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बूढ़े पंखों का सहारा ले

बूढे पंखों का
सहारा ले
रंग
छिपे पहाडो तक
जा पहुचते

आप ही उत्त्पन
दिलासाओं के संग
सही – सही के
मायनों की दहलीजें
पार कर जाते हैं

हौले से ,
दौड़ते पानी की
रफ्तार माँप
काँच सी पोशाक
भिगो लेते

रंग
मांगे वाक्यों के
प्रतिबिम्बों में समाये
हाशियों को बिखेर ,
धकेलकर क्षितिज की देह

गहरे कोहरे को
मथने
कहीं और
निकल पड़ते ।

कुछ आहट
जरुर लगती है ।

अल्लाह की जात-अल्लाह के रंग

इसक
की
कुछ आहट
जरुर लगती है

जिधर देखो
असंख्य दृश्य
अपने सा
अर्थ देते

पढ़-पढ़कर
नन्हे निवेदन
केवडे के फूल
उस अपार नूर का
चुग्गा चुग जाते

अकह को कहकर
अगह को गहकर
कैसी कैसी
गनिमते गिनते हैं

दबा-दबाकर
गहरी रेत में
कितना पकाया जाता
भरी-भरी आँखों के सामने ही
बाहर निकल
पी जाते
अमर बूटी
मीठा महारस

तभी तो
हर इक
चेहरे को

ज्यों की त्यों
अल्लाह की जात
अल्लाह के रंग
का
पता देते हैं
इसक
की

सुलगती रेत में

तपती
सुलगती रेत में
पसरा
शिलालेख
करता तुम्हारी प्रतीक्षा

लिखी
जिस पर
कथा
दिशाओं के
विलाप की ।

आधे से आधा चुन लेता

आधे
से
आधा
चुन लेता

अपने आप
पानी सा
सब पर प्रकट होता है

चाक चढा समय
उस भूले दृश्य को
गंतव्य की
साझेदारी देता ,
पैने – पैने शब्दों की
विसर्जित मात्राओं
के साथ
अगली कडियाँ जोड़
फिर
दोहराता
तराशने वाला
तिलिस्मी हिसाब ,

अधिकांश
सिर्फ
आभास में
रख देते

कोई
आधे
से
आधा
चुन लेता

समराथल 

कितनी विस्तृत
ये रेत

अपनी देह के भार से भर जाती
पत्थर – पत्थर हो जाती
रेखाओं सी दौड़ने लगती है
कंकडों के किलों की
निगरानी कर
हज़ार – हज़ार स्पर्शों को चूम
अक्षांश – देशांतर जोड़ती

कहीं दूर
रात भी जगती है जहाँ
संभल संभलकर
सुनहरे त्रिकोण पर बैठ
फरागत से भरा
समराथल
बनाती

कितनी विस्तृत
ये रेत ।

ले उड़ी 

कहकर
कुछ शब्द
कमल की पँखुरियों से
झरते
समय को
कथा-सी
ले उड़ी

नहीं
सम्भलता
उससे
समय
अब तो सिर्फ़
निशाना लगाती है

चिड़िया
शाख-दर-शाख
हरा जोबन चढ़ाती है।

ठण्डी कविता 

कितना
जानो
अपने आपको

जितना
लोग जानते
फिर भी नहीं
बोलते
वहीं राह चलते

कविता
जानती भी
बोलती भी है

शायद कोयल
कविता ही
गर्म दोपहर में
ठण्डी कविता।

असम्भव लगता

असम्भव
लगता
कह पाना

यूँ मानो
अपने आपको
दोहराता हुआ
देह से भिन्न
कोई आस्वादन,

सत्य के
अनुकरण में
क्या इतना कुछ
काफी नहीं,

या फिर
इसका उल्टा
साल दर साल

किसी का
अनुयायी
बने रहना
शायद
असम्भव ही।

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