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अरुण श्री की रचनाएँ

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आवारा कवि

अपनी आवारा कविताओं में –
पहाड़ से उतरती नदी में देखता हूँ पहाड़ी लड़की का यौवन!
हवाओं में सूंघता हूँ उसके आवारा होने की गंध!
पत्थरों को काट पगडण्डी बनाता हूँ!
लेकिन सुस्ताते हुए जब भी सोचता हूँ प्रेम तो देह लिखता हूँ!
जैसे खेत जोतता किसान सोचता है फसल का पक जाना!

और जब –
मैं उतर आता हूँ पूर्वजों की कब्र पर फूल चढाने –
कविताओं को उड़ा नदी तक ले जाती है आवारा हवा!
आवारा नदी पहाड़ों की ओर बहने लगती है!
रहस्य नहीं रह जाते पत्थरों पर उकेरे मैथुनरत चित्र!
चाँद की रोशनी में किया गया प्रेम सूरज तक पहुँचता है!
चुगलखोर सूरज पसर जाता पहाड़ों के आंगन में!
जल-भुन गए शिखरों से पिघल जाती है बर्फ!
बाढ़ में डूब कर मर जाती हैं पगडंडियाँ!

मैं तय नहीं पाता प्रेम और अभिशाप के बीच की दूरी!
किसी अँधेरी गुफा में जा गर्भपात करवा लेती है आवारा लड़की!
आवारा लड़की को ढूंढते हुए मर जाता है प्रेम!
अभिशाप खोंस लेता हूँ मैं कस कर बांधी गई पगड़ी में,
और लिखने लगता हूँ –
अपने असफल प्रेम पर “प्रेम की सफल कविताएँ”!

लेकिन –
मैं जब भी लिखता हूँ उसके लिए प्रेम तो झूठ लिखता हूँ!
प्रेम नहीं किया जाता प्रेमिका की सड़ी हुई लाश से!
अपवित्र दिनों के रक्तस्राव से तिलक नहीं लगता कोई योद्धा!

दुर्घटना के छाती पर इतिहास लिखता हुआ युद्धरत मैं –
उस आवारा लड़की को भूल जाऊंगा एक दिन,
और वो दिन –
एक आवारा कवि का बुद्ध हो जाने की ओर पहला कदम होगा!

विस्मृत होते पिता

कभी कभी –
विस्मृतियों से निकल सपने में लौट आते हैं पिता!
पूछते है कि उनके नाम के अक्षर छोटे क्यों हैं!
मैं उन अक्षरों के नीचे एक गाढ़ी लकीर खिंच देता हूँ!
जाते हुए अपना जूता मेरे सिरहाने छोड़ जाते हैं पिता!
मैं दिखाता हूँ अपने बनियान का बड़ा होता छेद!
और जब –
मैं खड़ा होता हूँ संतुष्टि और महत्वाकांक्षा के ठीक बीच,
मेरे पैर थोड़े और बड़े हो जाते हैं!
मैं देखता हूँ पिता को उदास होते हुए!

कभी कभी –
अहाते में अपने ही रोपे नीम से लटके देखता हूँ पिता को!
अधखुली खिडकी से मुझे देखती पिता की नकार दी गई रूह –
बताती है मुझे नीम और आम के बीच का अंतर!
कुछ और कसैली हो जाती है कमरे की हवा!
मैं जोर से साँस अंदर खींचता हूँ,
खिडकी की ओर पीठ कर प्रेयसी को याद करता हूँ मैं!
लेकिन सीत्कारों के बीच भी सुनता हूँ खांसने की आवाजें!
पिता मुस्कुरा देते हैं!

कभी कभी –
मैं अपने बेटे से पूछता हूँ पिता होने का अर्थ!
वो मुट्ठी में भींची टॉफियाँ दिखाता है!
मुस्कुराता हुआ मैं अपने जूतों के लिए कब्र खोदता हूँ!
अपने आखिरी दिनों में काट दूँगा नीम का पेड़ भी!
नहीं पूछूँगा –
कि मेरा नाम बड़े अक्षरों में क्यों नहीं लिखा उसने!
उसे स्वतंत्र करते हुए मुक्त हो जाऊंगा मैं भी!

