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Avtar engil.jpg

मनखान जब राजा था

जोगिया रेशम का लबादा ओढ़े
सफेद ‘इच्छाबल’पर सवार
राजा मनखान
काले पर्वत की कच्ची सड़क पर
चलते हैं घोड़ा भगाए
ऍड़-पर ऍड़ लगाए
मुतलाशी मनखान
मिट्टी के रंग की तलाश में
या उस मिट्टी की खोज में
जिसका कोई रंग नहीं

राजा के संग हैं
वफादार लशकर
पतली-कमर-वाले शिकारी कुत्ते
सेना के रथ,
हिनहिनाते दरबारी
खनकती सुराहियां
छलकती हुई सुरा के ढोल
लुढ़क गये जो
काले पहाड़ की कच्ची सड़क पर

पता नहीं चला
घुड़सवार मनखान को
कि कब उनका घोड़ा
बिना रंग की मिट्टी की सीमा
पार कर गया

देखा मनखIन ने
मुड़कर पीछे
तो कहीं कुछ नहीं था:
….जंगल जैसे लील गया था
लश्कर
कुत्ते
दरबारी
वेश्याएं
सुरा के ढोल

हवाओं संग उड़ता
सरसराता लबादा सहेज
मनखiन
घोड़े से उतारते हैं …
उनके पाँव तले बिछी है
बिना रंग की मिटटी !

पर अजीब बात है
आज राजा देख नहीं पा रहे
बिना रंग की मिटटी.. ,
जिसकी तलाश में निकले थे वह

उनकी आँखों में तिरते हैं
पश्चिम में घिरते बादल
चक्राकार नाचते आते
धूळ के मीनार
विलाप करती भटकतीं तेज़ हवाएं…

कैसें देखें राजा मनखान
पाँव तले बिछी
बिना रंग की मिट्टी?

राजा के मस्तक में रेंगती है
एक स्लेटी छिपकिली
और, फिर उड़ चलता है
“इच्छाबल” का अश्वारोही
धरती-दर-धरती
अम्बर-दर-अम्बर

रुकता है
राजा मनखान का घोड़ा
एक पुरानी सराए के द्वार पर I

खींचते हुए लगाम
पूछते हैं राजा
उस अनादी सराए की मालकिन – कटी छातियों वाली हब्शिन से :
अरे, सुनो ! सुनो तो !
इधर से कोई लश्कर तो नहीं निकला?

हब्शिन इनकार में सर हिलाती है
मनखान लगाते हैं , घोड़े को एंड …

एकाएक रास्ते कट जाते हैं
बादल फट जाते हैं

जिधर भी घूमता है राजा का घोड़ा
लपलपाती है आग
तपता है उनका भाल
झुलसते हैं उनके माथे के बाल

बजाती है हब्शिन तालियाँ तीन —
ठुमकती आतीं : दो गौर-वर्णी
विशाल-वक्षI
कमसिन बालाएं
हब्शिन के दाएं-बाएं
थमकर करतीं अभिवादन I

एकाएक मालकिन के हाथों में
प्रकट होते हैं —
दो जाम
जिन्हें उलट देती है वह

विशाल वक्षाओं की छातियों पर
दहकते जिस्मों से फिसल कर
निना रंग की मिट्टी पर बहती है
नरभक्षी पेड़ों की छाल से बनी मदिरा
जिसे राजा मनखान अनदेखा करते हैं

बादल से धरती तक
कौंधती है–रोशनी की शमशीर
चीर जाती है जो
हब्शिन को,गले से नाभि तक

लुप्त हो चुकी है
विशाल-वक्षा गौर वर्णा बालाएं
फिर भी पर्वतों में गूंजती है
सराय की मालकिन की
विद्रुप हंसी

काले पर्वत के बीच
वही संकरा-सर्पीला रास्ता है
उड़ाए ले जा रहे हैं
जिस पर
राजा मनखान
अपना सफेद ‘इच्छाबल’
एक बार फिर
मनखान को तलाश है
मिट्टी के रंग़ की
या उस मिट्टी की
जिसका कोई रंग नहीं।

