Skip to content

Arti Tiwari Kavitakosh.jpg

स्वागत

नई सदी का स्वागत
इस विश्वास के साथ
नष्ट हो जायेगा वो कूड़ा करकट
जो सड़ाता रहा
सभ्यता के,विराट खजाने

जीवाश्म बन चुकी
दफ़्न अनेक ज़िंदा देहों के
काले इतिहास को भुला
हम सबक लेंगे

स्वागत करेंगे उस सदी का
जिसमें नही रोयेगी नदी
जिस्म में समेटे कलुष
हमारे अपशिष्टों का

हम स्वागत करेंगे
उस सदी का
जिसमे पहाड़ों की
कराहें न शामिल हों
सुराखों से छलनी ह्रदय पहाड़
नही गाते हों
उत्पीड़न का विदारक गान

जंगलों में नही उतरता हो
हरीतिमा विहीन मटमैला सा उजाला
हिरणियों की कुलांचे विहीन
खरगोशों की दौड़ रहित
डरावने दृश्य नही होते हों जहाँ
हाँ हम स्वागत करेंगे उस सदी का

जहाँ बच्चे जा रहे होंगे स्कूल
कोखों में अंगड़ाइयाँ लेंगी
नन्ही कोंपले
स्त्री मुस्कुराएगी सचमुच में
बिना किसी लाचारी के
हम स्वागत करेंगे
उस नई सदी का

नया साल

इस साल फिर फिर
बिखेर दूंगी उम्मीदों के बीज
कामनाओँ के जंगल में
शायद कुछ नमी बची रह जाये
धरती की कोंख में
और अँखुआ जाएँ
मेरी कुछ कामनाएँ

प्रार्थनाओं और शुभकामनाओं के
पानी से सिंचित ले लें फूटन
आ जाएँ फोड़ कर जमीन का सीना
वो चिर-प्रतीक्षित लाल लाल कोंपले
मेरे आँचल से छन छन कर
रोशनी के वृत और हम सबकी
उत्सर्जित कार्बनडाईऑक्साइड
दे दे इतनी ऊर्जा
जो ज़रूरी है जीवन में
प्रकाश संश्लेषण के लिए

मुझे विश्वाश है इसी से पनपेगा
वो पौधा जिसे पोषने के लिए
पृथ्वी सदियों से लगा रही चक्कर सूर्य के
इसी से हाँ इसी से
आएगी नई सभ्यता

जहाँ थम जायेंगे कत्ले-आम
मिट जाएँगी दुर्भावनाएँ
छल हो जायेंगे ओझल
सारे कांटे हो जायेंगे इकट्ठे
बना लेंगे एक मज़बूत बाड़
जिसे पार कर कोमल फूलों तक
न पहुँच सकेंगी नोचने वाली उँगलियाँ
हाँ मुझे यकीन है
इस बार मेरे बीज
अंकुरित होंगे ज़रूर

जिजीविषा

संजो लो अपने भीतर
मुझे बाहर लाने का साहस
बाद में.
मैं खुद लड़ लूँगी
अपने अस्तित्व की लड़ाई

तुम्हे बचाना है,मेरा आज
बिना इस भय के
क्या होगा मेरा कल?
मुझे चाहिए थोड़ी सी जगह
तुम्हारी कोंख में
अंकुर बन फूटने को

बाद में.
अपने विस्तार और विकास के रास्ते
मैं खुद तलाश लूँगी
अपनी पूरी ताक़त लगाकर
मैं उछलूँगी क्रीड़ाएँ करूंगी
और तुम्हे दिलाती रहूंगी
अपने वज़ूद का एहसास

कली और खुशबू बनकर मुस्कुराऊंगी
तुम्हारे सपनों में
मेरे सौंदर्य और कौमार्य के
कुचले जाने का डर बता
तुम्हे भरमाया जायेगा
पर तुम मत हारना हिम्मत
मुझे पनपने देना,और जीना
मेरे पनपने के एहसास को

