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अम्बिकाप्रसाद वर्मा ‘दिव्य’ की रचनाएँ

एक-रदन कुंजर-बदन, लम्बोदर लघु-नैन।
सिद्धि लही जग सुमिर तुहिं, कस पाँऊ गौ मैं न।।1।।

फाँदि दीठि-गुनि मन-घटहिं, रूप-कूप में डारि।
को न पियत जग-मग चलत, सुखमा-सलिल निकारि।।2।।

जनि मुख देखै मुकुर में, परिहै उलटि उदोत।
कहाँ समायेगौ रुके, छवि-सरिता को सोत।।3।।

कह्यो जात नहिं रहत है, रुई लपेटी आग।
लखौ फारि घूँघट, लगत, कस नहिं हिये दवाग।।4।।

कौन सिया की खोज में, फिरत बिकल दिन रैन।
राम लखन से धनुष लै, कानन-सेवी नैन।।5।।

नयन-नीर-निधि की कछू, उलटी चाल लखाय।
मुख-शशि देखे घटत जल, बिनु देखे उमड़ाय।।6।।

लखि बिरहिन के प्रान सखि, मीचहुँ नाहिं दिखात।
फिर फिर आवत लेन पै, मुयौ समुझि फिर जात।।7।।

का कहिये इन दृगन कौं, कै चन्दा कै भानु।
सौहैं ये शीतल लगैं, पीछे होंय कृशानु।।8।।

आग जुदाई की सकैं, कैसे आँसु बुझाइ।
टूटत दोहू दृगन तें, जुदे जुदे जब जाइ।।9।।

उतर न घूँघट-रन्ध्र में, चढ़िबौ कठिन महान।
तिय यह तेरे हित रच्यो, रे मन मूसादान।।10।।

दोहा / भाग 2 

आह भरत दिन, यामिनी, रोवत अँसुवन ढारि।
सन्ध एकहि घरी की, बिरहै एक अपार।।11।।

नेह-नदी में सुमन सौ, बिखरि जात यह गात।
मन बूड़त, दृग बहत, जिय, छिन छिन गोता खात।।12।।

बिन्दी लाल लिलार पै,दई बाल यहि हेत।
समझैं आवत दृग पथिक, खतरा कौ संकेत।।13।।

तिय मो मानस-कूप में, गिर्यो कछू तव है न।
काँटे सी भू्र डारि कै, कहा बिलोवै नैन।।14।।

आधी अँखियन देखि तिय, आधौ करै न काहि।
कैसे सो पूरन बचै, निरखै पूरिन जाहि।।15।।

कस न रिपटि नैना गिरै, सुखमा-सर मँझधार।
अंगराग अंगन चढ्यो, जनु सोपान सिवार।।16।।

रवि शशि ते कहुँ सौ गुनी, मुख पैं सुखमा स्वच्छ।
मुख लखि बिकसत हिय नयन, कमल कुमुद तें अच्छ।।17।।

को जीतत हारत कहो, लोयन की सखि रार।
जो डारत धारत कि जो, अपने उर में हार।।18।।

चितै चितै इत उत चितै, देत उतै उहिं ओर।
उहि चितवन चित नचत जनु, लखि निर्जन-बन मोर।।19।।

मुख चितवत गिर गिर परत, चख पद नख की ओर।
गिरत उत्यो जेत्थो चढ़त, मानहु रज-गिरि जोर।।20।।

दोहा / भाग 3 

रूप-कूप में सुमुखि के, मन-घट देखि अरै न।
फेर न रीतत भरे ते, रीते बिनु निक सैन।।21।।

को अँखियारो सकत है, हरि सौ आँख लगाय।
सपनेहूँ में लखि उहैं, लगी आँख खुल जाय।।22।।

किहि पहिनावत है अरी, गुहि अँसुवन को हार।
पिय नहिं बैठयो, है हिये, बानर बिरह अनार।।23।।

बचि मेरे दृग-सरन तें, छिपे मो हिए आइ।
कहँ छिपिहौ हरि छिनक में, दैहौं हियौ जराइ।।24।।

