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Asangghosh-kavitakosh.jpg

कहाँ हो मुक्तिदाता

नाचता रहा दिन-ब-दिन
अपनों की ही उँगलियों पर
उनके इशारों के अनुरूप / तृप्त करता रहा
उनकी लालसाएँ
हरदम मारकर अपनी इच्छाएँ
जन्म से ही मज़बूत अदृश्य धागों में बँधा
मैं आज तक बँधुआ हूँ,
और तुम!
कहाँ चले गये हो
मुक्तिदाता?

जाति जाती

ओ जाति!
तू जाती क्या
बेड़ियाँ तोड़
बन्धन मुक्त कर
तू जाती क्या
ओ जाति!
मत बहरी बन
अबे ओ जाति
तू जाती क्या
बामन के घर
उसकी मेहरारू से पूछने
तेरा जनेऊ हुआ क्या?

शम्बूक

शम्बूक!
तुमने रामराज में
तपस्या कर
सशरीर स्वर्ग जाना चाहा
तुम्हारी यही तपस्या
सही नहीं गयी

ब्राह्मणों, क्षत्रियों व
ख़ुद राजा राम तक,
सबने षड्यन्त्र रचा और
तुम्हारा सिर धड़ पर न रहा
तुम मारे गये बेक़सूर
राजा राम के हाथों
रामराज में तब से
हत्यारा राजा राम
महिमामंडित हो
भगवान श्रीराम हो गया।

सहारा अलगनी 

मेरी माँ
डाला करती थी
गुदड़ी-खतल्या[1] और चद्दर
रोज सुबह समेट कर
घर की अलगनी पर
एक जोड़ी

गुदड़ी-खतल्या
पिता की दुकान में भी
एक ओर बँधी
अलगनी पर डला था
जिसे थके-मांदे पिता
देर रात उतार लिया करते थे
अपने बिस्तरे के लिए कभी-कभी
जब देनी होती
तैयार कर
चप्पल की अर्जेंट डिलीवरी
उसके ग्राहक को अल्लसुबह।

पिता ग्राहक से मिले
रुपयों में से कुछ
अलगनी पर डली
गुदड़ी की तह में रख
बचा लेते भविष्य के लिए
जब हाथ में काम नहीं होता
उस समय अलगनी ही आसरा थी
खुद रस्सी के सहारे बँधी
सहारा थी बुरे वक्त का
हमारे लिए।

शब्दार्थ
  1. ऊपर जायें पुराने कपड़े का बिछौना

हल्लाड़ी 

एक हल्लाड़ी[1]
घर में थी
जिस पर पीसा करती थी
माँ प्रतिदिन
काँदा, लहसन, खड़ी मिर्च
पोस्त के साथ पानी मिला
ज्वार की रोटी खाने, चटनी
चटनी जिसमें
हम पाते थे स्वाद
लजीज दाल सब्जी का एक साथ

सुबह-शाम, दोपहर।
भरी दोपहरी में
जब सूरज आसमान में
ठीक सिर के ऊपर
टँगा होता
फसल काटती माँ
दोपहरी की छुट्टी में
उसी चटनी से
खाती ज्वार की एक रोटी
पानी पी फिर काम में लग जाती
शाम को मजदूरी में मिलते
ज्वार के गिने-चुने फंकड़े[2]
जिन्हें घर ला माँ झाड़ती डण्डे से
निकालती थी ज्वार रात में
हम दिखाते दिनभर धूप

माँ
कभी रात में
कभी अलसुबह
अलगनी के नीचे रखी घट्टि में
पीसती थी ज्वार
बनाती थी रोटी हम सबके लिए
कभी-कभी ले आती थी
दो-एक अलुरे फंुकड़े
जो सेंके जाते चूल्हे की आग में
और हम एक-एक दाना निकाल खाते थे

अब हम पोस्त नहीं खरीद सकते
ज्वार भी महँगी है
माँ से मजूरी भी नहीं होती
मेरा बचपन भी चला गया
हल्लाड़ी घर के पीछे
बेकार पड़ी है।

शब्दार्थ
  1. ऊपर जायें पत्थर की शिला
  2. ऊपर जायें ज्वार की बाल/गुच्छा

हसीन सपने

मेरे हसीन सपनों
क्यों आते हो
तुम बार-बार
उन काले-काले
घुमड़ते बादलों की तरह
जो केवल गरजना जानते हैं।
तुम भी तो
निद्रा के साथ-साथ
आ जाते हो, रात भर
मुझे स्वर्गिक वातावरण की
अनुभूति कराने
और
जैसे ही
मैं उस आनन्द को
भोगने की चेष्टा करता हूँ
तुम निद्रा के साथ ही चले जाते हो
उस टूटे हुए तारे की तरह
जो अपना अस्तित्व ही खो देता है
ठीक उन
बरसाती बुलबुलों की तरह
जो एक बूँद के साथ जन्म लेते हैं,
अगली ही बूँद से लुप्त हो जाते हैं
मेरा जीवन भी तो तुम्हारी ही तरह
नश्वर है, सांस रुकने तक
उसके बाद रह जाएगा
मेरे कर्मों का ढेर
अच्छे-बुरे होने का
अहसास कराने के लिए।

समय और मैं 

मैंने उबड़-खाबड़
जीवनपथ पर
समय के साथ-साथ
दौड़ना शुरू किया
समय को पीछे छोड़
मैं काफी आगे निकल गया
बीच रास्ते में
ठोकर लगी, मैं गिर पड़ा
सम्भला, उठा, और
फिर दौड़ने लगा
तब तक एक साया
तेज कदमों से दौड़ते हुए
मुझे पीछे कर
आगे निकल गया
मैंने अपनी चाल बढ़ाई
वह साया धुंधला-सा दिखा
मैंने पहचाना
वह समय था
जिसे मैं अभी तक
पीछे नहीं कर पाया
दौड़ना जब भी जारी है।

