Skip to content

Anupamachauhan.jpg

किस देस चलूँ मौला 

किस राह चलूँ, किस देस चलूँ मौला
राम कहूँ या रहीम कहूँ, किस भेस छलूँ मौला!!!

सदयुग, द्वापर, त्रेता
सब युग का शेष रचा तूने
कलयुग में क्यूँ लगता है
मूक ध्यान में, लोचन मूँदे बैठा है!

जुग जुग जीने का लोभ मिटा मन से
मोल लगा हर वस्तु का
टका सेर मानव, टका सेर मानवता कर विनाश
इस सृष्टि का नवनिर्माण का अंकुर फूटे!

कहते थे पुरखे घर के
पल में प्रलय होगी,बहुरी करेगा कब
सो पाप को जी भर कर पुचकारा
और पुण्य को तलुओं तले दबोचा
फिर गये गंगा नहाने
और लगे गुनगुनाने
जय गंगा मैइया,भज गंगे हरे हरे!

इस धरती पर गौतम चले, महावीर चले
गिरे भिक्षा पात्र खनके होंगे दबे मिट्टी तले
टंगे ईसा सूली पर कब से गिरिजाघरों में
मत पूजो उनको ऐसे
पहले उतार कर बिठाओ आसन पर
फिर जलाओ कंदील शीश झुकाकर!

मति का स्थान गति ने लिया
साफ हो या स्वार्थी हो
पुरुषार्थ हो या परमार्थी हो
मूर्छा भी प्रलोभन है
मोक्ष भी प्रलोभन है
छिछला दलदल सब जग
जितना उभरो उतना धँस जाओ!

क्यों तू व्याकुल होता है
न कोई समझा है न कोई समझेगा
तात्पर्य, क्यों पङी ईद दिवाली के ही दिन?
बस “मैं” को ही पाला-पोसा
“मैं” से ही लज्जित हो
और “मैं” में ही मर जाओ!

बिसरी सुध जब लौटी तो
पाया लिपटा था कफन
प्रिय ही आग देता चिता को
जीवन यात्रा सम्पन्न हुई,समाप्त हुई
शेष कुछ नहीं बचा हारने को
किंतु “मैं” अब भी जीवित है गिराने को!

मैं कुछ दिनों तनहाई चाहती हूँ 

मैं कुछ दिनों तनहाई चाहती हूँ
हर बन्धन से बिदाई चाहती हूँ…

कई ख़्वाब खेले पलकों पर
फिसले और खाक़ हो गये
बीते थे तेरे आगोश में
वो लम्हें राख हो गये
एक रात गुजरे दर्द के आलम में

क़ुछ ऐसी रहनुमाई चाहती हूँ
मैं कुछ दिनों तनहाई चाहती हूँ…
रफ़्ता-रफ़्ता अश्क़ बहे थे
वो रात भी तो क़यामत थी
क़ैद समझ बैठे जिसे तुम
वो सलाख़ें नहीं मेरी मुहब्बत थी
ज़मानत मिली तेरी फुर्क़त को
अब दुनिया से रिहाई चाहती हूँ
मैं कुछ दिनों तनहाई चाहती हूँ…

छलके थे लबों के पैमाने
उस मयख़ाने में तेरा ही वज़ूद था
महफूज़ जिस धडकन में मेरी साँसें थीं
आज हर शख़्स वहाँ मौजूद था
साँसों से हारी वफ़ा भी
अब थोङी सी बेवफ़ाई चाहती हूँ
मैं कुछ दिनों तनहाई चाहती हूँ…

एक शाम 

बिखरे हुये लम्हों की लडी बना ली है
जब चाहे गले मे डाल ली जब चाहे उतार दी
झील का सारा पानी उतर आया आँखों में
न जाने कितनी गागर खाली हैं
तैरता था उसमें तिनका कोई
जो यूँ ही आँखों छलक गया कभी
हौले से उतरूँ सैलाब की रवानियों में
कि मेरी गागर अभी खाली है
इन ज़ुल्फों में न जाने कहाँ
सूरज की लालिमा खोती गयी
और घटायें बन कर फिर
झील में बरसने लगी
किनारे बैठे सोचती रही
और शाम ढलती रही

Leave a Reply

Your email address will not be published.