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अफ़्साना-ए-हयात को दोहरा रहा हूँ मैं 

अफ़्साना-ए-हयात को दोहरा रहा हूँ मैं
यूँ अपनी उम्र-ए-रफ़्ता को लौटा रहा हूँ मैं

इक इक क़दम पे दर्स-ए-वफ़ा दे रहा हूँ मैं
ये किस की जुस्तुजू है किधर जा रहा हूँ मैं

या रब किसी का दाम-ए-हसीं मुंतज़िर न हो
पर शौक़ के लगे हैं उड़ा जा रहा हूँ मैं

इस सहर-ए-रंग-ओ-बू ने तो दीवाना कर दिया
दामन के तार तार को उलझा रहा हूँ मैं

सोज़-ए-दरून-ए-सीना को नग़मों में ढाल रहा हूँ मैं
साज़-ए-नफ़स के तार को बर्मा रहा हूँ मैं

राह-ए-तलब में देख मेरे दिल की हसरतें
साए में पा-ए-ख़िज्र को सहला रहा हूँ मैं

रस्ते की ऊँच नीच से वाक़िफ़ तो हूँ ‘अमीं’
ठोकर क़दम क़दम पे मगर खा रहा हूँ मैं

लाले पड़े हैं जान के जीने का एहतमाम कर

लाले पड़े हैं जान के जीने का एहतमाम कर
जिन में हो कैफ़-ए-ज़िंदगी बहर-ए-ख़ुदा वो काम कर

तौर-ए-हयात से उड़ा जज़्बा-ए-ज़ीस्तन की आग
जब कहीं जा के नीयत-ए-ज़िंदगी दवाम कर

पहले ये सोच दाम के तोड़ने की सकत भी है
बाद को दिल में ख़्वाहिश-ए-दान-ए-ज़ेर-ए-दम कर

तुझ को तेरी ही आँख से देख रही है काएनात
बात ये राज़ की नहीं अपना ख़ुद एहतराम कर

हैफ़ समझ रहा है तू अपनी झिजक को मुहतसिब
मय-कदा-ए-हयात में शौक़ से मय-ब-जाम कर

नक़्श नवी नहीं है तू सफ़्हा-ए-रोज़-गार पर
मिटने से गर नहीं मफ़र मिट ही के अपना नाम कर

बंदा-ए-ख़्वाहिशात को कहता है कौन अब्द-ए-हुर
चाहिए हुर्रियत अगर दिल को ‘अमीं’ गुलाम कर

नुमूद-ए-रंग-ओ-बू ने मार डाला

नुमूद-ए-रंग-ओ-बू ने मार डाला
उसी की आरज़ू ने मार डाला

न दुनिया ही का रक्खा और न दीं का
दिल-ए-मदहोश तू ने मार डाला

तकल्लुम का फ़ुसूँ अल्लाहु-अकबर
किसी की गुफ़्तुगू ने मार डाला

न रूदाद-ए-हुबाब-ए-ज़िंदगी पूछ
ख़िराम-ए-आब-जू ने मार डाला

ख़ुदा वाइज़ से समझ हश्र के दिन
हमें उस बे-वुज़ू ने मार डाला

ज़माने के ‘अमीं’ मुँह कौन आता
ख़याल-ए-आबरू ने मार डाला

यूँ दिल है सर ब-सज्दा किसी के हुज़ूर में 

यूँ दिल है सर ब-सज्दा किसी के हुज़ूर में
जैसे की गोता-ज़न हो कोई बहर-ए-नूर में

हँस हँस के कह रही है चमन की कली कली
आता है लुत्फ़ हुस्न को अपने ज़ुहूर में

साक़ी निगाह-ए-मस्त से देता है जब कभी
लगते हैं चार-चाँद हमारे सुरूर में

खाएँ जनाब-ए-शैख़ फ़रेब-ए-क़यास-ओ-वहम
ये कैफ़-ए-जान-नवाज़ कहाँ चश्म-ए-हूर में

मिस्ल-ए-कलीम कौन सुने लन-तरानियाँ
मेरे लिए कशिश ही कहाँ कूह-ए-तूर में

बेश-अज़ दो हर्फ़ अपनी नहीं दास्ताँ-ए-दर्द
हम गिर के आसमान से अटके ख़ुजूर में

ये शोख़ियाँ कलाम में यूँही नहीं ‘अमीं’
पढ़ने चले हैं आप ग़ज़ल रामपुर में

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