जीता हूं सुख से फिर भी क्योंकि
ठंडी हवा है तुम्हारे होने की संभावना लिए
आज तो एक चांद भी है तुम सा
सच कहता यह जो अंधेरा चांद से यहां तक फैला है
वह तुम्हारे बाल हैं
अंधेरे को उंगलियों से छूता हूं बार – बार
जानता हूं दूर किसी गांव में
मुड़ – मुड़ कर चूम रही होगी
मेरी उंगलियों को तुम

सूरज सोच सकने को लेकर 

सूरज सोच सकने को लेकर
मैंने पहले भी कभी लिखा है
इन दिनों लड़ता हूँ इस शक से कि
सूरज सोचना शायद धीरे-धीरे
असंभव हो रहा है

सूरज सोच सकने के पूर्ववर्ती क्षणों में
वह बूढ़ा भर लेगा उन सभी जगहों को
अपने बच्चे की राख से
जहाँ मेरे पैर हैं
फिलहाल उसे सूरज नहीं सिर्फ एक रुपया
चाहिए या महज कुछ पैसे

मुझे लगता है मैं अभी भी
सूरज सोच सकता हूँ
शक है उस बूढ़े का असंभव ही हो
सूरज सोच सकना

उम्र 

उम्र दर उम्र
ढूँढते हैं
बढ़ती उम्र रोकने का जादू

भरे छलकते प्याले हैं
एक-एक टूटता प्याला
लड़खड़ाते सोच सोच कि
टूटने से पहले प्यालों में
रंग कुछ और भी होने थे

टूटता हर प्याला
बचे प्यालों से होता बेहतर
झुर्रियों के साथ इकट्ठे बचते प्याले
डबल चार सौ बीस का जिन पर नंबर

जितनी बढ़ती तमन्ना जीने की
उतनी ही होती तकलीफ जीने की

टूटी सोच से डरे घबराए
बदतर प्याले ढोने को लाचार
गिरते और गहरे गड्ढों में

उम्र पर हँसने की सलाह देते हैं वैज्ञानिक।

जैसे 

जैसे हर क्षण अँधेरा बढ़ता
तुम शाम बन
बरामदे पर बालों को फैलाओ
खड़ी क्षितिज के बैगनी संतरी सी
उतरती मेरी हथेलियों तक

जैसे मैं कविताएँ ढोता
रास्ते के अंतिम छोर पर
अचानक कहीं तुम
बादल बन उठ बैठो
सुलगती अँगड़ाई बन
मेरी आँखों के अंदर कहीं।

बूँद बूँद आँसू

जल थल नभ अनगिनत खेल
पोथियों भरी अक्षरों की रेल
वाद संवाद विवाद प्रतिवाद
जहाँ भी हूँ आबाद
आख़िर में मैं
बूँद-बूँद आँसू
छोटे-बड़े पर्दों पर
इस-उस की आँखों निरन्तर
प्रेम-नफ़रत, चीख़, उल्लास
कहीं महज़ आवाज़ सायास
आख़िर में मैं
बूँद-बूँद आँसू
द्वीप-मध्यद्वीप, देश-विदेश
युद्ध शांति अध्याय विशेष
उथल-पुथल प्राण
चहल-पहल के गान
आख़िर में मैं
बूँद-बूँद आँसू

रुको

कविता रुको
समाज, सामाजिकता रुको
रुको जन, रुको मन।

रुको सोच
सौंदर्य रुको
ठीक इस क्षण इस पल
इस वक्त उठना है
हाथ में लेना है झाड़ू
करनी है सफाई
दराजों की दीवारों की
रसोई गुसल आँगन की
दरवाजों की

कथन रुको
विवेचन रुको
कविता से जीवन बेहतर
जीना ही कविता
फतवों रुको हुंकारों रुको।

इस क्षण
धोने हैं बर्त्तन
उफ्, शीतल जल,
नहीं ठंडा पानी कहो
कहो हताशा तकलीफ
वक्त गुजरना
थकान बोरियत कहो
रुको प्रयोग
प्रयोगवादिता रुको

इस वक्त
ठीक इस वक्त
बनना है
आदमी जैसा आदमी।

स्केच

एक इंसान रो रहा है
औरत है
लेटर बाक्स पर
दोनों हाथों पर सिर टिकाए
बिलख रही है
टेढ़ी काया की निचली ओर
दिखता है स्तनों का उभार
औरत है

औरत है
दिखता है स्तनों का उभार
टेढ़ी काया की निचली ओर
बिलख रही है
दोनों हाथों पर सिर टिकाए
लेटर बाक्स पर
औरत है
एक इंसान रो रहा है

खबर

जाड़े की शाम
कमरा ठंडा ठ न् डा
इस वक़्त यही ख़बर है

– हालाँकि समाचार का टाइम हो गया है

कुछेक ख़बरें पढ़ी जा चुकी हैं

और नीली आँखों वाली ऐश्वर्य का ब्रेक हुआ है
है ख़बर अँधेरे की भी

काँच के पार जो और भी ठंडा

थोड़ी देर पहले अँधेरे से लौटा हूँ

डर के साथ छोड़ आया उसे दरवाज़े पर
यहाँ ख़बर प्रकाश की जिसमें शून्य है

जिसमें हैं चिंताएं, आकांक्षाएँ, अपेक्षाएँ

अकेलेपन का कायर सुख
और बेचैनी…

…इसी वक़्त प्यार की ख़बर सुनने की

सुनने की ख़बर साँस, प्यास और आस की
कितनी देर से हम अपनी

ख़बर सुनने को बेचैन हैं।

बकवास 

कुछ पन्ने बकवास के लिए होते हैं

जो कुछ भी उन पर लिखा बकवास है
वैसे कुछ भी लिखा बकवास हो सकता है

बकवास करते हुए आदमी

बकवास पर सोच रहा हो सकता है

क्या पाकिस्तान में जो हो रहा है

वह बकवास है

हिंदुस्तान में क्या उससे कम बकवास है
क्या यह बकवास है

कि मैं बीच मैदान हिंदुस्तान और पाकिस्तान की

धोतियाँ खोलना चाहता हूँ
निहायत ही अगंभीर मुद्रा में

मेरा गंभीर मित्र हँस कर कहता है

सब बकवास है
बकवास ही सही

मुझे लिखना है कि

लोगों ने बहुत बकवास सुना है
युद्ध सरदारों ध्यान से सुनो

हम लोगों ने बहुत बकवास सुना है
और यह बकवास नहीं कि

हम और बकवास नहीं सुनेंगे।

दिखना

आप कहाँ ज्यादा दिखते हैं?

अगर कोई कमरे के अंदर आपको खाता हुआ देख ले तो?

बाहर खाता हुआ दिखने और अंदर खाता हुआ दिखने में

कहाँ ज्यादा दिखते हैं आप?
कोई सूखी रोटी खाता हुआ ज्यादा दिखता है

जॉर्ज बुश न जाने क्या खाता है

बहुत सारे लोगों को वह जब दिखता है

इंसान खाते हुए दिखता है

आदम दिखता है हर किसी को सेव खाता हुआ

वैसे आदम किस को दिखता है !
देखने की कला पर प्रयाग शुक्ल की एक किताब है

मुझे कहना है दिखने के बारे में

यही कि सबसे ज्यादा आप दिखते हैं

जब आप सबसे कम दिख रहे हों।

एक और रात

दर्द जो जिस्म की तहों में बिखरा है

उसे रातें गुजारने की आदत हो गई है
रात की मक्खियाँ रात की धूल

नाक कान में से घुस जिस्म की सैर करती हैं
पास से गुजरते अनजान पथिक

सदियों से उनके पैरों की आवाज गूँजती है

मस्तिष्क की शिराओं में।
उससे भी पहले जब रातें बनीं थीं

गूँजती होंगीं ये आवाजें।

उससे भी पहले से आदत पड़ी होगी

भूखी रातों की।

सखी 

हर रोज बतियाती सलोनी सखी

हर रोज समझाती दीवानी सखी

गीतों में मनके पिरोती सखी

सपनों में पलकें भिगोती सखी

नाचती है गाती इठलाती सखी

सुबह सुबह आग में जल जाती सखी
पानी की आग है

या तेल की है आग

झुलसी है चमड़ी

या फंदा या झाग
देखती हूँ आइने में खड़ी है सखी

सखी बन जाऊँ तो पूरी है सखी
न बतियाना समझाना, न मनके पिरोना

न गाना, इठलाना, न पलकें भिगोना
सखी मेरी सखी हाड़ मास मूर्त्त

निगल गई दुनिया

निष्ठुर और धूर्त्त।

वहीं रख आया मन

उन्हीं इलाकों से वापस मुड़ना है
वहीं से गुजरते हुए
देखना है वही पेड़, वही गुफाएँ

  • *

आँखें बूढ़ी हुईं
पेट बूढ़ा हुआ
रह गया अभागा मन
तलाशता वहीं जीवन

  • *

चार दिनों में कोई लिखता
हरे मटर की कविता
मैं बार बार ढूँढता शब्द
देखता हर बार छवि तुम्हारी

  • *

उन गुजरते पड़ावों पर
अब सवारी नहीं रुकती
बहुत दूर आ चुका हूँ
वहीं रख आया मन
वही ढूँढता चाहता मगन।

हर कोई

  लाल्टू »

हर किसी की ज़िंदगी में आता है ऐसा वक़्त
उठते ही एक सुबह
पिछले कई महीनों की प्रबल आशंका
संभावनाओं के सभी हिसाब किताब
गड्डमड्ड कर
साल की सबसे सर्द भोर जैसी
दरवाजे पर खड़ी होती है

हर कोई जानता है
ऐसा हमेशा से तय था फिर भी
कल तक उसकी संभावनाओं के बारे में
सोचते रह सकने का हर कोई
शुक्रिया अदा करता है
उस अनिश्चितता का जो
बिना किसी सैद्धांतिक बयान के
होती चिरंतन

हर कोई
होता है तैयार
सड़क पर निकलते ही
‘ओफ्फो! बहुत गलत हुआ’ सुनने को
या होता विक्षिप्त उछालता इधर उधर पड़े पत्थरों को
या अकेले में बैठ चाह सकता है
किसी की गोद में
आँखें छिपा फफक फफक कर रोना

