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अमिताभ त्रिपाठी ‘अमित’ की रचनाएँ

Amitabh.jpg

जिन्दगी इक तलाश है क्या है?

जिन्दगी इक तलाश है, क्या है?
दर्द इसका लिबास है क्या है?

फिर हवा ज़हर पी के आई क्या,
सारा आलम उदास है, क्या है?

एक सच के हजार चेहरें हैं,
अपना-अपना क़यास है, क्या है

जबकि दिल ही मुकाम है रब का,
इक जमीं फिर भी ख़ास है, क्या है

राम-ओ-रहमान की हिफ़ाजत में,
आदमी! बदहवास है, क्या है?

सुधर तो सकती है दुनियाँ, लेकिन
हाल, माज़ी का दास है, क्या है

मिटा रहा है जमाना इसे जाने कब से,
इक बला है कि प्यास है, क्या है?

गौर करता हूँ तो आती है हँसी,
ये जो सब आस पास है क्या है?

जो कुछ हो सुनाना उसे बेशक़ सुनाइये 

जो कुछ हो सुनाना उसे बेशक़ सुनाइये
तकरीर ही करनी हो कहीं और जाइये

याँ महफ़िले-सुखन को सुखनवर की है तलाश
गर शौक आपको भी है तशरीफ़ लाइये।

फूलों की जिन्दगी तो फ़क़त चार दिन की है
काँटे चलेंगे साथ इन्हे आजमाइये।

क‍उओं की गवाही पे हुई हंस को फाँसी
जम्हूरियत है मुल्क में ताली बजाइये।

रुतबे को उनके देख के कुछ सीखिये ‘अमित’
सच का रिवाज ख़त्म है अब मान जाइये।

बतर्ज-ए-मीर 

अक्सर ही उपदेश करे है, जाने क्या – क्या बोले है।
पहले ’अमित’ को देखा होता अब तो बहुत मुहँ खोले है।

वो बेफ़िक्री, वो अलमस्ती, गुजरे दिन के किस्से हैं,
बाजारों की रक़्क़ासा, अब सबकी जेब टटोले है।

जम्हूरी निज़ाम दुनियाँ में इन्क़िलाब लाया लेकिन,
ये डाकू को और फ़कीर को एक तराजू तोले है।

उसका मक़तब, उसका ईमाँ, उसका मज़हब कोई नहीं,
जो भी प्रेम की भाषा बोले, साथ उसी के हो ले है।

बियाबान सी लगती दुनिया हर रौनक काग़ज़ का फूल
कोलाहल की इस नगरी में चैन कहाँ जो सो ले है

मैं खड़ा बीच मझधार किनारे क्या कर लेंगे 

मैं खड़ा बीच मझधार किनारे क्या कर लेंगे
मैने छोड़ी पतवार सहारे क्या कर लेंगे

तुम क़िस्मत-क़िस्मत करो जियो याचक बन कर
मैं चला क्षितिज के पार सितारे क्या कर लेंगे

तुम दिखलाते हो राह मुझे मंजिल की,
मैं आँखों से लाचार इशारे क्या कर लेंगे

हम ने जो कुछ भी कहा वही कर बैठे
जो सोचें सौ-सौ बार बेचारे क्या कर लेंगे

ना समझ कहोगे तुम मुझको मालूम है
ये फ़तवे हैं बेकार तुम्हारे क्या कर लेंगे

ख़्वाब ही था ज़िन्दगी कितनी सहल हो जायेगी 

ख़्वाब ही था ज़िन्दगी कितनी सहल हो जायेगी
तुम जो गाओगे रुबाई भी ग़ज़ल हो जायेगी

इतने आईनों से गुज़रे हैं यक़ीं होता नहीं
अज़नबी सी एकदिन अपनी शकल हो जायेगी

मर्हले ऐसे भी आयेंगे नहीं मालूम था
उम्र भर की होशियारी बेअमल हो जायेगी

है बहुत मा’कूल फिर भी शक़ है मौसम पर मुझे
तज्रबा है अन्त में ग़ारत फ़सल हो जायेगी