अपने पिता जैसे निराश नहीं होना चाहता मैं!
मैं नहीं चाहता कि मेरा बेटा मेरे जैसा हो!

मैं देव न हो सकूंगा 

सुनो,
व्यर्थ गई तुम्हारी आराधना!
अर्घ्य से भला पत्थर नम हो सके कभी?
बजबजाती नालियों में पवित्र जल सड़ गया आखिर!
मैं देव न हुआ!

सुनो,
प्रेम पानी जैसा है तुम्हारे लिए!
तुम्हारा मछ्लीपन प्रेम की परिभाषा नहीं जानता!
मैं ध्वनियों का क्रम समझता हूँ प्रेम को!
तुम्हारी कल्पना से परे है झील का सूख जाना!
मेरे गीतों में पानी बिना मर जाती है मछली!
मैं अगला गीत “अनुकूलन” पर लिखूंगा!

सुनो,
अंतरंग क्षणों में तुम्हारा मुस्कुराना सर्वश्व माँगता है!
प्रत्युत्तर में मुस्कुरा देता हूँ मैं भी!
तुम्हारी और मेरी मुस्कान को समानार्थी समझती हो तुम-
जबकि संवादों में अंतर है “ही” और “भी” निपात का!
संभवतः अल्प है तुम्हारा व्याकरण ज्ञान-
तुम्हरी प्रबल आस्था के सापेक्ष!

सुनो,
मैं देव न हो सकूंगा!
मेरे गीतों में सूखी रहेगी झील!
मैं व्याकरण की कसौटी पर परखूँगा हर संवाद!

सुनो,
मुझसे प्रेम करना छोड़ क्यों नहीं देती तुम?

पाखंड

कवि!
तुम स्त्री होने की घोषणा करते हो स्त्री लिखते हुए
मानो भोगा हो तुमने-
– अपवित्र दिनों की धार्मिक उपेक्षाएँ
– प्रसव पीड़ा और रोते बच्चे को सुलाने का सुख भी!

तुम कहते हो-
– कि आवश्यक है एक स्त्री होना कवि होने के लिए!
– कि मुस्कुराना स्वीकार का लक्षण है!

जबकि-
– किसी स्त्री के हस्ताक्षर नहीं तुम्हारे उपसंहारीय कथन के नीचे!
– तुम्हारे शीर्षक पर मुस्कुरा देती है स्त्री!

तुम्हारी कविताओं में जन्म लेती है स्त्री,
अपने स्त्रियोचित उभारों के साथ!
और –
जब तुम लिख रहे होते हो नैसर्गिक और निषेध वाली पंक्ति,
वो मुस्कुराकर दुपट्टा संभालना सीख लेती है!

तुम्हारे शब्द उसकी परिधि कम करते हैं!
वो बढ़ा लेती है अपनी मुस्कुराहटें!

और लगभग अंत में-
तुम बंजर होने की प्रक्रिया कहते हो मोनोपाज को!
उसके होंठो पर तैर जाती है मुक्ति की मुस्कराहट!

आश्चर्य है-
– कि मुस्कुराहटों का रहस्य नहीं समझते तुम!
– कि एक पुरुष तय करता है स्त्री होने की परिभाषा!

लेकिन ,
संभवतः नहीं देखा तुमने स्त्रियों के अंतरंग क्षणों में-
हँस देती है मुस्कुराती हुई स्त्री,
जब एक पुरुष करता है- स्त्री होने का पाखंड!