हर कोई गुजरता है इस वक्त से
अपनी तरह और कभी
डूबते सूरज के साथ
लौटा देता है वक्त उसी
समुद्र को

फेंका जिसने इसे पुच्छल तारे सा
हर किसी के जीवन में।

सारी दुनियाँ सूरज सोच सके

हर रोज जब सूरज उगता है
मैं खिड़की से मजदूरों को देखता हूँ
जो सड़क पार मकान बना रहे हैं

सूरज मेरी खिड़की पर सुबह सुबह नहीं आता
कल्पना करता हूँ कितना बढ़िया है सूरज

रात के अभिसार से थकी पृथ्वी को
आकाश हर रोज एक नया शिशु देता है

नंगी पृथ्वी
अँगड़ाई लेती
शरीर फैलाती है
उसकी शर्म रखने
अलसुबह उग आते
पेड़ पौधे, घास पात

पूरब जंघाएँ
प्रसव से लाल हो जाती हैं

ऐसा मैं सोचता हूँ
सूरज कल्पना कर

कभी कभी
मैंने मजदूरों की ओर से सोचने की कोशिश की है
मेरे जागने तक
टट्टी पानी कर चुके होते हैं
अपने काम में लग चुके होते हैं
एक एक कप चाय के सहारे

मैंने चाहा
वे सूरज को कोसें
शिकवा करें
क्यों वह रोज उग आता इतनी जल्दी

बार बार थक गया हूँ
अगर वे कभी सूरज सोच सकें
सूरज नहीं दुनिया सोचेंगे
षड़यंत्र करेंगे
सारी दुनिया सूरज सोच सके।

जैसे खिलता है आसमान

जैसे खिलता है आसमान
सीने में उल्लास की चीत्कार भर दौड़ो
प्यार जब चाहिए तो
चोटी पर बाँहें फैला सरगम गाओ

हो सकता है साथ आ बैठें दढ़ियल रवींद्रनाथ
हू हू बह निकले गंगा
महादेवी की जाने किन कविताओं से

प्यार जब चाहिए तो
होंठों को स्तब्ध न रखो
जिन आँखों को छूना है
जीवन की तहें वहाँ फैलाओ
साँस सिसकियाँ आवाज़ें
जिस्म रूह कविताएँ
होंठों की बाँसुरी में बजाओ
बाँसुरी नहीं चिरंतन फरीद वह
ईसा का सपना
खिलो जैसे खिलता है आसमान।

हालाँकि लिखना था पेड़ 

हालाँकि लिखना था पेड़
पेड़ पर दिनों की बारिश की गंध
लिखा पसीना हवा में उड़ता सूक्ष्म-सूक्ष्म
लिखा पसीना जो अपनी सत्ता
देश से उधार लिए बहता दिमाग़ में
स्पष्ट कर दूँ यह कोई मजदूर का नहीं
महज उस देश का पसीना
जिस पर तमाम बेईमानियों के ऊपर
मीठी सी हँसी का लबादा
हमारी एकता का हिस्स… …
हमारी हें-हें हें समवेत हँसी का फिस्स… …

हालाँकि लिखना था पेड़
पेड़ पर बंदर
आसपास थे घर और बंदर में घर
नहीं हो सकता
लिखा वीरानी जो चेहरे के भीतर बैठी
टुकड़े-टुकड़े
लिखा महाजन वरिष्ठ
लिखा राजन विशिष्ट मेरे इष्ट
जिन्हें इस बात का गुमान
कि पढ़े लिखों को
यूँ करते मेहरबान
जैसे नाले में कै लिखा कै के उपादान
पीलिया ग्रस्त देश के विधान

हालाँकि लिखना था पेड़
लिखी बातें लगीं संस्कृत असंस्कृत।

छोटे बडे

तारे नहीं जानते ग्रहों में कितनी जटिल
जीवनधारा ।
आकाशगंगा को नहीं पता भगीरथ का
इतिहास वर्तमान ।
चल रहा बहुत कुछ हमारी कोषिकाओं में
हमें नहीं पता ।

अलग-अलग सूक्ष्म दिखता जो संसार
उसके टुकड़ों में भी है प्यार
उनका भी एक दूसरे पर असीमित
अधिकार

जो बड़े हैं
नहीं दिखता उन्हें छोटों का जटिल संसार

छोटे दिखनेवालों का भी होता बड़ा घरबार
छोटी नहीं भावनाएं, तकलीफें
छोटे नहीं होते सपने।

कविता,विज्ञान,सृजन,प्यार
कौन है क्या है वह अपरंपार
छोटे-बड़े हर जटिल का अहसास
सुंदर शिव सत्य ही बार बार।

समीना ने सीखा साइकिल चलाना

समीना ने चलना सीखा
कब की बात हो गई
समीना ने बोलना सीखा
कब की बात हो गई
समीना ने पढ़ना सीखा
कब की बात हो गई

अब समीना सरकेगी सड़क पर
साइकिल पर बैठ

दो ओर लगे सुनील शबनम
बीच बैठी समीना
पहले तो डर का सरगम
फिर धीरे धीरे आई हिम्मत
थामा स्टीयरिंग कसकर
फिर दो चार बार गिरकर
जब लगी चोट जमकर
समीना थोड़ी शर्माई

दो एक बार घंटी भी आजमाई
क्रींग क्रींग की धूम मचाई
देर सबेर पेडल घुमाया ठीक ठाक
सबने देखी समीना की साइकिल की धाक

समीना ने साइकिल चलाना सीखा

कब की बात हो गई।

यातना-1 

लिखूँ तो क्या लिखूँ।
लंबे समय से सब कुछ ही गोलमाल लगता रहा है।
जो ठीक लगता है, वह ठीक है क्या?
जो गलत वह गलत?

शायद ऐसे ही समय में
ईश्वर जन्म लेता है।

यातना-2 

तालस्ताय ने सौ साल पहले भोगा था यह अहसास
जो बहुत दूर हैं उनसे प्यार नहीं है
दूर देशों में बर्फानी तूफानों में
सदियों पुराने पुलों की आत्माएँ
आग की बाढ़ में कूदतीं

निष्क्रिय हम चमकते पर्दों पर देखते
मिहिरकुल का नाच

जो बहुत करीब हैं उनसे नफरत
करीब के लोगों को देखना है खुद को देखना
इतनी बड़ी यातना
जीने की वजह है दरअसल

जो बीचोंबीच बस उन्हीं के लिए है प्यार
भीड़ में कुरेद कुरेद अपनी राह बनाते
ढूँढते हैं बीच के उन लोगों को
जो कहीं नहीं हैं

समूची दुनिया से प्यार
न कर पाने की यातना
जब होती तीव्र
उगता है ईश्वर
उगती दया
उन सबके लिए
जिन्हें यह यातना अँधेरे की ओर ले जा रही है

हमारे साथ रोता है ईश्वर
खुद को मुआफ करता हुआ।

आकांक्षा 

मन
हो इतना कुशल
गढ़ने न हों कृत्रिम अमूर्त्त कथानक
चढ़ना उतरना
बहना होना
हँसना रोना इसलिए
कि ऐसा जीवन

हो इतना चंचल
गुजर तो फूटे
हँसी की धार
हर दो आँख कल कल

डर तो डरे जो कुछ भी जड़
प्रहरियों की सुरक्षा में भी
डरे अकड़
खिल हर दूसरा खिले साथ
बढ़ बढ़े हर प्रेमी की नाक
हर बात की बात
बढ़े हर जन
ऐसा ही बन

कुछ बनना ही है
तो ऐसा ही बन।

आज की लड़ाई

कुछ मर्दों की दास्तान ऐसी
जैसे पहाड़ पर धब्बे
जितना ऊँचा उतना ही नंगा
जबकि ठंडक नहीं
ऊँचाई गंदे नालों की
दुर्गंध पहेली

कुछ पुरुषों की कहानी जैसे मशीन बिगड़ैल
घटिया जितनी उतना ही शोर अंग अंग
हालाँकि मशीनों के होते कुछ रंग
हाथ रखो मशीन पर तो फिसफिसाए
ठीक ठीक दबाओ बटन चले ठीक ठाक

कुछ मर्दों पर रखे हाथों पर चढ़ जाते कीड़े
उनकी लपलपाती जीभें
हाथ रखने वालों की शिराओं में घुसतीं दूर
स्थायी विनाश दिमाग की क्यारिओं का होता
इनकी संगति से

कुछ में से कुछ ओढ़ें
लबादा ज्ञान का संघर्ष का
क्या बताएँ उनकी जैसे शैतान के दूत
कहलाएँ महाऋषि होवें नीच भूत

एक लड़ाई है लड़नी
इन कुछ को स्वयं में जानने की।

कविता

जैसे ज़मीन निष्ठुर।
अनंत गह्वरों से लहू लुहान लौटते हो और ज़मीन कहती देखो चोटी पर गुलाब।

जैसे हवा निष्ठुर।
सीने को तार-तार कर हवा कहती मैं कवि की कल्पना।

जैसे आस्मान निष्ठुर।
दिन भर उसकी आग पी और आस्मान कहता देखो नीला मेरा प्यार।

निष्ठुर कविता।
तुमने शब्दों की सुरंगें बिछाईं, कविता कहती मैं वेदना, संवेदना, पर नहीं गीतिका।
शब्द नहीं, शब्दों की निष्ठुरता, उदासीनता ।

मैं

कितना छिपा
कितना उजागर
इसी उलझन में मग्न।

कुछ यह
कुछ वह
हर किसी को चाहिए
एक अंश मेरा

कुछ उदास
कुछ सुहास
कुछ बीता
कुछ अभी आसन्न।

सच
मैं
वही अराजक
तुम्हारी कामना
वही अबंध
तुम्हारा ढूँढना

कुछ सुंदर
कुछ असुंदर
कुछ वही संक्रमण लग्न।

होली है

भरी बहार सुबह धूप
धूप के सीने में छिपे ओ तारों नक्षत्रों
फागुन रस में डूबे हम
बँधे रंग तरंग
काँपते हमारे अंग।

छिपे छिपे हमें देखो
सृष्टि के ओ जीव निर्जीवों
भरपूर आज हमारा उल्लास
खिलखिलाती हमारी कामिनियाँ
कार्तिक गले मिल रहे
दिलों में पक्षी गाते सा रा सा रा रा।

