दर्द आसानी से कब पहलू बदल कर निकला
आँख का तिनका बहुत आँख मसल कर निकला
तेरे मेहमान के स्वागत का कोई फूल थे हम
जो भी निकला हमें पैरों से कुचल कर निकला
शहर की आँखें बदलना तो मेरे बस में न था
ये किया मैं ने कि मैं भेस बदल कर निकला
मेरे रस्ते के मसाइल थे नोकिले इतने
मेरे दुश्मन भी मेरे पैरों से चल कर निकला
डगमगाने ने दिए पाँव रवा-दारी ने
मैं शराबी था मगर रोज़ सँभल कर निकला
हमारे ख़्वाब सब ताबीर से बाहर निकल आए
वो अपने आप कल तस्वीर से बाहर निकल आए
ये अहल-ए-होश तू घर से कभी बाहर न निकले
मगर दीवाने हर जंज़ीर से बाहर निकल आए
कोई आवाज़ दे कर देख ले मुड़ कर ने देखेंगे
मोहब्बत तेरे इक इक तीर से बाहर निकल आए
दर ओ दीवार भी घर के बहुत मायूस थे हम से
सो हम भी रात इस जागीर से बाहर निकल आए
बड़ी मुश्किल ज़मीनों का गुलाबी रंग भरना था
बहुत जल्दी बयाज़-ए-मीर से बाहर निकल आए
ख़ुद को इतना जो हवा-दार समझ रक्खा है
क्या हमें रेत की दीवार समझ रक्खा है
हम ने किरदार को कपड़ों की तरह पहना है
तुम ने कपड़ों ही को किरदार समझ रक्खा है
मेरी संजीदा तबीअत पे भी शक है सब को
बाज़ लोगों ने तो बीमार समझ रक्खा है
उस को ख़ुद-दारी का क्या पाठ पढ़ाया जाए
भीक को जिस ने पुरूस-कार समझ रक्खा है
तू किसी दिन कहीं बे-मौत न मारा जाए
तू ने यारों को मदद-गार समझ रक्खा है
नज़र न आए हम अहल-ए-नज़र के होते हुए
अज़ाब-ए-ख़ाना ब-दोशी है घर के होते हुए
ये कौन मुझ को किनारे पे ला के छोड़ गया
भँवर से बच गया कैसे भँवर के होते हुए
ये इंतिक़ाम है ये एहतिजाज है क्या है
ये लोग धूप में क्यूँ हैं शजर के होते हुए
तू इस ज़मीन पे दो-गज़ हमें जगद दे दे
उधर न जाएँगे हरगिज़ इधर के होते हुए
ये बद-नसीबी नहीं है तो और फिर क्या है
सफ़र अकेले किया हम-सफ़र के होते हुए
वो एक रात की गर्दिश में इतना हार गया
लिबास पहने रहा और बदन उतार गया
हसब-नसब भी किराए पे लोग लाने लगे
हमारे हाथ से अब ये भी कारोबार गया
उसे क़रीब से देखा तो कुछ शिफ़ा पाई
कई बरस मेरे जिस्म से बुख़ार गया
तुम्हारी जीत का मतलब है जंग फिर होगी
हमार हार का मतलब है इंतिशार गया
तू एक साल में इक साँस भी न जी पाया
मैं एक सज्दे में सदियाँ कई गुज़ार गया
मैं तो गुबार था जो हवाओं में बँट गया ।
तूं तो मगर पहाड़ था तू कैसे हट गया
सेनापति तो आज भी महफूज़ है मगर,
लश्कर ही बेवक़ूफ़ था जो शह पे कट गया ।
दामन की सिलवटों पे बड़ा नाज़ है हमे,
घर से निकल रहे थे के बच्चा लिपट गया ।
इतनी सी बात थी जो समन्दर को खल गई ।
का़ग़ज़ की नाव कैसे भँवर से निकल गई ।
पहले ये पीलापन तो नहीं था गुलाब में,
लगता है अबके गमले की मिट्टी बदल गई ।
फिर पूरे तीस दिन की रियासत मिली उसे,
फिर मेरी बात अगले महीने पे टल गई ।
इतना बचा हूँ जितना तेरे *हाफ़ज़े में हूँ,
वर्ना मेरी कहानी मेरे साथ जल गई ।
दिल ने मुझे मुआफ़ अभी तक नहीं किया,
दुनिया की राय दूसरे दिन ही बदल गई ।
मेरे बच्चों कहाँ तक बाप के काँधे पे बैठोगे,
किसी दिन फ़ेल इस गाड़ी का इंजन हो भी सकता है ।
वो ढोल पीट रहा है बहुत तरक्क़ी के,
उसे बताओ कि हम छप्परों में रहते हैं ।
तअल्लुका़त की क़ीमत चुकाता रहता हूँ ।
मैं उसके झूठ पे भी मुस्कुराता रहता हूँ ।
मगर ग़रीब की बातों को कौन सुनता है,
मैं बादशाह था सबको बताता रहता हूँ ।
ये और बात कि तनहाइयों में रोता हूँ,
मगर मैं बच्चों को अपने हँसाता रहता हूँ ।
तमाम कोशिशें करता हूँ जीत जाने की,
मैं दुश्मनों को भी घर पे बुलाता रहता हूँ ।
ये रोज़-रोज़ की *अहबाब से मुलाक़ातें,
मैं आप क़ीमते अपनी गिराता रहता हूँ ।