बाद में.
मुझे अपने हिस्से की
जमीन-आसमान पाने से
कहाँ कोई रोक सकता है
नदी खुद बनाती है अपना रास्ता
मैं मौसम में उतरूंगी ,तैरूँगी, फुदकुंगी
कलियों के शोख रंगों में चटकूँगी
.जीऊँगी मैं
अपने स्त्रीत्व की सम्पूर्णता को

देखो तो
पत्थर की शिला में भी
फूटे हैं तृणाकुर
ढेर सारी,नई-नई कोंपलें
वे तो नहीं हैं,उसका हिस्सा
फिर भी
वो समेटे है उन्हें आश्रयदाता बनकर
बिना डरे अभयदान देकर
..और मैं
मैं तो तुम्हारे वज़ूद का हिस्सा हूँ माँ
सृष्टि का अनुपम उपहार हूँ
आने दो मुझे अपने अंक में
अपनी दुनिया में
और जियो
इस गर्वीले क्षण को
एक विजेता की तरह

चिड़िया की भाषा 

चिड़िया पढ़ लेती है पृथ्वी की हस्त-रेखाएं
जान लेती है अवनि के अंतर्मन की गहराइयों को
कभी उदास तरु की आहत दृष्टि
कभी मृत सरिताओं की उछाहहीन उद्दण्ड तरंगे
मूक-दृष्टि से बांचा करती है सारा भूगोल

अनन्त-व्योम और अतल-पाताल का उसका हिसाब-बोध
मात करता है तुम्हारे समूचे विज्ञान और तक़नीक के फोरकास्ट को
जाने कैसे जान लेती है अचानक पलटते मौसम की चाल
सूर्य की रश्मियों और पवन के वेग से
भांप लेती है आगत के विनाश को
करती है सचेत बार-बार अपनी हलचल और क्रीड़ाओं से

बचाना चाहती है अपना आज हमारे कल के लिए
हम ही नहीं समझ पाते प्रकृति के रहस्य बूझती
उसकी उत्कट अभिलाषा
अनाम आशा
चिड़िया की भाषा

हरियाली तीज

वे स्त्रियाँ,जो नही जानतीं
क्या होता है वाटर पार्क
जिन्होंने कभी नही देखे मल्टीप्लेक्स
मॉल में रखे क़दम कभी नही
वे स्त्रियाँ और बच्चियाँ जो
घिरी रहीं गोबर और कीचड़ के घेरों के बीच

उनकी सुबह जो चूल्हे की धुआँती चाय से शुरू होके
दिन भर कमर तोड़ मेहनत से गुजरती हुई
शाम के धुंधलके में समाती गई

उनके लिए तो ये हरियाली तीज
ये झूलों की पींगें आमोद प्रमोद की
मधुर बांसुरी है

ये वे ही शापित अहिल्यायें हैं
जो सावन की फुहारों में भीग/पत्थर से
स्त्रियों में बदल जाती हैं।
आता है भैया लिवाने तो खिल उठती हैं
तुरन्त रचाने बैठ जाती हैं महावर
बरसों से बिछुड़ी सखियों से मिलने की आस
सूखी त्वचा को भी कोमल बना देती है

भावज की मनुहार माता की ममता
पिता का माथे पे रखे काँपते हाथ से बरसता दुलार
साल भर के जीने का हौसला/सौगात में मिला मानो
फुदकती हैं आँगन में तो गौरैया सी
चहचहाहट बिखर जाती है

कैसे कह दूँ कि मेरे लिए नही हैं मायने
इन तीज त्यौहारों के
सखी सुनो,ये नही गईं कभी युनिवरसिटी
इन्होंने नही पढ़े रिसर्च पेपर
ये कभी नही देखेंगीं हॉलीवुड मूवी
ये नही जान पायेंगी कि चाँद
उपग्रह है पृथ्वी का
इनके लिए तो ये मेले ठेले ये पर्व उपवास