मनखान बाज़ार में 

मनखान ने ‘तापती’ से कहा—
हे सूर्यपुत्री! तुम्हारी साड़ी अगले माह सही
इस महीने हंसा के जूते ले देते हैं
औ’ बकाया किराया चुका देते हैं

लिहाज़ा,साड़ी का रतानारा तलिस्म तोड़कर
पत्नि ने मुड़े-तुड़े नोट निकाले
और भुक्खड़ पति ने सामने पटक दिये
खिसियाए आदमी ने
तपती तापती से आंख बचाकर
झट से झपट लिए

बेटे हंसा को अंगुली से बांधकर
बाप बाज़ार चला…
रास्ते में कस्बे के मोची ने हाथ उठाया
और अदब से बोला–
बाबू जी राम राम !

राम राम ! राम राम !—-कहा मनखान ने
और सोचा मन में
निःसन्देह इसकी निगाह में
बच्चे के टूटे जूते पर रही होगी
चर्मकार आंख जूते पर धरता है
नहीं तो कौन हमें राम-राम करता है

बहरहाल, आईसक्रीम की मांग को स्थगित कर
पिता ने पुत्र को जूते की दुकान तक पहुँचाया
बच्चा भी जैसे चालीस वाट का बल्ब
दुकान की न्योन रोशनियों में चकराया

सस्ते से सस्ता जूता
मनखान को मंहगा लगा
और लगी
वह नन्हें जगमग जूतों की जोड़ी
अपनी जेब से बड़ी…..
दुकानदार का कीमती वक्त गंवाने के अपराध से
बचने के लिए
उसने बच्चे के लिए
हवाई चप्पल खरीदी
पर हंसा का पुराना जूता
कूड़े की टोकरी में डालने के बजाय
प्यार से थपथपाया
और पालीथीन के लफ़ाफे में
सहेज लिया

हवाई चप्पल पहनकर
तेज़ लू में चलते हुए भी
‘हंसा’ को लगा
कि वह मानसरोवरी हंसों के पंखों पर उड़ रहा था
पर मनखान कुढ़ रहा था
जहां से टूटा था
बहीं जुड़ रहा था
पिता-पुत्र दोनों चर्मकार के छप्पर तले पहुंचे
हंसा के फटीचर जूते
मोची के सामने खोलते हुए
मनखान बोले—
‘राम-राम,चाचा !’

मनखान आएगा

अब जंगल में आग लगी
मनखान आया
उसने उस नन्हें पौधे को
मिट्टी संग उखाड़ा
हाथों में संभाला
और विपरीत दिशा में
दौड़ता-दौड़ता चला गया

उसकी आंखों में
दहक रही थीं
जलते जंगल की परछाईयां
जिस्म में
किर्चों की तरह
चुभती थीं
आग की नीली-नारंगी आँखें
और
उस दावानल चुभन से बचने के लिए
वह तेज़,और तेज़ भागता था

उस शाम मनखान को लगा
कि वह रुक गया था
उसने दर्पण में देखा
थोड़ा झुक गया था
उसके गले में
जैसे नख चुभ रहे थे
सांस लेते हुए
वह काली हवा पी रहा था
समझ नहीं पाया मनखान
कि वह कैसे जी रहा था

एक दिन
जैसे वह सपने में जागा
आंखो खुली तो देखाअ
कि वही नन्हा पौधा
पेड़ बनकर
उसकी छाती पर खड़ा था
मनखान खुद धरती में गड़ा था
जिस पर बिछे थे
बसंत रुत में झड़े हुए
पीले कड़कड़ाते हुए पत्ते

मनखान चिल्लाया :
पेड़ भाई ! पेड़ भाई !
तुम फिर जंगल बन गये !

