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बासन्ती मनुहार 

तुम राधा का अमर प्रेम, हो कान्हा कि मनुहार तुम्हीँ,
तुम्हीँ व्योम की अभिलाषा, हो धरती का श्रंगार तुम्हीँ।

तुम्हीँ चपल चँचल चितवन, हो पूनम का भी चन्द्र तुम्हीँ,
नव कोपल सँग नव वसन्त, हो उपवन का सौभाग्य तुम्हीँ।

सुरभित सुमनों की तुम सुगन्ध, हो भ्रमर वृन्द का राग तुम्हीँ,
तुम कोयल की मधुर कूक, पी कहाँ पपीहा तान तुम्हीँ।

मादक पुष्पों की तुम मदिरा, मदमस्त पवन का मूल तुम्हीँ,
सरसों की हो स्वर्णिम आभा, स्वप्निल-सा सौम्य स्वरूप तुम्हीँ।

बहती नदिया कि थिरकन मेँ, हो निहित प्राकृतिक लाज तुम्हीँ,
निर्निमेष पर्वत माला का, धीर, अविचलित भाव तुम्हीँ।

पायल की झनकार तुम्हीँ, हो प्रणय-गीत का सार तुम्हीँ,
मन के घुँघरू का हो तुम स्वर, मेरी धड़कन का राग तुम्हीँ।

तुम्हीँ शाम की हो रँगत, प्रातः की मन्द बयार तुम्हीँ,
उष्ण मरूस्थल मेँ जलकण, सावन की मस्त फुहार तुम्हीँ।

तुम निज वीणा कि मधुरिम ध्वनि, प्रत्येक दृष्टि से इष्ट तुम्हीँ,
“आशा” के मन की प्रीति तुम्हीँ, हैँ शब्द भले निज, अर्थ तुम्हीँ…!

“आशा” के दीप 

दीप का उत्सव, बधाई हृदय से स्वीकार हो,
शत्रुता हो दूर, सबसे मित्र-सा व्यवहार हो।

प्रकृति हो धन-धान्य पूरित, धरा का शृंगार हो,
स्वस्थ होँ सब नागरिक, नव शक्ति का सँचार हो।

हो प्रदूषण दूर सब, वातावरण अब स्वच्छ हो,
जागृति आए नयी, अज्ञानता सब दूर हो।

नवसृजित होँ गीत कुछ, उल्लास, शान्ति, समृद्धि के,
प्रस्फुटित नवचेतना हो, सुमति का विस्तार हो।

दीप “आशा” का हो प्रज्वलित, ज्ञान से उद्दीप्त हो,
हो उजाला सब के उर मेँ, तिमिर मन का दूर हो…!

कृष्ण महिमा

देवकीनंदन कहूँ, गोकुल का या प्यारा कहूँ,
जो है लीलाधर, उसे निर्लिप्त योगेश्वर लिखूँ।

गोपियों का प्रिय उन्हें, राधा का या प्रियतम कहूँ,
द्वारिका अधिपति कहूँ या अच्युतानंदन लिखूँ।

हाथ में मुरली कभी, पर है गोवर्धन भी कभी,
है अपरिमित स्वयं जो, उसके लिए कितना लिखूँ।

जो सुदामा के सखा बन, साथ खेले और पढ़े,
दे दिये दो लोक जिसने, मित्र पर अब क्या लिखूँ।

साग खाकर विदुर के घर, तृप्त जो हिय से हुये,
भक्त वत्सल श्याम के बारे मेँ, ज़्यादा क्या लिखूँ।

पार्थ के बन सारथी, उपदेश भी जिसने दिये,
ज्ञान का सागर है जो, उस पर अधिक अब क्या लिखूँ।

यूँ जगत को ज़ाहिरा मेँ, प्रेम राधा का दिखा,
कृष्ण के जो दिल पर बीती, लेखनी से क्या लिखूँ…!

