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मंडी चले कबीर 

कपड़ा बुनकर थैला लेकर
मण्डी चले कबीर

जोड़ रहे हैं रस्ते भर वे
लगे सूत का दाम
ताना-बाना और बुनाई
बीच कहाँ विश्राम

कम से कम इतनी लागत तो
पाने हेतु अधीर

माँस देखकर यहाँ कबीरों
पर मंडराती चील
तैर नहीं सकते आगे हैं
शैवालों की झील

‘आग‘ नही, आँखों में तिरता
है चूल्हे का नीर

कोई नहीं तिजोरी खोले
होती जाती शाम
उन्हें पता है कब बेचेगा
औने पौने दाम

रोटी और नमक थैलों को
बाज़ारों को खीर ।

बायाँ हाथ

देने चला गवाही जुम्मन
झूठी बातों की

राजा ने बुलवाया होगा
भेजा हरकारा
राज सुखों की चिट्ठी थी
क्या करता बेचारा

राजा को चिन्ता है अपने सिंहासन भर की
जुम्मन को चिन्ता है अपनी काली रातों की ।

चाय-पान थोड़ी सुख-सुविधा
मिलती रहे अगर
जुम्मन का बायाँ हाथ टीप दे
दस्तावेज़ों पर

‘भाई‘ और ‘भतीजे‘ राजा के कम हैं, वरना
राजा को दरकार नहीं जुम्मन के छातों की ।

गेहूँ के खेतों में राजा
सड़कें बनवाए
अपना अर्थशास्त्र जुम्मन को
राजा समझाए

नये-नये रिश्ते जुम्मन के अब दरबारों से
याद नहीं अंतिम कतार के रिश्ते नातों की ।

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