तेरा प्रतिशोध 

दरख्तों के पार
सड़क किनारे
मरी पड़ी थी
गाय
जिसकी खाल उतार कर
लौट रहे थे
टेम्पो में/चमड़ा धरे
कुछ कर्मशील लोग

धर्मोन्माद से भरी
चिल्लाती भीड़ ने
उन्हें रास्ते में
रोक ही लिया

कुछ चीखे/और चिल्लाए भी
इन चमारों ने
गाय मार दी है
जिन्दा चीर कर
चमड़ा उतार लिया है
धर्मोन्मादियों द्वारा
जैसे
यह सब पूर्व नियोजित हो

भीड़ एकजुट हो
मार डालती है
इन दलितों को
ठीक दशहरे के दिन

रावण वधोत्सव मनाती है
भीड़
पुलिस के सामने
इस तरह
हथियारों की पूजा होती है

खून सने उन्माद के साथ
विजयदशमी को
इस बार
राम के नहीं
भक्तों के हाथों
एक और शंबूक-वध होता है

यह कोई वध नहीं
कह दिया जाता है
हमारी माँ को
मारने का
स्वाभाविक प्रतिशोध है
ठीक?
दशहरे के दिन!

भगोरिया 

फागुन में मस्त हो
बहती फगुआ!
भीलांचल के ओर-छोर को
टकोरने लग जाती
पूर्वा बहती, पछुआ बहती
भीलों के जीवन को छूती
माही में बहते
कलरव के संग
भगोरिया ले आती

गढ़ खंखई में
मेला जुटता
थावरा, एतरी, दित्या, दित्तूड़ी
और आस-पास
सब ही गाँवों के
झुण्ड-झुण्ड में
युवा जुटते
युवती जुटतीं
ढोल जुटते
माँदल जुटते
बंसी जुटतीं
घुँघरूं जुटते

भील बालाएँ
चाँदी की पट्टिकाएँ,
तागली, बाजूबंद चूड़ियाँ
पहनें आतीं

ढोल-माँदल की थाप
थाली की झंकार
संगत करती
वाहली की मधुर धुन
लय-ताल पर
झूम-झूम कर
सोमला, मंगला, बुद्या थावरी
सुख्खी के पाँव थिरकते
खनकते घुँघरूं
गूँज उठतीं
मधुर स्वर लहरियाँ

इन्हीं दिनों आम बौराते
ताड़ वृक्षों से
रिसती ताड़ी
खेत-खेत,
सड़क-सड़क
पूरी वनभूमि पर
चहुँओर टपकता
रसभरा सुगंधित
महुआ!
एक फूल की कच्ची बनती
यह सब मिलकर
मधु और मद भर देते
फसल पकी तो पर्व मनाते

होले-होले
रसराग भरा यह
भीलों का जीवन रंग
अपनी चरम परिणति को पाता
जिसका इंतजार रहा आता
साल भर
वह भगोरिया का रूप ले आता

होली पहले के हाट-बाजारों में
झूले लगते
चकरियाँ लगतीं
छेड़ा खींचे झूला झूलतीं
आदिवासी बालाएँ
गोदना गुदवातीं
हाथों पर नाम लिखातीं
चेहरे पर आभूषण बनवातीं

चरमोत्कर्ष पर
होता भगोरिया!

भीलजन नाचते गाते
शौर्य दिखा
भील बालाओं को रिझाते
मनभाती
प्रियतमा को
वधु चुन
गालों पर गुलाल मल
पान की पीक डाल
अपने संग भगा ले जाते

बिना कुण्डली
जोड़ी बनतीं

थावरा-सुख्खी,
दित्या-ऐतरी
सोमला-सोमली
(ऐसे ही कई-कई)
जोड़ियाँ बन
भाग जातीं

फिर दोनों के
सगे-सम्बन्धी जुटते
भाँजगड़ा की बातें होतीं,
दारू पीते,
बकरा कटता, और
जब भाँजगड़ा थई जाता
घर बस जाता

भाँजगड़ा की रकम चुकाने
लड़के का बाप
जात नोतता
नोतरा डलता
सगे-सम्बन्धी साथी जुटते
कर्ज की मानिंद
पैसा जुटता
जिसे चुकाने
ताजिंदगी पैसा जोड़
हर नोतरा में जाकर
खुद को मिले नोतरा का
सवाया डाल आते
मजूरी करते
मामा-मामी
जिसे चुकाने!

आखिर कब तक?

कान्हा के
इस शान्त समय में
खोज रहा हूँ
स्वयं को
दरख्तों के पार
क्षितिज तक
जहाँ आभास हो रहा है
मेरे होने का
वहाँ

मैं क्यों भूल जाता हूँ
खुद की पहचान
मैं कौन हूँ
कहाँ से आया
आखिर
मुझे कोई
क्यों खोज रहा है?

बाँस के झुरमुटों में
बेखौफ चरते बायसनों
मैदानों में विचरण करते
चीतलों के बीच
अपने अस्तित्व के साथ

अचानक
चीतलों की चेतावनी सुन
सावधान हो जाता हूँ
बायसन अभी भी बेखौफ है
चीतल भाग गए हैं

मैं चौकन्ना हो
इधर-उधर देख
सूँघता हूँ
पास ही एक दुर्गन्ध
खतरा!
यहीं-कहीं
मेरे आस-पास ही है

तब मुझे अहसास होताहै
मैं कौन हूँ
क्या हूँ
यहाँ क्या कर रहा हूँ
चारों ओर देखता हूँ
बच निकलने का रास्ता, पर
सब ओर दुर्गन्ध आती प्रतीत होती

समय
अभी भी शान्त रह
अपनी गर्त में छिपाए है
तुम्हारी पदचाप
मेरी मौत

इस तरह तुम्हारी रची
यही मेरी नियति है
तथाकथित विधाता
हर बार तुम्हारे जबड़ों का ग्रास बन
अनंत आकाश में
टूटे तारों की तरह
नष्ट हो जाना।

मुझे ही क्यों
हर बार
होना पड़ता है
तुम्हारी क्रूरता का
शिकार
आखिर कब तक?