हसरत-ए-दीदार

इश्क़ को जब से हमने दिल में बसाया “आशा” ,
दाग़ तो मुफ़्त मेँ, जागीर मेँ सहरा पाया।

क्या हुआ मुझको, यही बात पूछते हैं सब,
दिल तो नादाँ था, ज़हन को भी उसने भरमाया।

समझ आया नहीं, क्या खोया हमने क्या पाया,
जब भी ढूँढा उन्हें, दिल के क़रीब ही पाया।

इक हसीँ ख़्वाब मेँ तस्वीर जो उभरी उनकी,
जैसे वह थे, उन्हें वैसा फ़क़त हम ने पाया।

फिर से मिलने का वह वादा जो कर गए हमसे,
बस इसी बात पर हमको बहुत रोना आया।

या ख़ुदा तेरी रहमतें भी चुक गई हैं क्या,
मेरी इक”हसरत-ए-दीदार” भी बेजा है क्या…!

लिहाज़

कितने अल्फ़ाज़ मिटाए हैं यूँ लिखकर मैंने,
उनकी मर्ज़ी की है जो बात, वह जानूँ कैसे।

दिल में जो बात है, होठोँ पर मैं लाऊँ कैसे,
हद गुज़र जाए तो जज़्बात छुपाऊँ कैसे।

कुछ तो ये बात वह भी दिल से समझते होँगे,
ख़ौफ़-ए-रुसवा है मगर सबको, बताऊँ कैसे।

अभी तो शाम ढल रही है, कोई बात नहीं,
गर हुई रात, क्या कह दूँ कि घर जाऊँ कैसे।

यूँ तो ज़ाहिर है मेरी हसरत-ए-दीदार मगर,
देख लूँ उनको, तो ख़ुद को मैं बचाऊँ कैसे!

गोरी की होली 

हिय में उमंग भरि, प्रीति की तरँग सँग,
बिन कोऊ रँग, काहे गालन पर लाली है!

काहे सकुचाति, अरु काहे को लजाति, सखि,
पूरे एक बरस के बाद होली आई है!

बरसत हैं रँग, सँग भीजत जो अँग,
भले होत हुड़दंग, गोरी पिय की दुलारी है!

लाल हरे पियरे औ नीले भले होँ रँग,
होली को रँग सब रँगन पै भारी है! !

