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न्हातई न्हात तिहारेई स्याम कलिन्दजा स्याम भई बहुतै है

न्हातई न्हात तिहारेई स्याम कलिन्दजा स्याम भई बहुतै है ।
धोखेहु धोये हौँ यामे कहूँ तो यहै रँग सारिन मेँ सरसैहै ।
सांवरे अंग को रँग कहूँ यह मेरे सुअँगन मेँ लगि जैहै ।
छैल छबीले छुऔगे जु मोँहि तो गात मेँ मेरे गोराई न रैहै ।

रीतिकाल के किन्हीं अज्ञात कवि का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल महरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।

मायके के बिरह मयँकमुखी दुखी देखि

मायके के बिरह मयँकमुखी दुखी देखि ,
भेद ताके सासुरे की मालिन बतायो है ।
मोपै ठकुराइन हुकुम करबोई करै ,
खिजमत करिबो हमारे बाँट आयो है ।
भौन मेँ तिहारे बाग ताका हौँ ही सेवती हौँ ,
तामेँ तहखानो सूनो अति ही सुहायो है ।
ताकी कोठरीन की अँध्यारी भारी सुनकर ,
दुलही दुलारी के महारी मोद छायो है ।

रीतिकाल के किन्हीं अज्ञात कवि का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल महरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।

रुचि पाय झवाय दई मेँहदी तेहिको रँग होत मनौ नगु है

रुचि पाय झवाय दई मेँहदी तेहिको रँग होत मनौ नगु है ।
अब ऎसे मे स्याम बोलावैँ भटू कहु जाँउ क्योँ पँकु भयो मगु है ।
अधरात अँधेरी न सूझै गली भनि जोय सी दूतिन को सँगु है ।
अब जांउ तो जात धुयो रँगु री रँगु राखौँ तो जात सबै रँगु है ।

रीतिकाल के किन्हीं अज्ञात कवि का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल महरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।

कामरी कारी कँधा पर देखि अहीरहिँ बोलि सबै ठहरायो 

कामरी कारी कँधा पर देखि अहीरहिँ बोलि सबै ठहरायो ।
जोई है सोई है मेरो तो जीव है याको मैँ पाय सभी कुछ पायो ।
कामरी लीन्होँ उढ़ाय तुरँतहि कामरी मेरो कियो मन भायो ।
कामरी तो मोहि जारो हुतो बरु कामरी वारे बिचारे बचायो ।

रीतिकाल के किन्हीं अज्ञात कवि का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल महरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।

अलि दसे अधर सुगन्ध पाय आनन को 

अलि दसे अधर सुगन्ध पाय आनन को,
कानन मे ऎसे चारु चरन चलाए हैँ ।
फाटि गई कँचुकी लगे ते कँट कुँजन के ,
बेनी बरहीन खोली बार छबि छाए हैँ ।
बेग ते गवन कीन्होँ धक धक होत सीनो ,
दीरघ उसासैँ तन स्वेद सरसाए हैँ ।
भली प्रीति पाली बनमाली के बुलाइबे को ,
मेरे हेत आली बहुतेरे दुख पाए हैँ ।

रीतिकाल के किन्हीं अज्ञात कवि का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल महरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।

दाम की दाल छदाम के चाउर घी अँगुरीन लैँ दूरि दिखायो 

दाम की दाल छदाम के चाउर घी अँगुरीन लैँ दूरि दिखायो ।
दोनो सो नोन धयो कछु आनि सबै तरकारी को नाम गनायो ।
विप्र बुलाय पुरोहित को अपनी बिपता सब भाँति सुनायो ।
साहजी आज सराध कियो सो भली बिधि सोँ पुरखा फुसलायो ।

रीतिकाल के किन्हीं अज्ञात कवि का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल महरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।

पीनस वारो प्रवीन मिलै तो कहाँ लौ सुगंधी सुगँध सुँघावै

पीनस वारो प्रवीन मिलै तो कहाँ लौ सुगंधी सुगँध सुँघावै ।
कायर कोपि चढ़ै रन मे तो कहां लगि चारन चाव बढ़ावै ।
जो पै गुनी को मिलै निगुनी तौ कहै क्योँ करि ताहि रिझावै ।
जैसे नपुंसक नाह मिलै तो कहाँ लगि नारि सिँगार बनावै ।