आमोद प्रमोद की मधुर बाँसुरी सरीखे
इनकी होठों की सहज मुस्कान
जीने देतीे हैं इन्हें
खुल के खुली हवा में
चन्द रोज़ ही सही जी तो लेती हैं
सिर्फ अपने लिए बहाना कोई भी हो।

अलाव

वो अभी-अभी गुज़री है
होकर एक प्रस्तर हिमखण्ड से
और उसके भीतर सुलग रहा,एक अलाव
जाने कबसे

अपने मन की बैचेनी
उड़ेल कर, उकेरे शब्द
बने हैं आँच,और जज़्बे तड़क रहे
सूखी लकड़ियों से

इसी अलाव में हुई स्वाहा कभी
नींद आस-उम्मीद की आहुतियाँ
बची हुई चिंगारियों में
दबी हैं आज भी
अतृप्ति की सिसकियाँ

कितना सजीव अभिनय किया
जीवन के हर भाग का
किन्तु पराजित हो गया
हर यत्न स्वयं को छल

मुद्रिका से बंधे किसी भी श्राप से
मुक्त होना चाहती अब
हर शकुन्तला

7

|| दंगा कर्फ्यू और भूख ||

यह एक गुमसुम उदास शाम थी
छुई मिट्टी से लिपे चूल्हे में,
सूखी लकड़ियाँ सुलग रही थीं
काँसे की एकमात्र थाली में
ताज़े सने आटे के साथ
सने थे दो चार तितर-बितर सपने
और पतीली में दाल के साथ
उबल रहा था एक सैलाब

शहर में भड़के दंगे के बाद
झुलस गया चूल्हा भी नही जला दो दिन तक
जैस दंगा भूख को खा चुका था
सूरज चाँद तारे सब लापता हो गए थे
दिन रात जैसे एक दूसरे में गड्डम गड्ड

आज तीसरे दिन शहर नेआँखें खोली
एक सहमी सी सुबह ठिठकती हुई
दोपहर में प्रवेश करती
खींच लाई लोगों को
नून तेल लकड़ी लेने बाज़ार में
और वे बचे खुचे पैसे
नुचे पिटे चेहरे लिए
भिड़ा रहे थे दो जून रोटी की जुगत

भूख नही जानती दंगा
ईमान राष्ट्र और व्यवस्था
भूख सिर्फ भूख होती है
अंतड़ियों की ऐंठन
न किसी गलत का विरोध करने की कुव्वत रखती है
न किसी सच की पक्षधरता
वह बस भूख होती है

प्यास की नदी की बाढ़
बहा ले जाती है सोने से सपने
भूख का दावानल राख कर देता है
सिद्धांतों के दस्तावेज़

भूख की जीत अन्त में तय है
किसी भी परिस्थिति से परे
भूख के यज्ञ में
निवालों की पूर्णाहुति से
पूरा होता है जीवन

दो जोड़ी आँखें भविष्य की
माँ के आँचल में दुबकी
चूल्हे पे चढ़ी दाल के सीज़ने के इंतज़ार में
बावली सी हुए जा रही हैं

सृष्टि की सबसे सौंधी गन्ध
फ़ैल गई थी
पतीली से निकल कर शहर के अंतिम छोर तक
फिर से बच जाने और जीने की ओर एक कदम बढ़ाती
एक सुनहरी भोर की ओर

दंगा कर्फ्यू और भूख 

यह एक गुमसुम उदास शाम थी
छुई मिट्टी से लिपे चूल्हे में,
सूखी लकड़ियाँ सुलग रही थीं
काँसे की एकमात्र थाली में
ताज़े सने आटे के साथ
सने थे दो चार तितर-बितर सपने
और पतीली में दाल के साथ
उबल रहा था एक सैलाब

शहर में भड़के दंगे के बाद
झुलस गया चूल्हा भी नही जला दो दिन तक
जैस दंगा भूख को खा चुका था
सूरज चाँद तारे सब लापता हो गए थे
दिन रात जैसे एक दूसरे में गड्डम गड्ड

