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दो-जहाँ से मावरा हो जाएगा 

दो-जहाँ से मावरा हो जाएगा
जो तेरे ग़म में फ़ना हो जाएगा

दर्द जब दिल से जुदा हो जाएगा
साज़-ए-हस्ती बे-सदा हो जाएगा

देखिए अहद-ए-वफ़ा अच्छा नहीं
मरना जीना साथ का हो जाएगा

बे-नतीजा है ख़याल-ए-तर्क-ए-राह
फिर किसी दिन सामना हो जाएगा

अब ठहर जा याद-ए-जानाँ रो तो लूँ
फ़र्ज़-ए-तन्हाई अदा हो जाएगा

लहज़ा लहज़ा रख ख़याल-ए-हुस्न-ए-दोस्त
लम्हा लम्हा काम का हो जाएगा

ज़ौक़-ए-अज़्म-ए-बा-अमल दरकार है
आग में भी रास्ता हो जाएगा

अपनी जानिब जब नज़र उठ जाएगी
ज़र्रा ज़र्रा आईना हो जाएगा

ग़म-ए-हयात से जब वास्ता पड़ा होगा 

ग़म-ए-हयात से जब वास्ता पड़ा होगा
मुझे भी आप ने दिल से भुला दिया होगा

सुना है आज वो ग़म-गीन थे मलूल से थे
कोई ख़राब-ए-वफ़ा याद आ गया होगा

नवाज़िशें हों बहुत एहतियात से वरना
मेरी तबाही से तुम पर भी तबसरा होगा

किसी का आज सहारा लिया तो है दिल ने
मगर वो दर्द बहुत सब्र-आज़मा होगा

जुदाई इश्क़ की तक़दीर ही सही ग़म-ख़्वार
मगर न जाने वहाँ उन का हाल क्या होगा

बस आ भी जाओ बदल दें हयात की तक़दीर
हमारे साथ ज़माने का फ़ैसला होगा

ख़याल-ए-क़ुर्बत-ए-महबूब छोड़ दामन छोड़
के मेरा फ़र्ज़ मेरी राह देखता होगा

बस एक नारा-ए-रिंदाना एक ज़ुरा-ए-तल्ख़
फिर उस के बाद जो आलम भी हो नया होगा

मुझी से शिकवा-ए-गुस्ताख़ी-ए-नज़र क्यूँ है
तुम्हें तो सारा ज़माना ही देखता होगा

‘असद’ को तुम नहीं पहचानते तअज्जुब है
उसे तो शहर का हर शख़्स जानता होगा

गिराँ गुज़रने लगा दौर-ए-इंतिज़ार मुझे

गिराँ गुज़रने लगा दौर-ए-इंतिज़ार मुझे
ज़रा थपक के सुला दे ख़याल-ए-यार मुझे

न आया ग़म भी मोहब्बत में साज़-गार मुझे
वो ख़ुद तड़प गए देखा जो बे-क़रार मुझे

निगाह-ए-शर्मगीं चुपके से ले उड़ी मुझ को
पुकारता ही रहा कोई बार बार मुझे

निगाह-ए-मस्त ये मेयार-ए-बे-ख़ुदी क्या है
ज़माने वाले समझते हैं होशियार मुझे

बजा है तर्क-ए-तअल्लुक़ का मशवरा लेकिन
न इख़्तियार उन्हें है न इख़्तियार मुझे

बहार और ब-क़ैद-ए-ख़िज़ाँ है नंग मुझे
अगर मिले तो मिले मुस्तक़िल बहार मुझे

इश्क़ को जब हुस्न से नज़रें मिलाना आ गया

इश्क़ को जब हुस्न से नज़रें मिलाना आ गया
ख़ुद-ब-ख़ुद घबरा के क़दमों में ज़माना आ गया