रीतिकाल के किन्हीं अज्ञात कवि का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल महरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।

जानत जे हैँ सुजान तुम्हैँ तुम आपने जान गुमान गहे हो

जानत जे हैँ सुजान तुम्हैँ तुम आपने जान गुमान गहे हो ।
दूध औ पानी जुदे करिबे को जु कोऊ कहै तो कहा तुम कैहो ।
सेत ही रँग मराल बने हौ पै चाल कहौ जु कहाँ वह पैहो ।
प्यार सोँ कोऊ कछू हू कहै बक हौ बक हौ झख मारत रैहो ।

रीतिकाल के किन्हीं अज्ञात कवि का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल महरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।

नित चातक चाय सोँ बोल्यो करै मुरवान को सोर सुहावन है

नित चातक चाय सोँ बोल्यो करै मुरवान को सोर सुहावन है ।
चमकै चपला चँहु चाव चढ़ी घनघोर घटा बरसावन है ।
पलकौ पपिहा न रहै चुप ह्वै अरु पौन चहूँ दिसि आवन है ।
मिलि प्यारी पिया लपटैँ छतियाँ सुख को सरसावन सावन है ।

रीतिकाल के किन्हीं अज्ञात कवि का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल महरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।

जगमगी कचुँकी पसीजी स्वेद सीकरनि

जगमगी कचुँकी पसीजी स्वेद सीकरनि ,
डगमगी डग न सभाँरी सभँरति है ।
रँगपाल सरबती साड़ी की सलोट कल ,
कँपित करन न सवाँरी सँवरति है ।
बिलुलित बर बँक बार पीक लीक वारी ,
झपकीली पल न उघारी उघरति है ।
प्यारी की उनीँदी वा अटारी उतरनि ,
आज चढ़ि रही चित्त न उतारी उतरति है ।

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जाके लगे गृहकाज तजे अरु मातु पिता हित नात न राखै

जाके लगे गृहकाज तजे अरु मातु पिता हित नात न राखै ।
सागर लीन ह्वै चाकर चाह के धीरज हीन अधीर ह्वै भाखै ।
ब्याकुल मीन ज्योँ नेह नवीन मेँ मानो दई बरछीन की साखै ।
तीर लगै तरवारि लगै पै लगै जनि काहूँ सोँ काहू की आँखै ।

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तीनिहुँ लोग नचात फूँक मेँ मंत्र के सूत अभूत गती है

तीनिहुँ लोग नचात फूँक मेँ मंत्र के सूत अभूत गती है ।
आप सदा गुनवन्ति गुसाइन पाँयन पूजत प्रानपती है ।
पैनी चितौनि चलावति चेटक को न कियो बस जोग जती है ।
कामरु कामिनि काम कला जग मोहिनि भामिनि भानमती है ।

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कैँधौँ दृग सागर के आस पास स्यामताई

कैँधौँ दृग सागर के आस पास स्यामताई ,
ताही के ये अँकुर उलहि दुति बाढ़े हैँ ।
कैँधौँ प्रेम क्यारी जुग ताके ये चँहूधा रची ,
नील मनि सरन कौ बारि दुख डाढ़े हैँ ।
मूरति सुकवि तरुनी की बरुनी न होवे ,
मेरे मन आवे ये विचार चित गाढ़े हैँ ।
जेईजे निहारे मन तिनके परिकिबे को ,
देखो इन नैन हजार हाथ काढ़े हैँ ।

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आनँद को कँद बृषभानुजा को मुखचँद

आनँद को कँद बृषभानुजा को मुखचँद ,
लीला ही ते मोहन के मानस को चौरे है ।
दूजो तैसो रचिबो को चहत विरँचि नित ,
ससि को बनावै अजौँ मन को न मोरे है ।
फेरत है सान आसमान पै चढ़ाय फेरि ,
पानी पै चढ़ायबे को वारिधि मे बोरे है ।
राधिका के आनन के सम न बिलोके याते ,
टूक टूक तौरे पुनि टूक टूक जौरे है ।