आज तीसरे दिन शहर नेआँखें खोली
एक सहमी सी सुबह ठिठकती हुई
दोपहर में प्रवेश करती
खींच लाई लोगों को
नून तेल लकड़ी लेने बाज़ार में
और वे बचे खुचे पैसे
नुचे पिटे चेहरे लिए
भिड़ा रहे थे दो जून रोटी की जुगत

भूख नही जानती दंगा
ईमान राष्ट्र और व्यवस्था
भूख सिर्फ भूख होती है
अंतड़ियों की ऐंठन
न किसी गलत का विरोध करने की कुव्वत रखती है
न किसी सच की पक्षधरता
वह बस भूख होती है

प्यास की नदी की बाढ़
बहा ले जाती है सोने से सपने
भूख का दावानल राख कर देता है
सिद्धांतों के दस्तावेज़

भूख की जीत अन्त में तय है
किसी भी परिस्थिति से परे
भूख के यज्ञ में
निवालों की पूर्णाहुति से
पूरा होता है जीवन

दो जोड़ी आँखें भविष्य की
माँ के आँचल में दुबकी
चूल्हे पे चढ़ी दाल के सीज़ने के इंतज़ार में
बावली सी हुए जा रही हैं

सृष्टि की सबसे सौंधी गन्ध
फ़ैल गई थी
पतीली से निकल कर शहर के अंतिम छोर तक
फिर से बच जाने और जीने की ओर एक कदम बढ़ाती
एक सुनहरी भोर की ओर

फिर आएगा वसन्त

हम जो निराश होकर बैठे हैं
खुद की ही गाँठों में बंद

भरोसा करते हैं अब
कि आएगा वसन्त
डालेगा बसेरा हमारे आँगन में
पीले नीले मिल नारंगी रंगो से
पूर पूर देगा हमारे गलियारे

खेतों में,बागों में,गली कूचों में
हौले से बिखर जायेगा जैसे बिखर जाती है खुशबू

सांसों की सरगम में,राग भोर का गायेगा,चूमेगा वल्लरी से झरती कलियों को

फ़ैल जायेगा जादुई उजाला सवेरे की रेशमी झालर में झिलमिल सा

टेसू के रंग में घुल जायेगी
उसके आने की आहट

कोयल गायेगी मादक गीत
भौरों की गुनगुन में उसकी आमद का संगीत स्वर लहरियों में नाचने लगा है

अपने गिटार के तारों को छूकर छेड़ते ही वो उखाड़ फेंकेगा तुम्हारी उदासी की केंचुल
पपड़ाये होंठ हिलने लगेंगे और फिर से जीने लगेंगे

उसके आते ही होगा एहसास अनोखा तृप्ति का
जी उट्ठेगा जग सारा देखना

निराशा के अँधेरे को चीर कर आयेगा वसन्त
वसंत हमारे लिए आशा का गुब्बारा होगा
जो कभी नहीं फूटेगा.

रंग

मुझे अच्छा लगा था उसका पक्का रंग
और उसमें से झाँकती उसकी
धवल हंसी
उसकी कत्थई आँखें
और उनकी सुनहली चमक
उसके माथे के बीचोंबीच
एक छोटे वृत्त में पसरा लाल रंग
खूब फब रहा था
उसके श्याम वर्ण पे

उसकी आसमानी धोती पे
बिखरी नीली छींट
मुझे जंगल में नाचता मोर
याद आया

उसके फूटते केशौर्य से
टपका पड़ रहा था
सिंदूरी रंग खिल खिल हंसते
मगर गुलाबी रंग से
अनजान जान पड़ती थी

आम के झाड़ पे
ऊंची टहनी पे बैठी वो
सब्ज़ पत्तों से बातें करती दिखी जब
मुझे याद आ गईं
माँ की गोरी कलाई में खनखनाती
हरे काँच की चूड़ियाँ

