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सुनो नवागत, सुनो नवागत

सुनो! नवागत, सुनो! नवागत आने से पहले,
कुछ शर्तें हैं मेरी कलश गिराने से पहले।

गंतव्यों से पहले बातें मंतव्यों की हों,
यानी अधिकारों से पहले कर्तव्यों की हों।

सुख हो या फिर दुख हो दो से भाग किया जाए,
भोग परस्पर और परस्पर त्याग किया जाए।

विषम बाँटना होगा सम अपनाने से पहले,
सुनो! नवागत, सुनो! नवागत आने से पहले।

दुर्गम पथ पर कदम मिलाकर चलना भी होगा,
द्रव जैसे ढल जाता वैसे ढलना भी होगा।

प्रिय इक दूजे की हमको परछाई बनना है,
दो ईकाई मिलकर एक दहाई बनना है।

मेरा सुन लो अपना पक्ष बताने से पहले,
सुनो! नवागत, सुनो! नवागत आने से पहले।

कुल का मान बढ़ाने में भी भागीदारी लो,
जितनी मैं लूँ उतनी तुम भी जिम्मेदारी लो।

परंपराओं में भी यह शुभ परिवर्तन कर लें,
गठबंधन से पहले आओ मनबंधन कर लें।

यज्ञकुण्ड की परिक्रमा पर जाने से पहले,
सुनो! नवागत, सुनो! नवागत आने से पहले।

आँसुओं के आचमन का

आँसुओं के आचमन का ही मुझे अधिकार दे दो,
दे सको तो तुम मुझे बस एक यह उपहार दे दो।

एक पग के साथ का भी,
मैं तुम्हें परिणाम दूँगा।
रुक्मिणी का नाम दूंगा,
द्वारिका-सा धाम दूंगा।
चूम लूंगा हाथ दोनों,
और बस इतना कहूँगा,

आज ठहरे सागरों में वेदना का ज्वार देदो,
दे सको तो तुम मुझे बस एक ये उपहार दे दो

राह पथरीली बहुत है,
धूप भी है, शूल हैं,
और धाराएँ नदी की,
तेज भी प्रतिकूल भी हैं।
मान लो अब बात मेरी,
मुक्त कर दो हाथ अपने।

थक गए हो तुम बहुत ही अब मुझे पतवार दे दो।
दे सको तो तुम मुझे बस एक यह उपहार दे दो।

बीच गंगा में कहूँ या,
भोज-पाती पर लिखूँ।
तुम कहो तो हाँ तुम्हारा,
नाम छाती पर लिखूँ।
हार जाओ आज अपनी,
भावनाओं से प्रिये।

और तुम संवेदनाओं को नवल शृंगार दे दो।
दे सको तो तुम मुझे बस एक यह उपहार दे दो।

देवभूमि की राजकुमारी 

देवभूमि की राजकुमारी क्या मरुथल स्वीकार करोगी?

मैं हर दर का दुत्कारा हूँ,
मैं किस्मत का भी मारा हूँ।
मैंने अपना सबकुछ खोया,
मैं अपना सबकुछ हारा हूँ।
न्यायालय से दोषमुक्त हूँ,
पर मंदिर में दण्ड मिला है।
और मुझे अधिकारों में बस,
ढाई गज भूखण्ड मिला है।

ईश्वर का मानवता के संग क्या यह छल स्वीकार करोगी?
देवभूमि की राजकुमारी क्या मरुथल स्वीकार करोगी?

रंजकता के इस युग में अब,
पावनता का मोल नहीं है।
देख चढ़ावा ईश्वर खुश है,
साधकता का मोल नहीं है।
भौतिक सुख का मोह त्यागकर,
यदि आ पाओ तो ही आओ।
निष्ठा से यदि वचन प्रणय के,
सभी निभाओ तो ही आओ।

उपहारों के बदले में क्या तुलसीदल स्वीकार करोगी?
देवभूमि की राजकुमारी क्या मरुथल स्वीकार करोगी?

वैभव कम है किंतु नेह का,
भण्डारण मेरी कुटिया है।
स्वाभिमान से भरा कोष पर,
साधारण मेरी कुटिया है।
सभी कोष पूरी निष्ठा से,
तुम्हे समर्पित कर सकता हूँ।
यदि आवश्यक हुआ कभी तो,
जीवन अर्पित कर सकता हूँ।

अपने प्रश्नों का तुम बोलो क्या यह हल स्वीकार करोगी?
देवभूमि की राजकुमारी क्या मरुथल स्वीकार करोगी?

मैं खिड़की से देख रहा हूँ 

अंतस में कोलाहल लेकर, मुख पर साधे मौन खड़ा है,
मैं खिड़की से देख रहा हूँ, दरवाजे पर कौन खड़ा है।

दोनों में है प्रेम परस्पर,
दोनों में सम्मान परस्पर।
किंतु बीच में आ जाता है,
दोनों का अभिमान परस्पर।
दिल के सब उद्गार कंठ तक,
आकर वापस लौट रहे हैं।

शायद होठ सिये दोनों के ईगो वाला टोन खड़ा है,
मैं खिड़की से देख रहा हूँ, दरवाजे पर कौन खड़ा है।

अधिकारों की खातिर झगड़े,
सम्बंधों के मुख्य तत्व हैं।
तर्क और वैचारिक बातें,
अनुबंधों के मुख्य तत्व हैं।
संवादों में जो कमियाँ थीं,
अब शायद वे नहीं रहेंगीं।

नंबर डायल करने को वह, लिए हाथ में फोन खड़ा है,
मैं खिड़की से देख रहा हूँ, दरवाजे पर कौन खड़ा है।