तुझे रौंदूँगा

मैंने झाँका
तेरे समाज के आइने में
वहाँ मेरा अक्श
मौजूद नहीं था
तेरी कुदृष्टि की मार से
आइना खण्ड-खण्ड विखण्डित हो
यत्र-तत्र फैला हुआ
दिखा

तूने बताया
एक बड़े टुकड़े के सामने
मेरा अक्श
मैं और तू
दोनों ही खड़े थे जहाँ

मैंने जानना चाहा तुझसे
तेरा बताया मेरा अक्श
किरचों-किरचों बिखरा
कटा-फटा धुँधलाया हुआ
क्यों है?
तू मौन रहा
अब भी मौन ओढ़े है, पर
तेरी आँख व हाथ का
इशारा बता रहा है
मेरा अक्श
तेरे निष्ठुर समाज में
धुँधलाया हुआ क्यों है
ठीक तेरे पाँवों के नीचे
इस तरह
तू सदियों से
मेरा जन्म अपने पाँवों से बता
मुझे रौंदता आया

अब समझ गया हूँ
तेरी करतूत
अब तू तैयार रह
मैं रौंदूँगा
तुझे अब अपने पैरों तले।

माँ कसम

तुम जब भी
चाहो जुल्म ढाना
मेरे घर आ जाओ
चौबीस घण्टे खुले हैं
मेरे घर के दरवाजे
वह दरवाजे
जिनमें पल्ले नहीं
टाट का पर्दा बँधा है,
जिस घर में कभी कोई
खिड़की बंद नहीं रही
तुम आ सकते हो
बेखौफ़
खिड़की-दरवाजे के रास्ते
या आसानी से खप्पर हटा
तुम आ सकते हो
हम सब पर
गोली-लाठियाँ बरसाने
तुम चाहो तो
पिछली बार की तरह
आग लगा सकते हो
छप्पर में
सारा घर धू-धूकर
पुनः जल उठेगा
हम सब जल जाएँगे
तुम्हारी ईर्ष्या की तरह

परन्तु
कभी मत आना
आग लगाने के बाद
मेरे घावों पर मल्हम लगाने
मेरे बच्चों की लाशों पर
अपनी राजनीति की रोटियाँ सेंकने
दाँत निपोरते
झूठी सहानुभूति दिखाने

अब तेरा यह ढोंगी न्याय
यह बहुरुपियापन
सहा नहीं जाता
मुझसे

माँ कसम
अबकी बार
बच नहीं पाओगे तुम!

दादी दूर नहीं है 

मेरे दादा के समय
खेत के कुएँ से पानी उलीचने
मरी गाय के चमड़े से बनी
चड़स चला करती थी

कहीं-कहीं
रहट भी चलता था
जिनमें जुतते थे
आँखों पर पट्टी बाँधे
बैल और ऊँट

इन्हें हाँकते
मेरे दादा
व उनके भाई
बिना मजूरी

दादी माँ
घर में चलाती थीं रेटिया
रोज ऊन काततीं
कुकड़ियाँ तैयार कर
कंबल केन्द्र जा
जमा करातीं
कताई की मजूरी में से
एक-दो पैसा
कभी-कभार मुझे देतीं
खर्चने
जिससे खरीदता
पिपरमिंट की गोलियाँ
खट्टी-मीठी

भादोड़ा री बीज पर
मेला भरता
बाबा रामदेव का
खटीक मोहल्ले के मन्दिर में
लाऊड स्पीकर बजता
सुबह से रातभर
भजन संगीत होता
दादा गाते
बाबा रामदेव के गीत
देर रात में
माच का खेल मंचित होता
अगले दिन की भोर तक
जुटी रहती भारी भीड़

भादोड़ा री बीज पर
घर-घर चुरमा बाटी बनती
पूरे गाँव के लोग
आते
मन्दिर में भोग लगाते
परसाद चढ़ाते
मत्था टेक मानता मानते
दादी भी मुझे साथ ले
मन्दिर जातीं
मजूरी के पैसों से
परसाद, नारियल, अगरबत्ती
चढ़ातीं
देवरे पर
खुद धोक दे
मुझसे भी धोक दिलातीं
मन्नतें मानतीं मेरे लिए
सबके लिए
बाबा का भक्त पुजारी
नारियल फोड़
लौटाता
आधा परसाद
नारियल की बारीक-बारीक चटकें काट
दादी पूरे मोहल्ले में बाँटतीं
दूसरे बच्चों जैसा
मैं भी पीछे-पीछे लग जाता
पाता दुबारा एक और टुकड़ा
उदरस्थ कर उसे आदतन
मैं फिर हाथ फैला देता
प्यार से डाँट दादी
एक टुकड़ा चटक
और नन्हें हाथ पर
धर देतीं

एक दिन अनायास
भादवी बीज से पहले ही
दादी बीमार हो गईं
तो धर्म अस्पताल में भर्ती कराया
पिता व ताऊ ने

कुछ दिन बाद लौटीं वह
चारपाई पर
लेटी मरणासन्न

सबकी तरह
मेरी आँखों में भी आँसू छलछला आए
मैंने भी पाँव छुए
ताई ने कहा उनसे
पोता पाँव छू रहा है
दादी के होंठ हिले
मैंने समझा
हमेशा की तरह
आशीर्वाद मिला