साँस की क़श्ती ख़ुद अपना बोझ सह पाती नहीं
कोई दिन होगा कि हस्ती बेदखल हो जायेगी

वो मेरे हक़ के लिये मेरा बुरा करते हैं

अब अंधेरों में उजालों से डरा करते हैं
ख़ौफ़, जुगनूँ से भी खा करके मरा करते हैं

दिल के दरवाजे पे दस्तक न किसी की सुनिये
बदल के भेष लुटेरे भी फिरा करते हैं

उनका अन्दाज़े-करम उनकी इनायत है यही
वो मेरे हक़ के लिये मेरा बुरा करते हैं

गुनाह वो भी किये जो न किये थे मैंने
यूँ कमज़र्फ़ों के किरदार गिरा करते हैं

तंज़ करके गयी बहार भी मुझपे ही ‘अमित’
कभी सराब भी बागों को हरा करते हैं

सहल इस तरह ज़िन्दगी कर दे

सहल इस तरह ज़िन्दगी कर दे
मुझपे एहसाने-बेख़ुदी कर दे

आरज़ू ये नहीं कि यूँ होता
आरज़ू है कि बस यही कर दे

हिज़्र की आग से तो बेहतर है
ये मुलाक़ात आख़िरी कर दे

ऐ नुजूमी जरा सितारों पर
हो सके थोड़ी रोशनी कर दे

दास्ताने-सफ़र ‘अमित’ शायद
उनकी आँखे भी शबनमी कर दे

फ़िक्र आदत में ढल गई होगी

फ़िक्र आदत में ढल गई होगी
अब तबीयत सम्हल गई होगी

गो हवादिस नहीं रुके होंगे
उनकी सूरत बदल गई होगी

जान कर सच नहीं कहा मैंने
बात मुँह से निकल गई होगी

मैं कहाँ उस गली में जाता हूँ
है तमन्ना मचल गई होगी

जिसमें किस्मत बुलन्द होनी थी
वो घड़ी फिर से टल गई होगी

खा़के-माजी की दबी चिंगारी
उसकी आहट से जल गई होगी

खता मुआफ़ के मुश्ताक़ नजर
बेइरादा फ़िसल गई होगी

मुन्तजिर मुझसे अधिक थीं आँखें
बूँद बरबस निकल गई होगी

नाम गुम हो गये हैं खत से ’अमित’
हर्फ़, स्याही निगल गई होगी।

किसी को महल देता है किसी को घर नहीं देता 

किसी को महल देता है किसी को घर नहीं देता
ये क्या इंसाफ है मालिक? कोई उत्तर नहीं देता

जिन्हे निद्रा नहीं आती पडे़ हैं नर्म गद्दों पर
जो थक चूर हैं श्रम से उन्हे बिस्तर नहीं देता

ये कैसा कर्म जिसका पीढ़ियाँ भुगतान करती हैं
ये क्या मज़हब है जो सबको सही अवसर नहीं देता

तुम्हारी सृष्टि के कितने सुमन भूखे औऽ प्यासे हैं
दयानिधि! इनके प्यालों को कभी क्यों भर नहीं देता

मुझे विश्वास पूरा है, तेरी ताकत औऽ हस्ती पर
तू क्यों इक बार सबको इक बराबर कर नहीं देता

यूँ चम्पई रंगत प सिंदूरी निखार है

यूँ चम्पई रंगत प सिंदूरी निखार है
इंसानी पैरहन[1] में गुले-हरसिंगार है।

धानी से दुपट्टे में बसंती सी हलचलें
मौज़े-ख़िरामे-हुस्न[2] कि फ़स्ले-बहार[3] है।

गुजरा है कारवाने-क़ायनात[4] इधर से
ये कहकशाँ[5] की धुन्ध भी मिस्ले-गुबार[6] है।

पापोश के बगैर वो गुजरा है इधर से
रस्ते के धूलकन में अभी तक ख़ुमार है।

जिस पर भी पड़ गयी है निगहे-नाज़े-सरसरी[7]
इंसाँ नियाजे-हुस्न[8] का उम्मीदवार है।

आतिश जले कहीं भी पहुँचते हैं फ़ित्रतन[9]
दीवावगी का अहद[10] भी परवानावार[11] है।

क्यूँ हुस्न प लगती रही पाक़ीज़गी[12] की शर्त
पूछा कभी कि इश्क़ भी परहेजगार[13] है।