और आम के मौड़(मञ्जरी)
ऊँगलियों के पोरों से
उसे सहलाते देख
मुझे विश्वास हो गया
आ चुका है वसन्त

मिट्टी के लोग

वे जन्मे थे इसी मिट्टी के सौंधेपन से
इसी में घिसटे और चले
घुटैंया घुटैयां

मटकों का पानी पीकर
हुए तृप्त उनके बचपन के खेल
इसी के बने घुल्ले दौड़ाये
पोला के हाट में

इसी के कल्ले पे बनी रोटी का स्वाद
भिगाता रहा मसें
खिलता रहा केशौर्य
याद करके इसी माटी के घरघूले
और बरखा की पहली बूंदों को
छककर सांसो में भरते भरते
बौराने लगा यौवन

उनीदी आँखों में समाने लगे
मौलश्री के ताजे टटके फूल
माटी के चबूतरे पे बैठ
निहारीं कितनी पनिहारिने

और इसी माटी में गुम हो गए
जाने कितने कुंआरे सपने

और ऐसे ही जीते जीते एक दिन बिला जायेंगे
हम लोग भी मिट्टी में
पर बची रहेगी यह कविता
जिसमें गंध है विचार की.
जिसमें प्यार है मित्रों का
जिसमें मिट्टी का ही ज़िक्र है

कंजक

बड़े घरों की बेटियाँ
रेशमी परिधानों की छटा बिखेर
जा चुकी हैं मुंह जूठा करके
और कुछ
और बच्चियां सिर्फ चख के
चली गईं

कुम्हलाए,बुझे चेहरो पर
उत्सव की गुलाल लिए
सेठों के बच्चों की उतरन
मटमैले रंगों के
सीवन उधड़े कपड़ों में
जो डोलती हैं दिन भर
इधर से उधर

ये मज़दूरों की छोरियाँ
लप लप खाये जा रही हैं खीर
और ऐसे कि कोई देख न ले

इनकी बन आई है इन दिनों
सप्तमी,अष्टमी नवमी
जीमेंगी भरपूर
करेंगी तृप्त पुण्यात्मा सेठानी को

ज्वारों में खिलती है
एक हरी किलकारी

इनमें भी वही
हाँ वही तो है
शक्तिरूपा ब्रम्हचारिणी

दाँत

अब काटने दौड़ते हैं ,
आये हैं जो समझ आने पर
दूध के दाँत तो ले गए थे ले गए थे साथ
मासूमियत सारी

अब जो दाँत हैं
आते हैं काम,निपोरने के गाहे-बगाहे
महफ़िलों में
नकली मुस्कुराहटों से अटी जाती है दुनिया
और पीसे जाते हैं दाँत,गरीबों और मज़लूमों पे

अब सबके दाँत हो चले हैं,
हाथी की तरह
दिखाने और खाने के अलग अलग
अब दाँत काटी रोटी वाली दोस्ती भी
हिन्दी का एक मुहावरा मात्र ही रह गई
हाँ उन स्त्रियों के लिए अभी भी
जीवन में स्थायी भाव सा व्याप्त है
दाँत भींचना
सिमटे हैं बस ज़ब्त करने तक दायरे जिनके

वह तो दाँतों के काम से
माहिर है अपने हुनर में
टांक के बटन कैंची की जगह
दाँतों से ही काटती आई है धागा
जिव्हा का उपयोग वर्जित था उनके लिए
दाँत जैसे दोस्त बना लिए थे उसने
मुस्कुराते,ख़ुशी में भी और ग़म में भी

पर अब बेहाल और बेज़ार हो चुके
जिन दाँतों ने उसे उम्र भर सहारा दिया
टीसने लगे हैं अब
अब नही रहा काबू दाँतों पे
मुस्कुराहट पे,और ज़ब्त पे भी
दाँत अब रुलाने लगे है ज़ार-ज़ार
दिखाने और खाने के भी