कुछ दिन बाद
दादी नहीं रहीं
मोहल्ले के लोग व रिश्तेदार
अपने कंधों पर उठाए
घर से बाहर कहीं
ले गए उन्हें
मैं भी रोया खूब
आँखों से आँसू बहे
रोते-रोते
माँ से पूछा
कहाँ ले गए ये लोग
दादी को
माँ ने भर्राये गले से कहा
दादी भगवान के घर चली गईं
मैं भी जाऊँगा भगवान के घर
दादी के पास
उससे दो पैसा लेकर
पिपरमिंट की गोलियाँ लाऊँगा
माँ ने कहा
नहीं बेटा
तू नहीं जा सकता
भगवान के घर अकेला
हम सभी जाएँगे
कभी न कभी, पर
अभी दादी हमेशा के लिए
हमें छोड़ चली गईं
अब नहीं आएँगी कभी

सच हुआ
माँ का कहा
दादी फिर कभी लौटकर
नहीं आईं

दादी बसी हैं
मेरी यादों में आज तक
छोटे भाई बहिनों ने
दादी को नहीं देखा
न ही जाना दादी का प्यार
जिससे वे वंचित रहे

अब मेरे बेटे
अपनी दादी से बतियाते हैं
तो
मेरी आँखों के सामने
चलचित्र की भाँति मेरी दादी
आ गुजरती हैं
मेरे मुँह में घुल जाता है
पिपरमिंट का
चटक का
स्वाद
मुझे अहसास होता है
सिर पर दादी का हाथ
वे आशीर्वाद दे रही हैं
बार-बार
दुआ कर रही हैं
सबकी कामना के लिए
दादी हमसे
दूर नहीं हैं।

अनाथ गौरैया 

दादा डालते थे दाना
रोज सुबह नियम से
चुगने उतर आतीं थीं
दाड़िम के पेड़ से आंगन में
बेधड़क सबकी सब,
गौरैयाँ

बेरोक-टोक-बेखौफ
आज नहीं आती हैं वे
घर के आँगन में
जो अब बचा ही नहीं
उसकी जगह ले ली है
चहार दिवारों में बने
रोशनदानों ने

खिड़कियों ने
दिवार पर टँगी
दादा की तस्वीर के पीछे
खाली जगह में,
ट्यूबलाइट व बल्ब के
होल्डर के ऊपर
गौरैया ने
अपना घर बसा लिया है
एक घर के अन्दर
बने घर में
जहाँ गौरैया को जाने में
छत में टँगे
घूमते पंखे से
जान का खतरा है
जिससे
हम तो अनजान नहीं हैं
पर गौरैया अनजान है

वह जा बैठती है
कभी बंद पंखे पर
कभी चलते पंखे से
टकरा
घायल हो
गिर जाती है

उसे सहानुभूति से उठाकर
इलाज करने वाला
कोई नहीं है
अब दाना डालनेवाला भी
कोई नहीं है!

उस आँगन में
जो कैद है चहार दीवारी में
हमारी संवेदनाएँ मर चुकी हैं
निरीह पक्षियों के लिए
दादा के चले जाने के बाद
गौरैयाँ अनाथ हैं।

हाँ हम गवाही देंगे

घोर अंध रात्रि के
इस निस्तब्ध समय में
शायद
मौत चली आ रही है
चुपचाप दबे पाँव
गली के मुहाने से
मेरे घर की ओर

अनजाने भय से ग्रस्त
आँखें
टकटकी लगाए/दरवाजे की ओर
लगातार ताकतीं

यह कोई
वहम तो नहीं है मेरा?

एकाग्र हो
मेरे कान सुनने लगे हैं
अजीब-सी पदचापें
पदचापें
दरवाजे के समीप
हाथों में मशाले लिए
खामोश हुईं

हाँ,
यह मेरा वहम नहीं
घर के बाहर मशाल की लौ में
चुपचाप खड़ी/साक्षात मौत ही है
अकेली नहीं
साथ में तेरा भेजा कहर भी है
जो अब बरसने लगा है
कनस्तरों से आग बनकर
हमारी झोपड़ियों पर
तेरी बन्दूकें
उगलने लगी हैं
मौत

लेकिन
अब भ्रम में न रहो
कि हमारे पास कुछ नहीं
हम निहत्थे ही सही/सामना करेंगे
तुम्हारी लाठी-गोलियों का
बच गए
तो गवाही देंगे
तुम्हारे खिलाफ
कचहरी में
अन्धे कानून से न्याय माँगने
हम सब निहत्थे ही सामना करेंगे!
हाँ, अभी तो निहत्थे ही?

ओ पृथ्वी!

ओ पृथ्वी!
तुम झुकी रहो
अपने अक्षांश पर

कहीं सीधी हो गई तो
प्रलय मच जायेगा
तुम्हें पूजना बंद कर देंगे, वे
तुम्हारी प्रशंसा में रचे मंत्रों का
उच्चार
बंद हो जायेगा
तुम बनी रहो यथावत्
वरना, जड़ से
समाप्त हो जाएगा
जातिगत अहंकार
बिना पूजे पत्थर की तरह
कहीं भी पड़ी रहोगी
इसलिए कूबड़ निकाले
झुकी रहो
सीधी हो गई तो
शेषनाग के फन से गिर पड़ोगी
यदि है,
तो फुफकार मार
काटने दौड़ेगा
शेषनाग
उनके इशारे पर

हम मारे जाएँगे शंबूक की मानिंद?

हम नहीं मानते
तुम किसी ऐरा-गैरा के
फन पर टिकी हो

हमारे लिए तुम झुकी रहो
उनको गाने दो
प्रशंसा में गीत
भयभीत हो
मंत्रोच्चार करने दो

बस तुम
इसी तरह
झुकी रहो

तुम भी!