याद रखना

जी रहा अब तक उठाए जिन दिनों का मैं सलीब।
याद रखना उन दिनों मुझसे किया था प्यार तुमने।
प्रेम साधा जा चूका था, साधना था विश्व तुमको,
मैं भला क्यों रोकता तुमको तुम्हारा तप लजाता।
उन दिनों मैं सूर्य होता था तुम्हारी आस्था का।
और तुमने रख लिया माथे लगाकर,
माँग शुभ-आशीष मेरा –
“चाँद बन चमको किसी आँगन, तुम्हें सींचा करूँगा”
आँख भर आँसू छुपा चुपचाप मैं –
तकता रहा सुन्दर सजा आँगन तुम्हारा,
होंठ भर मुस्कान ओढ़े कर लिया श्रृंगार तुमने।
याद रखना उन दिनों मुझसे किया था प्यार तुमने।
कब कहा मैंने कि है बाकी मेरा अधिकार तुमपर,
कब कहा पथ रोक लूँगा देखते ही,
कब कहा तुम याद आती हो अभी तक?
हाँ !
मगर है चाह, मेरा दृश्य अंतिम –
‘लाँघ कर चौखट चला मैं देश दूजे,
द्वार से तुम कह रही –
“जाना संभलकर,जल्द आना,राह देखूंगी”।
जानता हूँ बचपना है।
बार अनगिन बचपने ही बचपने में किन्तु मुझको,
दे दिए थे कुछ बड़े उपहार तुमने।
याद रखना उन दिनों मुझसे किया था प्यार तुमने।

बुद्धिजीवियों के षड्यंत्र

मैं रोज-रोज कुवाँ खोदने वाला एक लगभग कवि –
पानी की तलाश करूँ –
या किसी वाद की पांडुलिपियों के रहस्य खोजूं?
घर और सड़कों से कविताएँ बीनता मैं –
मिलती फुर्सत तो पढता तुम्हारे महान ग्रन्थ भी।

माफ करना लेकिन मैं नहीं कह सकता –
कि मर्यादित ही हैं तुम्हारे राम के सारे आचरण।
दरअसल समय के साथ –
बदल जाती है मर्यादा की परिभाषा और चरित्र भी।

तुम देते रहो –
वातानुकूलित मंचों से कृष्ण के प्रेम का उदाहरण,
मुझे तो अपना प्रेम समझ न आया आज तक।
आश्चर्य तो ये कि तुम प्रेम की बात करते –
खाप के विषय में बात करना जरुरी नहीं समझते।
सुना है कि लव-जेहाद की चर्चा खूब है इन दिनों।

मेरे सरोकार का प्रश्न नहीं –
कि तुम्हारा महिषासुर शहीद हुआ या वधा गया।
इतना जरुर कि दबे हुओं का उत्थान –
किसी शहादत या विजय दिवस से तो नहीं होगा।
दुर्गा के वेश्या-पुत्री होने में तुम्हारा कितना हित?
जहर का इलाज खोजते जहरीले हो रहे हो तुम भी।

दरअसल पाषाण काल के पत्थरों पर रह गए –
वीर्य-अवशेष जितने अनुत्पादक हैं तुम्हारे प्रतीक।
तुम प्रकार-प्रकार के अंधभक्तों का पेशाबी प्रवचन,
नहीं सुनने देता –
समय का रुदन, आश्वासन, हँसी और सित्कारें।

अलग देश-काल-परिस्थितियों को भोगता हुआ मैं,
नहीं जानता कि ये मिथक –
सन्मार्ग की ओर प्रेरित करने के लिए थे,
या समकालीन बुद्धिजीवियों के षड्यंत्र का हिस्सा।

जानते हो?
प्रतीक बच निकलने का रास्ता सुझाते हैं अक्सर।
तीन बंदरों के चरित्र वाले तुम –
महान-पुराने वक्तव्यों में तलाशो अपना ब्रह्म-सत्य।
मुझे तय करनी हैं –
अपने समय की प्राथमिकताएँ और मेरी पक्षधरता।
मेरे गाल तुम्हारे गाँधी बाबा की बपौती नहीं हैं।

मेरे विद्रोही शब्द

नहीं सामंत !
सम्मोहित प्रजा का आँकड़ा बढाती संख्या नहीं मैं।
मेरा वैचारिक खुरदरापन –
एक प्रखर विलोम है तुम्हारी जादुई भाषा का।
पट्टे की कीमत पर पकवान के सपने बेचते हो तुम।
मेरी जीभ का चिकना होना जरुरी है तुम्हारे लिए।

नहीं सामंत !
रोटी का विकल्प नहीं हो सकतीं चंद्रयान योजनाएं।
प्रस्तावित अच्छे दिनों की कीमत मेरी जीभ नहीं है।