माँ का आँचल

आ के सँसार मेँ, ममतामयी मूरत पाई,
लुटाने प्यार को, हर वक्त मेरी माँ आई।

गिरना, उठना, या फिर चलना भी सिखाने आई,
पहला अक्षर भी सिखाने, वो फ़क़त ख़ुद आई।

“माँ” पुकारा जो पहली बार था, फ़क़त मैंने,
हुई पागल ख़ुशी से, आँँख थी छलक आई।

नींद आई न, तो वह लोरी सुनाने आई,
आ गई नींद, तो “आँचल” वह ओढ़ाने आई।

माँ के “आँचल” मेँ ही, हर दर्द की दवा पाई,
जब ज़रूरत पड़ी, हर वक़्त मेरी माँ आई।

सर्द इक रात थी, जब माँ को पुकारा मैंने,
सोई लगती थी, पर आवाज़ न कोई आई।

दफ़्फ़तन ख़्वाब मेँ, इक बार वह मेरे आई,
हाथ सिर पर था रखा, आँख भी थी भर आई।

बोली मुझसे, कोई तक़लीफ़ तो नहीं तुझको,
उसके “आँचल” के तले, मैंने शिफ़ा थी पाई।

गर उदासी भी कभी, मन को घेरने आई,
दीप “आशा” का जलाने भी, उसकी याद आई।

माँ की ख़िदमत से ही, यूँ शाद-ए-नसीबी पाई,
दुआ से उसकी ही, है ज़ीस्त मेँ बरकत आई।

चाँदनी रात 

चाँद है, शब है, उनकी याद है, तनहाई है,
फिर कोई टीस, मेरे दिल की उभर आई है।

चाँदनी रात मेँ मिलने का, था क़रार हुआ,
शुक़्रिया उनका, हसीँ शब को जो दीदार हुआ।

चाँद के सँग-सँग, जैसे आफ़ताब आया,
जवाँ नहीं थे जो, उन पर भी गो शबाब आया।

चाँदनी रात में दमका था, वो शफ़्फ़ाफ़ बदन,
सँगमरमर ने ज्योँ पहना, कोई उजला परहन।

हुस्न शाइस्ता-ओ-तहज़ीब-ओ-अलम है शायद,
इक हसीँ ज़ुल्फ़ आ गई थी गो, बन के चिलमन।

देखकर मुझको, जो हया-सी आ गई उनको,
चाँद भी शर्म से, बादल मेँ छुप गया फिर तो।

कलियाँ हैरान थीँ, ये दूसरा है चाँद किधर,
हम भी दीदार करें, कर देँ कुछ औरोँ को ख़बर।

इतने में चाँद फिर, बादल से निकल कर आया,
जिसपे मेरा था हक़, उसने भी सब को भरमाया।

फिर से बरसा है नूर, चाँद का गुलिस्तां पर,
हम भी शादाँ हैं, अपने चाँद की मलाहत पर।

हो के मदमस्त चली, बाद-ए-सबा है फिर से,
बोसा-ए-गुल कोई, शबनम का हो क़तरा जैसे।

घुली है रँग-ओ-बू फ़िज़ा मेँ, गुलोँ की ऐसे,
हुई यकमुश्त बहारेँ होँ, मेहरबाँ जैसे।

यूँ परिन्दे भी उठ गए हैं, कुछ उनीँदे से,
चन्द भँवरे भी जग गए हैँ, कुछ ख़्वाबीदे से।

फूल कुछ रात की रानी के भी, खिले हैं अभी,
मोँगरा भी यहाँ, पीछे कहाँ रहा है कभी।

गुलोँ मेँ हरसिंगार पर, है जवानी आई,
देख ये बेला, चमेली पर भी बहार आई।

थी मुलाकात, पर फिर भी न कोई बात हुई,
हम थे चुप, उन पर हया, बन्दिश-ए-लब थी लाई।

याद भी उनकी जो आई, तो कब तनहा आई,
सँग कई ख़्वाब-ए-हसीँ-अहद-ए-गुजिश्ताँ लाई।

कुछ सितारे भी आ गए हैँ, गवाही देने,
उनके जैसी कोई कली, कभी खिली थी यहाँ।

ज़हन में अब भी तसव्वुर, उन्हीं का है “आशा” ,
उन्हीं के नूर से रौशन है, यूँ मेरा तो जहाँ…!

कल्पना

कहाँ गई वह सरल, सौम्य, मधुरिम, अप्रतिम, अल्हड़ बाला,
सुघड़, बुद्धि से प्रखर, तनिक जिज्ञासु, लिए यौवन आभा।

मेरे उर मेँ दग्ध अभी तक, सतत प्रेम की है ज्वाला,
जैसे घट मेँ तड़प रही हो, बरसों की रक्खी हाला।

ढूँढा कहाँ नहीं उसको, वन उपवन मेँ बागानों मेँ,
खेतों में खलिहानोँ मेँ, झुरमुट की पुष्पलताओं मेँ।

गली मुहल्लों मेँ, घर में, आँगन मेँ और चौबारों मेँ,
मन्दिर मेँ, विद्यालय में, मस्जिद में और गुरुद्वारों मेँ।

मन की “आशा” अभी मिलन की क्षीण नहीं होने दूँगा,
कहने को कुछ शब्द नहीं, पर चाह नहीं मरने दूँगा।

कितने भी होँ भाव हृदय में, मुखमण्डल पर शान्त रहे,
नयन प्रेम की भाषा बन, अधरों पर भार न आने देँ।

ज्ञात नहीं क्या बातें होँगी, जब उनके सम्मुख होँगे,
अपलक उन्हें निहार, तृप्त नयनों को या होने देँगे।

भले हृदय में आज इसे लेकर गहरा स्पंदन हो,
निश्छल मन से किन्तु जभी वह मिलें, सिर्फ़ अभिनन्दन हो।