वर्णवादियों के अहकार तले
बेगार करता
सदियों से
एक अधूरा जीवन जी रहा

कहीं भी
भाग जाने को जी चाहता है

घरभर को गिरवी रख
हवेली में बेगार करता है
बेकाबू,
मन ही तो है
जातिवादी मकड़जाल को तोड़
मुक्त हो जाना चाहता है

जाऊँ तो जाऊँ कहाँ
न मेरा कोई खेत है
न खलिहान
न कोई मुझे दाड़की देता है
न दिहाड़ी
न मेरे पास पूँजी
न कोई रोजगार
दो टुकड़ा रोटी के लिए
बिका
अपना श्रम ही नहीं-
बचा मेरे पास
कहाँ जाऊँ?

जानता हूँ
सिर्फ जूता बनाना
पॉलिश करना

जूता मल्टीनेशनल बना रहा है
मुझसे कौन बनवाएगा?

लोग खुदबखुद
अपने हाथों
बिना अपनी जात छोटी किए,
घरों में करने लगे हैं
जूता पॉलिश

मेरी जात
वहीं की वहीं है
साली चमार जात!
समय के साथ
न बदलती है,
न छूटती है,
तुम ही
अनवरत साक्षी हो
इस शूद्रता के
बेगारी के
गुलामी के
चौथा वर्ण बनाने के
उतावले,
अहंकार को पुख्ता करते हुए
सहभागी हो
साथ खड़े हो
उनके।

अब भी चुप बनी रहोगी?

सुनो
ओ पृथ्वी!
हमें प्रताड़ित कर
तुम्हें रौंदते रहे
तुम्हारे प्यार द्विज पुत्र!

तुम्हारे साथ बलात्कार कर
उन्होंने डाल दिया
अन्याय का बीज
तुम्हारी कोख में
जिसका मैं गवाह रहा
सदियों से मुझ पर अत्याचार कर
मेरे पैरों में
जातिवाद की बेड़ियाँ बाँध
गवाही देने से
रोके रहे
मुझे वे
और तुम फिर भी
चुपचाप देखती रहीं
तुम्हारे गर्भ में पड़ा
वह रक्तबीज
नमी पा
अंकुरित हो
पल्लवित हो पौधा बन
आज भी करेगा अत्याचार
कल की तरह

क्या तुम
अब भी
संवेदना शून्य हो!
चुप बनी रहोगी?

हाँ तुम्हीं ने 

तूने कपटपूर्वक छीन ली
मेरी धरा
और मेरे कंधों पर
जुआँ रख दिया
मुझे ही जोतनी पड़ी
बैलों की तरह
अपनी ही जमीन

फसल कट जाने तक
तू बेरहमी से
बरसाता रहा
मेरी पीठ पर कोड़े

डकार गया तू
मेहनत का फल
मेरे हिस्से आई
मात्र भूख
मेरे बच्चे!
भूखे-प्यासे बिलखते रहे
मेरी दुर्दशा पर
हँसते-मुस्कराते रहे
तू और तेरे बच्चे

अब मेरा
कोई नहीं
यह धरती भी नहीं
न ही धूप और आकाश
प्रकाश और अंधकार भी नहीं
यह हवा, नदी, समुद्र भी
मेरे नहीं रहे
और तो और
हरामी भगवान भी
मुस्कराता खड़ा है
तेरे ही पाले में
मेरे खिलाफ
हुक्म देता हुआ
”यह राक्षस है
धर्म रक्षा के लिए
इसे मार डालो/खत्म कर दो
मिटा दो
जैसे मिटाया
शंबूक को
एकलव्य को
हमेशा-हमेशा के लिए।“

आखिर
कब तक
होता रहेगा
यही सब!

तेरी सरस्वती

मेरे शब्द मौन रहे
कभी ज़बान पर आए भी नहीं
जब भी शब्दों ने कोशिश की
हलक से ऊपर आने
तूने मेरा गला ही घोंट दिया।

तेरे कथनानुसार
शब्दों की धार ही सरस्वती थी
ऐसी दशा में/भला सरस्वती
मेरी जिह्वा पर आती भी कैसे
तेरी गुलाम जो थी

अपनी बंदिनी बना
सदियों से उसे/तू पूजता रहा,
और वो ढीठ भी चिपकी थी
उसी जगह बेशर्मी से
जहाँ से तू जन्मा।

अब मैं भी
बोलना सीख गया हूँ।

कहाँ हो ईश्वर 

ईश्वर!
तू है तो
है कहाँ?
स्वाद लोलुपों की जिह्वा पर
भव्य प्रसादों में बैठे
कपटी बामनों
धन्ना सेठों की तोंद में, या
सड़ाँध मारती मरी गाय की खाल में, या
मन्दिर-मन्दिर पुजाते पत्थरों
अष्टधातु की मूर्तियों,
मखमली वस्त्रों में लिपटी पोथियों,
गलाफाड़ गाते भजनों में, या
खाल पकाने की कुण्डियों के बसाते चूने में
कहाँ-कहाँ बसा है तू
अपनी तथाकथित
ज्ञानेन्द्रियाँ बन्द किए
आखिर तू है तो
है कहाँ?

दंगा 

आदमी को
काटता है
जब
आदमी
तब
लहू नहीं
हैवानियत बहती है,
जात का नकाब ओढ़े
धर्म अट्टहास करता है
और
इन्सानियत
बेमौत मारी जाती है।

शैतान

शैतान का
कोई रूप नहीं होता
हमारे जैसा ही
परिवेश लिए होता है
चेहरे पर अपने
मासूमियत धरे
हर कहीं घुसपैठ कर
वह आतंक फैलाता,
मार डालता है
मनुष्यता को

शैतान का
कोई रूप नहीं होता
भू्रण हत्या करने
वह फाड़ देता है
गर्भवती औरतों का पेट,
चाकू घुसेड़ चीर देता है
योनि
सामूहिक बलात्कार के बाद,
छलनी कर गोलियों से
जाति धर्म की बाँट पर
काट बाँट देता है
बोटी-बोटी
मासूमों का शरीर,