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आहि कै कराहि कांपि कृश तन बैठी आय 

आहि कै कराहि कांपि कृश तन बैठी आय ,
चाहत सखी सो कहिबे को पै न कहि जाय ।
फेरि मसि भाजन मँगायो लिखिबे को कछू ,
चाहत कलम गहिबे को पै न गहि जाय ।
एते उमँगि अँसुवान को प्रवाह आयो ,
चाहत है थाह लहिबे को पै न लहि जाय ।
दहि जाय गात बात बूझे ते न कहि जाय ,
बहि जाय कागज कलम हाथ रहि जाय ।

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वे उनसोँ रति को उमहैँ वे उनसोँ विपरीत को रागैँ 

वे उनसोँ रति को उमहैँ वे उनसोँ विपरीत को रागैँ ।
वे उनको पटपीत धरैँ अरु वे उनही सों निलँबर माँगैँ ।
गोकुल दोऊ भरे रसरँग निसा भरि योँ हिय आनँद पागैँ ।
वे उनको मुख चूमि रहैँ वे उनको मुखि चूमनि लागैँ ।

रीतिकाल के किन्हीं अज्ञात कवि का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल महरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।

रितु पावस आई या भागन ते संग लाल के कुंजन मेँ बिहरौ

रितु पावस आई या भागन ते संग लाल के कुंजन मेँ बिहरौ ।
नहिँ पाइहौ औसर ऎसो भटू अब काहे को लाज लजाइ मरौ ।
गुरु लोग औ चौचंदहाइन सोँ बिरथा केहि कारन बीर डरौ ।
चलि चाखौ सुधा अभिलाखैं भरौ यहि पाखैँ पतिब्रत ताखैँ धरौ ।

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ननँद निनारी सासु माइके सिधारी

ननँद निनारी सासु माइके सिधारी ,
अहै रैन अँधियारी भारी सूझत न करु है ।
पीतम को गौन कविराज न सुहात भौन ,
दारुन बहत पौन लाग्यो मेघ झरु है ।
सँग ना सहेली बैस नवल अकेली ,
तन पर तलबेली महा लाग्यो मैन सरु है ।
भई अधरात मेरो जियरा डेरात ,
जागु जागु रे बटोही इहाँ चोरन को डरु है ।

रीतिकाल के किन्हीं अज्ञात कवि का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल महरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।

योगी वही जो रँगै मन आपनो आन सुसँग मे ध्यान लगावै

योगी वही जो रँगै मन आपनो आन सुसँग मे ध्यान लगावै ।
सँत वही जो तजै ममता अरु आनन्द मे हरि के गुन गावै ।
पुत्र वही जो पिता को नवै अरु कै पुरुषारथ को दिखलावै ।
द्रव्य वही जो उठै परस्वारथ मित्र वही जो विपत्ति बटावै ।

रीतिकाल के किन्हीं अज्ञात कवि का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल महरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।

पीनस वारो प्रवीन मिलै तो कहाँ लौ सुगंधी सुगँध सुँघावै

पीनस वारो प्रवीन मिलै तो कहाँ लौ सुगंधी सुगँध सुँघावै ।
कायर कोपि चढ़ै रन मे तो कहां लगि चारन चाव बढ़ावै ।
जो पै गुनी को मिलै निगुनी तौ कहै क्योँ करि ताहि रिझावै ।
जैसे नपुंसक नाह मिलै तो कहाँ लगि नारि सिँगार बनावै ।

रीतिकाल के किन्हीं अज्ञात कवि का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल महरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।

मोर को मुकुट सीस भाल खौरि केसर की

मोर को मुकुट सीस भाल खौरि केसर की ,
लोचन विशाल लखि मन उमहत है ।
मैन कैसे केश श्रुति कुँडल बखत बेस ,
झलक कपोल लखि थिर ना रहत है।
कुलकानि धीरज मलाह मतवारे दोऊ ,
मदन झकोर तन तीर ना गहत है ।
श्याम छवि सागर मे नेह की लहर बीच ,
लाज को जहाज आज बूढ़न चहत है ।