इन्तज़ार

ख़ुदाया मुझ पर भी इतना-सा तो करम कर दे,
दिल के कोने में उनके थोड़ी-सी जगह दे दे।

ज़हन में उनका तसव्वुर ही महकता है मेरे,
उन्हें भी इस हसीँ अहसास की सनद दे दे।

वक़्त दरिया है, वो तो बह के गुज़र जाएगा,
मेरे लफ़्ज़ों को भी थोड़ी सी रवानी दे दे।

मैंने सुन रक्खे हैं क़िस्से तो वफ़ा कि उनके,
उनके कानों को कोई मेरी कहानी दे दे।

मेरी आँखों का वह सैलाब देखते कब हैँ,
उनकी आँखों में भी थोड़ा-सा तो पानी दे दे।

सहर है दूर अभी, शब भी है क़ुरबत-ए-शबाब,
उनको ख़्वाबों मेँ ही आ जाने की दावत दे दे।

गुल तो हर कोई बिछाता है ख़ैर मक़दम मेँ,
मुझ को आँखों को बिछाने की इजाज़त दे दे।

उनके क़दमों की जो आहट अभी अभी है हुई,
दिल भी धड़के, रहे क़ाबू मेँ, वह ताक़त दे दे!

हैरानी

हसीँ गुलनाज़-ए-मन्ज़र, अभी भी, याद में क्यूँ है,
सिफ़त, अदबो-हुनर उसका, अभी भी ख़्याल मेँ क्यूँ है।

चला जाता हूँ मैं, मानिन्दे-अफ़सूँ, किसकी जानिब अब,
अजब-सा ताल्लुक़, सरगोश सी, आवाज़ से क्यूँ है।

सुरुरे-निकहते-लबरेज़, दिलकश-सी फ़ज़ाँ है क्यूँ,
सबा का शोख़पन, दोशीज़गी भी गुमान पर क्यूँ है।

मुहब होता हूँ मैं ये, किस फ़रिश्ते-नाज़ पर अब भी,
हसीँ पैकर कोई यूँ, क़ातिले-आमाल पर क्यूँ है।

गज़ब ढाने को अबरो-ख़म, लगी काफ़ी नहीं थीं क्या,
तबस्सुम का निशाना, फिर मेरी ही जान पर क्यूँ है।

मयस्सर हैँ जो मुझको तल्ख़ियाँ, सारे ज़माने की,
लबे-शीरीँ-ए-पिनहा, ज़हर ही फिर, प्यास मेँ क्यूँ है।

हैं आमादा कई साए, मुहीबाँ, सँग चलने को,
उरज-तौफ़ीक़, कोई हमसफ़र सा, साथ में क्यूँ है।

ज़रो-दौलत न है मुझपे, न ही हूँ क़स्र-ए-हासिल, पर,
किसी की नज़र, बस मेरे ज़मीरे-माल पर क्यूँ है।

अज़ाबोँ की है बस्ती, कुछ नक़ाबे-रु-ए-पोशीदा,
किसी की जुस्तजू मेँ, दिल मेरा, अरमान पर क्यूँ है।

बराहे-ज़ीस्त, हरसूँ तीरगी थी, इक बियाबाँ सी,
मिरे आगोशे-आमादा, मनव्वर-शाद ये क्यूँ है।

छुपा रक्खा था होठों से भी, अब तक राज़ जो, दिल ने,
मिरी चाहत का चर्चा, अब ज़ुबाँ-ए-आम पर क्यूँ है।

हुए हैराँ जो, आलम बेख़ुदी का, सर हुआ “आशा” ,
अक़ीदा अब भी मुझको, ज़ीनते-नायाब पर क्यूँ है…!

