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पागलपन 

जीवन मुक्त हुआ उन्मादी!
दे दे मुझे गरल की प्याली-
क्यों मेरी मदिरा ढुलका दी?
अरे, अरे! यह भीषण ज्वाला-
तूने कैसे कहां लगा दी?
आलिंगन करने आया था,
सत्वर किसने लगी बुझा दी?
मुझको देख-देख हंसता है,
क्या तू समझ रहा बकवादी?
इस प्रलाप के आत्म-ज्ञान से,
मैंने दुनिया नई बना दी।
मेरे मन-मंदिर में भावुक,
ऐसी भाव-छटा लहरा दी।
यह ‘अभिराम’ सुधा-सी कैसी,
तूने संजीवनी पिला दी।

रचनाकाल: सन 1931

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