पिता का होना

एक छत,जो बचाती थी
ग्रीष्म में झुलसाती धूप से
तूफानी बारिश के थपेड़ो से
सर्द हवाओं की ठिठुरन से

कभी कभी वही छत हल्की सी तक़लीफ़
कर दिया करती थी ,नज़रअंदाज
ताकि हम मज़बूत बने

हम भी आश्वस्त थे
इतनी मज़बूत छत
जिसका प्लास्टर जगमगाता था
जिसमें से रिस कर कोई ग़म
हम तक कभी नही पहुँचा
खुशियों की बेलें
आच्छादित थी,जिसके चारों ओर
ठहाकों की विंड चाईम
गुंजाती थी जीवन का राग
संस्कारों की नक्काशी
जिसके किरदार के धवल रंग को
एक आब देती थी

हम निश्चिन्त थे
इतनी मज़बूत छत के होते
जी रहे थे,मौसमों को
आनन्द के रंगों से सराबोर थे
भूले हुए हर संकट की आहट

भूल गए ये भी
हर मज़बूत छत की भी
होती है एक मियाद
एक अच्छे रखरखाव और देखभाल की
मरम्मत के बाद भी

और भला कौन होता है तैयार
इस छत के एक दिन न रहने का अंदेशा पाले

यूँ ही एक दिन ढह जाती है
ऐसी मज़बूत छत
और हम रह जाते हैं अवाक

चुनौतियों का सामना करने
छत के बिना ही

एक दिन 

उन्होंने कहा बड़ी हो रही है
तुम्हारी लड़की
उसे सलवार कमीज़ पहनना सिखाओ
ढंग से दुपट्टा ओढ़े
कोयल सी न कूके
हंसे न ज़ोर से बात बेबात
नज़रें नीची रखकर चले
हटा लो लड़कों के स्कूल से
बहुत पढ़ ली
कामकाज में माँ का हाथ बटाये

लड़की चुप रही
नही कही मन की बात
माँ बाप को चुभी
कील सी
दीवार बन सहती रही
कील होने का दर्द

प्यार की बरबादियाँ
समय के धरातल पर
समानान्तर रेखाओंं सी
खिची रहीं
नाटक का उपसंहार जाने बिना
खापों के थोपे नियमो का वहिष्कार कर
घर से भाग ही गई एक दिन

नींद 

उसकी नींद में,बिछौना नही था
मोड़े हाथ का तकिया
सबसे बड़ा ऐश्वर्य था
तब,जबकि बच्चा करवट ले
हो चुका हो औंधा

उसकी नींद अकेली थी
जैसे दौड़ती है,एक नदी अकेले अकेले
जब तक समा न जाये
सागर में

दिन की भट्टी में झुलसी देह
रात को बाँट रही थी
पसीने का उपहार
जिसकी रगड़ से पैदा चिंगारियाँ
ज़मीन की चादर को
चिपचिपाहट से बेध रहीं थी

उसकी नींद में
आराम का वैभव नही था
मरी हुई नींद की कातरता
उसका प्राप्य थी

उसकी नींद में
एक बन्द खिड़की थी
जिसके खुलने
और हवा के रेशमी झौंखे से
पत्थर होती जा रही देह को
नहला जाने का
एक कोमल सपना बाकी था

रोटी की कविता

हर रोटी में बेलती है
एक कविता
तवे पर सेंकती है,एक आह
गैस के बर्नर पर
आह गिरते ही
फूल जाता है दर्द
उसे घी की नरमाई से
छुपाने का जतन कर
परोस देती है,
सुख की थाली में
इतनी रोटियाँ खाते-खाते
पढ़ लीं तुमने कितनी ही कविताएँ.