शैतान का
कोई रूप नहीं होता,
वह जला देता है
घर, झोंपड़ी, दुकान,
माल असबाब
यहाँ तक
कि जिन्दा इंसानों को भी
बेरहमी से
भून देता है भुट्टे की माफिक,

शैतान का
कोई रूप नहीं होता
कोई रंग नहीं होता
कोई जात नहीं होती
कोई धर्म नहीं होता
कोई कद नहीं होता
कोई ईमान भी नहीं होता
मानव को जाति-धर्म में
विभाजित करता है
भले ही वह हमारे जैसा ही
दिखता हो
मनुष्य नहीं होता।

जात का भय 

साँय-साँय करती
सर्द हवाएँ
घटाघुप्प अंधकार
बियाबान जंगली रास्ता,
दोनों ओर नंग-धड़ंग
ऊँचे पहाड़ों पर फैला
खौफनाक सन्नाटा
जिसे रह-रह कर तोड़ती
सियार-झींगुरों की
तेज ककर्श आवाजें

इन सबसे
भयभीत हो
तुम
डरो मत!

गुफा में
पसरे अँधेरे को
साहस के चाकू से चीरते हुए
एक तेज चीख से
चमगादड़ों को भगाते
पगडंडी के रास्ते
उतर जाओ

हाँफो मत
धँसों गहराई तक
जब तक है दम
पूरी ताकत से धँसो

फिर निढाल हो
घबराए बगैर पड़े रहो
स्फूर्त होने तक
बार-बार उतरने
इस वर्ण व्यवस्था की
अँधेरी गुफा के अन्दर
जात के भय को
नेस्तनाबूद करने।

मेरी याददाश्त

मैं पूछता हूँ
पत्नी से
किताब कहाँ रखी
वह जानती है
मैं रखकर भूल जाता हूँ
वह तुरन्त बता देती है
कहाँ रखी है किताब।

मैं भूल जाता हूँ
अपना नाम
जिसे वह कभी
अपने मुँह पर लेती ही नहीं
कट्टर हिन्दू औरतों की मानिंद,
मैं बार-बार चिल्लाता हूँ
मैं कौन हूँ?
हूँ मैं कौन?
तब झुँझलाकर पत्नी
तोड़ती है चुप्पी
पागल तो नहीं हो गए?
नहीं-नहीं
मैं पागल नहीं हुआ
मुझे याद है
मेरा गाँव
गाँव के किनारे बसा
अपना मोहल्ला
गाँव की गलियाँ
जूते बनाते पिता
कपड़े सिलती माँ,
खदान में पत्थर तोड़ता भाई
अपनी बीवी, बच्चों
सभी रिश्तेदारों के नाम
उनके काम,

तेरी कथाकथित श्रेष्ठता
और तो और
तेरी ही बनाई
मेरी जात तक
जिसे चाह कर भी मैं
भूल नहीं पाया
कभी

वही जात
जिसे मैं भूल जाना चाहता हूँ
अपने नाम की तरह
किताब की तरह
और भी कई-कई चीजों की तरह
जिन्हें भूल जाता हूँ
अक्सर वक्त-बेवक्त
मेरी याददाश्त
कमबख्त!
इस जाति की
चली क्यों नहीं जाती
मेरे नाम की तरह
किताब की तरह

रेल में सहयात्री द्वारा पूछी गई
मेरी जात की तरह
और भी कई-कई चीजों की तरह
जिन्हें याद करते
मैं खो जाता हूँ
अपनी याददाश्त में खोजने
मुझे खोया देख
झुँझलाकर पत्नी
तोड़ती है चुप्पी
कहाँ खो गए
पागल तो नहीं हो गए?

काट डालूँगा उन पैरों को

मेरा नाम अनाम
कोई कुछ भी रख दे
अथवा न रखे
आखिर मुझे पुकारना ही है
कोई किसी भी नाम से पुकारे
क्या फर्क पड़ता है?

जब कोई
क्यों बे,
अबे कहकर पुकारे
या जात से पुकारे
तब भी
क्या फर्क पड़ता है

मैं भी औरों की तरह
पैदा हुआ नंगा
उपनयन से
मेरा दूसरा जन्म नहीं हुआ
न ही कोई संस्कार हुआ
द्विजों की तरह
कान में जनेऊ लपेट
मूतना
मेरे लिए मना जो था

ऐसी कई सारी पाबन्दियों को
झेलने के बावजूद
यदि कोई मुझे
अछूत कहकर पुकारे
तो फर्क पड़ता है

अछूत!
मेरा नाम नहीं है
कि कोई भी
अछूत!
कहने की हिमाकत करे?

अछूत एक घाव है-
तुम्हारा ही दिया हुआ
जो नासूर बनकर
तेरी ही सड़ी वर्ण व्यवस्था से
असहनीय पीड़ा देता हुआ
लगातार रिस रहा है

इस नासूर से
पूरी तरह पाना है निजात
भले ही
काटना पड़े
आदि-पुरुष के, ”वही पैर“
बिना किसी संकोच के
तो मैं
काट डालूँगा
उन पैरों को
चाहे तेरा भगवान हथियार धारण कर
तेरे मिथक को बचाने
इस धरा पर
नया अवतार ही क्यों न ले लेवे।

मुआवजा

तुम पियो या ना पियो
उसने पी रखी है दारू

भले ही तुम नियम से चलो
उसने कसम खा ली है
न चलने की

जो सरपट भागता आ रहा है
दस रुपया एण्ट्री दे,
बच सको तो
बचो उससे
नहीं तो रौंद दिए जाओगे
चकों तले,

मिनटों में
लग जाएगा मजमा
और होगा चका जाम,
हवा में नारे लहराएँगे
‘जिला प्रशासन मुर्दाबाद!’
‘पुलिस प्रशासन मुर्दाबाद!’
तमाशाई जुड़ जाएँगे
तुम्हारी लाश सामने सड़क पर रखकर
होगी भारी मुआवजे की माँग

कोई भी सांत्वना नहीं देगा
तुम्हारी पत्नी को
तुम्हारी माँ, बहन और पिता को भी
नारे लगाने की गति
तेज होती जाएगी
आएगी सायरन बजाती
पुलिस की गाड़ी
साथ में होगा एस.डी.एम.
छुटभैया सक्रिय होंगे
माँगेंगे मुआवजा
लाखों में
थोड़ी बहस
थोड़ी मानमनौवल के बाद
मिलेगा
पाँच हजार फक़त
मुआवजा!