तब अधर पर गीत आते 

जब किसी के नेह में हम हार कर भी जीत जाते।
तब अधर पर गीत आते।

पुष्प पर जब ओस के संघात से मृदु चोट आए,
जब हमारी टेर की ही एक प्रतिध्वनि लौट आए।
जब किसी बेला के बिरबे पर अचानक फूल आता,
जब कोई उल्लास में है साँस लेना भूल जाता।

जब किसी प्रिय आगमन का हम कभी संकेत पाते।
तब अधर पर गीत आते।

जब हमारे इंगितों पर केश कोई मुक्त कर दे,
और यह रसहीन जीवन प्रेम से रसयुक्त कर दे।
खनखनाते हाथ जब भी कक्ष का हैं द्वार खोलें,
कँपकँपाते होंठ दो जब-जब हमारा नाम बोलें।

जब महावर से भरे दो पाँव हैं पायल बजाते।
तब अधर पर गीत आते।

क्या तुम आओगे 

मैं अपने जीवन की देहरी पर बोलो,
दीप जला कर रख दूं, क्या तुम आओगे?

दे दूँ यदि तुमको मैं नव संसार प्रिये,
अपने जीवन पर पूरा अधिकार प्रिये।
अपना सुख तुमसे मैं साझा कर लूं तो,
जीवर भर के नाते का व्रत धर लूं तो।
अधिक नहीं अभिलाषा मेरी है तुमसे,
क्या मेरे कुमकुम से माँग सजाओगे?

अक्षत-कलश गिरा कर दो थापें देना,
फिर मेरे घर को भी अपना कर लेना।
अपने केशों में भरकर तुम पानी को,
मुझे उठाना किरणों की अगवानी को।
आँगन की तुलसी मैया को जल देकर,
अम्मा वाले भजनों को क्या गाओगे?

मेरे कुल की मर्यादा का मान प्रिये,
सबसे पहले रक्खोगे क्या ध्यान प्रिये?
तुमको मैं बतलाऊँ जीवन कैसा है,
बिल्कुल तपते कंटक पथ के जैसा है।
पहले ही निश्चित कर लो कंटक पथ पर,
कदम मिलाकर क्या संग-संग चल पाओगे?

राखी पकड़ बहन रोयेगी

जीजा-साले के झगड़े में राखी पकड़ बहन रोयेगी।

उसका कोई दोष नहीं है,
फिर भी दंड उसी ने पाया।
इस सावन भी छोटा भाई,
नहीं लिवाने उसको आया।
पति ने भी आदेश दिया है,
बिना बुलाये तुम मत जाना।

दो पुरुषों के अहंकार को आज पुनः नारी ढोयेगी।

भाई सूनी लिए कलाई,
झुकने को तैयार नहीं है।
पत्नी पल-पल घुटे बताओ,
क्या यह पति की हार नहीं है?
कुछ मासूम बुआ को रोएँ,
कुछ मामा के घर जाने को।

कुछ इच्छाएँ आस लगाए सारा दिन थक कर सोएगी।

एक बँधा कच्चे धागे से,
और दूसरा जीवन साथी।
ऐसे में वह बेबस औरत,
बोलो किसका साथ निभाती?
दोनों तरस नहीं हैं खाते,
उस दुखियारी की हालत पर।

यदि भाई से नेह निभाये तो पति की निष्ठा खोएगी।

जो प्रकृति से मिली वह संजोई नहीं 

जो प्रकृति से मिली वह संजोई नहीं।
और दौलत कमाने से क्या फायदा?

अग्नि, जल, वायु, आकाश, या फिर मृदा,
तत्व जो मूल हैं सब प्रदूषित हुए।

हमने उत्पादनों को बढ़ाया मगर,
जो मिले सृष्टि से वे विनाशित हुए।

जब धरा आग का एक गोला बनी,
घर में ऐ0सी0 लगाने से क्या फायदा?

अस्थि-दाताओं के वंशजों क्या हुआ?
सृष्टि से सब लिया पर दिया कुछ नहीं।

वृक्ष संख्या में कितनी गिरावट हुई,
आंकड़ा पढ़ लिया पर किया कुछ नहीं।

जब सर्जन के विषय में ही सोचा नहीं,
तो प्रगति गीत गाने से क्या फायदा?

पीढ़ियों को विरासत में क्या देंगे हम?
प्रश्न ही जस के तस या कि हल देने हैं।

वृक्ष या धन, भवन सोच लो ध्यान से,
प्राण देने हैं या बस महल देने हैं।

जब दुआरे का पीपल ही छोड़ा नहीं,
सम्पदा छोड़ जाने से क्या फायदा?

मैं तो केवल प्यार लिखूँगा

तुम माधव का चक्र लिखो मैं कान्हा का शृंगार लिखूंगा,
तुम कविता में नफ़रत लिखना, मैं तो केवल प्यार लिखूंगा।

घृणा द्वेष की पीली लपटें,
जब उत्तुंग शिखर तक जाएँ
जब समाधि से उठकर शंकर,
की तीनों आँखे खुल जाएँ।

तुम लिख देना खुली जटाएँ, मैं गंगा कि धार लिखूंगा।

दुर्योधन और कंस लिखोगे,
नाश हुए कुछ वंश लिखोगे।
तुम विनाश के अंश लिखोगे,
या केवल विध्वंस लिखोगे।

उसी काल मैं वृन्दावन में माखन का व्यापार लिखूंगा।

तुम पानीपत, प्लासी लिखना,
हल्दी-घाटी, झांसी लिखना।
अकबर पर लानत लिख देना,
राणा को शाबाशी लिखना।

उस स्थिति में भी मैं तुलसी बाबा का आभार लिखूंगा।

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