यह दृग देखें दसहुँ दिसि, छिपौ कहाँ नँदराइ।
छिपनौ है यदि दृगन सौं, छिपौ दृगन में आइ।।25।।

इन बिशाल अँखियान कौं, जलधहुँ कहैं न तोष।
काहि न बाँधे मथे ये, काहि न लेवे शोष।।26।।

गहन परे हम करति हैं, जपतप पूजा दान।
बिरह परे हम शशि-मुखिनि, शशि कत होत कृसानु।।27।।

यहि तनु बैठ्यो बिरह-चिक, बैंचत माँस तरासि।
मिलन-आस दै जात लै, आमिष-प्रिय प्रति स्वाँसि।।28।।

हारी पपिहौ सौं रटत, पिउ पिउ आठौ याम।
घर आये घन स्याम नहिं, घिर आये घन स्याम।।29।।

करयो कहा हम बाल कस, रोवत मीरत नैन।
लेखौं जु हरि नैनन बसो, कसिके कै कसि कै न।।30।।

दोहा / भाग 4

ऐसी कहूँ प्रतीक्षा, देखी हम सुकुमार।
सूख रही है द्वार पै, खुद ह्वै बन्दनवार।।31।।

जित अटकै चटकै न तिति, चटकै पुन अटकै न।
खेली हरि अब खेलिहौं, अटकन-चटकन मैं न।।32।।

कहाँ पियत डारत कहाँ, घट सौं जीवन-धार।
प्यास लगी हरि है तुम्हैं, सींचत हियौ हमार।।33।।

कही उड़ौ ज्यों आज जो, आवत हों नँद लाल।
कागा उड़िबे कौं करी, पँख सी फूली बाल।।34।।

घाली बिरहा बाघ की, को दूवे सखि तोय।
मीचहुं फिर फिर जात लखि, सभ्य स्यार सी होय।।35।।

दाहत है बिरहीन कों, सुलगि सुलगि सब गात।
शशि न अरे अंगार यहु, किन चकोर उड़ि खात।।36।।

बाँटौ बटै न दुख सखी, यहू कहत सब कोइ।
हौं मरहौं तो पियहिं का, बिरह न दूनो होइ।।37।।

लौ पल्लव-अँगरा-सुमन, भस्मी जासु पराग।
सूख्यो तरु कों करत है, तरुन पुनः लगि आग।।38।।

किन उपदेस्यो इन दृगन, गुरु गीता को ज्ञान।
जकत न जान अजान पै, चालत चितवन बान।।39।।

सदा दिवारी हू रहत, श्री न जात कहुँ छोड़ि।
तन-द्युति लहि जँह दीप सौं, राखत भूषण होड़ि।।40।।

दोहा / भाग 5

तिरछी सिधी चाल-चलि, ज्यों गज उष्ट्र तुरंग।
देन मात हिय-शाह कों, खेलत दृग सतरंग।।41।।

इन अयान अँखियान कौं, कहा बिसाह्यो बैर।
असवस जिन वसनिज किये, गैर किये निज गैर।।42।।

भये अनोखे वैद ये, नये नौसिखा नैन।
सब रोगन पै एक रस, सीख्यो गोरस दैन।।43।।

कहत हँसी करि शशि मुखी, दुखी करत कस मोइ।
तुम्हैं देखि हरि ह्वै सुखी, को हँसमुखी न होइ।।44।।

शैशव अस्व बनाइ तुहिं, यौवन मत्त मतंग।
बना ऊँट बैठत जरा, नर तेरो क्या रंग।।45।।

नेह लतन की जतन सौं, हृदय निकुंजनि गोइ।
राखौ बतियाँ मिलन की, जनि उँगरावे कोइ।।46।।

कहँ सखि मिलत मदान में, भरे उजास उमंग।
जीवन में मिलि नेह जस, खरे खिलावत रंग।।47।।

उलटी गति यह नेह की, लगतन लगै न देर।
लगै लगाये हू नहीं, मेटे मिटै न फेर।।48।।

आज कली कल कुसुम खिलि, परौं जाति मिलिधूल।
अलि कासौं अनुराग करि, रह्यो आपुकों भूल।।49।।