मनखान तो आएगा
फिर-फिर आएगा
पर तुम्हें बचा नहीं पाएगा
क्योंकि तुम नन्हें पौधे नहीं
बल्कि पेड़ हो,जंगल हो
मुझको तो आना है
फिर-फिर आना है
किसी नन्हें पौधे को
आंधी औ’ आग से बचाना है
और उसे छाती से चिपकाकर
दौड़ते,दौड़ते चले जाना है।

किसान मनखान

जब किसान मनखान ने
ज़मीन के उस टुकड़े में
अपने शब्द बीजे
तो दूर-दूर तक धूप थी

उसने आंखों पर हाथ धरकर
सामने देखाः
आवारा जानवरों का एक झुंड
ज़मीन रौंदता
भागा चला आ रहा था
मनखान
कमर पर हाथ रखकर
खड़ा हो गया
और
खुद से कहने लगा—-
तुम अड़ोगे
चाहे अड़ने के मायने हैं—टूटना
तुम लड़ोगे
चाहे लड़ने के मायने हैं रौद दिया जाना
तुम मर भी सकते हो
पर मरने का अर्थ होगा
इन बीजों का
ख़तरों में घिर जाना
फिर भी मनखान
कमज़ोर मनखान
डरो मत
तुम्हारे होने न होने से
कोई फर्क नहीं पड़ता
क्योंकि असली मुद्दा तो
धरती को बीजना है

इतना कहकर
कमज़ोर मनखान
तनकर खड़ा हो गया
और
लाठी उठाते हुए
उसके मन में
संभावना कौंधी
यह भी तो हो सकता है__
कि कल कोई आए
तेज़ हवाएं चलें
ये बीज़ उड़ें
और मन्त्र बनकर
उसकी बांसुरी में बस जाएं।

चल कर जाते हैं बच्चे स्कूल 

नन्हें बच्चे
चलकर पहुँचते हैं स्कूल
मगर
छुट्टी होते ही
घर के लिए भागते हैं

आओ !
हम कोई ऎसा खेल रचाएँ
कि बच्चे
भागते हुए स्कूल आएँ
और घर
चलकर जाएँ ।

घरौंदे 

सागर किनारे
खेलते दो बच्चों ने
मिलकर घरौंदे बनाए
देखते-देखते
लहरों के थपेड़े आए
उनके घर गिराए
और
भागकर सागर में जा छिपे

माना, कि सदैव ऎसा हुआ
तो भी
किसी भी सागर के
किसी भी तट पर
कहीं भी
कभी भी
बच्चों ने घरौंदे बनाने बन्द नहीं किए

घर

रिमझिम बरसते सावन में
वह स्त्री
बेमतलब ही
एक से दूसरे कमरे में
आ-जा रही थी

एकाएक उसे लगा
बेटे ने ही
भड़भड़ाया था द्वार
कुछ वैसी ही
अधीर पुकार

भागती आई
साँकल हटाई

वही तो था !
चश्मा लगाए
अँधियारी एक आँख छिपाए
एक टाँग वाला
उसका लाल
बैसाखी पर
तन झुकाए।

कौन कहता है तुम सत्यवादी हो 

हे दर्पण !
सभी कहते हैं
तुम झूठ नहीं बोलते !

फिर भला
दायें को बायां
बाएं को दायाँ
क्यों बताते हो

आँच जब आग बनी 

पहली बार, आँच जब आग बनी
मैंने भी, तूने भी उसकी आवाज़ सुनी
और/ पूस की रात के खिलाफ इकट्ठे होकर
आग के गिर्द नाचने लगे
दूसरी बार, आँच जब आँख बनी
गाँव के ठाकुर ने उसकी आवाज़ सुनी
उसे सोने की पालकी में सजाया
आग को उसमे बिठवाया
और हवेली के भीतरी कक्ष में कैद कर लिया
आखिरकार, तीसरी बार, आँच जो आग बनी
शब्दकार आया — आग का गीत उसने प्राणों से गाया
और – आग के अनुराग को हर दिल में बीज दिया।

( ‘पृथ्वी की आँच ‘ के कवि तुलसी रमण के लिए )

कभी कभी झूठ भी बोलता हूँ 

वह कमसिन तो है
पर सुन्दर नहीं !

