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आशुतोष सिंह ‘साक्षी’ की रचनाएँ

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काश! मैं कुत्ता होती

जाड़े में सिमटी हुई,
ठंड से ठिठुरती हुई,
चिथड़ों में लिपटी हुई,
नंगे पाँव फर्श पर बैठी एक बुढ़िया॥

सामने थाली में रखे सूखी रोटी को
तोड़ती अपनी कंपकंपाती हुई उंगलियों से॥

ये सोच रही है कि भूख की अग्नि भी
बूढ़े शरीर को गर्मी नहीं दे पाती॥

सामने जंज़ीर से बँधा तन्मयता से,
बैठा हुआ कुत्ता।
उस बुढ़िया की थाली की तरफ़
नहीं देख रहा है॥

मानो वह कुत्ता उस बुढ़िया को,
मुँह चिढ़ा रहा हो।

उस कुत्ते का मालिक कुत्ते को,
पुचकार रहा है और,
वह बुढ़िया यह सोच रही है कि
काश मैं भी कुत्ता होती,
तो मेरा ये बेटा इस झबड़े कुत्ते की जगह
अपनी इस बूढ़ी माँ को प्यार करता॥

हेलो जेंटलमैन

हैलो जेंटिल मैन! कैसे हो?
बहुत सुन्दर बहुत स्मार्ट लग रहे हो
तुम इन कपड़ों में।

लगता ही नहीं कि तुम अभी अभी
खून कर करके आ रहे हो।
तुमने खून किया है, हाँ खून किया है।

अपने सुविचारों का, इंसानियत का
और आत्मा का।
जिसने तुम्हें कई बार रोका था।
लोगों को भड़काने से,
जिसने तुम्हें मना किया था
औरतों और बच्चों को जलाने से।

मगर तुम नहीं माने, तुम्हारे हाथ नहीं काँपे।
भूल गये तुम ईद की सेंवईयों को।
भुला दिया तुमने दीवाली की मिठाइयों को।

तोड़ दिया प्रेम और सद्भावना का बाँध।
फैला दी फ़िज़ा में कट्टरता, बर्बरता
और नफ़रत का ज़हर।

ओह माफ करना।
वैसे तुम बहुत सुन्दर लग रहे हो
इस सफ़ेद, साफ कुर्ते-पायजामे में।

कितने बेदाग़ हैं तुम्हारे ये कपड़े।
काश! तुम अपनी आत्मा पर लगे
दाग़ को भी साफ कर सकते॥

आदमी

दूर दूर तक नहीं आदमी।
बन गये श्मशान आदमी॥

दूब उगाने की कोशिश में।
बन चुका पाषाण आदमी॥

भौतिकता की चकाचौंध में।
भूला अपनी पहचान आदमी॥

हथियारों के पहाड़ पर बैठा।
ओढ़ रहा है कफ़न आदमी॥

सांपों का विष मुँह में लिए।
बनता मेहरबान आदमी॥

लालच ख़ातिर देखो ‘साक्षी’।
बेच रहा ईमान आदमी॥
दूर दूर तक नहीं आदमी।
बन गये श्मशान आदमी॥

हमारा मन 

मानवीय संवेदनाओं से अछूता हमारा मन।
किसी के कष्ट को देखकर अब,
है क्यों नहीं कचोटता हमारा मन॥

रक्त नहीं अब पानी हमारी नसों में दौड़ता है,
सिक्कों के बोझ से है दबा हुआ हमारा मन॥

सही-ग़लत की परवाह अब किसे है
जब ग़लत करने की गवाही देता हमारा मन॥

अपनी रक्षा के लिए हम कुत्तों को रखते हैं,
है क्यों नहीं वफ़ादार अब हमारा मन॥

क्यों इतनी हाय-हाय जब जाना है खाली हाथ,
फिर भी दूसरों का हक़ छीनना क्यों चाहता हमारा मन॥

पीपल का पेड़

है एक पीपल का पेड़ मेरे गाँव में।
चैन मिलता नहीं अब उसकी छाँव में॥

सूख गये अश्क़ सभी की आँखों के।
चलें हम कैसे चुभे हैं काँटे पाँव में॥

सिक्कों का चश्मा पहनें हैं चिकित्सक।
पैसे नज़र आते हैं उन्हें गरीब के घाव में॥

यह कैसी विडम्बना है देखो ‘साक्षी’।
आने वाला कल भी लगा है दांव में॥

ज़िन्दगी जीने की तमन्ना किये जा रहे थे।
हो गई बहुत देर, अब दिखा छेद नाव में॥

क्योंकि मैं एक औरत हूँ

मेरी मर्जी नहीं पूछी क्योंकि मैं एक औरत हूँ
बस बोझ समझकर विदा किया क्योंकि मैं एक औरत हूँ
पति से पूछ सब काम किया क्योंकि मैं एक औरत हूँ
सब को खिलाकर ही खाया क्योंकि मैं एक औरत हूँ
रखा ससुराल का ख़याल, की परिवार की सेवा क्योंकि मैं एक औरत हूँ
ख़ुद को बस इसमें ही झोंक दिया क्योंकि मैं एक औरत हूँ
प्रताड़ित हुई तिरस्कार सहा क्योंकि मैं एक औरत हूँ
चुप रहकर सब कुछ सहती रही क्योंकि मैं एक औरत हूँ

