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मौसम-ए-गुल पर ख़िज़ाँ का ज़ोर चल जाता है क्यूँ 

मौसम-ए-गुल पर ख़िज़ाँ का ज़ोर चल जाता है क्यूँ
हर हसीं मंज़र बहुत जल्दी बदल जाता है क्यूँ

यूँ अंधेरे में दिखाकर रौशनी की इक झलक
मेरी मुट्ठी से हर इक जुगनू निकल जाता है क्यूँ

रौशनी का इक मुसाफिर थक के घर आता है जब
तो अंधेरा मेरे सूरज को निगल जाता है क्यूँ

तेरे लफ़्ज़ों की तपिश से क्यूँ सुलग उठती है जाँ
सर्द-मेहरी से भी तेरी दिल ये जल जाता है क्यूँ

अब के जब लौटेगा वो तो फ़ासला रक्खेंगे हम
ये इरादा उस के आते ही बदल जाता है क्यूँ

दूर है सूरज ‘अलीना’ फिर भी उस की धूप से
बर्फ़ की चादर में लिपटा तन पिघल जाता है क्यूँ

आज फिर 

मैं आज फिर
बंद पल्कों के उस पार
चाँदनी को सुलगता देख रही हूँ
मेरा जिस्म बर्फ़ की मानिंद सर्द है
मगर साँस आग बरसा रही है
और शायद
बर्फ़ हुए जिस्म में
ज्वाला-मुखी सुलगता रहेगा
हमेशा

मुझे तो इंतिज़ार-ए-इश्क़ में ही लुत्फ़ आता है

मुझे तो इंतिज़ार-ए-इश्क़ में ही लुत्फ़ आता है
किसी की चाहतों का रंग हर धड़कन पे तारी हो
अजब सा कर्ब बेचैनी मुसलसल बे-क़रारी हो
निगाहें मुंतज़िर फ़ुर्क़त कसक और आह-ओ-ज़ारी हो
मुझे तो इंतिज़ार-ए-इश्क़ में ही लुत्फ़ आता है
कभी पहलू में मिलता है कभी वो दूर जाता है
किसी कि जिस्म ओ जाँ को इश्क़ हर लम्हा जलाता है
तसव्वुर कैसे कैसे दिल-नशीं मंज़र दिखाता है
मुझे ते इंतिज़ार-ए-इश्क़ में ही लुत्फ़ आता है
अभी तो फ़ुर्क़त-ए-जानाँ के क़िस्से ख़ूब लिखने हैं
दबी चाहत के नग़्मे और तराने ख़ूब लिखने हैं
रिफ़ाक़त में जुदाई के फ़साने ख़ूब लिखने हैं
मुझे ते इंतिज़ार-ए-इश्क़ में ही लुत्फ़ आता है
‘अलीना’ इंतिज़ार-ए-इश्क़ ग़ज़लों को सजा देगा
विसाल-ए-यार तो बस चंद लम्हों को मज़ा देगा
मिलन हो फिर जुदाई ऐसा पल हर पल सज़ा देगा
मुझे तो इंतिज़ार-ए-इश्क़ में ही लुत्फ़ आता है

नज़्म तकमील

कहीं पे दूर किसी अजनबी सी घाटी में
किसी का एक हसीं शाहकार हो जैसे
मुसव्विरी की इक उम्दा मिसाल लगती थी
कोई इनायत-ए-परवर-दिगार हो जैसे
ये ज़िंदगी के हर इक रंग से थी बेगानी
ख़याल ओ ख़्वाब की बातों से थी वो अनजानी
बनाने वाले ने उस को बना के छोड़ा था
और उस के चेहरे पे इक नाम लिख के छोड़ा था
न दी ज़बाँ न कोई आईना दिया उस को
बना के बुत यूँ ज़मीं पर सजा दिया उस को
उसे ज़माने की बातों से कुछ गिला ही न था
सिवाए जिस्म के एहसास कुछ मिला ही न था
फिर एक रोज़ किसी नर्म नर्म झोंके ने
कहा ये कान में आ कर बहुत ही चुपके से
ज़रा सा आँखों को खोलो तो तुम को दिखलाऊँ
महकती ज़िंदगी कैसे है तुम को सिखलाऊँ
कहाँ से आई हो कब से यहाँ खड़ी हो तुम
मिरे वजूद के हर रंग से जुडी हो तुम
ये गुनगुनाती हुई वादियाँ ये गुल-कारी
नदी के झूमती गाती हुई ये कल-कारी
ये धूप छाँव के बादल ये मख़मली एहसास
मचल रहे हैं बहुत प्यार से तुम्हारे पास
महकते दिल हैं यहाँ ख़ुशबू-ए-मोहब्बत से
ख़ुदा के नूर से पैदा हुई हरारत से
हवा का झोंका जो कानों में उस के बोल गया
तो उस ने चौंक के पल्कों को अपनी खोल दिया
ये वादियों का हसीं रंग उसे ने जब देखा
हुई ये सोच के हैरान उस ने अब देखा
बदन में जितने थे एहसास वो मचलने लगे
नज़ारे उस की निगाहों के साथ चलने लगे
ये रंग-ओ-नूर के क़िस्से समझ में आने लगे
हसीन आँखों में कुछ ख़्वाब झिलमिलाने लगे
और ऐसे हो के मुकम्मल वो हुस्न की मूरत
किसी के प्यार की ख़ुशबू से बन गई औरत

शाम की पुरवाई 

आज परवाज़ ख़यालों ने जुदा सी पाई
आज फिर भूली हुई याद किसी की आई
जिस्म में साज़ खनकने का हुआ है एहसास
और बजने लगी सरगम सी कहीं ज़ेहन के पास
मेरी ज़ुल्फ़ों ने बिखर कर कोई सरगोशी की
कैसी आवाज़ हुई आज ये ख़ामोशी की
तेरी आहट तिरा अंदाज़ जुदा है अब भी
तू ही दुनिया-ए-मोहब्बत की सदा है अब भी
इस तसव्वुर पे ‘अलीना’ को हँसी आई है
ये कोई और नहीं शाम की पुरवाई है

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