संवरने की कामना
उसे ब्यूटी पार्लर ले जाती है
पर घर लौटते ही
मेरे सामने खड़ी हो जाती है
क्षण भर के लिए ही सही
वह मूर्खा
विष्व सुन्दरी हो जाती है

दर्पण हूँ तो क्या
कभी-कभी
अपनी अंतरंग सखी का मन रखने के लिये
झूठ भी बोल लेता हूँ ।

अष्टावक्र और दर्पण

मुझे बेजान दर्पण जान
अष्टावक्र मेरे सामने आया
और जमकर बैठ गया
ख़ुद से आँख चुराते हुए
उसने अपना चेहरा निहारा,
सौन्दर्य प्रसाधन वाली मायावी पिटारी खोली,
मेरे सामने फैलाई,
और मग्न हो गया
उस कुरूप आदमी ने
मुझे देखा
पर नहीं देखा

मुझे दिख गई मगर
उसकी आँख के भीतरी कक्ष में
छटपटाती,
लहराती,
एक नदी ।
तब, हज़ूर !
मेरी सत्यवादी ज़बान
अपने ही चिकने तल पर फिसलने लगी
वक्रोक्तियों में उलझने लगी
…दर्पण होते हुए भी
मैं
अष्टावक्र के वक्र छिपाने लगा
उसे सजाने लगा ।

मेरा दर्पण

सामना होते ही
दर्पण मेरा हाल-चाल पूछता है
फिर धीरे से कहता है
इधर बहुत गुस्सैल दिखने लगे हो
माथे की दोनों खड़ी सिलवटें
अब तो त्रिशूल बन चलीं है

अरे, यह झूट-मूठ मुस्कराने की हिमाकत छोड़ो
…आते-आते ही आती है, मुस्कराने की कला !

बड़े-बड़े आये
हम से नहीं छिप पाए
फिर तुम कौन खेत की मूली हो
रंग पोत कर उम्र छिपाते हो
किसे बनाते हो ?

तिलमिलाओ मत !
मुझे तोड़ने की मूर्खता भी मत करना
टूटते ही
तुम्हारे सभी मुखौटे भेदकर
पारे की तरह
भीतर तक छितरा जाऊँगा

कोई मरहम
भर नहीं पाती
मेरे दिए घाव !

किरच-किरच धंसता हूँ
तुम सों पर हंसता हूँ !
दर्पण हूँ, दर्प चूर करता हूँ
टूट भी जाऊं तो
सच के लिये मरता हूँ ।

बाघराज फोटो खिंचवा रहे हैं 

बाघ ने मेमने से कहा:
पहले मेरे अगले पंजे बांध दो
फिर मीडिया वालों को फोन लगाओ

आज, हम-तुम
संग संग फोटो खिंचवायेंगे
सभी चैनलों वाले
उसे दिखायेंगे

आगे भीड़ – पीछे भीड़
वे सभी
बाघ को धकियाते
अदालत ले जा रहे हैं
और, ख़रामा-ख़रामा चलते हुए
बाघराज मुस्करा रहे हैं
एक मृगी
बा-अदब
उनके सामने माईक करते हुए
उन्हें बोलने के लिए उकसा रही है
और अपने सामने इतने सारे मेमने देखकर
बाघराज को शर्म आ रही है

देखो ! देखो !!
मेमना उन्हें गाड़ी में बिठा रहा है
खरगोश खुश होकर
तालियां बजा रहा है
जन समुदाय सर हिला रहा है
मेमना घिघिया रहा है
बाघराज संग फोटो खिंचवा रहा है

जन्म 

डस गई
अनमने एकांत को
भीड़ निरर्थकता की

व्यर्थ अनुभूतियां
दंश के बाद
हुईं शिथिल

होने का दर्द
प्रश्नों की भीड़
और अर्थों की पीड़ा
भाग रहे हैं
जन्म की तरफ

जन्म के पश्चात
पीड़ित मुस्कान
बू की सच्चाई
ख़ुश्बू की आहट।

यूक्लिप्टस 

मेरी खिड़की के बाहर
युक्लिप्टस की
तीसरे पहर की परछाईं
पूर्व की तरफ बढ़ रही है

नदी की लकीर की अनन्त आवाज़
रोज़ की तरह है

कभी कोई पत्ता हिलता है
बिना किये आवाज़
कभी कोई पक्षी चहचहाता है
बिना मचाए शोर
गुज़रता है कोई राही
उदास-चुप