वो शख़्स

पल मेँ सदियों का, कोई यूँ हिसाब कर देगा,
मुझको बेताब, रुख़े-माहताब कर देगा।

ज़हन में अब भी हैं, ताज़ा, शरारतें उसकी,
अपनी हरकत से, मुझे दिल-ए-शाद कर देगा।

भूल बैठा हूँ, कई ग़लतियों को मैँ अपनी,
कुछ पशेमाँ हूँ, मुझे आबो-आब कर देगा।

नज़रे-दहराँ मेँ भले, वह है गुनहगार मगर,
दिखा के आइना, वह शर्मसार कर देगा।

अभी ताज़ा है ज़हन मेरे, तबस्सुम उसका,
सुना के दास्ताँ, वह दीदे-आब कर देगा।

राब्ते कितने सँजोये हैं, दौर-ए-फ़ुरक़त,
कितने रिश्तों को, पल में तार-तार कर देगा।

याद है अब भी मुझे, हुनरे-गुफ़्तगू उसका,
आँखों-आँखों मेँ ही, वो दिल की बात कह देगा।

भले है इन्तज़ार, सहरो-शब, मुझे उसका,
आके यकबारगी, वह बेज़ुबान कर देगा।

अश्क़े-सैलाबे-रवाँ-तूल-ए-हिजराँ “आशा” ,
मिल के इक शख़्स, मुझे लाजवाब कर देगा…!

कान्हा की होली

माखन चोर, भयौ चितचोर, जु बहियाँ पकरि कै, करत बरजोरी,
ग्वालन सँग, जु भरि सब रँग, करति हुड़दंग, जु खेलति होरी।

रँग लगाइ, कपोलन पै, जु चलौ मुसकाइ, हियन पै भारी,
अँग सबै, जु भिजोइ दयै, अब कासे कहौं सखि, लाज की मारी।

स्वाँग रचाइ कै, घूमै कोऊ, मदमस्त छटा, कछु बरनि न जाई,
अवनि के छोर, ते व्यौम तलक, चहुँ ओर अबीरहुँ की छवि छाई।

बाजत मदन मृदंग कहूँ, अरु ढोल की थाप पै, नाचत कोई,
भाँग के रँग माँ, चँग कोऊ, कछु आपुनि तान माँ, गावत कोई।

देवर करत किलोल कहूँ, अरु साली परै कहुँ, जीजा पै भारी,
परब हैं “आशा” कितैक भले, पर होरी की रीति सबन ते है न्यारी…!

फ़लसफ़ा-ए-ज़ीस्त 

बराहे-ज़ीस्त, कुछ मन्ज़र, शदीद आएँगे,
जज़्बे-तौफ़ीक़, कभी दिल से ना जुदा करना।

दौरे-ग़ुरबत-ओ-गर्दिशाँ से, वास्ता हो कभी,
रज़ा ख़ुदा की, मानकर भी तुम बसर करना।

शजर बड़े भी, बहुत से पड़ेंगे राहों मेँ,
छाँव दे-दे कोई, तो उसका शुक़्रिया करना।

दोस्त भी कुछ, ज़रूर दिल तेरा दुखाएँगे,
सिखाएँगे वह बहुत कुछ, ज़रा सबर रखना।

भूला-बिसरा, कोई रफ़ीक़, याद आ जाए,
बिन कोई बात, कभी उस से बात कर लेना।

दिल-ए-पैमाँ कभी, लबरेज़े-ग़मे-यार जो हो,
होठ सीकर के, फ़क़त अश्क़ कुछ बहा लेना।

कई रहबर भी, तुझको आइना दिखाएंगे,
दिखा के आइना, रुख़सत न उन्हें कर देना।

इज़ाफ़े-फ़ासला, इक हुनर-ए-सियासत है,
आ के बातों में, क़ुरबतेँ न तुम मिटा देना।

शानो शौक़त भी लुभाएगी, रक्सो-जलसे भी,
लुत्फ़ लेना, मगर इन्साँ को ना भुला देना।

पुराने राब्तोँ की, यादे-हसीं दिल में रहे,
जो ख़लफ़िशार होँ, फ़ौरन ही तुम मिटा देना।

जलवा-ए-नूर भले, माहो-आफ़ताब-ए-दहर,
दिखे जुगनू जो, तो उससे भी गुफ़्तगू करना।

नातवाँ साज़ गर, जवाब भी दे जाए कभी,
हसीं-सवाले-तराना, ही गुनगुना लेना।

कलम मेँ जान है जब तक, मैं लिखता जाऊँगा,
लगे भला तो भले ना, लगे बुरा जो, तो बता देना।

याद आएँगे कई लोग, नज़्म ये पढ़ कर,
दिल से “आशा” को, कभी पर न तुम भुला देना…!