तुम्हारी मौत का
माँ-बाप के आसरे का
बहन की राखी का,
तुम्हारी पत्नी के सिन्दूर पौंछने का
मुआवजा फक़त पाँच हजार?

अब मुर्दाबाद के नारे
”छुटभैया-जिन्दाबाद!“
में बदल जाएँगे
तालियाँ भी बजेंगी
एक गड़गड़ाहट!
पूरी तरह
संवेदनाहीन भीड़ की!

अन्त में लाश सड़क से उठा
टेम्पो में पटक
मुर्चरी भेज दी जाएगी

रोते पिता के काँपते हाथ में होगा
मुआवजा फक़त पाँच हजार
तुम्हारी मौत का, या
चका-जाम खुलने का?
नेतागिरी का या
तुप्त होती संवेदना का?

हाँ यही है मेरा शहर
संवेदना शून्य
रंगमंच पर
बदलते पात्रों का
यही नाटक
रोज मंचित करने
बार-बार मरता है शहर!

नाव में सवार होती नदी 

नदी
उछलती-उमड़ती
जुगलबंदी कर
हवाओं के साथ/लहरों पर सवार
कच्चा अनाज खाने घुस आई
नाव में सवार
परिवार के पास

खा गई/किश्ती
अनाज
थोड़ा-सा रुपया, और
दो जाने
इस तरह मना लिया नया साल
उड़ा ली दावत
31 दिसम्बर की रात
नाव में सवार हो नदी ने

नये साल के स्वागत में
अलस्सुबह
लाशें किनारे पर पड़ी थीं।

तुम्हारा दाँव

द्रोण!
गुरु दक्षिणा में
अपना अँगूठा काटकर देता
एकलव्य
तुम्हारी बूढ़ी आँखों में छाई
धूर्तता
और दाढ़ी मूँछों के पार्श्व में
छिपी कुटिल मुस्कान
देख नहीं पाया था

न ही दुर्योधन के
अहसान तले दबा
कर्ण!
अपने कुण्डल कवच
दान देने से पहले
कृष्ण!
तुम्हारी कूटनीति
समझ पाया था
परन्तु अब तुम दोनों सुनो!
तुम्हारे अनुयायी भी सुनें
न एकलव्य
न हम वो कर्ण रहे
अब हम भी
सीख चुके हैं
तुम्हारी चौसरी चालें,
चलो अपना दाटव
आओ! पासा फेंको?

गाँधी के बंदर

गाँधी का एक बंदर
अपने होंठों पर उँगली रखे
मौन है
वह जानता है
जो बोलेगा
वही साँकल खोलेगा
फिर वह क्यो बोले?
बोलकर
साँकल क्यों खोले?
आखिर गाँधी का बंदर है,
वह उसी तरह चुप्पी साधे है
जैसे दूसरा
देखना ही नहीं चाहता
तीसरा सबका बाप है
कानों में उंगली डाले बैठा है
किसी की पीड़ा
सुनना नहीं चाहता

अब हम अपनी व्यथा
कहें तो किससे कहें

एक पूना पैक्ट वाला गाँधी
बचा है
वह भी लाठी ले
भाग रहा है लगातार

कहीं थोड़ा रुके तो कहें
उसके अनुयायियों के बारे में
तीनों बंदरों के बारे में
देश के बारे में
उसके भागने के बारे में
आखिर रुके तो सही।

दादी की रोड़ी

रोज अलस्सुबह
बुआर कर कचरा
घर के एक कोने में
एकत्र करती माँ

ढालिया साफ कर
दादी डाल देती
बकरी की मिंगणियाँ
उसी ढेर में
किसीदिन टोकनी में भर
यह कचरा
सिर पर उठा
गाँव बाहर
रोड़ी में डाली आती माँ
उसी रोड़ी में जो
दादी के नाम से
जानी जाती थी
पूरे गाँव में
अपने खेतों में डालने
दरवाजे के किसान
मोल भाव कर
खरीदते रोड़ी
बैलगाड़ियों में भर ले जाते
इस तरह आड़े वख्त
रोड़ी कमाती
साल में दो-एक बार रुपये
हमारे लिए
हर शादी में सबसे पहले
उसे ही पूजते हम
वही थी हमारी रिद्धि-सिद्धि

एक दिन अनायास
सब कुछ लुट गया
नहीं रही रोड़ी
साफ हो गया मैदान
अब वहाँ पर
खड़ी है
तेरी समिति की इमारत!

खा जाओ दीमको!