जले हुए घर-सा लाक्षा-वर्णी पहाड़
नदी की लकीर के सिरहाने बैठा है

अरे ओ यूक्लिप्टिस !
मेरी प्रतीक्षा करना
हम सहयात्री हैं।

स्वीकृती

यह धूप
जिसने मुझे उल्लास दिया
यह साया
जिसने मुझे सीमित किया
विजय के क्षण
रंगों की बरसात में भिगो गये
पराजयों के सिलसिले
आँखों की नमी को
हीरे की कनी दे गये

अरी ओ धूप !
ओ रे साये !
विजय श्री !
पराजय तुम !
तुम सभी मेरी बाहों में आओ
मुझे पूर्ण का आभास दो ।

अदालत 

साक्षी :

एक अदद
चश्मदीद गवाह
गंगा राम
वल्द गीता राम
असुरक्षा के बेपैंदे धरातल पर खड़ा
साक्षी देता है
और कहता है
हवा को आग—-आग को हवा
कितना झूठा है ‘आंखों देखा सच्च
कितना सच्चा है कविता का झूठ ।

वकील :

एक अदद वकील
काले लबादे वाला भील
कानून का भाला लिए
कितावों का हवाला लिए
देखता है सिर्फ
अभियुक्त का गला
लहराते हैं ‘तथ्य’
दनदनाता है टाईपराईटर
ठीक करते हैं आप
गले बंधे झूठ की गांठ ।

न्यायाधीश :

एक अदद न्यायाधीष
लंच के बाद
निकालते हैं
टूथ प्रिक से
जाने किसका
दांतों फंसा मांस
कुछ ही दिनों में
बदली के साथ-साथ
हो जाएगी तरक्की भी

जानते हैं खूब
कि वकील की दलील ने
पेशियों की तारीखें ही बदलनी हैं
जस्टिस डिलेड इज़ दा जस्टिस अवार्डिड ।

अभियुक्त :

एक अदद अभियुक्त्
कटघरे में नियम बंधा
चौंधिया गया था
और फिर बिंध गईं थीं उसकी आँखें
शब्दों की शमशीरों से

प्रतिलिपियों के खर्चों झुका
तर्कों के घ्रेरों रुका
पगला गया है
इस व्यूह में
धनुषधारी अर्जुन का बेटा ।

अदालतः

एक अदद चश्मदीद गवाह—-गंगा राम
एक अदद वकील—-काले लबादे वाला भील
एक मांसाहारी न्यायाधीष
देते हैं निर्णय :
एक अदद शाकाहारी अभियुक्त निश्चय ही दोषी है।

बाथरूम परछाई

स्नान गृह के फर्श पर
पानी की तैल धार
गिर
टूट
छिटक
फैल
बिखर: रुक गई है
और चमक उठा है
फर्श दर्पण
डल्ल झील-सा
कपड़े उतारती हूं
सभ्यता
रंग
प्रसाधन
कसाव : टांग कर हैंगरों में
रखकर स्थानों पर
कश्मीरी—छिक्कू केश खोल
उतार—व्यक्तित्व का भार
देखती हूं फर्श पर
फर्श में
नीचे कहीं से
देखती है और कोई मेरी तरफ : मैं ।

नहीं, नहीं
और है यह कोई
फूहड़—-सी
काली—-सी।
पीली-थुलथुल
चिर-बीमार
खुले बालों की
वेस्ट पेपर बास्केट से
झांकती है मेरी तरफ