रंग बिरंगे पंख पसारे
उड़ उड़ हम गोप गोपियाँ
ढूँढते किस किसन को
वह पागल
हर सूरदास रसखान से छिपा
भटका राधा की बौछार में

होली है, सा रा सा रा रा, होली है।

अपने उस आप को 

अपने उस आप को

अपने उस आप को कैसे समझाऊँ
हर निषिद्ध पेय उतारना चाहता कंठ में

हर आँगन के कोने में रख आता प्यार की सीढ़ी
बो आता घने नीले आस्मान में उगने वाले बादलों के पेड़
जंगली भैंसें, मदमत्त हाथी
सबके सामने खड़ा चाहता महुआ की महक

हर वर्जित उत्तरीय ओढ़ता
सपने भी वही जिनके खिलाफ संविधान में कानून
बीच सड़क उड़ती गाड़ियाँ रोक
चाहता दुःख, चाहता पृथ्वी भर का दुःख
कहता सारे सुख ले लो
ओ सुखी लोगो, बच्चों को उनकी कहानियाँ दे दो

अपने उस आप को कैसे समझाऊँ
मृत्यु स्वयं भी सामने आ जाए तो पढ़ता कविता
चीख चीख कर रोता
राष्ट्रपति कलाम के भाषण दौरान

जब हर कोई मस्त उड़ रहा नशे में
बच्चों को बाँसुरी की धुन पर ले जाता दूर

अपने उस आप को कैसे समझाऊँ।

औरत गीत गाती है।

पाब्लो नेरुदा की स्मृति में

शहर समुद्र तट से काफी ऊपर है।
अखबारों में आस-पास के ऐतिहासिक स्थलों की तस्वीरों में थोड़ा बहुत पहाड़ है।
जहाँ मैं हूँ, वहाँ छोटा सा जंगल है। इन सब के बीच सड़क बनाती औरत
गले में जमी दिन भर की धूल थूकती है।
औरत गीत गाती है।

गीत में माक्चू-पिक्चू की प्रतिध्वनि है।
चरवाहा है, प्रेयसी है।
इन दिनों बारिश हर रोज होती है।
रात को कंबल लपेटे झींगुरों की झीं-झीं के साथ बांसुरी की आवाज सुनाई देती है।
पसीने भरे मर्द को संभालती नशे में
औरत गीत गाती है।

उसके शरीर में हमेशा मिट्टी होती है।
दूर से भी उसकी गंध मिट्टी की गंध ले आती है।
वह मुड़ती है, झुकती है, मिट्टी उसे घेर लेती है।
ठेकेदार चिल्लाता है, वह सीधी खड़ी होकर नाक में उँगली डालती है।
मेरे बैठक में खबरों के साथ
उसके गंध की लय आ मिलती है।
भात पका रही
औरत गीत गाती है।

मेरी खिड़की के बाहर ओक पेड़ के पत्ते हैं।
डालियाँ खिड़की तक आकर रुक गई हैं।
सुबह बंदर के बच्चे कभी डालियों कभी खिड़की पर
उल्टे लटकते हैं।
पत्तों के बीच में से छन कर आती है धूप
जैसे बहुत कुछ जैसा है
वैसे के बीच में बदलता आता है समय।
आश्वस्त होता हूँ कि नया दिन है
जब जंगल, खिड़की पार कर आती है उसकी आवाज़।
काम पर जा रही
औरत गीत गाती है।

भैया जिन्दाबाद

आ गया त्यौहार
फैल गई रोशनी
बड़कू ने रंग दी दीवार
लिख दिया बड़े अक्षरों में

अब से हर रात
फैलेगी रोशनी
दूर अब अंधकार
हर दिन है त्यौहार

छुटकी ने देखा
धीरे से कहा
अब्बू पीटेंगे भैया
हुआ भी यही
मार पड़ी बड़कू को
छुटकी ने देखा
धीरे से कहा
मैं बदला लूँगी भैया

फिर सुबह आई
नये सूरज
नई एक दीवार ने
दिया नया विश्व सबको

दीवार खड़ी थी
अक्षरों को ढोती
भैया ज़िंदाबाद।

पोखरन 1998 -1 

बहुत दिनों के बाद याद नहीं रहेगा
कि आज बिजली गई सुबह सुबह
गर्मी का वर्त्तमान और कुछ दिनों पहले के
नाभिकीय विस्फोटों की तकलीफ के
अकेलेपन में और भी अकेलापन चाह रहा

आज की तारीख
आगे पीछे की घटनाओं से याद रखी जाएगी
धरती पर पास ही कहीं जंग का माहौल है
एक प्रधानमंत्री संसद में चिल्ला रहा है
कहीं कोई तनाव नहीं
वे पहले आस्तीनें चढ़ा रहे थे
आज कहते हैं कि चारों ओर शांति है
डरी डरी आँखें पूछती हैं
इतनी गर्मी पोखरन की वजह से तो नहीं

गर्मी पोखरन की वजह से नहीं होती
पोखरन तो टूटे हुए सौ मकानों और
वहाँ से बेघर लोगों का नाम है
उनको गर्मी दिखलाने का हक नहीं

अकेलेपन की चाहत में
बच्ची बनना चाहता हूँ
जिसने विस्फोटों की खबरें सुनीं और
गुड़िया के साथ खेलने में मग्न हो गई

पोखरन 1998 -2 

गर्म हवाओं में उठती बैठती वह
कीड़े चुगती है
बच्चे उसकी गंध पाते ही
लाल लाल मुँह खोले चीं चीं चिल्लाते हैं

अपनी चोंच नन्हीं चोंचों के बीच
डाल डाल वह खिलाती है उन्हें
चोंच-चोंच उनके थूक में बहती
अखिल ब्रह्मांड की गतिकी
आश्वस्त हूँ कि बच्चों को
उनकी माँ की गंध घेरे हुए है

जा अटल बिहारी जा
तू बम बम खेल
मुझे मेरे देश की मैना और
उसके बच्चों से प्यार करना है

पोखरन 1998 -3

धरती पर क्या सुंदर है
क्या कविता सुंदर है
इतने लोग मरना चाहते हैं
क्या मौत सुंदर है

मृत्यु की सुंदरता को उन्होंने नहीं देखा
सेकंडों में विस्फोट और एक लाख डिग्री ताप
का सूरज उन्होंने नहीं देखा
उन्होंने नहीं देखा कि सुंदर मर रहा है
लगातार भूख गरीबी और अनबुझी चाहतों से
सुंदर बन रहा हिंदू मुसलमान
सत्यम् शिवम् नहीं मिथ्या घनीभूत

बार बार कोई कहता है
धरती जीने के लायक नहीं
धरती को झकझोरो, उसे चूर मचूर कर दो
कौन कह रहा कि
धरती पर कविता एक घिनौना खयाल है

पोखरन 1998 -4

सुबह की पहली पहली साँस को
नमन करने वालों
आओ मेरे पास आओ
हरी हरी घास और पेड़ों को छूकर चलने वालों
आओ हमें गद्दार घोषित किया गया है
सलीब पर चढ़ने से पहले आओ
उन्हें हम अपनी कविताएँ सुनाएँ।

निकारागुआ की सोलह साल की वह लड़की /

सोलह साल की थी
जब एर्नेस्तो कार्देनाल
कविताओं में कह रह थे –
निकारागुआ लीब्रे!

उसने नज़रें उठाकर आस्मां देखा था
कंधे से बंदूक उतारकर
कच्ची सड़क पर
दूर तक किसी को ढूँढा था
हल्की साँस ली थी

उसने सोचा था –
वह दोस्त
जो झाड़ियों में खींच ले गया था
बहुत प्यार भरा
चुंबन ले कर जिसने कहा था
इंतज़ार करना! एक दिन तुम्हें
इसी तरह देखने आऊँगा –
लौट आएगा

उसकी माद्रे
गाँव के गिर्जा घर ले जाएगी
पाद्रे हाथों में हाथ रखवा कहेगा
सुख दुःख संपदा विपदाओं में
एक दूसरे का साथ निभाओगे
और वे कहेंगे – हाँ हम निभाएँगे

दस वर्षों बाद उसकी तस्वीर
मेरे डेस्क पर वैसी ही पड़ी है

सोलह साल का वह चेहरा –
आँखों में आतुरता
होंठों के ठीक ऊपर
पसीने की परत
कंधे पर बंदूक
आज भी वहीं रुका हुआ

आज भी कहीं
ब्लू फील्ड्स के खेतों में
या उत्तरी पहाड़ियों में
जंगलों में उसे लड़ना है

आज भी उसकी आँखें
आतुर ढूँढती हैं
एक-अदने इंसान को
जिसने उसे प्यार से बाँहों में लिया था
और कहा था
मैं लौटूँगा।

साथ रह गए कभी न छूटने वाले इन घावों में 

यह जो गाँव पास से गुज़र रहा है
इसमें तुम्हारा जन्म हुआ
जब भी यहाँ से गुज़रता हूँ
स्मृति में घूम जाती हैं तुम्हारी आँखें
बचपन में जिन्हें तस्वीर में देखते ही हुआ सम्मोहित

तब से कई बार धरती परिक्रमा कर चुकी सूरज के चारों ओर
तुम्हारे शब्द कई बार बन चुके बहस के औजार
लंबे समय तक कुछ लोगों ने तुम्हारी पगड़ी पर सोचा
छायाचित्रों में तुम नहीं तुम्हारी पगड़ी का होना न होना देखा
और हमने जाना कि यह वक्त तुम्हें नहीं तुम्हारे नाम को याद रखता है

हमारे वक्त में दुनिया बदलती नहीं किसी के आने-जाने से
चिंताएँ, हँसी मजाक, दूरदर्शन, खेलकूद
सब चलते रहते हैं
ब्रह्मांड के नियमों अनुसार
यह छायाओं का वक्त है
चित्र हैं छायाओं के जिनसे आँखें निकाल दी हैं वक्त के जादूगरों ने

रंग दे बसंती गाते हुए हर कोई सीना ठोकता है
और फिर या तो जादूगरों की जंजीरों में गला बँधवा लेता है
या दृष्टिहीन छायाओं में खो जाता है
गीत गाता हुआ आदमी मूक हो जाता है
गाँव के पास से गुज़रते हुए
देखता हूँ गाँव अब शहर बन रहा है
आस पास जो झंडे लगे हैं
वह जिन हवाओं में लहरा रहे हैं
उनमें खरीद फरोख्त के मुहावरे हैं