इतने क़रीब से भी न गुजरे कोई ’अमित’
गो आग बुझ भी जाय प रहता शरार[14] है।

शब्दार्थ
  1. ऊपर जायें वस्त्र
  2. ऊपर जायें सौन्दर्य के चाल की तरंग
  3. ऊपर जायें बसन्त
  4. ऊपर जायें ब्रह्माण्ड का कारवाँ
  5. ऊपर जायें आकाश गंगा
  6. ऊपर जायें गुबार की तरह
  7. ऊपर जायें मान से युक्त सरसरी निगाह
  8. ऊपर जायें हुस्न की कृपा
  9. ऊपर जायें स्वाभाविक रूप
  10. ऊपर जायें प्रतिज्ञा
  11. ऊपर जायें परवानो की तरह
  12. ऊपर जायें पवित्रता
  13. ऊपर जायें संयमी
  14. ऊपर जायें चिंगारी

जो मेरे दिल में रहा एक निशानी बनकर

जो मेरे दिल में रहा एक निशानी बनकर।
आज निकला है वही आँख का पानी बनकर।

जिसपे लिक्खे थे कभी हमने वफ़ा के किस्से,
रह गया वो भी सफ़ा एक कहानी बनकर।

एक खु़शबू सी अभी तक जेहन में जिन्दा है,
कभी शेफाली, कभी रात की रानी बनकर।

आग का दरिया भी आया है नजर पानी सा,
दौर मुझपर भी वो गुजरा है जवानी बनकर।

होशियारी भी वहाँ काम नहीं आई ’अमित’,
लूटने वाला चला आया था दानी बनकर।

मैं बहरहाल बुत बना सा था 

मैं बहरहाल बुत बना सा था
वो भी मग़रूर और तना सा था

कुछ शरायत दरख़्त ने रख दीं
वरना साया बहुत घना सा था

साक़िये-कमनिगाह से अर्ज़ी
जैसे पत्थर को पूजना सा था

ख़ूब दमसाज़ थी ख़ुशबू लेकिन
साँस लेना वहाँ मना सा था

दर्द से यूँ तो नया नहीं था ‘अमित’
अज़नबी अबके आश्ना सा था

शब्दार्थ:
शरायत = शर्त का बहुवचन, साक़िये-कमनिगाह = पक्षपात करने वाला साक़ी, दमसाज़ = प्राणदायक,
त‍अर्रुफ़ = परिचय, आश्ना = परिचित

किसी को इतना न चाहो के बदगुमाँ हो जाय

किसी को इतना न चाहो के बदगुमाँ हो जाय
न लौ को इतना बढ़ाओ के वो धुआँ हो जाय

ग़र हो परवाज़[1] पे पहरा ज़ुबाँ पे पाबन्दी
तो फिर क़फ़स[2] ही मेरा क्यों न आशियाँ हो जाय

न चुप ही गुज़रे न रोकर शबे-फ़िराक़[3] कटे
तू एक झलक दिखा कर जो बेनिशाँ हो जाय

लोग लेते हैं मेरा नाम तेरे नाम के साथ
कल ये अफ़वाह ही बढ़ कर न दास्ताँ हो जाय

ख़ुशमिज़ाजी भी तेरी मुझको डरा देती है
तेरा मज़ाक रहे, मेरा इम्तेहाँ हो जाय

सितमशियार कई और हैं तुम्हारे सिवा
कहीं न दर्द मेरा, दर्दे-ज़ाविदाँ[4] हो जाय

भीख में इश्क़ भी मुझको नहीं कुबूल ‘अमित’
भले वो जाने-सुकूँ[5] मुझसे सरगिराँ[6] हो जाय

शब्दार्थ
  1. ऊपर जायें उड़ान
  2. ऊपर जायें पिंजरा
  3. ऊपर जायें वियोग की रात
  4. ऊपर जायें स्थाई दर्द जो मृत्यु के साथ ख़त्म होता है
  5. ऊपर जायें शान्ति प्रदान करने बाला प्रिय-पात्र
  6. ऊपर जायें रुष्ट, नाख़ुश