रीतिकाल के किन्हीं अज्ञात कवि का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल महरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।

कुँद की कली सी दँत पाँति कौमुदी सी दीसी 

कुँद की कली सी दँत पाँति कौमुदी सी दीसी ,
बिच बिच मीसी रेख अमीसी गरकि जात ।
बीरी त्योँ रची सी बिरची सी लखै तिरछी सी ,
रीसी अँखियाँ वै सफरी सी त्योँ फरकि जात ।
रस की नदी सी दयानिधि की न दीसी थाह ,
चकित अरी सी रति डरी सी सरकि जात ।
फँद मे फँसी सी भरि भुज मे कसी सी जाकी ,
सी सी करिबे मे सुधा सीसी सी ढरकि जात ।

रीतिकाल के किन्हीं अज्ञात कवि का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल महरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।

चँदमयी चम्पक जराव जरकस मयी

चँदमयी चम्पक जराव जरकस मयी ,
आवत ही गैल वाके कमलमयी भई ।
कालिदास मोहमद आनँद बिनोदमयी ,
लालरँग मयी भयी बसुधा मई ,
ऎसी बनि बानिक सोँ मदन छकाई ,
रसकहि की निकाई लखि लगन लगी नई ।
नेह को हितै करि गोपाल मोह दैकरि ,
सखीन दुचितै करि चितै करि चली गई ।

आधे चंद्रमा के रूप ढाके केश घटा कैंधौँ 

आधे चंद्रमा के रूप ढाके केश घटा कैंधौँ ,
गगना के नाके विधु आठवीँ कला के हैँ ।
कैँधौँ काम देवता के कनक बटा के रूप ,
औँधा के धरे हैँ हेतु ससि को सुधा के हैँ ।
कैँधौँ एक छत्र ताके छत्र छविता के छीने ,
नासिका के दँड बाँके गुन बिधिना के हैँ ।
कैँधौँ नाथ भाग्य ताके भाजन भरे धरे हैँ ।

रीतिकाल के किन्हीं अज्ञात कवि का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल महरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।

जे ते गजगौनी के नितँब हैँ विशद होत

जे ते गजगौनी के नितँब हैँ विशद होत ,
तेती तेती ताकी कटि पातरी परत जात ।
जेती जेती कटि खीन होति जाति तेते तेते ,
ताहि देखिबे को दोऊ उरज उठत जात ।
जेते जेते उठत उरोज उर माँहि वर ,
तेती मुख माँहि भाव भँगिमा भरत जात ।
जेतो मुख भाव तेतो जमत हिये मोँ नेह ,
जेतो नेह तेतो नैन माँहि प्रगटत जात ।

रीतिकाल के किन्हीं अज्ञात कवि का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल महरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।

कोमल अमल दल कमल नवल कैँधौँ

कोमल अमल दल कमल नवल कैँधौँ ,
कीन्होँ है विरँचि सब छवि को सहेट है ।
उदित प्रभाकर की दुति आनि छाई कैधौँ ,
चमकत चारु खात लोचन रपेट है ।
सुँदर थली है भली मदन बिराजिबे की ,
जाके सम कीन्हेँ होत उपमा तरेट है ।
चीकनो परम मखमल ते नरम ऎसो ,
प्यारीजू को पेट लेत मन को लपेट है ।

रीतिकाल के किन्हीं अज्ञात कवि का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल महरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।

खाय गईँ खसम भसम को रमाय लाईँ 

खाय गईँ खसम भसम को रमाय लाईँ ,
सँपति नसाय दुहूँ कुल मेँ बिघन की ।
छाई भई साधुन की पाँति को पवित्र कीन्होँ ,
माईजी कहायकै लुगाई बनी जन की ।
कासमीरी छोहरे दिखाय परैँ कहूँ तो ,
न पांय धरैँ भूमै न हवास रहैँ तनकी ।
पाय पाय पूतन बहाय दीन्हीँ सोतन मेँ ,
हाय गति कहाँ लौँ बखानौँ भगतिन की ।

रीतिकाल के किन्हीं अज्ञात कवि का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल महरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।

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