बीच सड़क गुज़रते हुए
सीने से लगाता हूँ बचपन की स्मृति
तमाम मायावी झंडों के बीच आज़ाद लहरा रही है मेरी स्मृति
बूँद जो अब होंठों पर खारापन ला चुकी है
उँगलियों से उसे समेटता हूँ

फिर दिखने लगते हैं परचम
जिनमें तुम्हारी आँखें है
जो इक अलग तर्ज़ में बसंती रंग में रँग जाती हैं
जिस्म में फैले पचास वर्षों में मिले अनगिनत घाव।

गाँव पीछे छूट गया
साथ रह गए तुम कभी न छूटने वाले इन घावों में

सबको जेल में डाल दो 

हम सबको बंद कर लो, सरकार बहादुर
हम सब कभी कभी गलती से भले खयाल सोच लेते हैं।
हमने जेल में नक्सलियों से मुलाकात नहीं की
गाँधी को भी नहीं देखा, पर क्या करें जनाब
आते जाते इधर उधर की चर्चियाते
कोई न कोई अच्छी बात दिमाग में आ ही जाती है।
साँईनाथ, अरुंधती राय, अग्निवेश अभी बाहर खड़े हैं,
हममें से कोई कुछ पढ़ा रहा है, कोई गीत गा रहा है,
कोई और कुछ नहीं तो मंदिर मस्जिद जा रहा है।
हम सबको बंद कर लो, सरकार बहादुर
हम सब देश के लिए खतरनाक हैं

हमें गरीबी पसंद नहीं, पर गरीब पसंद हैं
हम यह तो नहीं सोचते कि गरीबों को पंख लग जाएँ
पर यह चाहते हैं कि गरीब भी इतना खा सकें कि
वे कविताएँ पढ़ने लगें
इतनी खतरनाक बात है यह
कानून की नई धाराएँ बनाइए मालिक
हमें बाहर न रखें, देश को देश से बचाएँ
बहुत बड़ा सा जेल बनाएँ, जिसमें हमारे अलावा
आस्मान भी समा जाए, इतनी रोशनी
न होने दो सरकार कि किसी को
दाढ़ी वाली मुस्कराती शक्ल दिख सके।

पिता

वह गंदा सा चुपचाप लेटा है
साफ सफेद अस्पताल की चादर के नीचे
मार खाते खाते वह बेहोश हो गया था
उसकी बाँहें उठ नहीं रही थीं ।

धीरे चुपचाप वह गिरा
पथरीली ज़मीन पर हत्यारों के पैरों पर ।

सिपाही झपटा
और उसका बेहोश शरीर उठा लाया
उसकी भी तस्वीर है अखबारों में
मेरे ही साथ छपी
मैं बैठा वह लेटा
चार बाई पाँच में वह पिता मैं बेटा ।

ठंडी हवा और वह

ठंडी हवा झूमते पत्ते
सदियों पुरानी मीठी महक
उसकी नज़रें झुकीं
वह सोचती अपने मर्द के बारे में ।

बैठी कमरे में खिड़की के पास
हाथ बँधे प्रार्थना कर रही
थकी गर्दन झुकी
वह सोचती अपने मर्द के बारे में ।

शहर के पक्के मकान में
गाँव की कमज़ोर दीवार के पास
दंगों के बाद की एक दोपहर
वह सोचती अपने मर्द के बारे में ।

हमारा समय

बहुत अलग नहीं सभ्य लोगों के हाल और चाल।
पिछली सदियों जैसे तीखे हमारे दाँत और परेशान गुप्तांग।

अलग अलग चेहरों में एक चेहरा
वह एक चेहरा हार का
नहीं, ज़िंदगी से हारना क्लीशे हो चुका
वह चेहरा है मौत से हार का
मौत की कल्पना उस चेहरे पर
कल्पना मौत के अलग अलग चेहरों की
वहाँ खून है, सूखी मौत भी
वहाँ दम घुटने का गीलापन
और स्पीडी टक्कर का बिखरता खौफ भी

ये अलग चेहरे हमारे समय के ईमानदार चेहरे
जो बच गए दूरदर्शन पर आते मुस्कराते चेहरे
दस-बीस सालों तक मुकदमों की खबरें सुनाएँगें
धीरे-धीरे ईमानदार लोग भूल जाएँगे वे चेहरे

अपने चेहरों के खौफ में खो जाते ईमानदार चेहरे।

विद्रोही असभ्य जंगली गुलाब जड़ से उखाड़ते है पर मशीनों से अब
लाचार बीमार पौधे पसरे हैं राहों पर उसी तरह राहें जो पक्की हैं
सदी के अंत में अब।

लड़ाई हमारी गलियों की

किस गली में रहते हैं आप जीवनलालजी
किस गली में

क्या आप भी अखबार में पढ़ते हैं
विश्व को आंदोलित होते

आफ्रिका, लातिन अमेरीका
क्या आपकी टीवी पर
तैरते हैं औंधे अधमरे घायलों से
दौड़कर आते किसी भूखे को देख
डरते हैं क्या लोग – आपके पड़ोसी
लगता है उन्हें क्या
कि एक दक्षिण अफ्रीका आ बैठा उनकी दीवारों पर

या लाशें एल साल्वाडोर की
रह जाती हैं बस लाशें
जो दूर कहीं
दूर ले जाती हैं आपको खींच
भूल जाते हैं आप
कि आप भी एक गली में रहत हैं

जहाँ लड़ाई चल रही है
और वही लड़ाई
आप देखते हैं

कुर्सी पर अटके
अखबारों में लटके
दूरदर्शन पर

जीवनलालजी
दक्षिण अफ्रीका और एल साल्वाडोर की लड़ाई
हमारी लड़ाई है।

दुःख के इन दिनों में

छोटे छोटे दुःख बहुत हेते है
कुछ बड़े भी हैं दुःख
हमेशा कोई न कोई
होता है हमसे अधिक दुःखी

हमारे कई सुख
दूसरों के दुःख होते है
न जाने किन सुख दुःखों
के बीज ढोते हैं
हम सब

सुख दुःखों से
बने धर्म
सबसे बड़ा धर्म
खोज आदि पिता की
नंगी माँ की खोज
पहली बार जिसका दूध हमने पिया

आदि बिन्दु से
भविष्य के कई विकल्पों की
खोज
जंगली माँ के दूध से
यह धर्म हमने पाया है
हमारे बीज अणुओं में
इसी धर्म के सूक्ष्म सूत्र हैं

यह जानने में सदियाँ गुजर जाती हैं
कि इन सूत्रों ने हमें आपस में जोड़ रखा है

अंत तक रह जाता है
सिर्फ एक दूसरे के प्यार की खोज में
तड़पता अंतस्
आखिरी प्यास
एक दूसरे की गोद में
मुँह छिपाने की होती है

सच है
जब दुःख घना हो
प्रकट होती है
एक दूसरे को निगल जाने की
जघन्य आकांक्षा
इसके लिए
किसी साँप को
दोषी ठहराया जाना जरूरी नहीं

आदि माँ की त्वचा भूलकर
अंधकार को हावी होने देना
धर्म को नष्ट होने देना है

अपनी उँगलियों को उन तारों पर चलने दो
जो आँखें बिछा रही हैं
फूल का खिलना
बच्चे का नींद में मुस्कराना
न जाने कितने रहस्यों को
आँखें समझती हैं
आँखों के लिए भी सूत्र हैं
जो उसी अनन्य सम्भोग से जन्मे हैं

अँधेरा चीरकर
आँखें निकालेंगी
आस्मान की रोशनी
दुःख के इन दिनों में
धीरज रखो
उसे देखो
जो भविष्य के लिए
अँधेरे में निकल पड़ा है
उसकी राहों को बनाने में
अपने हाथ दो
हवा से बातें करो
हवा ले जायेगी नींद
दिखेगा आस्मान। (१९८९)

एक दिन में कितने दुख

एक दिन में कितने दुःख मुझे सहला सकते हैं
मैं शहर के व्यस्त चौराहे पर देखता हूँ
अदृश्य मानव संतान खेल रहे हैं
गिर रहे हैं मोपेड स्कूटरों पर पीछे बैठी सुंदर युवतियों पर
चवन्नी अठन्नी के लिए
मैं नहीं देखता कि मेरे ही बच्चे हैं वह
डाँटता हूँ कहता हूँ हटो
नहीं उतरता सड़क पर सरकार से करने गुहार
कि मेरे बच्चों को बचाओ
मैं बीच रात सुनता हूँ यंत्रों में एक नारी की आवाज
अकेली है वह बहुत अकेली
कोई नहीं है दोस्त उसका
कहता हूँ उसे कि मैं हूँ
भरोसा दिलाता हूँ दूसरों की तरफ से
पर वह है कि न रोती हुई भी रोती चली है
इतनी अकेली इतनी सुंदर वह औरत
रात की रानी सी महकती बिलखती वह औरत
औरत का रोना काफी नहीं है
यह जताने रोता है एक मर्द
जवान मर्द रोता है जीवन की निरर्थकता पर कुछ कहते हुए
भरोसा देता हूँ उसे पढ़ता हूँ वाल्ट ह्विटमैन
‘आय सेलीब्रेट माईसेल्फ….’