एक बेनाम महबूब के नाम

चाहता हूँ कि तेरा रूप मेरी चाह में हो
तेरी हर साँस मेरी साँस की पनाह में हो
मेरे महबूब तेरा ख़ुद का जिस्म न हो
मेरे एहसास की मूरत कोई तिलिस्म न हो
ढूँढता फिरता हूँ हर सिम्त भुला के ख़ुद को
अपनी पोशीदा रिहाइश का पता दे मुझको
तुझसे मिलने की क़सम मैंने नहीं तोड़ी है
दिल ने उम्मीद बहरहाल नहीं छोड़ी है
तुझको पाने का अभी मुझको इख़्तियार नहीं
पर मेरा इश्क़ कोई रेत की दीवार नहीं
बावफ़ा अब भी हूँ पर मेरी कहानी है अलग
मेरी आँखें हैं अलग आँख का पानी है अलग
अब न मजबूरी-ओ-दूरी का गिला कर मुझसे
यूँ नहीं है तो तसव्वुर में मिला कर मुझसे
मेरे महबूब तू इक रोज़ इधर आयेगा
हाँ मगर वक़्त का दरिया तो गुज़र जायेगा
तब न शाख़ों पे कहीं गुल नही पत्ते होंगे
जा-ब-जा बिखरे हुये बर्फ़ के छत्ते होंगे
एक मनहूस सफ़ेदी यहाँ फैली होगी
चाँदनी अपनी ही परछाई से मैली होगी
तब भी जज़्बात पे हालात का पहरा होगा
वक़्त इक फीकी हँसी पर कहीं ठहरा होगा
पस्त-कदमों से तू चलता हुआ जब आयेगा
सर्द-तूफ़ान के झोकों से सिहर जायेगा
मेरे अल्फ़ाज़ में तब भी यही नरमी होगी
और मेरे कोट में अहसास की गरमी होगी

शब्दार्थ:
तिलिस्म = रहस्य, हर सिम्त = सभी ओर या हर तरफ़, पोशीदा रिहाइश = गुप्त निवास, बहरहाल = हर हाल में,
इख़्तियार = अधिकार,बावफ़ा = बफ़ादार, गिला = शिकायत, तसव्वुर = ख़याल या ध्यान, जा-ब-जा = जगह – जगह,
ज़ज़्बात = भवनायें, हालात = परिस्थितियाँ,पस्त-कदमों से = छोटे कदमों से, अल्फ़ाज़ में = शब्दों में, कोट = कोट।

मेरी गुर्बत को मत नापो

मेरी गु़र्बत को मत नापो
मुझे गु़र्बत से मत नापो
मैं जीवन की सही पहचान रहना चाहता हूँ
मेरी सनदों को मत नापो
मुझे सनदों से मत नापो
मैं अपने अह्द में ईमान रहना चाहता हूँ
मेरे ओहदे को मत नापो
मुझे ओहदे से मत नापो
मैं अदना सा बस इक इंसान रहना चाहता हूँ
मेरी शोहरत को मत नापो
मुझे शोहरत से मत नापो
मैं मुश्किल में भी इक मुस्कान रहना चाहता हूँ
मेरी ग़फ़्लत को मत नापो
मुझे ग़फ़्लत से मत नापो
मैं सब कुछ जान कर अंजान रहना चाहता हूँ

अगर तुम नाप सकते हो
तो मेरी आशिकी नापो
जुनूने-ज़िन्दगी नापो
जुर‍अते-शायरी नापो

मेरी खुद्दार नज़रों में
कभी आसूदगी नापो
मईशत की तराजू पर
कभी नेकी-बदी नापो
अगर तुम नाप सकते हो

मिज़ाजे-अफ़सरी नापो
ज़मीरे-कमतरी नापो
हुकूमत के वज़ीरों की
कभी दानिशवरी नापो

अंधेरों के भवँर नापो
उजालो के कहर नापो
नफ़स में फैलता जाता
सियासत का ज़हर नापो
अगर तुम नाप सकते हो!

अगर यह काम मुश्किल है
तो मुझको यूँ ही रहने दो
मैं अपना वैद खुद ही हूँ
मुझे उपचार करने दो

मैं जीवन की सही पहचान रहना चाहता हूँ
मैं अपने अहद में ईमान रहना चाहता हूँ
मैं अदना सा बस इक इंसान रहना चाहता हूँ
मैं मुश्किल में भी इक मुस्कान रहना चाहता हूँ
मैं सब कुछ जान कर अंजान रहना चाहता हूँ