पगडण्डी

पाई जाती हैं
गाँवों कस्बों में ही
ढूंढे से भी नहीं मिलतीं
महानगरों के जाल में

मोहती आई हैं
अपने गंवई सौंधेपन से
कितने ही किस्से किंवदंतियाँ
सुनाते हैं इनके यात्रा-वृतान्त

किसके खेत से
किस बावड़ी तक
रेंगी,चली,उछली कूदी
और जवान हो गईं

इनके ग़म और ख़ुशी के तराने
गूंजते रहे चौपालों पर
ज़रूरत के हिसाब से
ज़रूरत के लिए बनती चली गईं
इनके सीने में दफ़्न हैं आज भी
पूर्वजों के पदचिन्ह

जो इन्हें चलना सिखाते थे कभी
और खुद इनके कन्धों पर चढ़कर
विलीन होते रहे
क्षितिज की लालिमा में

ये आज भी जीवन्त हैं
और गाहे बगाहे हंस देती हैं
महानगरों के ट्रेफिक जाम पर

ये बैलों की गली में बंधी
घंटियों के संगीत सुन
गौधूली की बेला में
आज भी घर पहुँचा देती हैं
नवागन्तुक को
जबकि महानगर नज़रें फेर लेता है

और तोड़ देता है दम
कोई सपना हौसला खोकर

पगडण्डी डटी रहती है
हटती नहीं अहद से

अख़बार 

मुझे गौर से पढ़ता है
आँखों पर चढ़े नज़र के चश्मे से
सुर्ख़ियों से ताकता है
मेरा निर्विकार चेहरा
भोथरी हो चुकी सम्वेदनायें

मेरे अंदर का मर चुका आदमी
नही देता कोई प्रतिक्रिया
ग़म ख़ुशी या आवेग की
अख़बार पे चस्पा खबरें मात्र खबरें हैं
कोई कौंध नही

मेरी नज़रें तलाशती हैं
बढ़े हुए वेतनमान का स्वीकृत होना
सेल के विज्ञापनों में
छुपी बचत
रिटायरमेंट की आयु सीमा बढ़ाया जाना
और मेरी आँखों में चमकी चालाकी की चमक पढ़
अख़बार रह जाता है भौंचक

अब आदमी अख़बार नही पढ़ता
अख़बार पढ़ता है
आदमी की चालाकी
और हो जाता है उदास

स्त्री जीवन एक प्यूमिक स्टोन 

जड़ों से फूटीे वे तंतुनुमा
बाहर आयीं
कुछ दिनों बाद दिखने लगी
ललछौंही हरीतिमा
वे इठलाने के दिन थे
नरम नरम उजाले,सुनहरी मुस्कानें
मिट्टी भी हुलसती,देती असीसें

बीतता चला गया
शैशव,बालापन,कैशौर्य भी
होंने लगीं सख़्त,
लाल लाल कोंपलें खा खाकर ठोकरें
घिसाती रहीं बर्तनों सी
फ़ीची गई कपड़ों सी
उलीची जाती रहीं
बावड़ियों सी

सुख झरते रहे भीतर से
सरंघ्र होते रहे मन के ठोस पत्थर
दुःख का रास्ता साफ होता गया दिनों दिन
मिट्टी की तरह देह
होती चली भुरभुरी

प्यूमिक स्टोन सी
जीवन को उजला बनाती रही
स्त्रियाँ।

हमारे डर

घर से निकलते ही
भीड़ में खो जाने के डर
अच्छे कपड़ों मेँ
घूरे जाने के डर
सादे कपड़ों में
आम नज़र आने के डर

अव्वल आने पर
साथियों की ईर्ष्या के डर
औसत रहने पर
पिछड़ जाने के डर
प्रेम की अभिव्यक्ति पर
ठुकराये जाने के डर

ब्रांडेड माल से ठगे जाने के डर
सस्ते में घटिया उत्पाद के डर
दस्तावेजों के नकली पाये जाने के डर