लेकिन अब मैं बोलूँगी, दर्द अब और मैं नहीं सहूँगी
नहीं मरने दूँगी गर्भ में अपनी बेटी को क्योंकि मैं एक औरत हूँ
क्योंकि मैं एक औरत हूँ

रिश्ते नाते 

लोग आते हैं लोग जाते हैं।
कुछ खोते हैं कुछ पाते हैं॥

हमें दुख है उनके जाने का।
लो लौट के घर नहीं आते हैं॥

जाने वाले तो चले गए।
हम पीछे पछताते हैं॥

उन यादों को उन बातों को।
हम आपस में बतियाते हैं॥

रुक-रुक कर बहते आँसू को।
हम रोक नहीं क्यों पाते हैं॥

कुछ खुले हैं कुछ बँधे हैं।
ये ऐसे रिश्ते-नाते हैं॥

ये ऐसे रिश्ते-नाते हैं॥

मौलिकता 

जब मनुष्य की मौलिकता
बाह्य लौकिकता में फँस जाती है।

और इस मशीनी युग में
हम भी मशीन बन जाते हैं।

और मनाने लगते हैं हम
मदर्स डे और फादर्स डे।

आज प्रेम दर्शाने के लिए,
मौलिक प्रेम की नहीं,
भौतिक प्रेम की आवश्यकता ज़्यादा है।

क्यों नहीं मिल पा रही है
आँतरिक संतुष्टि हमें।

हम अपने मन के भावों के
ज्वार-भाटा के बीच पिस जाते हैं॥

हाई स्टेटस की चट्टानों से टकराकर,
मन की कोमल लहरें वापिस चली जाती हैं॥

और हम अपने आप को,
ठगा हुआ महसूस करते हैं॥

आस का सूरज 

वो दूर डूबता हुआ सूरज
कुछ कहना चाहता है हमसे।

कि सुख दुःख आते जाते हैं
मेरी तरह
फिर भी अपना कर्म तुम,
छोड़ना नहीं हरगिज़
मेरी तरह।

लाख रोकना चाहें तुम्हें
बाधाओं के बादल कई।
चीर कर उनको पार निकल आना तुम
मेरी तरह।

छंट जाएँगे कुछ समय में
ये हताशा के कोहरे
सिर्फ अपने पथ पर
तुम बढ़ते रहना
मेरी तरह।

सूख जाएँगे थोड़ी देर में,
ये निराशा के कीचड़।
बस आशाओं की धूप
देते रहना तुम
मेरी तरह।

वो दूर डूबता हुआ सूरज
कुछ कहना चाहता है हमसे।

कि सुख दुःख आते जाते हैं
मेरी तरह
फिर भी अपना कर्म तुम,
छोड़ना नहीं हरगिज़
मेरी तरह।

तस्वीर समाज की

मैं अपनी पुरानी तस्वीर को
अपने वर्तमान चेहरे से मिला रहा हूँ।
कितना बदल गया हूँ मैं,
मेरी निश्छल आँखें अब कितनी छली हो गई हैं।
मेरे चेहरे की मासूमियत
न जाने कहाँ खो गई है।
आज इतने सालों बाद,
अपनी पुरानी तस्वीर को देखकर
मैं खुद आश्चर्यचकित हूँ।
कितना बदल गया है मेरा मन भी
मेरे चेहरे के साथ।
हमारा समाज भी इतना बदल गया क्यों
मेरे चेहरे के साथ।
क्यों नहीं किसी के दुःख में हम
अब शरीक़ होते हैं।
बदल गये हैं चेहरे सबके
सब अकेले-अकेले ही रोते हैं।
क्यों नहीं पड़ोसी से हम अब
एक चम्मच दही माँग सकते,
क्यों नहीं हम अब अपनों के सामने रो सकते।
क्यों बेवजह आ गये हैं हम इतने सकते में।
दुख तो दूर की बात है,
सुख भी बाँट नहीं सकते।
लौट क्यों नहीं आते हम अपने सुन्दर चेहरे में,
उसी प्यारे मोहल्ले में सद्भावना के पहरे में॥

बिखरे हुए

जीवन के पन्ने सभी बिख़रे हुए।
अदृश्य बेड़ियों से हैं हम जकड़े हुए॥

तोड़कर बेड़ी को हो जाता मुक्त।
मगर अपने लोग ही हैं पकड़े हुए॥

है अपना वजूद दूसरों के हाथ में।
दिल के अरमानों के भी टुकड़े हुए॥

मुस्कुराहटों को चेहरे पर लादे।
हैं सब के चेहरे मगर उतरे हुए॥

हर दिन एक संशय लिए आता।
हैं विश्वास के चमन उजड़े हुए॥

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