शब्दार्थ:
गु़र्बत = गरीबी, कंगाली ; सनदों = प्रमाणों (प्रमाणपत्रों)
अह्द = प्रतिज्ञा, वचन; ग़फ़्लत = असावधानी, भूल
खुद्दार = स्वाभिमानी; आसूदगी = संतोष, तृप्ति;
मईशत = जीविका; दानिशवरी = बुद्धिमत्ता;
नफ़स = साँस; वैद = वैद्य

अहम की ओढ़ कर चादर 

अहम की ओढ़ कर चादर
फिरा करते हैं हम अक्सर

अहम अहमों से टकराते
बिखरते चूर होते हैं
मगर फिर भी अहम के हाथ
हम मजबूर होते हैं
अहम का एक टुकड़ा भी
नया आकार लेता है
ये शोणित बीज का वंशज
पुनः हुंकार लेता है
अहम को जीत लेने का
अहम पलता है बढ़-चढ़ कर
अहम की ओढ़ कर …..

विनय शीलो में भी अपनी
विनय का अहम होता है
वो अन्तिम साँस तक अपनी
वहम का अहम ढोता है
अहम ने देश बाँटॆ हैं
अहम फ़िरकों का पोषक है
अहम इंसान के ज़ज़्बात का भी
मौन शोषक है
अहम पर ठेस लग जाये
कसक रहती है जीवन भर
अहम की ओढ़ करे चादर …

रिश्तों का व्याकरण

अनुकरण की
होड़ में अन्तःकरण चिकना घड़ा है
और रिश्तों का पुराना व्याकरण
बिखरा पड़ा है।

दब गया है
कैरियर के बोझ से मासूम बचपन
अर्थ-वैभव हो गया है सफलता का सहज मापन
सफलता के
शीर्ष पर जिसके पदों का हुआ वन्दन
देखिये किस-किस की गर्दन को
दबा कर वो खड़ा है।
और रिश्तों का पुराना व्याकरण
बिखरा पड़ा है।

सीरियल के
नाटकों में समय अनुबंधित हुआ है
परिजनो से वार्ता-परिहास क्रम
खंडित हुआ है
है कुटिल
तलवार अंतर्जाल का माया जगत भी
प्रगति है यह या कि फिर विध्वंस
का खतरा बड़ा है।
और रिश्तों का पुराना व्याकरण
बिखरा पड़ा है।

नग्नता
नवसंस्कृति की भूमि में पहला चरण है
व्यक्तिगत स्वच्छ्न्दता ही प्रगतिधर्मी
आचरण है
नई संस्कृति के नये
अवदान भी दिखने लगे अब
आदमी अपनी हवस की दलदलों
में जा गड़ा है
और रिश्तों का पुराना व्याकरण
बिखरा पड़ा है।

रात देखो जा रही है

भय कहीं विश्राम लेने जा रहा है
भोर का तारा नज़र बस आ रहा है
और अब पहली किरन मुस्का रही है
रात देखो जा रही है।

फड़फड़ाये पंख पीपल के
कि पत्ते पक्षियों के
झुण्ड वापस जा रहे हैं
नगर के उपरक्षियों के
ठण्ड से सिकुड़ी हवा
मानो पुनः गति पा रही है।
रात देखो जा रही है।

मौन था अभिसार फिर भी
मुखर है अभिव्यक्ति उसकी
जागरण के चिह्न आँखों में
लटें हैं मुक्त जिसकी
भींचती रसबिम्ब
आँगन पार करती आ रही है।
रात देखो जा रही है।

यंत्र-चालित से उठे हैं हाथ
यह क्या? पार्श्व खाली
कहा दर्पण ने मिटा लो
वक्त्र से सिन्दूर, लाली
रात्रि के मधुपान की
स्मृति हृदय सहला रही है।
रात देखो जा रही है।

फिर उड़ेला चिमनियों ने
ज़हर सा वातावरण में
हुआ कोलाहल चतुर्दिक
उठो, भागो चलो रण में
स्वप्न-समिधा ,
जीविका की वेदिका सुलगा रही है।
रात देखो जा रही है।

साँस-साँस चन्दन होती है 

साँस-साँस चन्दन होती है,
जब तुम होते हो
अँगनाई मधुबन होती है,
जब तुम होते हो

जब प्रवास के बाद कभी तुम,
आते हो घर में
खुशियों के सौरभ का झोंका,
लाते हो घर में
तुम्हें समीप देख कर बरबस
अश्रु छलक जाते
अंग-अंग पुलकन होती है,
जब तुम होते हो

