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गर मैं मिलने न गया उसने बुलाया भी न था

गर मैं मिलने न गया उसने बुलाया भी न था
आँच बाक़ी थी मगर आग में शोला भी न था

शाम होते ही उभर आया थकन का एहसास
रात आराम से गुज़रेगी यह सोचा भी न था

कैसी रेतीली ज़मीं है कि नमी रूकती नहीं
बारिशें होती रहीं पर कहीं सब्ज़ा भी न था

इस तरह इशह्रनवर्दी में कटी उम्र-ए-विसाल
इस कद़र भीड़ थी चहेरों की मैं तन्हा भी न था

दफअ़तन दिल में उमड आये उदासी के सहाब
गर्मी-ए-वस्ल में मुद्दत से मैं रोया भी न था

हाल को पीते रहे शौक़ से आख़ीर तलक गुज़रे
जामों ने हमें छोड़ा हो ऐसा भी न था

टूटें पत्ते की तरह दोशा-ए-हवा पर थे ‘अनीस’
ख़ाक में खिल न सके पेड़ से रिश्ता भी न था

तुम्हारे ग़म का मौसम है अभी तक

चोट लगी तो अपने अन्दर चुपके चुपके रो लेते हो
अच्छी बात है आसानी से जख्मों को तुम धो लेते हो

दिन भर कोशिश करते हो सबको गम का दरमाँ मिल जाये
नींद की गोली खाकर शब भर बेफ़िक्री में सो लेते हो

अपनों से मोहतात रहो, सब नाहक़ मुश्रिक समझेंगे
ज्यों ही अच्छी मूरत देखी पीछे पीछे हो लेते हो

ख़ुशएख्लाक़ी ठीक है लेकिन सेहत पे ध्यान ज़रूरी है
बैठे बैठे सब के दुख में अपनी जान भिगो लेते हो

क्यों ठोकर खाते फिरते हो अनदेखे से रस्तों पर
जख्मों के भरने से पहले पत्थर और चुभो लेते हो

‘अंसारी जी’ आस न रक्खो कोई तुम्हें पढ़ पायेगा
क्या यह कम है पलकों में तुम हर्फ़-ए-अश्क पिरो लेते हो

दिल पर यूँ ही चोट लगी तो कुछ दिन ख़ूब मलाल किया

दिल पर यूँ ही चोट लगी तो कुछ दिन ख़ूब मलाल किया
पुख़्ता उम्र को बच्चों जैसे रो रो कर बेहाल किया

हिज्र के छोटे गांव से हमने शहर-ए-वस्ल को हिजरत की
शहर-ए-वस्ल ने नींद उड़ा कर ख़्वाबों को पामाल किया

उथले कुएँ भी कल तक पानी की दौलत से जलथल थे
अब के बादल ऐसे सूखे नद्दी को कंगाल किया

सूरज जब तक ढाल रहा था सोना चाँदी आँखों में
भीड़ में सिक्के ख़ूब उछाले सब को मालामाल किया

लेकिन जब से सूरज डूबा ऐसा घोर अँधेरा है
साये सब मादूम हुये और आंखों को कंगाल किया

सख़्त ज़मीं में फूल उगाते तो कहते कुछ बात हुई
हिज्र में तुमने आँसू बो कर ऐसा कौन कमाल किया

आख़िर में “अंसारी साहब” अपने रंग में डूब गये
इसको दुआ दी, उसको छेड़ा शहर अबीर गुलाल किया

मेरे नालों से ज़ालिम ख़ुद को इतना तंग कर बैठा

मेरे नालों से ज़ालिम ख़ुद को इतना तंग कर बैठा
मेरी नमनाक आंखों से वह अंधी जंग कर बैठा

अपाहिज कर दिया पहले मुझे धोके से ज़ालिम ने
मेरी चीख़ों से घबराया तो उज्र-ए-लंग कर बैठा

बड़े जाबिर हैं मुझ को मार कर रोने नहीं देते
मैं उन की महफ़िलों के रंग में क्यों भंग कर बैठा

बड़ी मुश्किल से ईंटें जोड़ कर हम घर बना पाये
ग़लत तामीर कह कर शहरगर बेढंग कर बैठा

तुम्हारे राग में शामिल हैं सब्र-ओ-शुक्र के दो सुर
मियां ! उस्ताद है जो उन को हम-आहंग कर बैठा

मेरे जूतों से कुछ गर्द-ए-सफ़र बेतौर आ लिपटी
ज़रा सा झाड़ कर मैं फिर उन्हें ख़ुशरंग कर बैठा

यक़ीन-ए-फ़तह रक्खें ख़ैर-ओ-शर की जँग में ग़ाजी
शहीदाना ‘अनीस’ अपने अदू से जंग कर बैठा

जब तेरी नज़रों से देखा तो बहुत ख़ूब लगी

जब तेरी नज़रों से देखा तो बहुत ख़ूब लगी
तेरी किरनों में ये दुनिया तो बहुत ख़ूब लगी