नहीं सामंत !
तुम्हारे मुकुट का एक रत्न होना स्वीकार नहीं मुझे।
शब्दों के विलुप्त होने की प्रक्रिया समझाते तुम –
विद्रोही कवियों से एक अदद प्रशस्तिगान चाहते हो।
लेकिन मेरे लिए सापेक्ष तुम्हारा झंडा थामने के –
कंगूरे से कूद आत्महत्या कर लेना बेहतर विकल्प है।

नहीं सामंत !
अपनी क्रन्तिकारी कविताएँ मैं तुम्हे नहीं सौंपूंगा।
मेरे विद्रोही शब्द तुम्हारी भाषा का उपसर्ग नहीं बनेंगे।

नींव का पत्थर

सुनो राजन ! तुम्हे राजा बनाया है हमीं ने।
और अब हम ही खड़े है –
हाथ बाँधे,
सर झुकाए,
सामने अट्टालिकाओं के तुम्हारे।

तुम –
हमारी सभ्यता के स्वघोषित आराध्य बनकर
जिस अटारी पर खड़े हो,
जिन कंगूरों पर तुम्हारे नाम का झंडा गड़ा है,
उस महल की नींव देखो –
क्षत-विक्षत लाशें पड़ी है,
हम निरीहों के अधूरे ख्वाहिशों की।
और दीवारें बनी है ईंट से हैवानियत की।

खत्म जादू हो गया जादू भरे सम्बोधनों का –
दब गई चीत्कार सब कुचले हुओं की।
अट्टाहासों से तुम्हारे हार माने –
सिसकियाँ, आहें सभी हारे हुओं की।

तुम्हारी वासनाओं के भरे भंडार सारे
भूख हम सब की तुम्हें दिखती नहीं है।

सिसकियाँ तुम सुन न पाए
अब मेरी हुंकार देखो,
आँख से झरता हुआ अंगार देखो।
मैं उठा तो फिर कहाँ रोके रुकूँगा।

एक दिन मैं नींव का पत्थर कंगूरों तक चढूँगा।

पिऽया अपने त गइलें कलकतवा रे नाऽ

पुरानी लोक-कहानियों में –
नए प्रेम संग रोटी का प्रश्न लिए कलकत्ते चले जाते पिया।
पिया-प्रेम में पड़ी नई ब्याहता के हिस्से आता वियोग।
वो अकेले जाँत पीसती जँतसार में पिरोती अपनी विरह –
“पिऽया अपने त गइलें कलकतवा रे नाऽ”
जाँत के भारी हो जाने की बात करती –
बताना चाहती कि कुछ कमजोर हो गई है इन दिनों,
याद करती झींक देते पिया के हाथ, चुहल करती आँखें।
कलकत्ते से हर महीने आता लिफाफाबंद प्रेम और रोटी।

मैं कलकत्ता नहीं गया कभी,
जिंदगी के हर सवाल पर कविताएँ लिखता रहा बस।
लेकिन –
कविताओं से हल नहीं होते भूख के जटिल समीकरण।
बूढी हड्डियों की हिम्मत को तिल-तिल मारता दर्द –
इकलौती बैसाखी के टूटने से कम होगा या फिर दवा से।
जीवन का ये गैर-साहित्यिक गणित –
कम जरुरी विषय नहीं है, भाषा के व्याकरण की अपेक्षा।

अपने बिस्तर का एक कोना कलकत्ता बना रखा है मैंने।
दुसरे कोने पर मेरी ब्याहता –
जाँत पीसते हुए, पीसती है अपने कुछ सुरीले सपने भी।

एक हाथ कलकत्ता और दुसरे हाथ प्रेम सँभालते हुए मैं,
कविताओं और बेटे में करता हूँ –
अपने समय का सबसे जोखिम भरा निवेश।
मेरी ब्याहता नहीं गाती कोई विरह गीत –
कि कहीं अधूरी न छूट जाएँ लिखी जाती प्रेम कविताएँ।
मेरा खून जलता है, उसके आँसू भी सूखते है साथ-साथ।
रोटी और कविताओं के बीच –
उलझा-बिखरा हुआ मैं, उसे चूमना भूल जाता हूँ अक्सर।

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