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चीख़

कहता हूँ गानेवाली बुलबुल
तभी एक पिंजरा लिए
बढ़ आते हैं हाथ
मैं कहता हूँ- कोई भी एक चिड़ि९या
इतने में ही
वे संभाल लेते हैं गुलेल
एक गहरी चीख़
बनकर
रह जाती है
कविता
शान्ति के नाम पर
पता नहीं वे किसके विरुद्ध
अभी तक लड़े जा रहे हैं
एक युद्ध श्रंखला!

गुनता हूँ 

मैं गुनता हूँ
तुम गिनते हो
मैं बुनता हूँ
तुम बीनते हो
मैं छूता हूँ
तुम छीनते हो

तुम्हारे गिनने, बीनने-छीनने में
मारा जाता है सच
छा जाता है चौतरफ़ा झूठ
कितना होता है उजाड़
कितने होते हैं अनाथ
सूख जाती है हरियाली
हर तरफ़ ठूँठ ही ठूँठ

मैं गुनता हूँ।

बर्फ़ 

मुझसे टकराया मिट्टी का कच्चा घड़ा
और मैं टूट कर बिखर गया
एक हहराती नदी
अचानक मुझे भिगो गई नींद में
आज तक गीले हैं
मेरे कपड़े
मैं कहाँ सुखाने जाऊँ इन्हें

क्या बीती सदी के फ़्रीज में
जमाई हुई बर्फ़ हूँ मैं
जिसे पिघलना है
अब नई सदी की धूप में!

सम्मोहन 

तुम्हारी हँसी देखी
और ख़ुद हँसना भूल गया
एक-एक बूँद आँसू में
मैं जैसे डूब गया
तुम्हारी एक हिचकी
फैल गई समूची रात पर
और चाँद उतर आया
धीरे से
मेरे हाथ पर।

लड़की और लोकगीत

अम्मा को रोऊँ
मैं सावन-भादों
बाबू को जेठ-आषाढ़
भैया को रोऊँ चैत महीना
भौजी को रोऊँ बैशाख
छोटकी को रोऊँ
क्वार औ’ कातिक
बाबा को रोऊँ मैं माघ

अपने ख़ातिर मैं कैसे रोऊँ अम्मा
आँसू कम पड़ जाएँ

नहीं मिला सकता हाथ

एक साधारण आदमी की तरह
मैं लिपटा रहा भूख से-बेगारी से
मेहनत-महामारी से
बेशर्म की तरह, आदत से लाचार
अब भी मैं करता हूँ प्यार
किसी नारी से
घृणा व्यभिचारी से

मैं नहीं मिला सकता हाथ किसी व्यापारी से।
जानता हूँ
सफ़लता के लिए घातक हैं ये आदिम आचार
मेरे हिस्से आती है हार
इसीलिए बार-बार
फिर भी मैं जागता हूँ, सूतता हूँ
और उनकी जीत पर मूतता हूँ।

गुजरात 

गुज़र जाए रात
और हाथ में आए
पड़ोसी का हाथ
तो धोकला खाने किसी प्रात
मैं जाऊँ गुजरात।

पोंछकर आँसू अहमदाबाद
फिर से नाचे डांडिया
और ख़ुशियाँ हों आबाद

इंतज़ार है मुझे
कब तक गलेगा यह पहाड़
कब मैं जाऊँगा काठियावाड़
वहाँ खुले हुए हैं
मेरे लिए
किसी के घर के किवाड़।

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