अप्रिल फूल 

हिय हरषैँ, बरसैं सुमन, मनहीँ मन कछु गात,
गईँ घरैतिन मायकै, खबर सुनी जब आज।

धन्य-धन्य भगवान हूँ, धन्य उनन के काज,
जैसी मेरी सुनि लई, सबकी सुनियौ आज।

पोछा, चौका निपटि कै, हुइ निच्चू सब काज,
चाय केतली भरि लये, बने सूरमा आज।

अलबम पिछली आपुनी, देखन कौ मन माहिँ,
“सेफ़र साइड” , पै तहूँ, अखबारहुँ लौ डारि।

ज्यौँ पन्ना हूँ पलटि कै, “आशा” बइठे “कूल” ,
धम्म कूदि कै आ गई, बोली “अप्रिल फूल”

ख़िराज-ए-अक़ीदत

बिन कह के कुछ भी, सब, कोई बयान कर गया,
चुपके से कोई, मुल्के-जाँ-निसार कर गया।

मौक़ा भी मिल सका कहाँ, तौफ़ीक़-ए-नुमायाँ,
अपनों के सँग ग़ैरों को, अश्क़-बार कर गया।

मुस्तैद थे अवाम-ए-हिफ़ाज़त, को जो फ़क़त,
दहशत-ए-सितमगर था, फिर शिकार कर गया।

वर्दी पर जिनके दाग़ तक, लगा न ज़ीस्त भर,
आतिश-ए-धमाका, सुपुर्द-ए-ख़ाक कर गया।

माटी का चुका क़र्ज़, चला हर जवान था,
हर ख़ास-ओ-आम को वो, क़र्ज़दार कर गया।

कुछ कर के गुज़रने का, था जो हौसला जवाँ,
गुज़रा यूँ, शहादत मेँ अपना नाम कर गया।

लाएगी रँग ज़रूर शहादत, भी किसी दिन,
ख़ूँ दे के अहले-दिल को, ख़ूँ-ए-बार कर गया।

“आशा” है अब तो मुल्क-ए-हुक्मराँ से, बस यही,
बर्बाद हो वो, उनको जो बर्बाद कर गया…!

फुहार

मेघों का यूँ प्यार लुटाना, अच्छा लगता है,
प्रकृति दिखे आतुर स्वागत को, अच्छा लगता है।

चपल, कौँध जाती बिजली, जो रह-रह कर,
टीस उभरती मन में, फिर भी, अच्छा लगता है।

धन्य हुई है धरा भीगकर, रिमझिम, मस्त फुहारों से,
हरा-भरा चहुँदिश, दिखना भी, अच्छा लगता है।

नव कोपल, दिग-दृग अनन्त, अमराई मेँ,
कोयल का यूँ, कूक सुनाना अच्छा लगता है।

मन्द-मन्द मदमस्त पवन, सुरभित पराग,
भ्रमर-वृन्द का गुन्जन करना, अच्छा लगता है।

पुष्पों के कानोँ में, मोहक तितली का,
हौले से कुछ, कह जाना भी, अच्छा लगता है।

मँत्र-मुग्ध करने आया, अद्भुत है नृत्य मयूरों का,
पपिहा का “पियू कहाँ” सुनाना, अच्छा लगता है।

इन्द्रधनुष ने छटा बिखेरी, अम्बर मेँ,
राग-मल्हार, श्रवण करना भी, अच्छा लगता है।

भले दिखे बोझिल, यौवन से, तरुणाई,
उर-पीड़ा का, भार उठाना, अच्छा लगता है।

भले वेदना, मन मेँ उनकी यादों की,
कभी-कभी पर, पीर छुपाना, अच्छा लगता है।

बिन आहट के, स्वप्नों मेँ आकर उनका,
प्रणय-गीत का, सार सुनाना, अच्छा लगता है।

बाट जोहते नयन, मिलन की “आशा” मेँ,
कभी-कभी पर, अश्रु बहाना, अच्छा लगता है…!