रोम-रोम अनुभूति तुम्हारे,
होने की होती
अधर-राग धुल जाता, बिंदिया,
भी सुध-बुध खोती
संयम के तट-बंध टूटते,
विषम ज्वार-बल से
मन की तृषा अगन होती है,
जब तुम होते हो

कितने प्रहर बीत जाते हैं,
काँधे सर रख कर
केश व्यवस्थित कर देते तुम,
जो आते मुख पर
कितनी ही बातें होतीं,
निःशब्द तरंगों में
रजनी वृन्दावन होती है,
जब तुम होते हो

मुझे याद आई धरती की

मुझे याद आई धरती की।

मैनें देखा,
मैनें देखा
क्षीणकाय तरुणी, वृद्धा सी
लुंचित केश, वसन मटमैले, निर्वसना सी
घुटनों को बाँहों में कस कर देह सकेले
मुझे याद आई गंगा की।

मैनें देखा,
मैनें देखा
बीड़ी से चिपके बचपन को
कन्धे पर बोरा लटकाये, मनुज-सुमन को
सड़ते कचरे से जो बीन रहा जीवन को
मुझे याद आई प्रायः सूकर छौनों की।

मैनें देखा,
मैनें देखा
कमरे की दीवाल-घड़ी का सुस्त पेण्डुलम
धक्कों से ठेलता समय को, धीरे-धीरे
टन-टन की ध्वनि भी आती ज्यों दूर क्षितिज से
मुझे याद आई दादी की।

मैनें देखा,
मैनें देखा
गया न देखा फिर कुछ मुझसे
दिनकर के वंशज समस्त ले रहे वज़ीफे
अंधियारों से
मंचों पर सन्नाटा फैला, आती है आवाज़ सिर्फ़ अब,
गलियारों से
आँखें करके बन्द सोचता हूँ अच्छा है
नेत्रहीन होने का सुख कितना सच्चा है
तब से आँख खोलने में भी डर लगता है
रहता है कुछ और, और मुझको दिखता है।

दीपावली

जागी श्याम-विभावरी शुभकरी, दीपांकिता वस्त्रिता
कल्माशांतक ज्योति शुभ्र बिखरी, आलोकिता है निशा
ज्योतिष्मान स्वयं प्रतीचिपट से, सन्देश देता गया
दीपों की अवली प्रदीप्त कर दे, संपूर्ण पुण्या धरा

राकानाथ निमग्न हैं शयन में, तारावली दीपिता
तारों का प्रतिबिम्ब ही अवनि में, दीपावली सा बना
लक्ष्मी भी तज क्षीर-धाम उतरीं, देखी जु शोभा घनी
देतीं सी सबको प्रबोध मन में, जैसे सुसंजीवनी

मुझे उर्दू नहीं आती

मुझे उर्दू नहीं आती, मुझे हिन्दी नहीं आती।

मुझे आती है इक भाषा कि जिसमें बोलता हूँ मैं
हृदय के स्राव को शब्दों के जल में घोलता हूँ मै
वो भाषा जिसमें तुतलाकर मैं पहली बार बोला था
जिसे सुनकर मेरी माँ के नयन में अश्रु डोला था
उठा कर बाँह में उसने मेरे मुखड़े को चूमा था
सुनहरे स्वपन का इक सिलसिला आँखों में घूमा था
वो भाषा मेरे होंठों पर दुआ बन करके चिपकी है
वो किस्सा है, कहानी है, वो लोरी है, वो थपकी है
खुले आकाश में अपने परों को तोलती है वो
मेरी भाषा को सीमाओं की चकबन्दी नहीं आती
मुझे उर्दू नहीं आती, मुझे हिन्दी नहीं आती।

न वर्णों का समुच्चय है, न व्याकरणों की टोली है
मेरी भाषा, मेरे अन्तर के उद्‍गारों की बोली है
दृगों के मौन सम्भाषण में भी मुँह खोलता हूँ मैं
जहाँ होता है सन्नाटा, वहाँ भी बोलता हूँ मैं
ये पर्वत, वन, नदी, झरने इसी में वास लेते हैं
मृगादिक, वन्य पशु-पक्षी इसी में साँस लेते हैं
मेरी भाषा में बोले, आदिकवि, मिल्टन कि हों गेटे
वो ग़ालिब, संत तुलसी, मीर या बंगाल के बेटे
जगत की वेदनाओं से सहज संवाद करती है
मेरी भाषा को विश्वासों की पाबंदी नहीं आती
मुझे उर्दू नहीं आती, मुझे हिन्दी नहीं आती।