यह फर्श की डल्ल-झील
जिसके नीचे मिट्टी
कीचड़
गारा
अंधियारा
चिपचिपाहट
कुलबुलाहट

और जिसके ऊपर
उतरूं मैं
रूप, रंग, राशि ले
कमल बन

झील के ऊपर
आसमान का दर्पण
झील के गिर्द
पर्वतों के झुण्ड
खड़े हैं स्तुति में

पर यह फर्शी अक्स
टूटकर
चुभ जाता है

मेरे पंखों के पैराशूटों में
शीशे का हर टुकड़ा
बन जाता है एक दर्पण
डल्ल झील
मुंह चिढ़ाता है यह दर्पण
छीन लेता है मेरा गुलाल
पानी की तैल धार
ग़िर,टूट, फैल,चिटक,बिखर,रुक
चमका देती है
फर्श दर्पण
डल्ल झील

कैसे कहूं कि
और है यह कोई
फूहड़-सी
काली-सी
पीली-थुलथुल
चिर-बीमार
खुले बालों की वेस्ट पेपर बास्केट से
झांकती है मेरी तरफ।

चक्रव्यूह में घिरा अभिमन्यु

धुंध,बर्फ़ और बारिश वाले
दस शहर की ठण्डी सड़कों पर
भागता परछाईयों घिरा
एक रौशन टुकड़ा : कमज़ोर भगौड़ाअ

चक्रव्यूह में घूमता अभिमन्यु ……
दण्डभोगी आकाश……
यतित पाण्डुलिपियों जैसे आदमी…….
फैंक दिये अख़बार से झांकती एक ख़बर

तुम कहते हो
कविता को टुकड़ियों में
फटी पतंग की धज्जियां हैं

काले आकाश बीच टूट गया है
अभी अभी
खिड़की का कांच
टहलते हैं अभिमन्यु
मां के भूल-कक्ष में
अपनी-अपनी सुरक्षित हथेलियां
पैंटों को छिपाए

रक्तबीजों की अपनी एक महक है
जान नहीं पाये जिसे
कवचधारी रोबो
रहना है जिन्हें प्रथम
अंकगणित में
और इधर
काले आकाश बीच
छितरा गई है
एक गुलाबी चिड़िया की आंख
देख नहीं पा रही
महायुद्धों से बड़े
कहीं बड़े
विनाशों की कहानियां।

बेताल प्रश्न

फाईलों के बोझिल अहसास-सा
बीत गया दिन
एक और दिन

शाम की मैना
प्लेटफार्म के जंगले पर
गई ऊँघ

अर्थों की भीड़ ने
बौरा दिया है
प्रश्न एक
एक प्रश्न
गड़गड़हट में रेल की
गया जो दब।

मृत्युबोध

झर गई
सुबह की अंजुरी से
गुनगुनी धूप

ढल चला
दोपहर की धूप में
कोमल इस्पात

रुक गई है फिर
धानी नदी की
बहती आवाज़
और टंग गई
आकाश के खेमे पर
एक कुतिया की चीख़ :

मनखान आएगा 

मनखान को
जो आया था
आता है
आएगा

कहानी एक हिन्दुस्तानी की

‘मैं अपनी सदी का बेटा हूँ’1
सदी का दूसरा महायुद्ध जीते हुए
अपनी सदी जैसी,मेरी मां ने
अपना पहला दुःख धारण किया

और सन चालीस की एक रात
मुझे,अपने पराधीन दुःख को
जन्म दिया

और
याद है मुझे
खेत की मेड़् पर
बस्ता उठाये खड़ा मैं
और खलिहान के पास
काले टटटू पर सवार एक गोरा
हवा में लहराता हुआ कोड़ा
पिछले पाँवों पर खड़ा
मिनमिनाता टटुआ
और गेहूं के ढेर पर गिरा
ख़ैरदीन
सा’ब को सलाम नहीं करता है
लोग कह रहे हैं
बड़ा आया
सुराजियों का दम भरता है

फिर
‘छोड़् जाओ मेरा देश !
फिज़ाओं में गीत बनकर गूँजता है
गुलिस्ताँ की बुलबुल का नारा
‘हिन्दी हैं हम वतन हैं
हिन्दोस्तां हमारा’