ज़िन्दगी तेरी शिफ़ा है कि अभी जीता हूं
मौत से मुझ को बचाया तो बहुत ख़ूब लगी

मेरी बेकार ज़मीं को भी चमनबन्दी से
तेरी मेहनत ने संवारा तो बहुत ख़ूब लगी

की तेरे अश्क ने सैराब मेरी फ़स्ल-ए-मुराद
फ़स्ल ने गुल जो खिलाया तो बहुत ख़ूब लगी

मेरी सूरत को जो पोशीदा थी चट्टानों में
तेरी छेनी ने तराशा तो बहुत ख़ूब लगी

मेरी दरमादाँ सदा के जो फिरी मिस्ल-ए-फक़़ीर
तेरी मौसीक़ी ने बांधा तो बहुत ख़ूब लगी

रिश्ता-ए-इश्क़ में था शीरीं ज़बानी का मज़ा
तूने लज़्ज़त को बढ़ाया तो बहुत ख़ूब लगी

मेरी क़ीमत मेरी क़िस्मत मेरी शोहरत को ‘अनीस’
उस की शफक़़त ने उभारा तो बहुत ख़बू लगी

ज़र्द बादल मेरी धरती पर उतर जाने को है 

ज़र्द बादल मेरी धरती पर उतर जाने को है
सब्ज़ रूत पाले की जद़ में ग़ालिबन आने को है

इब्न-ए-मरियम को सलीबें पर चढ़ाने का जुननू
इब्न-ए-आदम के लहू की धार रूलवाने को है

इश्क़ की गहरी जड़ों को खाद पानी चाहिए
पडे़ यह सब मौसमों में फल फूल लाने को है

उड़ रही हैं वहशी चीख़ें चील कौओं गिद्ध की
पीली आँधी आस्माँ से लाश बरसाने को है

मुत्तहिद हैं सब दरिन्दे नाख़ुनें दातों के साथ
मुन्तशिर हर जानवर पंजों में फँस जाने को है

रँग-कोरों को नज़र आते नहीं सब रँग सात
उनकी ज़िद रँगीं धनक यकरँग रँगवाने को है

मिल के सब सरूज जला लें तो अँधेरा भाग ले
एक इक कर के तो सब पर रात छा जाने को है

बीज जैसे बोये वैसी फ़स्ल काटेगा ‘अनीस’
थूहरों को बोने वाला ज़हर ख़ुद खाने को है

बड़ी लज़्ज़त मिली दरबार से हक़ बात कहने में 

बड़ी लज़्ज़त मिली दरबार से हक़ बात कहने में
हलक़ पर जब छुरी थी खून-ए-दिल के घूंट चखने में

बहुत ख़ुश है वह का़तिल अर्ज़-ए-इब्राहीम के ख़ूँ से
मज़ा भी आल-ए-इब्राहीम को आता है कटने में

क़िले मज़बूत थे और मुस्तइद थी फौज कसरत से
मैं हारा दुश्मनों से मीर जाफ़र के बहकने में

चलो फिर से नई तारीख़ लिक्खें कामरानी की
इमामत फ़र्ज़ है जमहूर की क़िसमत बदलने में

मशअल लेकर जो आगे जायेगा सरदार ठहरेगा
वह अमृत पायेगा ज़ुल्मात का दरिया गुज़रने में

पसीना ख़ून देकर फूल फल हमने उगाये हैं
हमें हिस्सा मिले लज़्ज़त में रंग-ओ-बू महकने में

‘अनीस’ इतनी सी ख़्वाहिश है कि जंगल राज के बदले
कोई तफ़रीक़ भेड़ों से न हो पानी में चरने में

दर्द अच्छा था रहा दिल में ही लावा न हुआ

दर्द अच्छा था रहा दिल में ही लावा न हुआ
फूट पड़ने पे भरे शहर को ख़तरा न हुआ

उन के चहेरे की शिकन वजह-ए-कय़ामत ठहरी
हम सर-ए-दार चढ़े कोई तमाशा न हुआ

रात भर पीते रहे शोख़ हसीना का बदन
रूह तश्ना थी, ग़म-ए-दिल का मदावा न हुआ

आग सीने में दहकती थी मगर हम बाहर
ढूंढने निकले कहीं शोला-ए-सीना न हुआ

शहर से दश्त भटकते थे कि मिल जाये कहीं
बू ए-आहू कहीं अन्दर थी यह अफशा न हुआ

किस क़दर ख़ून किया उम्र का दीवानगी में
सगं पर नक्शा-ए-जुनॅू फिर भी हुवैदा न हुआ

इक तरफ़ क़ैद रखा रिज्क़़ ने घर में मुझको
और जूनॅू में मैं उधर दश्त में दीवाना हुआ

हो के मोमिन भी रही इतने बुतों से यारी
देखते देखते काबा मेरा बुतख़ाना हुआ

आदमी काम का होकर भी किया पेशा-ए-इश्क़
इश्क़ में मैं कभी ग़ालिब सा निकम्मा न हुआ

अब तलक शान से गुज़री है जुनू में यूं ‘अनीस’
ख़ाक हम ने न उड़ाई तो ख़राबा न हुआ

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