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फूल बनकर, गंध बनकर

मर न जाऊं मैं तेरी संवेदना में मीत मेरे
और जीना चाहती हूँ फूल बनकर, गंध बनकर

कितने कांटों में फंसा है
नेह का संसार सारा
छूके खुश होना मना है
यह कठिन व्यापार सारा
देखकर कर संकल्प कर लो, आ मिलो मकरंद बनकर

हमको वंचित रख रहे जो
आंसुओं का भार देकर
मिट परेंगे हम उन्हीं को
यह अमित उपहार देकर
लय मरेगी यह न होगा, हम रहेंगे छंद बनकर

शतदलों का प्यार पाना
भाग्य में सबके नहीं है
गंधमादन पर अकेला
है वही, कोई नहीं है
नींद में गहरी जो सोये, टिक सके अनुबंध बनकर

प्यार के घरों में

चलो, मीत!
प्यार के घरों में।

नंगे पहाड़ों में
नदिया की धारों में
दूब हरी इतराकर
हंस दे बहारों में
घंटी बजे मंदिरों में।
छोटा सा मन अपना
आशा भी छोटी सी
विस्तृत वागर्थों की
भाषा भी छोटी सी
सपने हों अपने परों में।

भोगेंगे ऊंचाई
गहराई में आयें
वन प्रांतर घूम घूम
गंधिल हो मुस्कायें
अपनापन हो अनुचरों में।

जीतें तो प्रेम सिर्फ
प्रेम सिर्फ हारें
मिथिला के पर्ण कुसुम
रघुवर बुहारें
गगन झुके स्वयंवरों में।

सोच समझकर

प्रेमपत्र जो तुम लिखना
तो सोच समझकर

प्रेम सभी को नहीं चाहिए
और भी कितने लोग हैं घर में
फूटी आंख नहीं भाते हैं
ये दिन और ये रात, उमर में
आंख गड़ाये देख रहे हैं
ठहर ठहर कर

यह अछूत का पानी बायन
धर्म नष्ट होता है इससे
सिर्फ अकेले प्रेम के कारण
लोग कहेंगे इससे उससे
नाक कटी सिर झुका जा रहा
गांव-गली-घर

खिड़की अगर खुली पाओ तो
प्रेमपत्र न उससे भेजो
ठहरो, अपनी इस किताब के
अक्षर अक्षर जरा सहेजो
प्रेमपत्र जूड़े से बांधो
हंसो चहक कर

आज न जाना जी

बहुत दिनों के बाद मिले हो,
आज न जाना जी,
चले गये जो आज
तो मिलने कभी न आना जी।

गये थे कहकर रोज
लिफाफा लिखकर भेजोगे
मन के सारे तार
हमारे लिए सहेजोगेे
हम हैं कि मर गये
तुम्हें क्या पता ठिकाना जी।

हंस कर ताने देते हैं
सब बचपन के हमजोली
हम मरते जाते हैं उनको
सूझे हंसी ठिठोली
क्या हम ही सबसे मूरख हैं
हमे बताना जी।

ऐसा लगता है जैसे कि
मन में कुछ कटता है
कौन जनम का कोप
आज तक तनिक नहीं घटता है
क्यों अच्छा लगता है
तुमको, यों तड़पाना जी।

आंखों में बरसात रात दिन
जैसे ज्वार हो मन में
ऐसा भी क्या नेह कि
जिससे रहे न अपनेपन में
हम पे क्या गुजरा, ये
कोई और न जाना जी।

चले गये इस बार
खैर, तब यहां नहीं पाओगे
चले गये जो दूर
हमें फिर देख नहीं पाओगे
आज नहीं तोड़ो कसमों को
इन्हें निभाना जी।

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