मुग्ध सुनता है वह एक बच्चे के कवि बनने की कहानी
एक पक्षी का रोना एक प्रेमी का बिछुड़ना
पढ़ते हुए मेरी आँखों से बहते हैं आँसू
हल्की फिसफिसाहट में शुक्रिया अदा करता हूँ कविता का
चलता हूँ निस्तब्ध रात को सड़क पर
कवि का जीवन जीते
बहुत सारे दुःखों को साथ ले जाते हुए।

भू भू हा हा

दिन ऐसे आ रहे हैं
सूरज से शिकवा करते भी डर लगता है

किसी को कत्ल होने से बचाने जो चले थे
सिर झुकाये खड़े हैं
दिन ऐसे आ रहे हैं

कोयल की आवाज़ सुन टीस उठती
फिर कोई गीत बेसुरा हो चला
दिन ऐसे आ रहे हैं

भू भू हा हा ।

रोशनी 

कभी कभी तारों भरा आस्माँ देख
थक जाता हूँ।

इत्ती बड़ी दुनिया
छोटा मैं

फिर खयाल आता है
तारे हैं
क्योंकि वे टिमटिमाते हैं

रोशनी देख सकने की ताकत का अहसास
मुझे एक तारा बनने को कहता है

तब आस्माँ बहुत सुंदर लगता है।

अभी समय है

अभी समय है
कि बादलों को शिकायत सुनाएँ
धरती के रुखे कोनों की
मुट्ठियाँ भर पीड़ गज़ल कोई गाएँ

अभी समय है
आषाढ़ के रोमांच का मिथक
यह रिमझिम भ्रमजाल हटाएँ
सहज दिखता पर सच नहीं जो
सब झूठ है सब झूठ है चिल्लाएँ

अभी समय है
बिजली को दर्ज़ यह कराएँ
बिकती सड़कों पर सौदामिनी
उसकी गीली रात भूखी है
सिहरती बच्ची के बदन पर
शब्द कुछ सही बिछाएँ

अभी समय है
कुछ नहीं मिलता कविता बेचकर
कविता में कुछ कहना पाखंड है
फिर भी करें एक कोशिश और
दुनिया को ज़रा और बेहतर बनाएँ।

बड़े शहर की लड़कियाँ 

शहर में
एक बहुत बड़ा छोटा शहर और
निहायत ही छोटा सा एक
बड़ा शहर होता है

जहाँ लड़कियाँ
अंग्रेज़ी पढ़ी होती हैं
इम्तहानों में भूगोल इतिहास में भी
वे ऊपर आती हैं
उन्हें दूर से देखकर
छोटे शहर की लड़कियों को बेवजह
तंग करने वाले आवारा लड़के
ख्वाबों में – मैं तुम्हारे लिए
बहुत अच्छा बन जाऊँगा –
कहते हैं

ड्राइवरों वाली कारों में
राष्ट्रीय स्पर्धाओं में जाती लड़कियाँ
तन से प्रायः गोरी
मन से परिवार के मर्दों सी
हमेशा गोरी होती हैं

फिल्मों में गोरियाँ
गरीब लड़कों की उछल कूद देखकर
उन्हें प्यार कर बैठती हैं
ऐसा ज़िंदगी में नहीं होता

छोटे शहर की लड़कियों के भाइयों को
यह तब पता चलता है
जब आईने में शक्ल बदसूरत लगने लगती है
नौकरी धंधे की तलाश में एक मौत हो चुकी होती है
बाकी ज़िंदगी दूसरी मौत का इंतज़ार होती है

तब तक बड़े शहर की लड़कियाँ
अफसरनुमा व्यापारी व्यापारीनुमा अफसर
मर्दों की बीबियाँ बनने की तैयारी में
जुट चुकी होती हैं

उनके बारे में कइयों का कहना है
वे बड़ी आधुनिक हैं उनके रस्म
पश्चिमी ढंग के हैं
दरअसल बड़े शहर की लड़कियाँ
औरत होने का अधकचरा अहसास
किसी के साथ साझा नहीं कर सकतीं
इसलिए बहुत रोया करती हैं
उतना ही
जितना छोटे शहर की लड़कियाँ
रोती हैं

रोते रोते
उनमें से कुछ
हल्की होकर
आस्मान में उड़ने
लगती है
ज़मीन उसके लिए
निचले रहस्य सा खुल जाती है

फिर कोई नहीं रोक सकता
लड़की को
वह तूफान बन कर आती है
पहाड़ बन कर आती है
भरपूर औरत बन कर आती है
अचंभित दुनिया देखती है
औरत।

चिढ

मैं चिढ़ता हूँ तो मेरी दुनिया भी चिढ़ती रहती है
मेरी दुनिया को चिढ़ है और दुनियाओं से
मेरी चिढ़ मेरी दुनिया भर की चिढ़ है
दुनिया भर की चिढ़ को सँभालना कोई आसान काम तो नहीं है
मैं हार गया हूँ
अपनी चिढ़ को किसी अदृश्य थाल पर लिए चलता हूँ

तुम बतलाते हो कि मैं चिढ़ कर बोलता हूँ
तो मुझे पता चलता है कि मैं चिढ़ कर बोलता हूँ
मैं किसी और से कहता होऊँगा कि वह चिढ़ कर बोलता है
वह किसी और से
यह सिलसिला चलता ही रहता है
बहुत सारी चिढ़ का पहाड़ ढोते हैं हम सब मिलकर

मैं क्यों चिढ़ता रहता हूँ
ऐसा नहीं कि मैं चिढ़ कर खुश होता हूँ
मैं तो सबसे मीठी बातें करता हूँ
कोई और चिढ़ रहा हो तो उसे भी सहलाता हूँ
तो मैं क्यों चिढ़ता रहता हूँ

ऐसा क्यों नहीं करते कि हम यह सारी चिढ़
इकट्ठी कर अमरीका के राजदूत को या हमारे
मुल्क को पाकिस्तान बनाने में जुटे मोदी सरीखों को दे दें

हो सकता है हमारे उपहार को देख वे खूब हँसें
कम से कम हमारी चिढ़ इस काम तो आएगी

या यूँ करें कि यह सारी चिढ़
किसी सभ्य कवि को दे आएँ
या किसी को जो माँग करता है कि कविता में
गाँव होना ही चाहिए

चिढ़ की पूँजी
बाँटते रहें तो कम नहीं होती
यह बात शीशे से टकराती चिड़ियों से
जानी है मैंने
वही पुरुष चिढ़
बाँटता चला हूँ।

छोटे शहर की लड़कियाँ 

कितना बोलती हैं
मौका मिलते ही
फव्वारों सी फूटती हैं
घर-बाहर की
कितनी उलझनें
कहानियाँ सुनाती हैं

फिर भी नहीं बोल पातीं
मन की बातें
छोटे शहर की लड़कियाँ

भूचाल हैं
सपनों में
लावा गर्म बहता
गहरी सुरंगों वाला आस्मान है
जिसमें से झाँक झाँक
टिमटिमाते तारे
कुछ कह जाते हैं

मुस्कराती हैं
तो रंग बिरंगी साड़ियाँ कमीज़ें
सिमट आती हैं
होंठों तक

रोती हैं
तो बीच कमरे खड़े खड़े
जाने किन कोनों में दुबक जाती हैं
जहाँ उन्हें कोई नहीं पकड़ सकता

एक दिन
क्या करुँ
आप ही बतलाइए
क्या करुँ
कहती कहती
उठ पड़ेंगी
मुट्ठियाँ भींच लेंगी
बरस पड़ेंगी कमज़ोर मर्दों पर
कभी नहीं हटेंगी

फिर सड़कों पर
छोटे शहर की लड़कियाँ
भागेंगी, सरपट दौड़ेंगी
सबको शर्म में डुबोकर
खिलखिलाकर हँसेंगी

एक दिन पौ सी फटेंगी
छोटे शहर की लड़कियाँ।

हम हैं 

पहले उन्होंने कहा – भ्रम है तुम्हें, हार तुम्हारी होगी
आसपास थी वीरानी फैल रही
अनमने से उसे जगह दे रहे
बचे खुचे झूमते पेड़
हम देर तक नाचते
चलते चले पेड़ों की ओर

वे आए
अट्टहास करते हुए बोले
देखते नहीं हार रहे हो तुम

जाने क्या था नशा
हमारे बढ़े हाथों को मिलते चले हाथ
गीतों के लफ्जों में ऊपर चढ़ने
रास्तों के पास बैठने की जगहें बनीं
जहाँ रामलीला की शाम मटरगश्ती से लेकर
बचपन में छिपकर बागानों से
आम चुराने की कहानियाँ सुनानी थीं हमने
एक दूसरे को

इस बार कहा उन्होंने गहरी चिंता के साथ
हार चुके तुम
हार रहे हो
हारोगे हारोगे

एक चेहरा बचा था मुस्कराता हरेक के पास
एक ही बचा था गीत
समवेत हमारे स्वर उठे
बिगुल बजाया किसी न किसी ने
एक के बाद एक सारी रात

रात है
अँधेरा है
हम हैं हम हैं
जी हाँ
हम हैं।

नीचे को ही ढो रहा हूँ ऊपर का धोखा देते हुए

क्या महज संपादित हूँ

अगर चढ़ रहा हूँ ऊँचाई पर
तो कभी नीचे रहा हूँगा
झाँक कर देखूँ
वह क्या था जो नीचे था

क्या सचमुच आ गया हूँ ऊपर
या जैसे घूमते सपाट ज़मीं पर किसी परिधि पर
वैसे ही किसी और गोलक के चक्कर काट रहा हूँ
क्या महज संपादित हूँ या सचमुच बेहतर लिखा गया हूँ
जो अप्रिय था उसे छोड़ आया हूँ कहीं झाड़ियों में
या दहन हो चुका अवांछित, साधना और तपस में

ऊपर से दिखता है नीचे का विस्तार
बौने पौधे हैं ऊपर छाया नहीं मिलती जब तीखी हो धूप
नीचे समय की क्रूरता है हर सुंदर है गुजर जाता एकदिन
ऊपर अवलोकन की पीड़
संगीत में दिव्यता; गूँज, परिष्कार हवा
नहीं हैं विकार

ऊपर कब तक है ऊपर
एकदिन ऊपर भी दिखता है नीचे जैसा
बची खुची चाहत सँजोए फिर चढ़ने लगता हूँ कहीं और ऊपर
जानते हुए भी कि कुछ भी नहीं छूटा सचमुच
नीचे को ही ढो रहा हूँ ऊपर का धोखा देते हुए

कहिए कि क्या बात है

रोशनी में दिखती हर चीज़ साफ है, पर कहने को बात होती इक रात है
सुध में जुबां चलती लगातार है, जरा सी पी ली तो कहिए कि क्या बात है

इसकी सुनी उसकी सुनी सबकी सुनी, दिन भर सुनी सुनाई सुनते रहे
दिन भर दिल यह कहता रहा कि कुछ तुम्हारी भी सुनें कि क्या बात है

मिलता ही रहा हूँ हर दिन तुमसे, कैसी आज की भी इक मुलाकात है
क्या दर्ज़ करूँ क्या अर्ज़ करुँ, ऐ मिरे दोस्त क्या कहूँ कि क्या बात है