एकाएक
बादल के पलने से झूलता सूरज
आग का गोला बनकर उछलता है
बुलबुलों की चहक
तपती दोपहर के वीराने मे
सहम जाती है
दिन-दहाड़े बोतल का जिन्न
धुआं बनकार फैलता है
नफरत का धुआं
मेरी नन्हीं आँखों में भर गया है
2पत्ती लाँघकर

3ढक्की चढ़ते हुए
कहीं मेरा बस्ता गिर गया है
अगस्त की काली शाम
पेशावर शहर पर चुड़ैल बनकर उतर आई है
मास्टर असगर अली
हमें अलविदा कहने आये हैं
हम लारियों में बैठ चुके हैं
मास्साब ने हथेली की आढ़् में
अपने धुंधले चश्मे को छिपा लिया है
वो मेरे सर पर हाथ फेरते हैं
और कहते हैं :
अब तो आँखों में मोतिया उतर आया है
ख़ुदा जानता है
मुझे कुछ नहीं दिखता

सात साल का एक बच्चा
टूटा पुतला उठाये
पिता की अंगुली पकड़े
दिल्ली की सड़कों पर चल रहा है
नालियों में
गलियों में
बही बदबू है
यमुना के उदास पानियों में
आदमी और जानवर
दोनो का लहु है
नेकी है,बदी है
जिसके बरसाती माथे से उगता है
पंदरह अगस्त. सैंतालीस का टूटता सूरज
लाल किले की प्राचीरों में
झंडा उतरता है
झंडा चढ़ता है
मेरी याददाश्त में बल पड़ता है
मैं टूटा हुआ पुतला
किनारे रखकर
मुस्कराता हूं और सोचता हूं
बापू से कहूंगा
नया बस्ता ले दो

मैं एक आम आदमी
कैसी टूटती सदी का बेटा हूं
बटवारा-दर-बटवारा
ईंट-दर-ईंट
किराये के मकान की
मरम्मत करवाता हूं
हर महीने बजट बनाता हूं
और बजट-दर-बजट
दौड़ता चला जाता हूं

युग बीता
एक दिन मैंने पिता से पूछा था :
‘बापू ! पाकिस्तान की हुंदा ए ?’
आज मेरा बेटा मुझसे पूछता है :
‘ख़ालिस्तान की हुंदा ए,पापा ?’
ओर
लाजवाब पिता
अख़बारों और नारों के जंगल में
खो जाता है
जोगियों ! सिद्धों !
मुझे बताओ कि क्यों हर बार मेरा देश
मुझ से बेगाना हो जाता है।


1. नाज़म हिकमत की एक पंक्ति
2. गली के बाहर लगा दरवाज़ा
3. चढ़ाई

अरे,कोई है 

शहर—जो मेरा अपना था
शहर—जो मेरा सपना था
उसी शहर की बेगानगी की सच्चाई में झुलसा
हस्पताल के जंत्तर=मंत्तर बरामदों में
बेतहाशा दौड़ता हूँ
रास्ते में अटी है एक गठरी
अचानक हिलती है
दो घायल पांव
बाहर निकलते हैं
और गठरी
हस्पताल के मुख्य द्वार की ओर चलने लगती है
बेवकूफ लाश नहीं जानती
कि मुख्य द्वार से परे शहर है
कि शहर में आधी सदी से कर्फ्यू है

मेरे ज़ख्मी पांवों से कुहरा चू रहा है
गलियारे में मुड़ते समय
पांव में ग्लूकोज़ की टूटी बोतल गड़ी थी
अब याद आया
चिकित्सालय की देहरी लांघते हुए
मैंने जूते उतार दिये थे
ऐसे में आती है
उछलती–कूदती व्अही लाश
और
मेरे कान के पास मुंह करके कहती है :
अरे बौखलाये आदमी
इतना भी नहीं जानते
कि हस्पताल कोई मंदिर-मस्जिद नहीं
जिसमें जाते समय
उतारे कोई जूते