जब ख़याल-ए-यार दिल में वालेहाना आ गया
लौट कर गुज़रा हुआ काफ़िर ज़माना आ गया

ख़ुश्क आँखें फीकी फीकी सी हँसी नज़रों में यास
कोई देखे अब मुझे आँसू बहाना आ गया

ग़ुँचा ओ गुल माह ओ अंजुम सब के सब बेकार थे
आप क्या आए के फिर मौसम सुहाना आ गया

मैं भी देखूँ अब तेरा ज़ौक़-ए-जुनून-ए-बंदगी
ले जबीन-ए-शौक़ उन का आस्ताना आ गया

हुस्न-ए-काफ़िर हो गया आमादा-ए-तर्क-ए-जफ़ा
फिर ‘असद’ मेरी तबाही का ज़माना आ गया

जब अपने पैरहन से ख़ुशबू तुम्हारी आई

जब अपने पैरहन से ख़ुशबू तुम्हारी आई
घबरा के भूल बैठे हम शिकवा-ए-जुदाई

फ़ितरत को ज़िद है शायद दुनिया-ए-रंग-ओ-बू से
काँटों की उम्र आख़िर कलियों ने क्यूँ न पार्इ

अल्लाह क्या हुआ है ज़ोम-ए-ख़ुद-एतमादी
कुछ लोग दे रहे हैं हालात की दुहाई

ग़ुँचों के दिल बजाए खिलने के शिक़ हुए हैं
अब के बरस न जाने कैसी बहार आई

इस ज़िंदगी का अब तुम जो चाहो नाम रख दो
जो ज़िंदगी तुम्हारे जाने के बाद आई

जब ज़रा रात हुई और मह ओ अंजुम आए

जब ज़रा रात हुई और मह ओ अंजुम आए
बारहा दिल ने ये महसूस किया तुम आए

ऐसे इक़रार में इंकार के सौ पहलू हैं
वो तो कहिए के लबों पे न तबस्सुम आए

न वो आवाज़ में रस है न वो लहजे में खनक
कैसे कलियों को तेरा तर्ज़-ए-तकल्लुम आए

बारहा ये भी हुआ अंजुमन-ए-नाज़ से हम
सूरत-ए-मौज उठे मिस्ल-ए-तलातुम आए

ऐ मेरे वादा-शिकन एक न आने से तेरे
दिल को बहकाने कई तल्ख़ तवह्हुम आए

जब ज़िंदगी सुकून से महरूम हो गई 

जब ज़िंदगी सुकून से महरूम हो गई
उन की निगाह और भी मासूम हो गई

हालात ने किसी से जुदा कर दिया मुझे
अब ज़िंदगी से ज़िंदगी महरूम हो गई

क़ल्ब ओ ज़मीर बे-हिस ओ बे-जान हो गए
दुनिया ख़ुलूस ओ दर्द से महरूम हो गई

उन की नज़र के कोई इशारे न पा सका
मेरे जुनूँ की चारों तरफ़ धूम हो गई

कुछ इस तरह से वक़्त ने लीं करवटें ‘असद’
हँसती हुई निगाह भी मग़मूम हो गई

कुछ भी हो वो अब दिल से जुदा हो नहीं सकते

कुछ भी हो वो अब दिल से जुदा हो नहीं सकते
हम मुजरिम-ए-तौहीन-ए-वफ़ा हो नहीं सकते

ऐ मौज-ए-हवादिस तुझे मालूम नहीं क्या
हम अहल-ए-मोहब्बत हैं फ़ना हो नहीं सकते

इतना तो बता जाओ ख़फ़ा होने से पहले
वो क्या करें जो तुम से ख़फ़ा हो नहीं सकते

इक आप का दर है मेरी दुनिया-ए-अक़ीदत
ये सजदे कहीं और अदा हो नहीं सकते

अहबाब पे दीवाने ‘असद’ कैसा भरोसा
ये ज़हर भरे घूँट रवा हो नहीं सकते

लब ओ रुख़्सार की क़िस्मत से दूरी

लब ओ रुख़्सार की क़िस्मत से दूरी
रहेगी ज़िंदगी कब तक अधूरी

बहुत तड़पा रहे हैं दो दिलों को
कई नाज़ुक तक़ाज़े ला-शुऊरी

कई रातों से है आग़ोश सूना
कई रातों की नींदें हैं अधूरी

ख़ुदा समझे जुनून-ए-जुस्तुजू को
सर-ए-मंज़िल भी है मंज़िल से दूरी

अजब अंदाज़ के शाम ओ सहर हैं
कोई तस्वीर हो जैसे अधूरी

ख़ुदा को भूल ही जाए ज़माना
हर इक जो आरज़ू हो जाए पूरी

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