मुफलिसी से परेशां हम हैं सही, अब देखो कि यह घनी बरसात है
कुछ तो चूएगा पानी छत से, कुछ आँखों से कहो कि क्या बात है

बहुत हुआ दिन भर की सियासत दिन भर दौड़धूप, अब तो रात है
अब मैं, तुम, शायर मिजाज़ शब-ए-ग़म, अब कहिए कि क्या बात है

दोस्तों को लग चुका है पता कि हम भी क्या बला क्या चीज़ हैं
कमाल लाल्टू कि ज़हीन इतने, कहते कि क्या बात है क्या बात है।

छुट्टी का दिन

गर्म दाल-चावल खाने की प्रबल इच्छा उँगलियों से चलकर होंठों से होती हुई शरीर के सभी तंत्रों में फैलती है।
यह उसकी मौत का दिन है।
एक साधारण दिन जब खिड़की से कहीं बाल्टी में पानी भरे जाने की आवाज़ आ रही है।
सड़क पर गाड़ियों की तादाद और दिनों से कम है कि याद आ जाए यह छुट्टी का दिन है।

हर सुबह रेत बनता प्राण 

हर सुबह उठते ही जब सोचता हूँ कि कपड़ा ठीक से पहन लूँ कि बाई चांस कोई खिड़की से देख न ले,
अख़बार धड़ाम से आ जताता है कि कहीं कोई फिर चीख़ा है कोई गरजा है
कि मनुष्य जंगली जानवर है
अब पूछते हो शाम होते ही मैं कहीं छिपा क्यों होता हूँ

जो देखता हूँ मस्तिष्क के किन दरवाज़ों में जा बसता है
जो सोचता हूँ वह रुक जाता है किसी और दरवाज़े पर
यूँ मकसद बनता है चमकीले दृश्यों का
बार-बार यही देख रहा धरती के कोनों से आई चीख़ों में

इसी बीच सुनता हूँ पक्षियों का कलरव
हाइवे पर दौड़ती गाड़ियों की साँ-साँ
समय का शून्य भरता है इस तरह
बदलता है कुछ एक पल और दूसरे पल के दरमियान
चलता रहता हूँ एक जगह पर थमा हुआ
अंजान लोगों को दुख बाँटता हुआ

मैं कैसे किसी को रोक लूँ
कि वह दुखों की चादर न ओढ़ ले
मैं स्वयं दखों का सागर हूँ
उत्ताल तरंगों में दुखों के छींटें बिखेरता हूँ
अंतहीन तटों में कण-कण बरसता है दुख
रेत बनता प्राण
बार-बार मुझसे गीला होता हुआ।

वह औरत रोक रही है उसे

खिड़की खोलता हूँ
देखता है मोर गर्दन टेढ़ी कर
चीख़ता जोर से
मोदी को फाँसी दो

हम हिसाब लगाते हैं
नहीं हिटलर मोदी से भी बुरा था
हम जेबें टटोलते हैं
मोदी की वजह से मालोमाल होते हैं

यह तो वही जानता है
जो मोदी के खेल में खो गया है
कि एक मोदी की कीमत कितनी भयानक है
कि एक ऐसा हिसाब है यह
जो कभी पूरी तरह हल नहीं होता

खुली खिड़की के पार मोर
कहीं दूर चला गया है
कहीं दूर जहाँ एक औरत
आज तक ढूँढ रही है
बहुत पहले खो गया पति का चेहरा

सुनो वह औरत रोक रही है उसे
जो मोदी के साथ खेलने निकला है ।

हर क्षण

हर क्षण एक संवाद मेरे लिए इंतज़ार करता है
हर क्षण एक सपना जीता है एक सपना मरता है

हर क्षण एक क्षण की हत्या करता हूँ
हर क्षण एक हत्यारे पर कविता लिखता हूँ

हर क्षण जानता हूँ
प्यार की तरह नफ़रत भी है इंसान की फ़ितरत
हर क्षण यूँ एक साधारण क्षण बनता हूँ ।

जंग किसी के लिए वांछनीय नहीं होती

जंग किसी के लिए वांछनीय नहीं होती
जंग में मरते हैं अनगिनत सपने
जंग में मरते हैं हाथी घोड़ा पालकी
जंग छिड़ती है तो आसमान काला हो जाता है
हैं झूठ जो कथाएँ सुनीं तलवार और ढाल की

ओ जंगख़ोरो ! तुम कितना मुनाफ़ा चाहते हो
गया ज़माना कि जादू चला जाए तुम्हारा बयान
लोग डरते हैं पर जानते हैं सारा सच
इसलिए करते हैं विरोध बार-बार
लाचार सुन अंतरात्मा की तड़प

इसलिए ऐ आसमानी चित्त वालो !
बैठ जाओ, मरना तुम्हें भी है एक दिन
मत मरवाओ इतने लोगों को
बढ़ाओ न मुनाफ़ा तुम लाशें गिन-गिन।

लौट कर लिखनी थी कविता जो

यह जो जंग छिड़ी है छत्तीसगढ़ काश्मीर या पाकिस्तान में
इस जंग में कौन सा ईश्वर लड़ रहा किस ईश्वर के खिलाफ़

एक ईश्वर जो चेहरा नहीं दिखाता
एक ईश्वर जो कपड़े नहीं उतारता

एक ईश्वर जिसके बारे में दावा किया गया है कि
वह हुसैन से नाख़ुश घूम रहा है

चलो शामिल हों पुरज़ोर ईश्वरवादी बहसों में
और मूँद लें आँखें इस आँकड़ें से कि
तैंतीस करोड़ धन चार या पाँच ईश्वरों वाले इस मुल्क में
इससे भी ज़्यादा तादाद में लोग हैं भुखमरी के शिकार
दो सौ की दारू की बोतल ख़रीद घर वापस चलते डाँटें
रिक्शा वाले को कि वह दो रुपए ज़्यादा क्यों माँगता है

नाराज़ हों कि साले मूड बिगाड़ देते हैं और गड़बड़ा देते हैं
लौट कर लिखनी थी कविता जो पोलैंड या स्वीडेन के कवियों के तर्ज़ पर।

मैं अब और दुखों की 

1
मैं अब और दुःखों की बात नहीं करना चाहता
दुःख किसी भी भाषा में दुनिया का सबसे गंदा शब्‍द है
एक दुःखी आदमी की शक्‍ल
दुनिया की सबसे गंदी शक्‍ल है
मुझे उल्‍लास शब्‍द बहुत अच्‍छा लगता है
उल्‍लसित उच्‍चरित करते हुए
मैं आकाश बन जाता हूँ
मेरे शरीर के हर अणु में परमाणु होते हैं स्‍पंदित
जब मैं कहता हूँ उल्‍लास।

2
कौन सा निर्णय सही है
शास्‍त्रीय या आधुनिक
उत्तर या दक्षिण
दोसा या ब्रेड
सवालों से घिरा हूँ

3
चोट देने वाले को पता नहीं कि वह चोट दे रहा है
जिसे चोट लगी है वह नहीं जानता कि चोट थी ही नहीं
ऐसे ही बनता रहता है पहाड़ चोटों का
जो दरअस्‍ल हैं ही नहीं
पर क्‍या है या नहीं
कौन जानता है
यह है कि दुःखों का पहाड़ है
जो धरती पर सबसे ऊँचा पहाड़ है
संभव है उल्‍लास का पहाड़ भी ऊँचा हो इतना ही
जो आँख दुःखों का पहाड़ देखती है वह
नहीं देख पाती मंगल मंदिर
यह नियति है धरती की
कि उसे ढोना है दुःखों का पहाड़।

4
जो लौटना चाहता है
कोई उसे समझाओ कि
लौटा नहीं जा सकता
अथाह समंदर ही नहीं
समांतर ब्रह्माण्‍ड पार हो जाते हैं
जब हम निर्णय लेते हैं कि
एक दुनिया को ठेंगा दिखाकर आगे बढ़ना है
लौटा नहीं जा सकता ठीक ठीक वहाँ
जहाँ वह दुनिया कभी थी
यह विज्ञान और अध्‍यात्‍म की अनसुलझी गुत्‍थी है
कि क्‍यों नहीं बनते रास्‍ते वापस लौटने के
क्‍यों नहीं रुकता टपकता आँसू और चढ़ता वापस
आँख की पुतली तक।
शाम अँधेरे
आदमी बढ़िया था
कभी न कभी तो उसने जाना ही था
कब तक झेल सकता है आदमी धरती का भार
धरती आदमी से बहुत-बहुत बड़ी और भारी है
शाम अँधेरे अक्‍सर आती है उसकी याद।
तुम कैसे इस शहर में हो
तुम कैसे इस शहर में हो
तुम्‍हारी बातें किन ग्रहों से आई हैं समझ नहीं पा रहा
हो सकता है ये अतीत की हों या भविष्‍य की भी हो सकती हैं
तुम ऐसे समय की हो जब दुनिया में मान्‍यताएँ नहीं होती थीं
तुम्‍हारी आँखें छोटी हैं रंगीन नहीं हैं
कोई सुरमा भी नहीं लगा है
तुम्‍हारे होंठों पर शाम का हल्‍का अँधेरा है
जो बार बार मेरी नज़र खींच रहा है
और मैं देखता हूँ तुम्‍हारी बातों से बनता है
एक ऐसा संसार जो अँधेरे से निकलने के लिए छटपटा रहा है
तुम्‍हारे गाल थोड़े लाल हैं
थोड़े फूले से बच्‍चों जैसे
और बातें करते हुए उनमें
कहीं कहीं घाटी सी बनती है
और तुम्‍हें अंदाज़ा नहीं है कि
कि तुम्‍हारी बातों का सौंदर्य खींचता है
मुझे तुम्‍हारी आँखों से गालों तक
क्‍या मैं ही हूँ जो किसी और ग्रह से आया हूँ
और नहीं दिखता तुम्‍हें मेरा यूँ फिसलना
एक दिन तुम कहोगी कि अब और नहीं योजनाएँ
एक दिन तुम कहोगी कि कुछ करने का वक्‍त आ गया है
एक दिन तुम लिख डालोगी पूरा पूरा उपन्‍यास
एक दिन तुम निकल आओगी मृत्‍यु से जीवन की ओर
फिलहाल मेरा ध्‍यान तुम्‍हारे होंठों पर ही है
तुम्‍हारी बातों के साथ-साथ पहुँच रही है मुझ तक
तुम्‍हारी छटपटाहट
तुम्‍हें जानने के बाद से मेरे मन में
कहीं गूँज रही है आवाज़ कि
इस अँधेरे से हम निकलेंगे साथ-साथ।