स्वागत है नव वर्ष 

मिटे तिमिर, मालिन्य सब,
स्वागत है नव-वर्ष।
नित्य नयी कोपल खिलेँ,
सदा हो मन में हर्ष॥

प्रेम और सद्भाव का,
हर दिल मेँ हो अक्स।
बाधाएँ होँ दूर सब,
प्रगति मार्ग हो प्रशस्त॥

ज्ञान और विज्ञान का,
पूरा हो हर स्वप्न।
नारी का सम्मान हो,
मिटे भावना भ्रष्ट॥

विघटनकारी तत्व सब,
दिखेँ हौसला-पस्त।
देश-प्रेम की भावना,
यत्र, तत्र, सर्वत्र॥

“आशा” और विश्वास का,
प्रतिपल हो उत्कर्ष।
सपरिवार हो आपको,
मँगलमय नव-वर्ष…!

बसन्त है आयो 

कोपल नवल, जु पात नवीनहुँ, पाइ के पादप-वृन्द सिहायौ,
अँबुअन पाँति ठाँढ़ि बौराइ, जु नीम कहइ कटु बानि बिसारौ॥

कहुँ अलिवृन्द फिरैं अलमस्त, जु सोँधि परागन उर भरमायो,
नृत्य करैं तितलिन सँग झूमि, खिलत सब पुष्प जु मन हरषायो।

बिहँसत फूलि कै सरसौँ कहूँ, कहुँ टेसुन रँग मुदित मन म्हारो,
जौबन भार सुँ गेहुँ लजात, चना कछु सोचि मनहिँ मुसकायो।

कूकि कै कोकिल कहति कछू, कहुँ “पीयु कहाँ” हिय अगन लगायो,
नाचि मयूर मलँग, लगै सँग गोपिन, कान्हा है रास रचायो।

जोहत बाट जु बिरहन पाइ, पिया सुख आज बरनि नहिं जायो,
दिवस न चैन, न नीँदहु रैन, कितै दिन बाद हूँ दरसन पायो।

बाजत मदन मृदँग कहूँ, कोउ मिलन को गीत सुनावत प्यारो,
नाचत कोउ मगन ह्वै, झाँझ-मँजीरा बजावत लागत न्यारो।

उड़त अबीर-गुलाल कहूँ, सखि साँच माँ लागि “बसन्त है आयो” ,
मास हैं “आशा” कितैक भले, मधुमास सो मास न दूजहि पायो…!

वैलेंटाइन सँदेश

हरितिमा का हृदय से, स्वागत, सरस सत्कार हो,
आज हो मालिन्य मर्दन, मुदित मन मनुहार हो।

प्रकृति पुलकित, पीत पुष्पों से, प्रकट कुछ कर रही,
प्रेम-पूरित भावना का, हर तरह सम्मान हो।

खिलती कलियों-सा सुवासित, उर नवल उत्साह हो,
आज “वैलेन्टीन डे” पर, प्यार का इज़हार हो।

सुमन सुरभित, सब दिशा, उल्लास का सँचार हो,
सतरंगी बिखरें छटाएँ, विश्व का कल्याण हो।

स्नेह हो सिँचित, घृणा का सर्वथा परित्याग हो,
स्वप्न भारतवासियों के, मिल के सब साकार होँ।

देव-वाणी-सी ऋचाएँ, वेद की गुँजार होँ,
ज्ञान का फैले उजाला, तिमिर का सँहार हो।

ईश देँ सदबुद्धि, समरसता, सकल सदभाव हो,
उर मेँ “आशा” हो प्रबल, पथ प्रगति का विस्तार हो…!

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