Skip to content

Aadarsh-gulasiya-kavitakosh.jpg

मेरी मोहब्बतें वो भुलाता कहां तलक

मेरी मोहब्बतें वह भुलाता कहाँ तलक
पत्थर का हर निशान मिटाता कहाँ तलक

महबूब मुझसे चाहे वही पहली-सी हंसी
मैं दर्द अपने उस से छुपाता कहाँ तलक

ढा कर सितम बने हैं वह मासूम किस कदर
मैं उनको दिल के जख्म दिखाता कहाँ तलक

इक दिन तो टूटना था भरम टूट ही गया
कदमों में उनके सर मैं झुकाता कहाँ तलक

यादें तो थी बहुत-सी मगर चश्मे नम न थी
अश्कों को देर तक मैं गिराता कहाँ तलक

उसको ख़ुदा जो मान लिया मान ही लिया
सज़दे से अब मैं खुद को बचाता कहाँ तलक

साक़ी ने हाय मुझसे मुआफ़ी ही मांग ली
बरसों की प्यास थी वह बुझाता कहाँ तलक

‘आदर्श’ को गिराये ये मर्ज़ी जहाँ की थी
लेकिन था साथ रब तो गिराता कहाँ तलक

नश्तर सा लफ्ज़ मेरा ये अंगार हो तो हो

नश्तर-सा लफ्ज़ मेरा ये अंगार हो तो हो
मेरे कहे का उनसे सरोकार हो तो हो

ख़्वाहिश मेरी तो रोज़ यहाँ ख़ुदकुशी करे
तेरी नजर में यह कोई बाज़ार हो तो हो

मैं तो गुलाम रब का हूँ ज़रदार का नहीं
बेगार तुझको कोई स्वीकार हो तो हो

देखूंगा इश्क़ करके ये कैसा गुनाह है
पहले से ही गुनाह का अंबार हो तो हो

सब की मिलीभगत से ही इमदाद बिक रही
कहने को ये ग़रीब का आहार हो तो हो

बच्चों के वास्ते ही वह बेचे है अपना जिस्म
सबकी नजर में देह व्यापार हो तो हो

क़द भर मिली न मुझको तो चादर कभी कोई
ख़्वाहिश का मेरी कितना ही विस्तार हो तो हो

‘आदर्श’ तुझसे इश्क तो सदियों पुराना है
मैंने कहा है सच, तुझे इंकार हो तो हो

रक्खा चराग़ जब भी हवा के मुक़ाबले 

रक्खा चराग़ जब भी हवा के मुक़ाबले
लगता रहा वफ़ा हो जफ़ा के मुक़ाबले

बीमार होकर हमने हक़ीक़त ये जान ली
लगती दुआ है पहले दवा के मुक़ाबले

इक मुफ़लिसी के साथ में दुनिया से सामना
ज्यूँ रोज़ मर रहा हूँ कज़ा के मुक़ाबले

गर ज़ख्म भर गए तो तुझे भूल जाऊंगा
इनको कुरेद आ के शिफ़ा के मुक़ाबले

गर प्यार से मिलोगे बढ़ेंगे ही यार दोस्त
बेहतर है झुक के मिलना अना के मुक़ाबले

धोका मिला जो उससे हुआ कितना सुर्ख़
आंखों में जो लहू है हिना के मुक़ाबले

तौबा करो गुनाह से अल्लाह बख़्श दे
तौबा बहुत बड़ी है सज़ा के मुक़ाबले

आवाज़ उसने दी तो थी आदर्श बार-बार
मैंने क़दम न रोके सदा के मुक़ाबले

होठों पर हर ख़ुशी को सजाने के बाद भी 

होठों पर हर ख़ुशी को सजाने के बाद भी
दुश्मन-सा है वह हाथ मिलाने के बाद भी

यह इंतिहा रही है मेरे इश्क़ की जनाब
मुझको भुला न पाए भुलाने के बाद भी

सच बोलने का अब भी है जज़्बा मेरा वही
डरता नहीं हूँ जीभ कटाने के बाद भी

है प्यार उनको कितना जो आई हैं तितलियाँ
कागज़ के फूल मेरे सजाने के बाद भी

पहचानने से मुझको मुकरते रहे हैं वो
उनके दिए ही ज़ख़्म दिखाने के बाद भी

दस्तूर इश्क़ का तो है मौका यही मियाँ
रूठे रहें वह मेरे मनाने के बाद भी

सच्चाई का नतीजा है ‘आदर्श’ देख लो
राशन नहीं है घर में कमाने के बाद भी

रंग भूरे तो कुछ के काले हैं 

रंग भूरे तो कुछ के काले हैं
आस्तीनों में सांप पाले हैं

नाम बस्ती का सत्य धाम मगर
सब यहाँ झूठ कहने वाले हैं

अम्न कितना है शहर में तेरे
दर ओ दीवार पर हवाले हैं

रोज़ मय की नदी वहाँ खपती
बस जहाँ रोटियों के लाले हैं

है नया मार्केट में यह अखबार
इसमें कितने नए मसाले हैं

तीरगी की बनी है जो सरकार
अब गुलाम इनके सब उजाले हैं

शहर में क्या यतीम हैं सब लोग
अपने से छोटों को जो पाले हैं

बस यही है सफर के सारे सबूत
पांवों में उभरे जो ये छाले हैं

होगा क्या इस सफर का अब ‘आदर्श’
राह जन कारवां संभाले हैं

उसके सभी ग़मों का वो गुच्छा ख़रीद कर 

उसके सभी ग़मों का वह गुच्छा ख़रीद कर
मैंने उड़ाया तोते का बच्चा ख़रीद कर

दौलत कि वह हनक में ना फूला समा रहा
सबसे अलग मज़ार पर सज़दा ख़रीद कर

सहमे न क्यों ग़रीब ही शादी में बिन्त की
आखिर ग़रीब बिकता है रिश्ता ख़रीद कर

अपना ग़ुलाम बनने पर मज़बूर कर दिया
ज़रदार ने सभी का निवाला ख़रीद कर

दिल कहता ज़िन्दगी को अभी गुनगुनाउँ और
सांसो का अब कहीं से भी हुक्का ख़रीद कर

एहसास तो हुआ था बहुत देर में मगर
अपनी वफ़ा के बदले में धोखा ख़रीद कर

वादे उधार करके दिए नक़द में ही ग़म
यूँ ले गया वह दिल मेरा सस्ता ख़रीद कर

ख़ुद को करेगा फिट किसी किरदार में ही वो
लेकर गया है साथ जो किस्सा ख़रीद कर

रहते तमाम लोग तो ‘आदर्श’ आसपास
पैसे के दम पर अपना जो रुतबा ख़रीद कर

Leave a Reply

Your email address will not be published.