बरजत तुम्हें बसन्त हम, इन बागन जन आव।
आये शीत सिरात है, गये लगत है लाव।।50।।

दोहा / भाग 6

विरह-मिलन-दिन यामिनी, नगुनि नेह निशि नाथ।
घटत बढ़त प्रकटत दुरत, रहत एक सम साथ।।51।।

जब तें भे हरि और के, तब तें भे हरि और।।52।।

बाँधी बेनी-असित-अहि, बाँधि असित पँखमोर।
बाँधिय काले कान्ह कों, कजरा दै दृग कोरि।।53।।

प्रेम-पयोनिधि की पृथा, कुल बिपरीत लखाइ।
तिरत सुमन सौ मन सदा, मन सौ तनु उतराइ।।54।।

सोहत बिन्छी भाल पै, कालिन्दी मझधार।
इन्दीवर पै चढ़ी जनु, इन्द्रबधू सुकुमार।।55।।

कितनौ बरसौ जलद जल, भरौ सरित सर कूप।
ये नैना भरिहैं नहीं, बिनु देखे तद्रूप।।56।।

जब लौं पिय सौंहैं खरे, डारि गरे मंे बाहिं।
जगमय पिय तब लौं लखौं, पिय मय जग जब नाहिं।।57।।

अपने अनुभव तें कहौं, जनि लगाव कोउ नेह।
सौ रोगन कौ रोग यहि, सौ औगुन को गेह।।58।।

नेह न छूटै बरु जरै, निर्जीवन ह्वै गात।
जीवन-धन घनस्याम लौं, धुवाँ अवस उड़ि जात।।59।।

पिय आवन की बाट में, लटकी दिहरी द्वार।
अटकी रहत किवार सी, झटकी सी सुकुमार।।60।।

दोहा / भाग 7

दो कौ दो तक ही पढ़ो, चहिए दृगन पहार।
बढ़त तीन कौं होत हैं, साँचहु छै ही सार।।61।।

लिखि लिखि जात शरीर पै, करुन कथा निज काल।
दुख सुख हमैं जो होत है, वहि कौ पढ़े सुहाल।।62।।

मन हू दिये न मन मिलत, है मन इतौ अमोल।
बिना मोल के लेत पै, जिनके लोचन लोल।।63।।

अमिय लगत मदिरा रमत, विष बिछुरित तिय नैन।
जीव भुगुत अरु मीचिहू, बिधि-हरि-हर ह्वै दैन।।64।।

अरे बटोही प्रेम-मग, सम्हर धारियो पाँइ।
सम-थल समुझि न भूलियो, पग पग कपट कुराँइ।।65।।

को चाहत कोउ दूसरो, होवे आप समान।
विधि हू देत न चारमुख, काहू कों यहि ठान।।66।।

अपनी ही जो आह की, आँच लगे कुम्हलात।
ताहि जरावे कत अनल, बरसत झंझावात।।67।।

इत की उत-उत की इतै, कहि कहि बात बनाइ।
चुगल चवाइन सैन यहि, लोइन देत लड़ाइ।।68।।

चार होत चख मिलि जबै, जीत लोक की लाज।
चारहु फल युत मिलत है, चारहु दिशि कौ राज।।69।।

भले ऊजरो होइ रँग, कहैं कनक सौ लोइ।
पै पिय-पारस परस बिनु, काया कनक न होइ।।70।।

दोहा / भाग 8

नित प्रति पावस ही रहत, बरसत आठों याम।
ये नैना घनस्याम बिनु, आप भये घनस्याम।।71।।

नयन-नीरदहु ये कृपन, बरसत कछु न बिचारि।
सुख में स्वाँती बूँद कछु, दुख में मूसरधारि।।72।।

एक बिन्दु दृग-मसि गये, चली रोशनी जात।
कस न गये फिर श्याम के, दृग सौं, होवे रात।।73।।