वार्ड नम्बर दो से धुआं उठ रहा है
निकल रही हैं लपटें
पर भीड़ की यह नपुंसक ईकाई
हंस क्यों रही है

इस जलते शयन कक्ष में
फायर ब्रिगेड का वह शख़्स
उस औरत की छातियां क्यों टटोल रहा है?
आग से बाहर क्यों नहीं निकालता उसे?
उसने औरत के झुमके क्यों नोच लिये हैं ?
अरे कोई है ?
देखो तो
अग्नि-दस्ते का वह सिपाही
उसी औरत को आग में झोंककर
खाली हाथ
उस जलते हस्पताल से निकल रहा है
इसी वार्ड के
जलते एक कमरे में
उस मोटे शख़्स के मुंह से
राल क्यों टपक रही है
वह उस नन्हीं बच्ची को क्यों रोंद रहा है
देखते नहीं
उसकी टोपी बीच हवा में
अटक गई है
और
राजधानी के चौक में
एक चीख
जलते हुए टायर में अटक गई है

इस बेगाने शहर में
सपने की बौखलाहट में
मुझे लगता है
कि चीख ने अपने अर्थ खो दिये हैं
तभी तो
सफेद कोट वाला काला डाक्टर
थानेदार के साथ
बातों में मग्न है

‘सुनिये,डाक्टर !’ मैं कहता हूं
‘उस गठरी से
अभी-अभी
एक बाज़ू बाहर निकाला है
वह आदमी हिल रहा है
उसे बरामदे में क्यों धरा है ?’
‘चुप रहो !’ डांटता है डॉक्टर
‘देखते नहीं
मुकाबले में मरा है’

शायद डाक्टर ठीक कहता है
लाश नहीं हिली
पर लाश ने मुझे हिला दिया है

मैं तप नहीं कर पाता
कि कोई घर जल रहा है
कोई हस्पताल
या कोई देश

ऐसे में
कोई डॉक्टर
किसी हस्पताल में
किसी घायल की पट्टियां खोल रहा है
पट्टियां हैं कि द्रोपदी का चीर….
निकलती आ रही हैं
आखिरी पट्टी खोलते ही चिल्लाता है वह :
‘गठरी तो खाली है
इसमें तो कोई नहीं
कुछ-नहीं,कुछ नहीं
अरे,कोई है?

लौटती धूप

इन रतनारे पर्वतों पर
साँझ की धूप के नन्हें टुकड़े
वापिस सूर्य की तरफ
भाग रहे हैं

धूप के टुकड़ों के संग़
दौड़ते-चलते
मैं मुक्त हो गया हूँ
मैं धूप हो गया हूँ
—सपना

सिन्दुरी सड़कों की यात्रा

क्षितिज के मौन वक्र में
दहका नहीं अभी
सिन्दूरी सड़कों का यात्री
फिर भी ओस-अटी धूप में
बस्तों के पहाड़ उठाए
चलते हैं
करोड़ों कमज़ोर बच्चे

आज :
भागम-भाग के शहर को अलविदा कह
जंगल के आषाढ़ॆए पत्तों से बतिया
मलहार के रिमझिम स्वरों में
भोजते-सीजते
अपना आदिम मनुष्य
तलाशा है हमने।

जंगली चींटियां 

कल
मेरी बगिया का नींबू
बारीक भूरी चींटियों से लद गया
देखती रह गई
मुँह बाए
कीड़ेमार दवा
रोयेंदार ज़मीन पर
भागती
भागती रहीं
बारीक-बारीक चींटियाँ
मुँह में दबाए
सफेद फूलों के टुक़ड़े

और आज
झाँकते हैं
काले अंधियारे छेद
सफेद रेशमी फूलों के नन्हें महकीले जिस्मों से

सीधे हाथ से
बायाँ कन्धा दबाये
खड़ा हूँ सर झुकाये भूरी चींटियों के सर पर
फूलों के ताज़ हैं
हम जहाँ कल थे
वहीं आज हैं।

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