दीमको!
चाट क्यों नहीं जातीं
मनुस्मृति
पचा क्यों नहीं जातीं
अन्याय की प्रतीक
रामायण
खा क्यों नहीं जातीं
वेद-पुराण
क्यों नहीं
छेद देतीं तुम
उनकी खोपड़ी
जहाँ सिर्फ
और सिर्फ
कुटिलता भरी पड़ी है।

अबकी बार

छत पर सोता हूँ गाँव में
मेंहदी की घनी झाड़ियों के बीच
बढ़े
बबूल के सिरहाने

मई-जून की तपत में
बिन बिजली, बिन ए.सी.
आधी रात बीतते ही
कंबल ओढ़
लेता हूँ
मीठी नींद
कि अलस्सुबह उठाते हैं
बबूल पर बैठे मोर
एक-दो नहीं
पूरे आठ-दस
जोर-जोर से चिल्लाते
मैं जाग जाता हूँ

थोड़ी ही देर में
लाउडस्पीकर पर
देती है सुनाई
अज़ान
फजल की नमाज़ का भी
समय हो गया है

पड़ोस के मंदिर में
मंगला आरती होती है
जहाँ कभी मैं
गया ही नहीं
मेरे लिए प्रवेश मना था

मोर फिर चिल्लाने लगे हैं
उनकी इस चिल्लाहट में
शामिल हो बंदरों की फौज
टीन की छतों पर
कूदते-फांदते
धमा-चौकड़ी मचाती है

अब नींद नहीं आती
यह रोज का किस्सा है
गाँव के लोग आदी हैं
पर मैं नहीं
इसलिए
इस बार गर्मियों में
फिर गाँव जाऊँगा
अबकी बार
सब से पहले
उस बबूल को काटने।

मेरी प्रतिक्रांति 

जिसे तुम क्रांति कहते हो
यह किस चिड़िया का नाम है
मुझे नहीं मालूम

मैं बस जानता हूँ
ठाकुर की बेरहम लाठी
जो उठती है
हमारे खिलाफ
हमारी गांड़-पीठ बजाने

मैं बस जानता हूँ
शास्त्री की जीभ
जो उगलती है आग
हमारे खिलाफ
शास्त्रों की दुहाई देती हुई

मैं बस जानता हूँ
बनिये की तराजू
जो मारती है डंडी
तोल में, मोल में

क्या यह सब नहीं देख पाती
तुम्हारी क्रांति
जिसे हम
सदियों से झेल रहे हैं
कराहते चले आ रहे हैं
उसके खिलाफ खड़े होना
प्रतिक्रांति है

मैं जानता हूँ
तुम जवाब नहीं दोगे

तुम्हें पुकारूँगा गला सूख जाने तक

हाँ,
यह रास्ता
मैंने ही चुना था

इस पर चलते हुए
कब
मैं दलदल में
भीतर तक उतर गया
पता ही नहीं चला
और
जब मैंने महसूसा कि
मैं धँसा जा रहा हूँ
तब
मेरे पास केवल हाथ बचे थे
जिन्हें जीने की चाहत में
भरसक कोशिशों की तरह
मारता रहा इधर-उधर
नतीजा
मैं धँसता ही गया और अधिक,
यह दलदल
ऊपरी सतह पर
कुछ गाढ़ा ही था
लेकिन नीचे पतला रहा होगा
तभी तो मैं समाता रहा
लगातार…
बाहर निकलने को
की गई
हर मशक्कत में बहे पसीने ने
मुझे थका दिया
लेकिन
इसका हौसला
मेरे पसीने की गंध पा
और बढ़ गया
मैं धँसा जा रहा हूँ
लगातार
पर जानता हूँ
शायद नहीं बचूँगा किन्तु
मेरे हाथ अब भी बाहर हैं
गला सुख जाने तक
तुम्हें पुकारूँगा
शायद मेरी आवाज
तुम्हारे प्रमोदरत कानों में
कभी पड़े!

मैं भूल जाना चाहता हूँ

सचमुच
इस दोराहे पर
अब और ज्यादा देर
यहाँ खड़ा नहीं रह सकता
मैं जानता हूँ यह भी
होते हुए दुर्गम रास्तों से
यहाँ तक पहुँचने में
तुम्हारे साथ
वक्त कैसे कटा
पता ही नहीं चला
अकेले में
राह और भी कठिन होगी
किन्तु
अब सचमुच
साथ न रहेगा
इस विश्वास के साथ
कहना चाहता हूँ
कि यहाँ तक पहुँचने में बिताए
सुखद पल
होंगे
मेरे बहते आँसुओं के साथ
खट्टी-मीठी यादों
अच्छे-बुरे अहसासों के सहारे
गुजार लूँगा बची जिन्दगी
पहुँच जाऊँगा
अपने अंतिम मुकाम पर

हाँ!
सचमुच
अब मैं
अपने नीड़ में जाकर
भूल जाना चाहता हूँ
उन पलों को,
यादों को
जो मुझे बनाी हैं कमजोर
जो कि कतई नहीं हूँ मैं।

कांच का दरकना

जब
दरकता है काँच
तो
सबको पता चलता है
कि
दरका है
काँच

कुछ टूटा है
छनाक से
जिन्हें दिखता है
वे देखते भी हैं
जो नहीं देख पाते
महसूसते होंगे
शायद!
काँच का दरकना
दरकने की पीड़ा

जो खुद कभी दरका हो
काँच की तरह
दरकने का
दर्द भी जानता होगा
इस दर्द को देखते
महसूसते सब हैं
पर कोई
यह क्यों नहीं पूछता
आखिर काँच!
दरका क्यों?

खूबसूरत बारिश

बारिश कभी-कभार
होती है
खूबसूरत
रोज-रोज नहीं होती
याद रहती है वो
जो होती है
कभी-कभार

जिसमें आँखें बंद किए
भीगे हों प्यार से
पानी की बूंदे उतरी हों
सर से रेला बन
आहिस्ता-आहिस्ता
चेहरे पर, और
उतर गई हों
तन को
तर-बतर करती हुईं
उन बूँदों से
हुए हो कभी आलिंगनबद्ध
छलकते हुए जाम की तरह
भुजाओं से छलका हो प्यार
वही तो है खूबसूरत बारिश

और,
ऐसा रोज-रोज
हर बारिश में नहीं होता
इसलिए तो खूबसूरत बारिश
बार-बार नहीं होती

और,
जो बारिश होती है
खूबसूरत
वो हमेशा याद रहती है।

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