मुझे कुछ रोष है ऐसे स्वघोषित कलमकारों पर
इबारत जो नहीं पढ़्ते भविष्यत की दीवारों पर
जो बहते नीर को पोखरों-कुओं में बाँट देते हैं
जो अपने मत प्रवर्तन हेतु खेमें छाँट लेते हैं
मुझे प्रतिबद्धता की कल्पना प्रतिबंन्ध लगती है
सॄजन के क्षेत्र में यह वर्जना की गन्ध लगती है
हृदय के भाव अनगढ़ हों तो सोंधे और सलोने हैं
किसी मत में जकड़ते ही ये बेदम से खिलौने हैं
विचारों के नये पुष्पों के सौरभ में नहाती है
मेरी भाषा को सिन्द्धान्तों की गुटबन्दी नहीं आती
मुझे उर्दू नहीं आती, मुझे हिन्दी नहीं आती

एक प्रवासी

लौट! घर चल मुसाफ़िर

कहाँ अब आसरा परदेश में है
यहाँ छल का चलन हर वेश में है
नेह के नीर आँखों में नहीं हैं
स्वार्थ के रेशमी कल हर कहीं हैं
बहुत रोका तुझे
बरबस गया फिर
लौट! घर चल मुसाफ़िर

तेरा अधिवास तेरे गाँव में है
भले ही पेड़ की लघु छाँव में है
यहाँ कितना! बसेरे का किराया
दण्ड भी! यदि न वादे पर चुकाया
गया कोई तो
आया है नया फिर
लौट! घर चल मुसाफ़िर

शहर की याद होगी साथ तेरे
नियति की वर्तिका पर शलभ-फेरे
जहाँ घुमड़े कभी बादल घनेरे
वहीं मरुथल ने डाले आज डेरे
न आशा में कोई
दीपक जला फिर
लौट! घर चल मुसाफ़िर

मेरे मित्र मेरे एकान्त 

मेरे मित्र मेरे एकान्त
सस्मित और शान्त
कितने सदय हो
सुनते हो मन की
टोका नहीं कभी
रोका भी नहीं कभी
तुम्हारे साथ जो पल बीते
सम्बल है उनका
हम रहे जीते

मेरे मित्र
मेरे एकान्त
आज बहुत थका सा
लौटा हूँ भ्रमण से
पदचाप सुनता हूँ
कल्पित विश्रान्ति का
या अपनी भ्रान्ति का

मेरे मित्र
मेरे एकान्त
जानते हो!
केवल एक तुम ही
मेरे एकालाप को
सुनते हो बिन-उकताये
इसीलिये बार-बार
दुनिया से हार-हार
शरण में आता हूँ

मेरे प्रिय सुहृद
मेरे एकान्त
क्या तुम मुझे नहीं रख सकते
सदैव अपने अंक में
कोलाहल से दूर
जहाँ मैं सो लूँ
एक नींद
जो फिर न खुले

गर्मी के दिन

भोर जल्द भाग गई लू के डर से
साँझ भी निकली है बहुत देर में घर से
पछुँआ के झोकों से बरसती अगिन
गर्मी के दिन।
पशु-पक्षी पेड़-पुष्प सब हैं बेहाल
सूरज ने बना दिया सबको कंकाल
माँ चिड़िया लाती पर दाने बिन-बिन
गर्मी के दिन।
हैण्डपम्प पर कौव्वा ठोंक रहा टोंट
कुत्ता भी नमी देख गया वहीं लोट
दुपहरिया बीत रही करके छिन-छिन
गर्मी के दिन।
बच्चों की छुट्टी है नानी घर तंग
ऊधम दिन भर, चलती आपस की जंग
दिन में दो पल सोना हो गया कठिन
गर्मी के दिन।
शादी बारातों का न्योता है रोज
कहीं बहूभोज हुआ कहीं प्रीतिभोज
पेट-जेब दोनों के आये दुर्दिन
गर्मी के दिन।
गर्मी के दिन।

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