सुबह तुम्‍हें सौंपी थी थोड़ी सी पूँजी 

सुबह तुम्‍हें सौंपी थी थोड़ी सी पूँजी
विद्युत चुंबकीय तरंगों के जरिए
सुबह की पूँजी सारे दिन चलाती है मन की गाड़ी
दिन भर मुस्‍कुराती हो तुम
डर लगता है कि इतना काफ़ी नहीं है
और फिर मेरे प्‍यार की मिठास बँटती भी तो होगी
हर प्राण लेता होगा मेरे चुंबन का एक टुकड़ा
प्‍यास लगती होगी तुम्‍हें तो कहाँ जाती होगी तुम
डर लगता है कि मेरी छुअन की तड़प में तुम
पेड़ों को सुनाती होगी दुखड़े
कैसे रोकूँगा पेड़ों को तुम्‍हारे आँसू पोंछने से
कैसे कहूँगा कि ये अश्‍क सिर्फ़ मेरे लिए हैं
डरता डरता हवा में उछालता हूँ अनगिनत चुंबन।
हिन्‍दुस्‍तान जाग रहा है
हाई बीम सामने के काँच पर टकराकर आँखें चौंधियाती है
तकरीबन दृष्‍टिहीन सा चलाता हूँ गाड़ी
लौटते हुए देखता हूँ हिन्‍दुस्‍तान जाग रहा है
मेरी पहली चिंता सुरक्षित घर पहुँचने की है

जागते हुए हिन्‍दुस्‍तान को देखना
इंसान की बुनियाद से वाकिफ़ होना है
रेंगता हुआ शहर जागता है
रेंगते हुए शहर के बाहर के इलाके बन रहे हैं शहरी इलाके
रेंग रहा है हिन्‍दुस्‍तान एक लिजलिजे गिरगिट की तरह

घर लौटने तक सुबह का उजियारा आने को है
खिड़की खोलने पर दिखता है पिछवाड़े का छोटा सा जंगल
जैसे गलती से बचा हुआ एक जीवन का कोना
गलती से बची हुई हवा
गलती से बचे हुए हैं कुछ पक्षी यहाँ
जाग रहा है पिछवाड़े में गलती से बचा हुआ
हिन्‍दुस्‍तान का जीवन।

पेशोपेश परस्‍पर

पशोपेश
शब्‍द ही ऐसा है कि
आप थोड़ी देर सोचते रहें
क्‍या क्‍यों कैसे

परस्‍पर भी शब्‍द है एक और को
पास लाने की अनुभूति देता हुआ
भले ही चीख रहे हों दो पास आए होंठ

जब आदमी पशोपेश में हो
तो किधर जाए
इन दिनों कहीं कोई जगह नहीं बची
लोग इस तरह हैं चारों ओर जैसे समंदर में खारा पानी
परस्‍पर बंद किए दरवाज़े हैं कि खुलते ही नहीं
सड़कों पर चलते जाइए और देर हो जाती है
जब जानते हैं कि एक ही जगह में खड़े हैं

शुक्र है कि शब्‍द हैं
कहीं लिखे जाते हैं
कोई पढ़ता भी है
इस तरह परस्‍पर जूझते हैं हम पशोपेश की स्‍थिति से।

कोई कहीं बढ़ रहा है

कोई कहीं बढ़ रहा है
पाँव पाँव क़दम क़दम बढ़ रहा है मानव शिशु
कोंपल कोंपल पत्ता पत्ता बढ़ रहा पौधा
तितली बनने को बढ़ रहा है कीट
जो दिख रहा है
उससे भी अधिक कुछ दिखता है
जो चलता है चलने के पहले चलता है मन ही मन वह।

दाढ़ी बढ़ते रहने पर 

दाढ़ी के बढ़ते रहने पर एतराज़ किया है जयंती ने

दाढ़ी बढ़ती है तो आईने में बढ़ता आकार
उँगलियों को मिलता है खुजलाने का व्‍यायाम
दोस्‍तों को मिलता है दोस्‍त दार्शनिक
दाढ़ी का व्‍यापक है कारोबार

मैंने इस शर्त पर कि वह मेरे साथ डांस करने जाएगी
दाढ़ी छोटी करवाने का वादा किया है।

दढ़ियल दरख्‍़त हूँ
चलते हुए भी अचल

बढ़ी दाढ़ी देखते ही आ पहुँची है आँखों पर ऐनक
देख रहा हूँ दाढ़ी ढकी मुस्‍कान लिए
दुनिया के रंग

दाढ़ी खुजलाते हुए सोच रहा हूँ
जयंती को डांस पर चलने की याद दिलाना है।

वह जब आता है

वह जब आता है
हर बात होती उसके हाथ

वह आता है तो लंबे समय तक रहता है साथ
जो कुछ भी पढ़ता लिखता हूँ
उसके कहने पर ही करता हूँ
वह होता है हवा की नमी
सड़क की धूल या पिछवाड़े से आती
झींगुर, मेंढक और चिड़ियों की आवाज़ों में

देर रात उसे पुकारता हूँ
सुबह भी वही है
वह है भी और नहीं भी
इस वक़्‍त लिखता हुआ ढूँढ़ रहा हूँ उसे
कौन क्‍या से परे है सवाल उसे लेकर
सड़कों गलियों से गुजरते हुए चीखता हूँ,
‘कहाँ हो?’

वह होता है हर जो कुछ है में
वह होता है उनमें भी जो नहीं हैं
वह होता है उस अहसास में
जो लंबे समय से गौरैया के न दिखने से उगता है

नहाते हुए अचानक ही आती है उसकी याद
घबराकर देखता हूँ चिटकनी ठीक से लगी है या नहीं
काम काज में लगा चौंक सा जाता हूँ
दिल पर हाथ थामे गिनता हूँ धड़कने
गुब्‍बार सा फूटता है आँसुओं का
‘कहाँ हो?’

निर्दयी से भी भयंकर है उसकी पहचान
उसकी उपस्‍थिति है मेरे हर ओर
मेरी साँसों को बाँध रखा है उसने
अँधेरी गलियों से लौटता हूँ हर दिन
कहीं नहीं दिखता वह घोंटता है गला
निस्‍तब्‍ध रातों को चीखता हूँ
‘कहाँ हो?’

हालाँकि दिखता हूँ औरों को चिड़चिड़ा
उसके होने की कचोट में रस लेने लगा हूँ
कभी कभी गाता हूँ
उसके साथ अनजाने पहाड़ी गीत
सुनता हूँ दूर जंगलों से आती बाँसुरी की आवाज़
और लिखने देता हूँ उसे मेरी कविताएँ।

जाने के पहले

जाने के पहले उसने जो कुछ कहा था
उसके जाने के बाद डीकोड कर रही है औरत
कभी किसी फूल को छूकर उसने चाहा था
कि औरत उसे बाँध रखे बाँहों में
कभी खुली हवा में लंबी साँस लेते
वह उड़ना चाहता था औरत के साथ
कभी कहा था उसने कि औरत से दूर होकर वह मर जाएगा
औरत सोच रही है कि इस विज्ञान को क्‍यों नहीं किया था रब्‍त
ताकि रोक लेती उसे वह दूर होने से

जाने से पहले की बातों को सोचने के लिए
बाकी रह गई है औरत की ज़िन्‍दगी
सुबह से शाम और कभी कभी नींद में भी
औरत उसकी बातों को करती है याद
इस तरह वह गया नहीं है सचमुच
जैसे पहले बाँध रखा था औरत को उसने
तकरीबन उतना ही बंधी है वह अभी भी उससे।
वह आदमी बस के इंतज़ार में
वह आदमी बस के इंतज़ार में
सड़क के तकरीबन बीचों-बीच आ खड़ा है
वह आदमी बीड़ी पी चुका है और अब ज़रा सा हटकर थूक रहा है
वह आदमी मोपेड पर बैठा
अपनी हो सकती है प्रेमिका के साथ हँस कर बात कर रहा है
वह आदमी किताब बगल में थामे सोच रहा है
कि कितना अच्‍छा है शहरीकरण से
मजबूर हो जाते हैं लोग कुछ देर के लिए सही
जातपात भूलने को
वह आदमी भीड़ से चिढ़ते हुए बढ़ रहा क़दम क़दम

वह आदमी थक चुका है इतने सारे आदमियों से
और बना है आकाश
समेट लिया है उसने सभी आदमियों को
अपने घेरे में
बस आती है तो अकेली नहीं दुकेली आती है
दो बसों में चढ़ते हैं आदमी
दो बसों से उतरते हैं आदमी

आकाश बना आदमी देखता है आदमियों को
आदमी इधर आदमी उधर
फैलाता है जरा सा और अँधेरी चादर
वह आदमी बस के इंतज़ार में
सड़क के तकरीबन बीचोंबीच आ खड़ा है।

ढूँढ़ रहा है मोजे धरती के सीने में 

ढूँढ़ रहा है मोजे धरती के सीने में
किसने छिपाए होंगे उसके मोजे
गहरे गड्ढों में
वह आदमी
ढूँढ़ रहा है कविता जंगल जंगल
कौन है जो उसके छंद चुराए
छिपा हुआ जंगलों में
वह आदमी कितना अजीब है
जिसे यह नहीं पता कि मोजे और अल्‍फाज़
आदमी के बदन पर रेंगते हैं
आदमी है कि भटकता
बाहर ढूँढ़ता गली गली
जब जंगल होते हैं उसके इर्द गिर्द
और धरती का सीना खुला होता है
उसको बेतहाशा प्‍यार देने के लिए।