बाढ़ और सूखे से
बाज़ार बैठ जाने का डर
मन्दी में, बेरोज़गार हो जाने के डर

हमारे छरहरे डर
अब भीमकाय हो चले हैं
हमारे डर करने लगे है
दबाव का विस्फ़ोट

हमे ज़रूरत है, एक मसीहा की
बदल डाले जो दुनिया
बना दे जन्नत ऊगा के खुशियों की फसल
मिल जाये कोई जादुई चिराग
और पल भर में,हो जाएँ
सारे रास्ते आसान
हम अकर्मण्य से
बैठे हैं प्रतीक्षा में
हाथ पर हाथ धरे
कोई आये और

मिट जायें हमारे डर

पिता

उन्हें सदा एक पिता सा ही पाया
शायद उनके पिता
उन्हें सौंप गए थे दायित्व
अपने पितृव्य का

तूफ़ान आये
और गुज़रते रहे आकर
कभी माँ कभी पत्नीविहीन कर
पिता अंदर से टूटे
ऊपर से हरियाते रहे
साथ जुड़ी टहनियों को
पिलाते रहे,जीवद्रव्य
माइटोकोन्ड्रिया बनकर

जीवन की किताब में
लिखवा लाये थे
सतत कर्म का लेखा
हस्तरेखाओं में लुप्त थी
विश्राम की रेखा
सुख के खानो में दर्ज़ थीं
कुछ मासूम मुस्कानें
उन्हीं से उम्र भर
काम चलाते रहे

ज़िन्दादिली का स्टॉक
काफ़ी था
दुखों के मुक़ाबिल
बिताने को एक उम्र
इसी के दम पे
खुद को जिलाते रहे

कई बार पढ़ी गई किताब 

तुम फिर मुझे पढ़ रही हो
और बिल्कुल वैसे ही
जैसे पहली बार

जब तुम्हारी नाज़ुक गुलाबी उँगलियाँ
पलटती थीं मेरा एक पन्ना
और नशीली आँखें
गड़ी रहतीं थीं मुझ पर
मैं सिहर-सिहर जाती थी

जब कहानी की एक नायिका
प्रताड़ित होती
और तुम तड़प उठतीं
भींच लेती मुट्ठियाँ
और तुम्हारी आँखों के सैलाब
बेताब हो जाते
ये दुनिया बदल डालने को

तुम वो पृष्ठ बार बार पढ़तीं
जहाँ इनकार कर देती है नायिका
बिस्तर पे बिछी,एक बासी चादर बनने को

चौंक गईं न
ये वही मोरपंख है
हाँ तुम्हारा बुकमार्क
और ये धूसर धब्बे
तुम्हारे सूखे हुए आँसू
जो नायिका के मार दिए जाने के दुःख में इस पृष्ठ पर
एक भावांजलि में
चस्पां हुए आज भी
अपनी नमी दर्ज़ करा रहे हैं
इतिहास में

तुम्हे याद है न
जब तुमने मन ही मन खाई थी ये कसम
तुम नहीं मानोगी हार
ज़ुल्म से,ज़ोर से या छल से

और आज मैं तुम्हारे हाथों में हूँ
हूबहू वही हो
वे ही गुलाबी उँगलियाँ
हाँ बालों में हल्की सफेदी और पतलापन
छरहरी काया,बदल गई भरे हुए जिस्म में
पर आँखों में वही आग
और चेहरे पे वही मासूमियत
हाँ जब मेरे प्रकाशन का
पहला वर्ष था
तुम्हारी उम्र का उन्नीसवाँ
हाँ हम दोनों युवा थे
भरपूर अंदर से और बाहर से भी

और आज मैं भी आ गई हूँ
कुछ चर्चित किताबों के बीच
और तुम भी जी रही हो
अपनी दूसरी पारी को सफल होके

मैं कई कई बार पढ़ी गई
कई कई चाहने वालों द्वारा
सुनो,पर वैसे नही
जैसे तुमने पढ़ा था मुझे
और जी ली एक उम्र
मुझे ही पढ़ते हुए

Leave a Reply

Your email address will not be published.