तोरत मोरत तरुन कों, जीवन सोखतजात।
चली की आवत है जरा, चलत कि झंझावात।।74।।

मुक्तन हू की यह दसा, सेवत तिय के अंग।
भुक्तन की का चालिये, जिन उर बसत अनंग।।75।।

सीदत भव रुज सौं सदा, गुन न करत रस कोइ।
जाहि न लगत कवित्त रस, ताकी दवा न होइ।।76।।

काटत जाके वाहि के, जियत लगाये नेह।
नहीं स्वान सौं न्यून ये, नैना विषके गेह।।77।।

है अति सीधी खोलबौ, लज्जा की सरफूँद।
पै जो फन्दा में फँसत, ताहि देत है खूँद।।78।।

को न आपनो जगत में, जीवन देत डरात।
विरह जरत यहि हिये में, नींदहु धसत सँकात।।79।।

निधरक हरि पहिरें रहो, धरौ न धरकि उतारि।
कौन अहीरिन को सकत, कह, हीरन को हारि।।80।।

दोहा / भाग 9

बजे तुम्हारे एक से, वंसी संख मुरारि।
वंसी ब्रज बीहर कर्यो, संख दिली संहार।।81।।

दौरे आये गगन तें, गरुड़ बिना गज हेत।
सुनत न हरि गज-गवनि की, विरह-ग्राह जिय लेत।।82।।

इन मृग नैनिन का भयो, भजि भजि कुंजन जाँइ।
कुंज-बिहारी, केहरी, जहाँ बसैं बिरमाँइ।।83।।

जब लौं सँग हरि राधिका, हरयो रहै यह बाग।
बिछुरत पीरी राधिका, स्यामहु कोरे काग।।84।।

परी विरह-मरु कुरंग है, प्यास प्रेम-जल भूर।
प्रेम सरोवर स्यामरो, नियरे पहुँचत दूर।।85।।

ज्यों ज्यों तनु तें लरकई, झरत राख सी जात।
अँग अँग आवत कढ़त नव, अँगरा से रत-गात।।86।।

इक व्रज-माली के गये, उजर गयो यह बाग।
कोइल जहँ बोलत रही, तहँ बोलत अब काग।।87।।

आग और बिरहाग की, है कछु उलटी टेक।
एक बुझत ईधन बिना, ईधन बिना न एक।।88।।

परभृत कारे कान्ह की, भगनि लगै सतभाइ।
ननद हमारी कुहिलिया, कस न हमैं तिनगाइ।।89।।

ओही ब्रज ओही विटप, ओही बिपिन बिहंग।
बिनु ब्रज बानिक के भये, बीहर बेरस रंग।।90।।

दोहा / भाग 10 

नैन भले बोलैं सुनैं, बिनु जिह्वा बिनु कान।
हीरा कैसी हिये की, करैं परख पहिचान।।91।।

स्वाँसा के टूटे बहुर, उर नहिं लेत उसाँसु।
आसा के टूटे गिरत, टूट टूट ये आँसु।।92।।

कोलत काठ कठोर क्यौं, होत कमल मैं बन्द।
आई मो मन-भँवर की, इतनी बात पसन्द।।93।।

समय पाइ कै रूप धन, मिलत सबैई आइ।
विलस न जानै याहि जो, समय गए पछताइ।।94।।

ससि चकोर के दरद कौ, जब तुहिं असर न होई।
कूहू निसा षोड़स कला, तब तैं बैठत खोइ।।95।।

चल न सकै निज ठौर तैं, जे तन-प्रभु अभिराम।
तहाँ आइ रस बरसिबौ, लाजिम तुहि घन-स्याम।।96।।

तेरी है या साहिबी, वार पार सब ठौर।
रसनिधि कौ निसतार लै, तुही प्रभूकर गौर।।97।।

रोम रोम जो अद्य भर्यो पतितन में सिरनाम।
रसनिधि वाहि निबाहिबौ, प्रभु तेरोई काम।।98।।

स्याही बारन तैं गई, मन तैं भई न दूर।
समझ चतुर चित बात यह, रहत बिसूर बिसूर।।99।।

अधम-उधारन बिरद तुव, अधम-उधार न काज।
जो पै रसनिधि औगुनी, तुमैं सौ गुनी लाज।।100।।

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