इसलिए लिख रहा हूँ

कहीं कुछ अघटन हुआ सा लगता है
थमी है हवा स्‍थिर हैं पेड़ों के पत्ते
ठंडक नहीं है पर सिहरन है
क्‍या हुआ है कहाँ हुआ है
कोई गलती की मैंने क्‍या
मेरा ही रूप है
मेरी प्रतिमूर्ति कहीं
ध्‍वंस और विनाश की राह पर
कैसे रोकूँ कौन सा तर्क दूँ
जानो पहले पत्ते कह रहे हिलते हुए
पहचानो खुद को
हवा आई है अचानक और छू गई है बदन
तुम्‍हारे अंदर घटित हो रहीं बहुत सी बातें
अनुभव करो कहती हुई आवाजें गुज़र रही हैं

इसलिए लिख रहा हूँ
बेचैनी से उबारता खुद को
और सिहरन की चाहत
बाँटता तुम्‍हें।

किस से किस को

वह अमरीका से आई है
अपनी कम्‍पनी की ओर से कुछ लूटने और
कुछ भीख माँगने के लिए
राजाओं और दरबारियों के बीच
तिरछी आँखों से जानना चाहती है
कि किससे माँगनी है भीख
और किसको है लूटना
क्‍या फ़र्क़ है भीख माँगने या लूटपाट में
बड़ी कम्‍पनियों के मालिक भी नहीं जानते
कबाब और शराब महज रणनीतियाँ हैं
जहाँ लाख एक फेंका है
वहाँ से पचास लाख लूटना है
इस तरह से बढ़ता है जीवन
राजाओं और दरबारियों के बीच फँसा है आदमी
समझने की कोशिश में है।
जब सारे भ्रम दूर हैं
जब सारे भ्रम दूर हैं
अपनी चारदीवारी के अंदर हूँ
यह कैसा भ्रम कि बात कर रहा हूँ खुद से
वही तो है जो आईने में है
वही है बिस्‍तर पर, वही है चादर तकिया
सपना नहीं, वही है जो आती है नींद परी।

दो कविताएँ तुम्‍हारे लिए

1)

इस मुर्झाए से दिन में
मैं खुद को कह रहा हूँ बार बार कि
खुश हो जाऊँ
कि तुम किस मक़सद से हो रही हो रूबरू
मैं कहता हूँ कि प्‍यार नहीं है सिर्फ़ चाहत वस्‍ल की
कि तुम जिन राहों पर चलना चाहती हो
उनकी मिट्टी को भी है चाहत तुम्‍हारे फूल से पैरों को
चूमने की

इस मुर्झाए से दिन में
अपनी सारी चिंताओं को कर रहा हूँ दरकिनार
कि अब तुम दूर जहाँ भी हो
बस में या बस के इंतज़ार में
तुम्‍हारे इर्द-गिर्द महक रहा है समाँ
तुम्‍हारा मुझसे दूर होना मेरी तड़प ही नहीं
यह खिलने की वजह है फूलों की कहीं।

2)

तुम्‍हारी आवाज़ जो कल शाम से लगातार दूर होती गई
मुड़ आई मुझ तक तो मैंने सुना कि
धरती पर हर बच्‍चा खिलखिला रहा है
मैंने देखा कि तुम फिर किसी गाँव के पास से गुज़र रही थी
और सस्‍ती बत्तियों की रोशनी में भी चमक रहे थे
तुम्‍हारे आँसू
मैंने हवा से कहा कि वह तुम्‍हें बता दे कि
मैंने खाना खा लिया है
मैंने ज़्‍यादा नहीं पी
खाना ज़्‍यादा खाया है पर कोई फ़िक्र की बात नहीं
और कि मेरी ही तरह तुम भी सोने की तैयारी करो।

मेरे सामने चलता हुआ वह आदमी

मेरे सामने चलता हुआ वह आदमी
बड़बड़ाता हुआ किसी से कुछ कह रहा है
अपनी बड़बड़ाहट और कान में बँधी तार में से आती कोई और आवाज़ के बीच
मेरे पैरों की आवाज़ सुनकर चौंक गया है और उसने झट से पीछे मुड़कर देखा है
मुझे देख कर वह आश्‍वस्‍त हुआ है
और वापस मुड़कर अपनी बड़बड़ाहट में व्‍यस्‍त हो गया है।
मैं मान रहा हूँ कि उसने मुझे सभ्‍य या निहायत ही कोई अदना घोषित किया है खुद से
जब मैं सोच रहा हूँ कि रात के तकरीबन ग्‍यारह बजे
उसकी बड़बड़ाहट में नहीं है कोई होना चाहिए प्रेमालाप
और है नहीं होना चाहिए बातचीत इम्‍तहानों गाइड बुकों के बारे में

उसकी रंगीन निकर की ओर मेरी नज़र जाती है
मैं सोचता हूँ उसकी निकर गंदी सी होती तो
उसके कान में तार से न बँधी होती बड़बड़ाहट
और उसकी आवाज़ होती बुदबुदाहट कोई गाली सही
पर प्‍यार होने की संभावना प्रबल थी

शाम का वह आदमी सुबह के एक एक्‍सीडेंट हो
चुके आदमी में बदल गया है
और इस वक़्‍त आधुनिक वाकर टाइप की बैसाखी
साइड में रख दीवार के सामने खड़ा हो पेशाब कर रहा है।

एक के हाथ में कटोरी भरी रेत है

एक के हाथ में कटोरी भरी रेत है और वह थोड़ा-थोड़ा हिलाकर रेत गिरा रहा है
दो चार इकट्ठे एक जगह शोध कर रहे हैं किसी पत्रिका के फटे पन्‍ने को लेकर
जो सबसे छोटा है वह अक्षरों को उलटा पढ़ रहा है
उसने ढूँढ लिए हैं अर्थ जो बाकियों के भेजे में नहीं आ रहे
यह देश उनके लायक नहीं है
इस देश के सुंदर दिखते भले लोग उनके लायक नहीं हैं
फिलहाल वे समर्पित शोधकर्त्ता हैं
ढूँढ रहे अर्थ इस अर्थहीन क्रूर बर्बर दुनिया में
कहता हूँ कि एक दिन अर्थ आएँगे उन्‍हीं शब्‍दों से
जो आज उनके समक्ष लेटे हुए हैं
नहीं सुनूँगा किसी की जो कहे कि सुंदर हैं वे और उनकी निरक्षरता
कहता हूँ कि वे पढ़ते रहें पढ़ते रहें।

अखबार नहीं पढ़ा तो लगता है

अखबार नहीं पढ़ा तो लगता है
कल प्रधानमंत्री ने हड़ताल की होगी

जीवन और मृत्‍यु के बारे में सोचते हैं जैसे हम और तुम
क्‍या प्रधानमंत्री को इस तरह सोचने की छूट है
क्‍या वह भी ढूँढ सकता है बरगद की छाँह
बच्‍चों की किलकारियाँ
एक औरत की छुअन

अखबार नहीं पढ़ा
तो मिला है मौका
प्रधानमंत्री को एक आदमी की तरह जानने का
अगर सचमुच कल वह हड़ताल पर था
तो क्‍या किया उसने दिनभर
ढाबे में चलकर चाय कचौड़ी ली
या धक्‍कम धक्‍का करते हुए सामने की सीट पर बैठ
लेटेस्‍ट रिलीज़ हुई फ़िल्‍म देखी
वैसे उम्र ज़्‍यादा होने से संभव है कि ऐसा कुछ भी नहीं किया
घर पर ही बैठा होगा या सैर भी की हो तो कहीं बगीचे में
बहुत संभव है कि
उसने कविताएँ पढ़ीं हों

अखबार नहीं पढ़ा तो लगता है
कल दिनभर प्रधानमंत्री ने कविताएँ पढ़ीं होंगी।

शहर लौटते हुए दूसरे खयाल

पहले वालों से भरपूर निपट लेने के बाद
आते हैं रुके हुए दूसरे खयाल
दिखने लगती है शहर की उदासी
वैसी ही जैसी यहाँ से जाते वक्त थी।
न चाहते हुए भी आँखें देखती हैं
कौन हुआ पस्त और कौन निहाल

शहर तो थोड़ा फूला भर है,
इससे अलग क्या हो सकता है उसे।
झंडे बदले हैं, पर उनके उड़ने के कारण नहीं बदले
उदासीन आस्मान के मटमैले रंग नहीं बदले
शोर बढा है पर कौन है सुनता, है पता किसे

उल्लास का गुंजन छूकर बहती है नदी
पहले जैसा है लावण्य पर बढ़ी है गंदगी
दीवारें बढ़ी हैं, छतें भी और बढ़े हैं बेघर
शहर ऊँघता है, जीने को अभिशप्त लंबी उमर
हिलता डुलता, कोशिश में बदलने की करवट

अंतर्मन से टीस है निकलती उसे यूँ देखते
एकाएक मानो अपना यूँ सोचना हम रोक लेते
और उसकी अदृश्य आत्मा को सहलाते हैं।

बहुत बदल चुके हमें चुपचाप देखता है शहर
हम नहीं जानते कि हमें भी सहला रहा होता है शहर
यह उसी को पता है
कि किस वजह से कभी जुदा हुए थे हम।

वह तोड़ती पत्थर

पथ पर नहीं
वह मेरे घर तोड़ती है पत्थर

हफ्ते भर पहले उसकी बहू मरी है
घबराई हुई है कि
बिना बतलाए नहीं आई हफ्ते भर

नज़रें झुकी हैं
गायब है आवाज़
घंटे भर से झाड़ू पोछा लगाती
तोड़ रही पत्थर दर पत्थर।

उजागर 

जिसको नंगा कर पीटा गया
उसकी तस्वीर पर्दे पर है
जब वह मार खा रहा था उसका शिश्न खड़ा था

वह बच गया उसका शिश्न बच गया

छिपाने लायक कुछ रह ही गया
अन्यथा हर तरह से उजागर आदमी के पास।

हिलते डुलते धब्बे

कुहासे से लदी है सुबह
कारनामे सभी रात के छिप गए हैं
भारी नमी के धुँधलके में

सड़क पर साँय साँय बढ़ता चला है
हम जानते हैं कि यह एक आधुनिक शहर है

ऐसे में कोई चला समंदर में कश्ती सा
सुबह सुबह अखबार बाँटने
या कि दूधवाला है
या औरत जिसे चार घरों की मैल साफ करनी है

कुहासे को चीरते चले चले हैं
कोई नहीं देख पाता उन्हें
कुहासा जब नहीं भी होता है

हिलते डुलते धब्बे दिखते हैं दूर तक।

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